Tuesday 17 October 2017

अघोर व अघोरी साधना

शैव संप्रदाय में साधना की एक रहस्यमयी शाखा है अघोरपंथ। अघोरी की कल्पना की जाए तो श्मशान में तंत्र क्रिया करने वाले किसी ऐसे साधु की तस्वीर जेहन में उभरती है जिसकी वेशभूषा डरावनी होती है। अघोरियों के वेश में कोई ढोंगी आपको ठग सकता है लेकिन अघोरियों की पहचान यही है कि वे किसी से कुछ मांगते नहीं है और बड़ी बात यह कि तब ही संसार में दिखाई देते हैं जबकि वे पहले से नियुक्त श्मशान जा रहे हो या वहां से निकल रहे हों। दूसरा वे कुंभ में नजर आते हैं।

अघोरी को कुछ लोग ओघड़ भी कहते हैं। अघोरियों को डरावना या खतरनाक साधु समझा जाता है लेकिन अघोर का अर्थ है अ+घोर यानी जो घोर नहीं हो, डरावना नहीं हो, जो सरल हो, जिसमें कोई भेदभाव नहीं हो। कहते हैं कि सरल बनना बड़ा ही कठिन होता है। सरल बनने के लिए ही अघोरी कठिन रास्ता अपनाते हैं। साधना पूर्ण होने के बाद अघोरी हमेशा- हमेशा के लिए हिमालय में लीन हो जाता है।

जिनसे समाज घृणा करता है अघोरी उन्हें अपनाता है। लोग श्मशान, लाश, मुर्दे के मांस व कफन आदि से घृणा करते हैं लेकिन अघोर इन्हें अपनाता है। अघोर विद्या व्यक्ति को ऐसा बनाती है जिसमें वह अपने-पराए का भाव भूलकर हर व्यक्ति को समान रूप से चाहता है, उसके भले के लिए अपनी विद्या का प्रयोग करता है।

अघोर विद्या सबसे कठिन लेकिन तत्काल फलित होने वाली विद्या है। साधना के पूर्व मोह-माया का त्याग जरूरी है। मूलत: अघोरी उसे कहते हैं जिसके भीतर से अच्छे-बुरे, सुगंध-दुर्गंध, प्रेम-नफरत, ईर्ष्या-मोह जैसे सारे भाव मिट जाएं। सभी तरह के वैराग्य को प्राप्त करने के लिए ये साधु श्मशान में कुछ दिन गुजारने के बाद पुन: हिमालय या जंगल में चले जाते हैं।

अघोरी खाने-पीने में किसी तरह का कोई परहेज नहीं नहीं करता। रोटी मिले तो रोटी खा लें, खीर मिले खीर खा लें, बकरा मिले तो बकरा और मानव शव मिले तो उससे भी परहेज नहीं। यह तो ठीक है अघोरी सड़ते पशु का मांस भी बिना किसी हिचकिचाहट के खा लेता है। अघोरी लोग गाय का मांस छोड़कर बाकी सभी चीजों का भक्षण करते हैं। मानव मल से लेकर मुर्दे का मांस तक।

घोरपंथ में श्मशान साधना का विशेष महत्व है। अघोरी जानना चाहता है कि मौत क्या होती है और वैराग्य क्या होता है। आत्मा मरने के बाद कहां चली जाती है? क्या आत्मा से बात की जा सकती है? ऐसे ढेर सारे प्रश्न है जिसके कारण अघोरी श्मशान में वास करना पसंद करते हैं। मान्यता है कि श्मशान में साधना करना शीघ्र ही फलदायक होता है। श्मशान में साधारण मानव जाता ही नहीं, इसीलिए साधना में विघ्न पड़ने का कोई प्रश्न नहीं।

अघोरी मानते हैं कि जो लोग दुनियादारी और गलत कामों के लिए तंत्र साधना करते हैं अंत में उनका अहित ही होता है। श्मशान में तो शिव का वास है उनकी उपासना हमें मोक्ष की ओर ले जाती है।

अघोरी श्मशान में कौन-सी साधना करते हैं...अघोरी श्मशान घाट में तीन तरह से साधना करते हैं- श्मशान साधना, शव साधना और शिव साधना।

शव साधना : मान्यता है कि इस साधना को करने के बाद मुर्दा बोल उठता है और आपकी इच्छाएं पूरी करता है

शिव साधना में शव के ऊपर पैर रखकर खड़े रहकर साधना की जाती है। बाकी तरीके शव साधना की ही तरह होते हैं। इस साधना का मूल शिव की छाती पर पार्वती द्वारा रखा हुआ पांव है। ऐसी साधनाओं में मुर्दे को प्रसाद के रूप में मांस और मदिरा चढ़ाया जाता है।

शव और शिव साधना के अतिरिक्त तीसरी साधना होती है श्मशान साधना, जिसमें आम परिवारजनों को भी शामिल किया जा सकता है। इस साधना में मुर्दे की जगह शवपीठ की पूजा की जाती है। उस पर गंगा जल चढ़ाया जाता है। यहां प्रसाद के रूप में भी मांस-मंदिरा की जगह मावा चढ़ाया जाता है।

भूत-पिशाचों से बचने के लिए क्या करते हैं अघोरी...

अघोरियों के पास भूतों से बचने के लिए एक खास मंत्र रहता है। साधना के पूर्व अघोरी अगरबत्ती, धूप लगाकर दीपदान करता है और फिर उस मंत्र को जपते हुए वह चिता के और अपने चारों ओर लकीर खींच देता है। फिर तुतई बजाना शुरू करता है और साधना शुरू हो जाती है। ऐसा करके अघोरी अन्य प्रेत-पिशाचों को चिता की आत्मा और खुद को अपनी साधना में विघ्न डालने से रोकता है।

क्यों जिद्दी और गुस्सैल होते हैं अघोरी...
अघोरियों के बारे में मान्यता है कि वे बड़े ही जिद्दी होते हैं। अगर किसी से कुछ मांगेंगे, तो लेकर ही जाएंगे। क्रोधित हो जाएंगे तो अपना तांडव दिखाएंगे या भला-बुरा कहकर उसे शाप देकर चले जाएंगे। एक अघोरी बाबा की आंखें लाल सुर्ख होती हैं लेकिन अघोरी की आंखों में जितना क्रोध दिखाई देता हैं बातों में उतनी ही शीतलता होती है।

