Thursday 27 February 2014

श्रीगुरुमन्त्रका द्वितीय माहात्म्य


ॐ गुरुजी ! पवनपर्वत ऊर्ध्वमुख कुआ सतगुरु आये निरंकार ब्रह्मा आये देखा कौन हाथ पुस्तक ? कौन हाथ माला ? बायें हाथ पुस्तक दाहिने हाथ माला जपो तपो शिवं सोऽहं सुन्दरी बाला | बाला जपे सो बाला होवे | बूढा जपे सो बाला होवे | योगी जपे सो निरोगी होय जपो जपन्त कटन्त पाप | अन्त बेले माई न बाप | गुरु संभालो आपो आप | इतना गुरुमन्त्र सम्पूर्णम् |

श्रीगुरुमन्त्रका माहात्म्य


ॐ गुरुजी ! ओं सोऽहं अलियं कलियं श्रीसुन्दरी बाला |
कौन जपन्ते ओं ? कौन जपन्ते सोऽहं ? कौन जपन्ते अलियं ? कौन जपन्ते कलियं ? कौन जपन्ते सुन्दरी ? कौन जपन्ते बाला ?
ओं जपन्ते निरन्जन निराकार अवगत सरुपी | सोऽहं जपन्ते माई पारवती महादेव ध्यान सरुपी | अलियं जपन्ते ब्रह्मा सरस्वती वेद सरुपी | कलियं जपन्ते धरतीमाता अन्नपूर्णेश्वरि | बाला जपन्ते श्रीशम्भुयति गुरुगोरक्षनाथ शिव सरुपी |
आ ओ सुन्दर आलं पूछे देह कौन कौक योगेश्वरा ? कौन कौन नगेश्वरा ? धाव धाव ईश्वरी ! धाव धाव महेश्वरी ! बायें हाथ पुस्तक | दाहिने हाथ माला | जपो तपो श्रीसुन्दरी गुरुगोरक्ष बाला |इतना बाला बीजमन्त्र सम्पूर्ण भया अनन्तकोटि सिद्धों में बैठकर श्रीशम्भुयति गुरु गोरक्षनाथजी ने नौनाथ चौरासी सिद्धों को पढ़ कथकर सुनाया सिद्धों ! गुरुपीरो ! आदेश आदेश ||

अथ गुरुमन्त्रः


ॐ गुरुजी ! ओं सोऽहं अलियं कलियं तारा त्रिपुरा तोतला |
काहे हाथ पुस्तक ? काहे हाथ माला ?
बायें हाथ पुस्तक दायें हाथ माला |
जपो तपो श्रीसुन्दरी बाला |
रक्षा करै गुरुगोरक्षनाथ बाला |
जीव पिण्डका तूं रखवाला |
नाथजी गुरुजी आदेश आदेश ||

अन्नदेवकी आरती जाप


आरती है अन्नदेव तुम्हारी, जाते रहती गुरु काया हमारी |
आरती है अन्नदेव तुमारीजी || टेक ||
राजा प्रजा जोगी आसनधारी सेनकरत गुरु सेवा तुमारी || १ ||
देवी देवता व्रह्मा व्रह्मचारी, सेनकरत गुरु सेवा तुमारी || २ ||
पीर पेगंबर छत्रछत्रधारी सेनकरत गुरु सेवा तुमारी || ३ ||
भनत गोरषनाथ सुननेजाधारी देवनमे देव अन्न मुरारी
आरती है अन्नदेव तुमारीजी || ४ ||

विश्वरक्षामंत्र जापः


या श्रीः स्वयं सुकृतिनां भवनेश्वलक्ष्मीः
पापात्मनां कृतधियां हृदयेषु बुद्धिः |
श्रद्धा सतां कुलजनप्रभवस्य लज्जा
तां त्वां नताः स्म परिपालय देवि ! विश्वम् ||
सौम्या सौम्यतराशेष सौम्येभ्यस्त्वति सुन्दरी |
परापराणां परमा त्वमेव परमेश्वरी ||
सौम्यानि यानि रूपाणि त्रैलोक्ये विचरन्ति ते |
यानि चात्यर्थघोराणि तै रक्षास्मां स्तथा भुवम् ||