अघोरी की वेशभूषा...
कफन के काले वस्त्रों में लिपटे अघोरी बाबा के गले में धातु की बनी नरमुंड की माला लटकी होती है। नरमुंड न हो तो वे प्रतीक रूप में उसी तरह की माला पहनते हैं। हाथ में चिमटा, कमंडल, कान में कुंडल, कमर में कमरबंध और पूरे शरीर पर राख मलकर रहते हैं ये साधु। ये साधु अपने गले में काली ऊन का एक जनेऊ रखते हैं जिसे 'सिले' कहते हैं। गले में एक सींग की नादी रखते हैं। इन दोनों को 'सींगी सेली' कहते है।

अघोरपंथ तांत्रिकों के तीर्थस्थल...
अघोरपंथ के लोग चार स्थानों पर ही श्मशान साधना करते हैं। चार स्थानों के अलावा वे शक्तिपीठों, बगलामुखी, काली और भैरव के मुख्य स्थानों के पास के श्मशान में साधना करते हैं। यदि आपको पता चले कि इन स्थानों को छोड़कर अन्य स्थानों पर भी अघोरी साधना करते हैं तो यह कहना होगा कि वे अन्य श्मशान में साधना नहीं करते बल्कि यात्रा प्रवास के दौरान वे वहां विश्राम करने रुकते होंगे या फिर वे ढोंगी होंगे।

तीन प्रमुख स्थान :

1. तारापीठ का श्मशान : कोलकाता से 180 किलोमीटर दूर स्थित तारापीठ धाम की खासियत यहां का महाश्मशान है। वीरभूम की तारापीठ (शक्तिपीठ) अघोर तांत्रिकों का तीर्थ है। यहां आपको हजारों की संख्या में अघोर तांत्रिक मिल जाएंगे। तंत्र साधना के लिए जानी-मानी जगह है तारापीठ, जहां की आराधना पीठ के निकट स्थित श्मशान में हवन किए बगैर पूरी नहीं मानी जाती। कालीघाट को तांत्रिकों का गढ़ माना जाता है।

कालीघाट में होती हैं अघोर तांत्रिक सिद्धियां

2. कामाख्या पीठ के श्मशान : कामाख्या पीठ भारत का प्रसिद्ध शक्तिपीठ है, जो असम प्रदेश में है। कामाख्या देवी का मंदिर गुवाहाटी रेलवे स्टेशन से 10 किलोमीटर दूर नीलांचल पर्वत पर स्थित है। प्राचीनकाल से सतयुगीन तीर्थ कामाख्या वर्तमान में तंत्र-सिद्धि का सर्वोच्च स्थल है। कालिका पुराण तथा देवीपुराण में 'कामाख्या शक्तिपीठ' को सर्वोत्तम कहा गया है और यह भी तांत्रिकों का गढ़ है।

3. रजरप्पा का श्मशान : रजरप्पा में छिन्नमस्ता देवी का स्थान है। रजरप्पा की छिन्नमस्ता को 52 शक्तिपीठों में शुमार किया जाता है लेकिन जानकारों के अनुसार छिन्नमस्ता 10 महाविद्याओं में एक हैं। उनमें 5 तांत्रिक और 5 वैष्णवी हैं। तांत्रिक महाविद्याओं में कामरूप कामाख्या की षोडशी और तारापीठ की तारा के बाद इनका स्थान आता है।

4. चक्रतीर्थ का श्मशान : मध्यप्रदेश के उज्जैन में चक्रतीर्थ नामक स्थान और गढ़कालिका का स्थान तांत्रिकों का गढ़ माना जाता है। उज्जैन में काल भैरव और विक्रांत भैरव भी तांत्रिकों का मुख्य स्थान माना जाता है।

दस महा विद्या साबर गायत्री मंत्र

दश महाविद्या शाबर मन्त्र :
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सत नमो आदेश । गुरुजी को आदेश । ॐ गुरुजी । ॐ सोऽहं सिद्ध की काया, तीसरा नेत्र त्रिकुटी ठहराया । गगण मण्डल में अनहद बाजा । वहाँ देखा शिवजी बैठा, गुरु हुकम से भितरी बैठा, शुन्य में ध्यान गोरख दिठा । यही ध्यान तपे महेशा, यही ध्यान ब्रह्माजी लाग्या । यही ध्यान विष्णु की माया ! ॐ कैलाश गिरी से, आयी पार्वती देवी, जाकै सन्मुख बैठ गोरक्ष योगी, देवी ने जब किया आदेश । नहीं लिया आदेश, नहीं दिया उपदेश । सती मन में क्रोध समाई, देखु गोरख अपने माही, नौ दरवाजे खुले कपाट, दशवे द्वारे अग्नि प्रजाले, जलने लगी तो पार पछताई । राखी राखी गोरख राखी, मैं हूँ तेरी चेली, संसार सृष्टि की हूँ मैं माई । कहो शिवशंकर स्वामीजी, गोरख योगी कौन है दिठा । यह तो योगी सबमें विरला, तिसका कौन विचार । हम नहीं जानत, अपनी करणी आप ही जानी । गोरख देखे सत्य की दृष्टि । दृष्टि देख कर मन भया उनमन, तब गोरख कली बिच कहाया । हम तो योगी गुरुमुख बोली, सिद्धों का मर्म न जाने कोई । कहो पार्वती देवीजी अपनी शक्ति कौन-कौन समाई । तब सती ने शक्ति की खेल दिखायी, दस महाविद्या की प्रगटली ज्योति ।

प्रथम ज्योति महाकाली प्रगटली ।
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।। महाकाली ।।

ॐ निरंजन निराकार अवगत पुरुष तत सार, तत सार मध्ये ज्योत, ज्योत मध्ये परम ज्योत, परम ज्योत मध्ये उत्पन्न भई माता शम्भु शिवानी काली ओ काली काली महाकाली, कृष्ण वर्णी, शव वहानी, रुद्र की पोषणी, हाथ खप्पर खडग धारी, गले मुण्डमाला हंस मुखी । जिह्वा ज्वाला दन्त काली । मद्यमांस कारी श्मशान की राणी । मांस खाये रक्त-पी-पीवे । भस्मन्ति माई जहाँ पर पाई तहाँ लगाई । सत की नाती धर्म की बेटी इन्द्र की साली काल की काली जोग की जोगीन, नागों की नागीन मन माने तो संग रमाई नहीं तो श्मशान फिरे अकेली चार वीर अष्ट भैरों, घोर काली अघोर काली अजर बजर अमर काली भख जून निर्भय काली बला भख, दुष्ट को भख, काल भख पापी पाखण्डी को भख जती सती को रख, ॐ काली तुम बाला ना वृद्धा, देव ना दानव, नर ना नारी देवीजी तुम तो हो परब्रह्मा काली ।
क्रीं क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं ह्रीं दक्षिणे कालिके क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं ह्रीं स्वाहा ।

द्वितीय ज्योति तारा त्रिकुटा तोतला प्रगटी ।
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।। तारा ।।
ॐ आदि योग अनादि माया जहाँ पर ब्रह्माण्ड उत्पन्न भया । ब्रह्माण्ड समाया आकाश मण्डल तारा त्रिकुटा तोतला माता तीनों बसै ब्रह्म कापलि, जहाँ पर ब्रह्मा विष्णु महेश उत्पत्ति, सूरज मुख तपे चंद मुख अमिरस पीवे, अग्नि मुख जले, आद कुंवारी हाथ खण्डाग गल मुण्ड माल, मुर्दा मार ऊपर खड़ी देवी तारा । नीली काया पीली जटा, काली दन्त में जिह्वा दबाया । घोर तारा अघोर तारा, दूध पूत का भण्डार भरा । पंच मुख करे हां हां ऽऽकारा, डाकिनी शाकिनी भूत पलिता सौ सौ कोस दूर भगाया । चण्डी तारा फिरे ब्रह्माण्डी तुम तो हों तीन लोक की जननी ।
ॐ ह्रीं स्त्रीं फट्, ॐ ऐं ह्रीं स्त्रीं हूँ फट्

तृतीय ज्योति त्रिपुर सुन्दरी प्रगटी ।
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।। षोडशी-त्रिपुर सुन्दरी ।।
ॐ निरञ्जन निराकार अवधू मूल द्वार में बन्ध लगाई पवन पलटे गगन समाई, ज्योति मध्ये ज्योत ले स्थिर हो भई ॐ मध्याः उत्पन्न भई उग्र त्रिपुरा सुन्दरी शक्ति आवो शिवधर बैठो, मन उनमन, बुध सिद्ध चित्त में भया नाद । तीनों एक त्रिपुर सुन्दरी भया प्रकाश । हाथ चाप शर धर एक हाथ अंकुश । त्रिनेत्रा अभय मुद्रा योग भोग की मोक्षदायिनी । इडा पिंगला सुषम्ना देवी नागन जोगन त्रिपुर सुन्दरी । उग्र बाला, रुद्र बाला तीनों ब्रह्मपुरी में भया उजियाला । योगी के घर जोगन बाला, ब्रह्मा विष्णु शिव की माता ।
श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं सौः ॐ ह्रीं श्रीं कएईलह्रीं
हसकहल ह्रीं सकल ह्रीं सोः
ऐं क्लीं ह्रीं श्रीं ।

चतुर्थ ज्योति भुवनेश्वरी प्रगटी ।‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍
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।। भुवनेश्वरी ।।
ॐ आदि ज्योति अनादि ज्योत ज्योत मध्ये परम ज्योत परम ज्योति मध्ये शिव गायत्री भई उत्पन्न, ॐ प्रातः समय उत्पन्न भई देवी भुवनेश्वरी । बाला सुन्दरी कर धर वर पाशांकुश अन्नपूर्णी दूध पूत बल दे बालका ऋद्धि सिद्धि भण्डार भरे, बालकाना बल दे जोगी को अमर काया । चौदह भुवन का राजपाट संभाला कटे रोग योगी का, दुष्ट को मुष्ट, काल कन्टक मार । योगी बनखण्ड वासा, सदा संग रहे भुवनेश्वरी माता ।
ह्रीं

पञ्चम ज्योति छिन्नमस्ता प्रगटी ।
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।। छिन्नमस्ता ।।
सत का धर्म सत की काया, ब्रह्म अग्नि में योग जमाया । काया तपाये जोगी (शिव गोरख) बैठा, नाभ कमल पर छिन्नमस्ता, चन्द सूर में उपजी सुष्मनी देवी, त्रिकुटी महल में फिरे बाला सुन्दरी, तन का मुन्डा हाथ में लिन्हा, दाहिने हाथ में खप्पर धार्या । पी पी पीवे रक्त, बरसे त्रिकुट मस्तक पर अग्नि प्रजाली, श्वेत वर्णी मुक्त केशा कैची धारी । देवी उमा की शक्ति छाया, प्रलयी खाये सृष्टि सारी । चण्डी, चण्डी फिरे ब्रह्माण्डी भख भख बाला भख दुष्ट को मुष्ट जती, सती को रख, योगी घर जोगन बैठी, श्री शम्भुजती गुरु गोरखनाथजी ने भाखी । छिन्नमस्ता जपो जाप, पाप कन्टन्ते आपो आप, जो जोगी करे सुमिरण पाप पुण्य से न्यारा रहे । काल ना खाये ।
श्रीं क्लीं ह्रीं ऐं वज्र-वैरोचनीये हूं हूं फट् स्वाहा ।

षष्टम ज्योति भैरवी प्रगटी ।
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।। भैरवी ।।
ॐ सती भैरवी भैरो काल यम जाने यम भूपाल तीन नेत्र तारा त्रिकुटा, गले में माला मुण्डन की । अभय मुद्रा पीये रुधिर नाशवन्ती ! काला खप्पर हाथ खंजर, कालापीर धर्म धूप खेवन्ते वासना गई सातवें पाताल, सातवें पाताल मध्ये परम-तत्त्व परम-तत्त्व में जोत, जोत में परम जोत, परम जोत में भई उत्पन्न काल-भैरवी, त्रिपुर-भैरवी, सम्पत्त-प्रदा-भैरवी, कौलेश-भैरवी, सिद्धा-भैरवी, विध्वंसिनि-भैरवी, चैतन्य-भैरवी, कामेश्वरी-भैरवी, षटकुटा-भैरवी, नित्या-भैरवी । जपा अजपा गोरक्ष जपन्ती यही मन्त्र मत्स्येन्द्रनाथजी को सदा शिव ने कहायी । ऋद्ध फूरो सिद्ध फूरो सत श्रीशम्भुजती गुरु गोरखनाथजी अनन्त कोट सिद्धा ले उतरेगी काल के पार, भैरवी भैरवी खड़ी जिन शीश पर, दूर हटे काल जंजाल भैरवी मन्त्र बैकुण्ठ वासा । अमर लोक में हुवा निवासा ।
ॐ ह्सैं ह्स्क्ल्रीं ह्स्त्रौः