दुःखनाशिनी दुर्गास्त्तोत्रं


ॐ पर्व्रह्मा स्वरूपां च वेड गर्भां जगन्मयीम |
शरण्ये त्वामहं वन्दे दुर्गां दुर्गति नाशिनीम || १ ||
कामाख्यां कामदां श्यामां कामरूपां मनोरमाम |
इश्वरीं त्वामहं वन्दे दुर्गां दुर्गति नाशिनीम ||
त्रिनेत्रां हास्य संयुक्तां सर्वालंकार भूषिताम |
विजयां त्वामहं वन्दे दुर्गां दुर्गति नाशिनीम || ३ ||
व्रह्मादिभिः स्तूयमानां सिद्ध गंधर्व सेविताम |
भवानीं त्वामहं वन्दे दुर्गां दुर्गति नाशिनीम ||
निशुंभ शुंभ मथनीं महिषासुर घातिनीम |
दिव्यरुपामहं वन्दे दुर्गां दुर्गति नाशिनीम || ५ ||
विंशत्यर्धभुजां देवीं शुद्ध कांचन सन्निभाम |
गौरी रुपामहं वन्दे दुर्गां दुर्गति नाशिनीम ||
त्रिशूलं खडगं चक्रं च वाणं शक्तिं परश्वधम |
दधानां त्वामहं वन्दे दुर्गां दुर्गति नाशिनीम || ७ ||
जगन्मयीं महाविद्यां सृष्टिसंहार कारिणीम |
सर्व दवमहं वन्दे दुर्गां दुर्गति नाशिनीम ||
इदं तु कवचं पुण्यं महामंत्रं महाफलम |
यः पठेन्मानवो नित्य मस्मद्भक्ति समन्वितः |
धनधान्यं प्रयच्छामि सकृदावर्त्तनेन तु || ९ ||

गुरु गोरक्षनाथ जी की संध्या आरती


ॐ गुरूजी शिव जय जय गोरक्ष देवा। श्री अवधू हर हर गोरक्ष देवा॥
सुर मुनि जन ध्यावत सुर नर मुनि जन सेवत ।
सिद्ध करे सब सेवा, श्री अवधू संत करे सब सेवा। शिव जय जय गोरक्ष देवा॥ १॥

ॐ गुरूजी योग युगती कर जानत मानत ब्रह्म ज्ञानी ।
श्री अवधू मानत सर्व ज्ञानी।
सिद्ध शिरोमणि रजत संत शिरोमणि साजत।
गोरक्ष गुन ज्ञानी , श्री अवधू गोरक्ष सर्व ज्ञानी । शिव जय जय गोरक्ष देवा॥ 2॥

ॐ गुरूजी ज्ञान ध्यान के धरी गुरु सब के हो हितकारी।
श्री अवधू सब के हो सुखकारी ।
गो इन्द्रियों के रक्षक सर्व इन्द्रियों के पालक।
रखत सुध साडी, श्री अवधू रखत सुध सारी। शिव जय जय गोरक्ष देवा॥ 3॥

ॐ गुर्जी रमते श्रीराम सकल युग माहि चाय है नाही।
श्री अवधू माया है नाही ।
घाट घाट के गोरक्ष व्यापे सर्व घाट श्री नाथ जी विराजत।
सो लक्ष मन माहि श्री अवधू सो लक्ष दिल माहि॥ शिव जय जय गोरक्ष देवा॥ ४॥

ॐ गुरूजी भस्मी गुरु लसत सर्जनी है अंगे।
श्री अवधू जननी है संगे ।
वेड उचारे सो जानत योग विचारे सो मानत ।
योगी गुरु बहुरंगा श्री अवधू बाले गोरक्ष सर्व संगा। शिव जय जय गोरक्ष देवा॥ ५॥

ॐ गुरूजी कंठ विराजत सेली और शृंगी जत मत सुखी बेली ।
श्री अवधू जत सैट सुख बेली ।
भगवा कंथा सोहत- गेरुवा अंचल सोहत ज्ञान रतन थैली ।
श्री अवधू योग युगती झोली। शिव जय जय गोरक्ष देवा॥ ६॥

ॐ गुरूजी कानो में कुंडल राजत साजत रवि चंद्रमा ।
श्री अवधू सोहत मस्तक चंद्रमा ।
बजट शृंगी नादा- गुरु बाजत अनहद नादा -गुरु भाजत दुःख द्वंदा।
श्री अवधू नाशत सर्व संशय । शिव जय जय गोरक्ष देवा॥ ७॥

ॐ गुरु जी निद्रा मरो गुरु कल संहारो -संकट के हो बेरी।
श्री अवधू दुष्टन के हो बेरी।
करो कृपा संतान पर गुरु दया पालो भक्तन शरणागत तुम्हारी । शिव जय जय
गोरक्ष देवा॥ ८॥