सप्तम ज्योति धूमावती प्रगटी
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।। धूमावती ।।
ॐ पाताल निरंजन निराकार, आकाश मण्डल धुन्धुकार, आकाश दिशा से कौन आये, कौन रथ कौन असवार, आकाश दिशा से धूमावन्ती आई, काक ध्वजा का रथ अस्वार आई थरै आकाश, विधवा रुप लम्बे हाथ, लम्बी नाक कुटिल नेत्र दुष्टा स्वभाव, डमरु बाजे भद्रकाली, क्लेश कलह कालरात्रि । डंका डंकनी काल किट किटा हास्य करी । जीव रक्षन्ते जीव भक्षन्ते जाजा जीया आकाश तेरा होये । धूमावन्तीपुरी में वास, न होती देवी न देव तहा न होती पूजा न पाती तहा न होती जात न जाती तब आये श्रीशम्भुजती गुरु गोरखनाथ आप भयी अतीत ।
ॐ धूं धूं धूमावती स्वाहा ।

अष्टम ज्योति बगलामुखी प्रगटी ।
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।। बगलामुखी ।।
ॐ सौ सौ दुता समुन्दर टापू, टापू में थापा सिंहासन पिला । संहासन पीले ऊपर कौन बसे । सिंहासन पीला ऊपर बगलामुखी बसे, बगलामुखी के कौन संगी कौन साथी । कच्ची बच्ची काक-कूतिया-स्वान-चिड़िया, ॐ बगला बाला हाथ मुद्-गर मार, शत्रु हृदय पर सवार तिसकी जिह्वा खिच्चै बाला । बगलामुखी मरणी करणी उच्चाटण धरणी, अनन्त कोट सिद्धों ने मानी ॐ बगलामुखी रमे ब्रह्माण्डी मण्डे चन्दसुर फिरे खण्डे खण्डे । बाला बगलामुखी नमो नमस्कार ।
ॐ ह्लीं ब्रह्मास्त्राय विद्महे स्तम्भन-बाणाय धीमहि तन्नो बगला प्रचोदयात् ।

नवम ज्योति मातंगी प्रगटी ।
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।। मातंगी ।।
ॐ शून्य शून्य महाशून्य, महाशून्य में ॐ-कार, ॐ-कार में शक्ति, शक्ति अपन्ते उहज आपो आपना, सुभय में धाम कमल में विश्राम, आसन बैठी, सिंहासन बैठी पूजा पूजो मातंगी बाला, शीश पर अस्वारी उग्र उन्मत्त मुद्राधारी, उद गुग्गल पाण सुपारी, खीरे खाण्डे मद्य-मांसे घृत-कुण्डे सर्वांगधारी । बुन्द मात्रेन कडवा प्याला, मातंगी माता तृप्यन्ते । ॐ मातंगी-सुन्दरी, रुपवन्ती, कामदेवी, धनवन्ती, धनदाती, अन्नपूर्णी अन्नदाती, मातंगी जाप मन्त्र जपे काल का तुम काल को खाये । तिसकी रक्षा शम्भुजती गुरु गोरखनाथजी करे ।
ॐ ह्रीं क्लीं हूं मातंग्यै फट् स्वाहा ।

दसवीं ज्योति कमला प्रगटी ।
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।। कमला ।।
ॐ अ-योनी शंकर ॐ-कार रुप, कमला देवी सती पार्वती का स्वरुप । हाथ में सोने का कलश, मुख से अभय मुद्रा । श्वेत वर्ण सेवा पूजा करे, नारद इन्द्रा । देवी देवत्या ने किया जय ॐ-कार । कमला देवी पूजो केशर पान सुपारी, चकमक चीनी फतरी तिल गुग्गल सहस्र कमलों का किया हवन । कहे गोरख, मन्त्र जपो जाप जपो ऋद्धि सिद्धि की पहचान गंगा गौरजा पार्वती जान । जिसकी तीन लोक में भया मान । कमला देवी के चरण कमल को आदेश ।
ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं श्रीं सिद्ध-लक्ष्म्यै नमः ।

सुनो पार्वती हम मत्स्येन्द्र पूता, आदिनाथ नाती, हम शिव स्वरुप उलटी थापना थापी योगी का योग, दस विद्या शक्ति जानो, जिसका भेद शिव शंकर ही पायो । सिद्ध योग मर्म जो जाने विरला तिसको प्रसन्न भयी महाकालिका । योगी योग नित्य करे प्रातः उसे वरद भुवनेश्वरी माता । सिद्धासन सिद्ध, भया श्मशानी तिसके संग बैठी बगलामुखी । जोगी खड दर्शन को कर जानी, खुल गया ताला ब्रह्माण्ड भैरवी । नाभी स्थाने उडीय्यान बांधी मनीपुर चक्र में बैठी, छिन्नमस्ता रानी । ॐ-कार ध्यान लाग्या त्रिकुटी, प्रगटी तारा बाला सुन्दरी । पाताल जोगन (कुण्डलिनी) गगन को चढ़ी, जहां पर बैठी त्रिपुर सुन्दरी । आलस मोड़े, निद्रा तोड़े तिसकी रक्षा देवी धूमावन्ती करें । हंसा जाये दसवें द्वारे देवी मातंगी का आवागमन खोजे । जो कमला देवी की धूनी चेताये तिसकी ऋद्धि सिद्धि से भण्डार भरे । जो दसविद्या का सुमिरण करे । पाप पुण्य से न्यारा रहे । योग अभ्यास से भये सिद्धा आवागमन निवरते । मन्त्र पढ़े सो नर अमर लोक में जाये । इतना दस महाविद्या मन्त्र जाप सम्पूर्ण भया । अनन्त कोट सिद्धों में, गोदावरी त्र्यम्बक क्षेत्र अनुपान शिला, अचलगढ़ पर्वत पर बैठ श्रीशम्भुजती गुरु गोरखनाथजी ने पढ़ कथ कर सुनाया श्रीनाथजी गुरुजी को आदेश । आदेश ।।
शिव गोरक्ष कल्याण करे

Sunday 17 September 2017

तंत्र

1. तंत्र में शरीर है महत्वपूर्ण : साधारण अर्थ में तंत्र का अंर्थ तन से, मंत्र का अर्थ मन से और यंत्र का अर्थ किसी मशीन या वस्तु से होता है। तंत्र का एक दूसरा अर्थ होता है व्यवस्था। तंत्र मानता है कि हम शरीर में है यह एक वास्तविकता है। भौतिक शरीर ही हमारे सभी कार्यों का एक केंद्र है। अत: इस शरीर को हर तरह से तृप्त और स्वस्थ रखना अत्यंत जरूरी है। इस शरीर की क्षमता को बढ़ाना जरूरी है। इस शरीर से ही अध्यात्म को साधा जा सकता है। योग भी यही कहता है। तंत्र का मांस, मदिरा और संभोग से किसी भी प्रकार का संबंध नहीं है, जो व्यक्ति इस तरह के घोर कर्म में लिप्त है, वह कभी तांत्रिक नहीं बन सकता। तंत्र को इसी तरह के लोगों ने बदनाम कर दिया है। तांत्रिक साधना का मूल उद्देश्य सिद्धि से साक्षात्कार करना है। इसके लिए अंतर्मुखी होकर साधनाएं की जाती हैं।

2.तंत्र के ग्रंथ : तंत्र को मूलत: शैव आगम शास्त्रों से जोड़कर देखा जाता है, लेकिन इसका मूल अथर्ववेद में पाया जाता है। तंत्र शास्त्र 3 भागों में विभक्त है आगम तंत्र, यामल तंत्र और मुख्‍य तंत्र। आगम में शैवागम, रुद्रागम और भैरवागमन प्रमुख है। वाराहीतंत्र के अनुसार जिसमें सृष्टि प्रलय, देवताओं की पूजा, सत्कर्यों के साधन, पुरश्चरण, षट्कर्मसाधन और चार प्रकार के ध्यानयोग का वर्णन हो उसे ‘आगम’ कहते हैं। जिसमें सृष्टितत्त्व, ज्योतिष, नित्य कृत्य, क्रम, सूत्र, वर्णभेद और युगधर्म का वर्णन हो उसे ‘यामल’ कहते हैं। इसी तरह जिसमें सृष्टि, लय, मन्त्र, निर्णय, तीर्थ, आश्रमधर्म, कल्प, ज्योतिषसंस्थान, व्रतकथा, शौच-अशौच, स्त्रीपुरुषलक्षण, राजधर्म, दानधर्म, युगधर्म, व्यवहार तथा आध्यात्मिक नियमों का वर्णन हो, वह ‘मुख्य तंत्र’ कहलाता है। वाराही तंत्र के अनुसार तंत्र के नौ लाख श्लोकों में एक लाख श्लोक भारत में हैं। तंत्र साहित्य विस्मृति के चलते विनाश और उपेक्षा का शिकार हो गया है। अब तंत्र शास्त्र के अनेक ग्रंथ लुप्त हो चुके हैं। वर्तमान में प्राप्त सूचनाओं के अनुसार 199 तंत्र ग्रंथ हैं। तंत्र का विस्तार ईसा पूर्व से तेरहवीं शताब्दी तक बड़े प्रभावशाली रूप में भारत, चीन, तिब्बत, थाईदेश, मंगोलिया, कंबोज आदि देशों में रहा। तंत्र को तिब्बती भाषा में ऋगयुद कहा जाता है। समस्त ऋगयुद 78 भागों में है जिनमें 2640 स्वतंत्र ग्रंथ हैं। इनमें कई ग्रंथ भारतीय तंत्र ग्रंथों का अनुवाद है और कई तिब्बती तपस्वियों द्वारा रचित है।

3.रहस्यमयी विद्याएं : तंत्र में बहुत सारी विद्याएं आती है उसी में एक है गुह्य-विद्या। गुह्य का अर्थ है रहस्य। तंत्र विद्या के माध्‍यम से व्यक्ति अपनी आत्मशक्ति का विकास करके कई तरह की शक्तियों से संपन्न हो सकता है। यही तंत्र का उद्देश्य है। इसी तरह तंत्र से ही सम्मोहन, त्राटक, त्रिकाल, इंद्रजाल, परा, अपरा और प्राण विद्या का जन्म हुआ है। तंत्र से वशीकरण, मोहन, विद्वेषण, उच्चाटन और स्तम्भन क्रियाएं भी की जाती है। इसी तरह मनुष्य से पशु बन जाना, गायब हो जाना, एक साथ 5-5 रूप बना लेना, समुद्र को लांघ जाना, विशाल पर्वतों को उठाना, करोड़ों मील दूर के व्यक्ति को देख लेना व बात कर लेना जैसे अनेक कार्य ये सभी तंत्र की बदौलत ही संभव हैं। तंत्र शास्त्र के मंत्र और पूजा अलग किस्म के होते हैं।

4.तांत्रिक गुरु : तंत्र के प्रथम उपदेशक भगवान शंकर और उसके बाद भगवान दत्तात्रेय हुए हैं। बाद में सिद्ध, योगी, शाक्त और नाथ परंपरा का प्रचलन रहा है। तंत्र साधना के प्रणेता, शिव, दत्तात्रेय के अलावा नारद, परशुराम, पिप्पलादि, वसिष्ठ, सनक, शुक, सन्दन, सनतकुमार, भैरव, भैरवी, काली आदि कई ऋषि मुनि इस साधना के उपासक रहे हैं। ब्रह्मयामल में बहुसंख्यक ऋषियों का नामोल्लेख है, जिसमें शिव ज्ञान के प्रवर्तक थे; उनमें उशना, बृहस्पति, दधीचि, सनत्कुमार, नमुलीश आदि उल्लेख मिलता है। जयद्रथयामल के मंगलाष्टक प्रकरण में तन्त्र प्रवर्तक बहुत से ऋषियों के नाम हैं, जैसे दुर्वासा, सनक, विष्णु, कस्प्य, संवर्त, विश्वामित्र, गालव, गौतम, याज्ञवल्क्य, शातातप, आपस्तम्ब, कात्यायन, भृगु आदि।