ॐ गुरु जी इतनी श्रीनाथ जी की संध्या आरती।
निष् दिन जो गावे - श्री अवधू सर्व दिन रट गावे ।
वरनी राजा रामचंद्र स्वामी गुरु जपे राजा , रामचंद्र योगी ।
मनवांछित फल पावे श्री अवधू सुख संपत्ति फल पावे। शिव जय जय गोरक्ष देवा॥ ९॥

शिव गोरक्ष बावनी ॥


शिव गोरक्ष शुभनाम को रटते शेष महेश॥
सरस्वती पूजन करे वंदन करे गणेश॥
शिव गोरक्ष शुभनाम को रटे जो मन दिन रात॥
आवागमन को भेट के मनवांछित फल पात॥
शिव गोरक्ष शुभनाम से हुए है सिद्ध सुजन॥
नाम प्रभाव से मिट गया लोभ क्रोध अभिमान॥
शिव गोरक्ष शुभनाम से हो जाओ भावः पार॥
कलिकाल में है बड़ा सुंदर खेवन हार॥
शिव गोरक्ष शुभनाम है जिसने लिया चित्तलय ॥
अश्त्ता सिद्धि नवनिधि मिली, अंत में अमर कहे ॥
शिव गोरक्ष शुभनाम में शक्ति अपरम्पार ॥
लेत ही मिट जाट है अन्तर के अन्धकार ॥
शिव गोरक्ष शुभनाम है रटे जो निष् दिन जिव ॥
नश्वर यह तन छोड़ के जिव बनेगा शिव॥
शिव गोरक्ष शुभनाम को मन तू रट ले अघाय
काहे को चंचल भया जैसे पशु हराय॥
शिव गोरक्ष शुभनाम में निष् दिन कर तू वास॥
अशुभ कर्म सब छूट है सत्य का होगा भास॥

शिव गोरक्ष शुभनाम में शक्ति भरी अगाध॥
लेने से ही तर गए नीच कोटि के व्याध ॥
शिव गोरक्ष शुभनाम को जो धरे अन्तर बिच॥
सबसे ऊँचा होत है भले होया वह नीच ॥
शिव गोरक्ष शुभनाम में करे जो नर अति प्रेम ॥
उसको नही करना पड़े पूजा व्रत जप नेम ॥
शिव गोरक्ष शुभनाम को रटे जो बारम्बार
सहजही में हो जायेंगे भावः सिन्धु से पार।
शिव गोरक्ष शुभनाम से सिख लेव अद्वैत।
मेरा तेरा छोड़ दो तजो सका ये द्वैत ॥
शिव गोरक्ष शुभनाम को रत्ना आठो यम् ॥
आख़िर में यह आएगी मोदी तुमको कम
शिव गोरक्ष शुभनाम में शक्ति भरी अथाह॥
रटने वालो को मिला भावः सिन्धु का थाह॥
शिव गोरक्ष शुभनाम को पहिचान जयदेव
यह दुस्सह संसार से तर गए वो तट खेव॥
शिव गोरक्ष शुभनाम को रसना रट तू हमेश॥
वृथा नही बकवाद कर पल पल काहे आदेश॥
शिव गोरक्ष शुभनाम को रतल तू चिट्टा लाया
घोर कलि से बचने का एक यही उपाय ॥
शिव गोरक्ष शुभनाम को मन तू रट दिन रात ॥
झूट प्रपंच को त्याग दे छोड़ जगत की बात॥
शिव गोरक्ष शुभनाम को रसना कर तू याद॥
काहे स्वार्थ में भूल के वृथा करत बद्कवाद॥
शिव गोरक्ष शुभनाम को मन तू रट दिन रैन ॥
कभू न खली जन दे एक भी तेरा बैन॥
शिव गोरक्ष शुभनाम को सुमिरे कोटि संत॥
श्री नाथ कृपा से हो गया जन्म मरण का अंत
शिव गोरक्ष शुभनाम है निर्मल पवन गंग
रटने से रहती है सदा सदा रिद्धि सिद्धि सब संग॥
शिव गोरक्ष शुभनाम है जैसा पूनम चाँद ॥
रटते है निशदिन उन्हें राम कृष्ण गोविन्द ॥
शिव गोरक्ष शुभनाम है जैसा गंगा नीर ॥
रट के उतरे कोटि जन भावः सागर के तीर॥
शिव गोरक्ष शुभनाम में जो जन करते आस
निश्चय वो तो जाट है अलख पुरूष के पास ॥
शिव गोरक्ष शुभनाम है जैसे सुंदर आम ॥
रटने से ही हो गया अमर जगत में नाम ॥
शिव गोरक्ष शुभनाम में जैसे दीप प्रकाश॥
नित रटने से होत है अलख पुरूष का भास ॥
शिव गोरक्ष शुभनाम है उदधि तरन को जहाज ॥
रटने से हो गया है अमर भरतरी राज ॥
शिव गोरक्ष शुभनाम है जैसे सूर्य किरण ॥
रतल जिव तू प्रेम से चाहे जो सिन्धु तरन ॥
शिव गोरक्ष शुभनाम है निर्मल और विशुधा ॥
रटने से शुदा होत है होया जो जिव अशुधा ॥
शिव गोरक्ष शुभनाम है अमर सुधा रस बिन्द॥
पिने से हो गए है अजर अमर गोपीचंद ॥
शिव गोरक्ष शुभनाम है रटे अनेको राज ॥
जरा मरण का भय मिटा सुधरे सबके काज॥
शिव गोरक्ष शुभनाम को रता है पूरण मल ॥
आधी व्याधि मिट गई जन्म मरण गया टल॥
शिव गोरक्ष शुभनाम को रटते चतुर सुजन
अन्तर तिमिर विनाश हो उपजत है शुध्हा ज्ञान ॥
शिव गोरक्ष शुभनाम है सुंदर उज्जवल भान ॥
रटने वालो को कभी होवे नही कुछ हान॥
शिव गोरक्ष शुभनाम को परस पत्थर जान ॥
जिव रूपी इस लोह को करते स्वर्ण समान ॥
शिव गोरक्ष शुभनाम को जानो सुर तरु वर ॥
रटने से मिल जाट है जिव को इच्छित वर ॥
शिव गोरक्ष शुभनाम को रटते कोटिक संत
नाम प्रताप से कट गया चौरासी का फंद ॥
शिव गोरक्ष शुभनाम का बहुत बड़ा है पर्व ॥
जिसको है रटते सदा सुर नर मुनि गन्धर्व ॥
शिव गोरक्ष शुभनाम को रटते श्री हनुमान
भक्तो में हुए अग्रगण्य देवो में मिला मान ॥
शिव गोरक्ष शुभनाम को रटे जो जिव अज्ञान
नाभि प्रताप से होत है निश्चय चतुर सुजान॥
शिव गोरक्ष शुभनाम है जैसे निर्मल जल ॥
प्रेम लगा रटते रहो क्षण क्षण और पल ॥
शिव गोरक्ष शुभनाम है कलि तरन हार ॥
रटने वालो के लिए खुला है मोक्ष का द्वार॥
शिव गोरक्ष शुभनाम है जैसा स्वच्छा आकाश ॥
रटने वालो को बना लेते है निज दास॥