5.तंत्र से हथियार :- तंत्र के माध्यम से ही प्राचीनकाल में घातक किस्म के हथियार बनाए जाते थे, जैसे पाशुपतास्त्र, नागपाश, ब्रह्मास्त्र आदि। जिसमें यंत्रों के स्थान पर मानव अंतराल में रहने वाली विद्युत शक्ति को कुछ ऐसी विशेषता संपन्न बनाया जाता है जिससे प्रकृति से सूक्ष्म परमाणु उसी स्थिति में परिणित हो जाते हैं जिसमें कि मनुष्य चाहता है। पदार्थों की रचना, परिवर्तन और विनाश का बड़ा भारी काम बिना किन्हीं यंत्रों की सहायता के तंत्र द्वारा हो सकता है। विज्ञान के इस तंत्र भाग को ‘सावित्री विज्ञान’ तंत्र-साधना, वाममार्ग आदि नामों से पुकारते हैं। तंत्र-शास्त्र में जो पंच प्रकार की साधना बतलाई गई है, उसमें मुद्रा साधन बड़े महत्व का और श्रेष्ठ है। मुद्रा में आसन, प्राणायाम, ध्यान आदि योग की सभी क्रियाओं का समावेश होता है।

👉🏿6.तांत्रिक साधना : तांत्रिक साधना को साधारणतया 3 मार्ग- वाम मार्ग, दक्षिण मार्ग और मध्यम मार्ग कहा गया है। हालांकि यह मुख्यत: दो प्रकार की होती है- एक वाम मार्गी तथा दूसरी दक्षिण मार्गी। वाम मार्गी साधना बेहद कठिन है। वाम मार्गी तंत्र साधना में 6 प्रकार के कर्म बताए गए हैं जिन्हें षट् कर्म कहते हैं। शांति, वक्ष्य, स्तम्भनानि, विद्वेषणोच्चाटने तथा। गोरणों तनिसति षट कर्माणि मणोषणः॥ अर्थात शांति कर्म, वशीकरण, स्तंभन, विद्वेषण, उच्चाटन, मारण ये छ: तांत्रिक षट् कर्म। इसके अलावा नौ प्रयोगों का वर्णन मिलता है:- मारण मोहनं स्तम्भनं विद्वेषोच्चाटनं वशम्। आकर्षण यक्षिणी चारसासनं कर त्रिया तथा॥ अर्थात: मारण, मोहनं, स्तम्भनं, विद्वेषण, उच्चाटन, वशीकरण, आकर्षण, यक्षिणी साधना, रसायन क्रिया तंत्र के ये 9 प्रयोग हैं। रोग कृत्वा गृहादीनां निराण शन्तिर किता। विश्वं जानानां सर्वेषां निधयेत्व मुदीरिताम्॥ पूधृत्तरोध सर्वेषां स्तम्भं समुदाय हृतम्। स्निग्धाना द्वेष जननं मित्र, विद्वेषण मतत॥ प्राणिनाम प्राणं हरपां मरण समुदाहृमत्। जिससे रोग, कुकृत्य और ग्रह आदि की शांति होती है, उसको शांति कर्म कहा जाता है और जिस कर्म से सब प्राणियों को वश में किया जाए, उसको वशीकरण प्रयोग कहते हैं तथा जिससे प्राणियों की प्रवृत्ति रोक दी जाए, उसको स्तम्भन कहते हैं तथा दो प्राणियों की परस्पर प्रीति को छुड़ा देने वाला नाम विद्वेषण है और जिस कर्म से किसी प्राणी को देश आदि से पृथक कर दिया जाए, उसको उच्चाटन प्रयोग कहते हैं तथा जिस कर्म से प्राण हरण किया जाए, उसको मारण कर्म कहते हैं।

7.तंत्र के प्रतीक : त्रिकोण से बनाए गए स्टार के बीच स्वास्तिक या ॐ का चिन्हा, हाथों में लगाई जाने वाली मेहंदी, आंगन द्वारों पर चित्रित की जाने वाली अल्पना, बालक के संध्या काल पैदा होने पर लगाए जाने वाले स्वास्तिक और डलिया की आकृति, दीपावली और अन्य त्योहारों पर सजाई गई रंगोली आदि तंत्र के प्रतीक हैं। हालांकि तंत्र के और भी प्रतीक हैं जैसे योग की कुछ मुद्राएं, क्रियाएं आदि।

8.तांत्रिक मंत्र : मुख्यत: 3 प्रकार के मंत्र होते हैं- 1. वैदिक मंत्र, 2. तांत्रिक मंत्र और 3. शाबर मंत्र। तांत्रिकों के बीज मंत्रों में ह्नीं, क्लीं, श्रीं, ऐं, क्रूं आदि तरह के अक्षरों का उपयोग किया जाता है। जिस भी मंत्र में प्रारंभ में इस तरह के अक्षर होते हैं वे सभी तांत्रिक मंत्र होते हैं। एक अक्षर से पता चलता है कि यह किस देवता का मंत्र है जैसे लक्ष्मी माता के लिये श्रीं का उपयोग करते हैं। काली माता के लिये क्रीं का।

तंत्रिक मंत्रों में भी एकाक्षरी (काली) मंत्र ॐ क्रीं,

तीन अक्षरी काली मंत्र ॐ क्रीं ह्रुं ह्रीं॥,

पांच अक्षरी काली मंत्र ॐ क्रीं ह्रुं ह्रीं हूँ फट्॥,

षडाक्षरी काली मंत्र ॐ क्रीं कालिके स्वाहा॥,

सप्ताक्षरी काली मंत्र ॐ हूँ ह्रीं हूँ फट् स्वाहा॥,

श्री दक्षिणकाली पूर्ण मंत्र ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रुं ह्रुं क्रीं क्रीं क्रीं दक्षिणकालिके क्रीं क्रीं क्रीं ह्रुं ह्रुं ह्रीं ह्रीं॥ या    ॐ ह्रुं ह्रुं क्रीं क्रीं क्रीं ह्रीं ह्रीं दक्षिणकालिके ह्रुं ह्रुं क्रीं क्रीं क्रीं ह्रीं ह्रीं स्वाहा॥

9.तंत्र साधना के देवी और देवता : तंत्र साधना में देवी काली, अष्ट भैरवी, नौ दुर्गा, दस महाविद्या, 64 योगिनी आदि देवियों की साधना की जाती है। इसी तरह देवताओं में बटुक भैरव, काल भैरव, नाग महाराज की साधना की जाती है। उक्त की साधना को छोड़कर जो लोग यक्षिणी, पिशाचिनी, अप्सरा, वीर साधना, गंधर्व साधना, किन्नर साधना, नायक नायिका साधान, डाकिनी-शाकिनी, विद्याधर, सिद्ध, दैत्य, दानव, राक्षस, गुह्मक, भूत, वेताल, अघोर आदि की साधनाएं निषेध है।

10.कैसे करें तांत्रिक साधना : सबसे पहली बात तो यह कि आपक क्यों तंत्र साधना करना चाहते हैं? जब आपका यह ‘क्यों’ स्पष्ट हो जाए तब आप उक्त साधना से संबंधित किताबों का अध्ययन करें। किताबों का अध्ययन करने के बाद आप किसी योग्य तंत्र साधन को खोजे। संभव: यह आपको हिन्दू धर्म के संन्यासी समाज के मुख्‍य 13 अखाड़ों के संन्यासियों में मिल जाएंगे। जब यदि कोई योग्य साधक मिल जाता है तो उसके पास रहकर ही यह साधना सीखें और करें। यदि आप चार किताबें पढ़कर यह साधना करते हैं तो आप सावधान हो जाएं, क्योंकि इससे बुरा परिणाम हो सकता है। यदि आपका उद्येश्य इस साधना के माध्यम से किसी का बुरा करना है तब भी आप सावधान हो जाएंगे क्योंकि इसके परिणाम भी आप ही को भुगतने हो सकते हैं।

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Saturday 16 September 2017

शिव का रहस्य

बरगद के पेड़ के नीचे दक्षिण दिशा की ओर मुख कर बैठे हुए भगवान शिव को दक्षिणमूर्ति कहा जाता है। यह रूप गुरुओं के गुरु के रूप में शिव को दर्शाता है। दक्षिण भारत के कई मंदिरों में बरगद के पेड़ के नीचे दक्षिण दिशा की ओर मुख किये हुए भगवान शिव की मूर्तियों का पाया जाना आम बात है। शिव का यह रूप दक्षिणमूर्ति कहलाता है। यह रूप शिव को गुरुओं के गुरु के रूप में दर्शाता है। दक्षिणमूर्ति कैलाश पर्वत के उपर और ध्रुव तारा के नीचे बैठते हैं। यह उत्तर दिशा में है और अब तक इस स्थान को इस गोल पृथ्वी का केंद्र माना जाता है। वह बरगद के पेड़ की छाया में बैठते हैं। बरगद का पेड़ भारत के साधु परंपराओं के साथ जुड़ा हुआ है और ये तपस्वी भौतिकवादी संसार के गृहस्थ लोगों को ज्ञान प्रदान करते हैं। दक्षिण केंद्रदक्षिण में दक्षिणकली प्रसिद्ध है जो देवी का सबसे भयंकर रूप मानी जाती है। यहां दक्षिण दिशा मृत्यु और परिवर्तन को दर्शाती है। यहां वैतर्नी बहती है। यह नदी जीवित लोगों की भूमि को मृतकों की भूमि से अलग करती है। हिंदू गांवों में दक्षिण दिशा में शमशान भूमि का होना आम बात है। यहां मृतकों के शरीर को भी दक्षिण दिशा की ओर रखा जाता है। शिव के कई रूप हैं लेकिन इस रूप में शिव के गले के चारो ओर एक सर्प लिपटा हुआ है और जटाओं के उपर एक चांद है। उनकी दाहिनी तरफ पुरुष की और बाईं ओर स्त्री की बाली है। यह स्वरूप तीन स्तरों को बतलाता है। पहला पौरुष और स्त्रीत्व रूप, दूसरा मन और भौतिकता और तीसरा नाम और रूपों के संसार के साथ अज्ञात और निराकार दुनिया। दक्षिणमूर्ति का बायां हाथ वरद मुद्रा को दर्शाता है जो दान की मुद्रा है। उनके दाहिने हाथ की मुद्रा में उनकी तर्जनी अंगुली अंगुठे को छूती दिखाई गई है जो ज्ञान या पांडित्य को दर्शाता है। यह मुद्रा उन्हें एक गुरु के रूप में भी दिखलाता है जो ज्ञान देते हैं। उनके दो और हाथ दिखाए गये हैं। उनके संकेत अलग-अलग हैं लेकिन वो सभी पांडित्य को दर्शाते हैं। यह एक ईंधनविहीन ताप की आग है या ध्यान का अभ्यास है, जो ज्ञान को दर्शाता है और उन सभी गांठों को जला देता है जो मन को विस्तृत होने से रोकते हैं। उनकी जटा मे लिपटा सांप ज्ञान की जगमगाहट को दर्शाता है और संसार में लिप्त होने के बजाय यह इसकी उत्पत्ति के गवाहों में से एक है। उनके पास मनकों की एक माला है जिसका उपयोग जाप करने और यादाश्त के लिए किया जाता है। उनके पास कई वाद्ययंत्र और किताबें हैं। उनके दाहिने पैर के नीचे अपस्मार नाम का एक राक्षस है जिसे विकृत यादों का राक्षस माना गया है और जो हमारे मन को अनंतता की ओर विस्तृत होने से रोकता है। शिव अपना बायां पैर अपनी दाहिनी जांघ पर रखते हैं। पारंपरिक रूप से शरीर का बायां हिस्सा प्रकृति को दर्शाता है और दायां हिस्सा मन को। नटराज की मूर्ति के अनुसार शिव अपने दाएं पैर को जमीन पर रखे हुए हैं और उनका दायां पैर या तो हवा में है या दाईं जांघ पर। इस छवि के विपरीत कृष्ण हमेशा अपने बाएं पैर पर आराम करते हैं या दायें पैर को बायें पैर के उपर रखते हैं। कृष्ण भौतिकता का आनंद लेते हैं पर वह इसमें ज्ञान को भी समाहित करते हैं। जब कृष्ण के दोनों पैर जमीन पर होते हैं तो इसका अर्थ है कि वो भौतिकता और मन दोनों को महत्ता देते हैं। शिव भौतिकता के उपर मन को महत्ता देते हैं, इसलिये उनका केवल एक पैर जमीन पर होता है और इस कारण उन्हें एकपद यानि कि एक पैर वाला भगवान कहा जाता है। इस प्रकार सांकेतिक रूप से यह रूप ज्ञान के कई प्रकारों को बतलाता है जैसे कि, भौतिकवाद की उथल-पुथल जो दुख का कारण बनती है और उस विचलित मन को स्थिर करने का ज्ञान। शिव के चरणों में कई संत बैठते हैं। शिव कभी-कभी उनलोगों को वेद और तंत्र का रहस्य बतलाते हैं। यह प्रवचन अगम या पौराणिक मंदिर परंपरा कहलाती है और यह निगम या वैदिक अनुष्ठान परंपरा का पूरक है। यह प्रवचन दक्षिणमूर्ति उपनिषद भी कहलाता है। शिव का यह रूप उत्तर भारत से ज्यादा दक्षिण भारत की परंपराओं में अधिक लोकप्रिय है। कहानी के अनुसार सभी साधू शिव के प्रवचन को सुनने के लिए उत्तर की ओर गये और इस कारण पृथ्वी उनके बोझ से एक ओर झुक गया। धरती को संतुलित करने के लिए शिव ने अपने शिष्य अगस्त्य को दक्षिण की ओर यात्रा करने को कहा। यही कारण है कि अगस्त्य दक्षिण के महान साधुओं में गिने जाते हैं। जिन साधुओं ने प्रवचन सुना, उन्होंने शिव से व्याघ्रपद का दान मांगा ताकि वो आसानी से उनकी पूजा के लिए जंगल से फूल इकठ्ठा कर सकें। पतंजलि, सर्प, नंदी बैल और भृंगी को भी एक तीसरे पैर की आवश्यकता थी ताकि वो एक तिपाई की तरह खड़े हो सकें। हयग्रीव एक ऐसे पशु हैं जिनका सिर घोड़े का है और वो कृष्ण का एक रूप माने जाते हैं। कभी-कभी वो सूका का भी रूप माने जाते हैं जिसका सिर तोते का है और जो व्यास के पुत्र हैं। काल और कालीआदि शंकर ने दक्षिणमूर्ति स्त्रोतम की रचना की जिसमें उन्होंने महसूस किया कि किस प्रकार खामोश दिखने वाला यह युवा शिक्षक अपने ज्ञान से बूढ़े साधुओं को प्रकाशित करता है। शिव ज्ञान का साक्षात रूप हैं। साधुओं के द्वारा नहीं बल्कि स्वयं देवी के द्वारा उनसे प्रश्न पूछे गये। बाद में उन्होंने शिव से शादी कर ली और उन्होंने उन्हें प्रवचन के लिए और अपने ज्ञान को चिंतन के माध्यम से साधुओं के बीच साझा करने के लिए प्रोत्साहित किया। तंत्र में इसी प्रकार यह संवाद दिखाया गया है। अगर वो काल यानि समय हैं तो वो काली हैं जो समय को अपने अधीन रखती हैं। यह वो ही हैं जो शव या शिव में शव बनाती हैं। यह देवी ही हैं जो दक्षिण से हैं, जो भौतिकता और परिवर्तन को मूर्त रूप देती हैं और जवाबों को प्रेरित करती हैं। जवाब केवल बोलकर ही नहीं दिए जाते हैं बल्कि इन्हें नृत्य या गीतों के द्वारा भी दर्शाया जाता है। इसलिये भारतीय शास्त्रीय नृत्य इतना समृद्ध है।.

Sunday 10 September 2017

नाद जनेऊ गायत्री मंत्र



सत नमो आदेश गुरु जी को आदेश | ॐ गुरूजी |
आदि से शुन्य ,शुन्य में ओंकार ,आओ सिद्धो नाद बाँध का करो विचार |
नादे चन्द्रमा ,नादे सूर्य नाद रहा घट पिंड भरपूर |
नाद काया का पेखना ,बिन्द काया की राह |
नादे बिन्दे योगी तीनो एक स्वभाव |
बाजै नाद  भई प्रतीत, आये श्री शम्भुजती गुरु गोरखनाथ अतीत |
नाद बाजै काल भागै ,ज्ञान टोपी गोरक्ष साजै |
डंकनी शङ्कनि टिल्ले बाल गुंथाई ,बाड़े घाटे टल्ल जागै |
सुन सकेसर पीर पटेश्वर नगर कोट महामाई टिल्ला शिवपुरी का स्थान
चार युग में मान मूल चक्र मूल थान |
पढ़ मंत्र योगी बजावै नाद ,छत्तीस भोजन अमृत कर पावै |
बिना मंतर योगी नाद बजावै ,तीन लोक मैं कही ठार नहीं पावै |
जो जाने नाद बिन्द का भेद ,आप ही करता ,आपही देव |
संध्या शिवपुरी का बेला अनंत कोटि सिद्धो का युग युग मेला |
इतना नाद जनेऊ मंत्र सम्पूर्ण भया |
श्री नाथ जी गुरूजी को  आदेश | आदेश | आदेश |

Saturday 9 September 2017

गुगुल धूप गायत्री मंत्र



ॐ नमो आदेश. गुरूजी को आदेश. ॐ गुरूजी. पानी का बूंद, पवनका थम्ब, जहा
उपजा कल्प वृक्ष का कंध।

कल्पवृक्ष वृक्ष को छाया । जिसमे तिल घुसले के किया वास।

धुनी धूपिया अगन चढाया, सिद्ध का मार्ग विरले पाया।
उरध मुख चढ़े अगन मुख जले होम धुप वासना होय ली, l

एकिस ब्रह्मंडा तैतीस करोड़, देवी देव कुन होम धुप वास।
सप्तमे पटल नव्कुली नाग , वसुक कुन होम घृत वास।

श्री नाथाजी की चरण कम पादुका कुन होम धुप वास।
अलील अनद धर्मं राजा धर्मं गुरु देव कुन होम धुप वास।

धरतरी अकास पवन पानी कुन होम धुप वास। चाँद सूरज कूं होम धुप वास ,

तारा ग्रह नक्षत्र कूं होम धुप वास। नवनाथ चौरासी सिद्ध कूं होम धुप वास।
अग्नि मुख धुप पवन मुख वास। वासना वासलो थापना थाप्लो जहाँ धुप तह देव।

जहा देव तह पूजा . अलख निरंजन और न दूजा।
इति मंत्र पढ़ धुप ध्यान करे सो जोगी अमरपुर तारे।

बिना मंत्र धुप ध्यान करे खाय जरे न वाचा फुरे। इतना धुप का मंत्र जप संपूर्ण सही। ।

अनंत कोट सिद्ध मे श्री नाथजी कही, नाथजी गुरूजी कूं आदेश आदेश, , ,