शिव गोरक्ष शुभनाम है अग्ने अपो आप ॥
रटने वालो को सभी जल जाते है पाप ॥
शिव गोरक्ष शुभनाम है अमर सुधारस बिन्दु ॥
पिने से तर जाट है सहज ही में भावः सिन्धु ॥
शिव गोरक्ष शुभनाम की महिमा अपरम्पार ॥
कृपा सिन्धु की बिन्दु को कार्ड भावः से पार ॥
शिव गोरक्ष शुभनाम को बंदन करू हज़ार ॥
कृपा करो त्रिलोक पार करदो भावः से पार ॥
शिव गोरक्ष शुभनाम को प्रेम सहित आदेश ॥
ऐसी कृपा करो प्रभु रहे नही कुछ शेष ॥
शिव गोरक्ष शुभनाम को कोटि करू आदेश॥
करके कृपा मिटाइए जन्म मरण का क्लेश॥

ॐ शिव गोरक्ष अल्लख निरंजन आदेश ।
गोरक्ष बालम गुरु शिष्य पालं शेष हिमालम
शशि खंड भालं ॥
कालस्य कालं जित जन्म जालम वंदे जटालं जग्दाब्जा नालं ॥

सुने सुनावे प्रेमवश पूजे अपने हाथ ।
मन इच्छा सब कामना , पुरे गोरक्षनाथ

गुरु ॐ गुरु ॐ गुरु ॐ गुरु ॐ गुरु ॐ गुरु ॐ
अल्लख ॥ ॥ ॥ ॥ ॥

गोरक्ष गुरु स्तोत्र


गुरु गुनालय परा , परा धी नाथ सुन्दरा , गुरु देवादिका हुनी वरिष्ठ तूची एक साजिरा

गुना वतार तू धरोनिया जगासी तारिसी , सुरा मुनीश्वरा अलभ्य या गतीसी तारिसी ,

जया गुरुत्व बोधिले तयासी कार्य सधिले , भवार्णवासी लंघिले सुविघ्न दुर्गा भंगीले ,

सहा रिपुन्शी जिंकिले निजात्म तत्त्व चिंतिले , परातपराशी पाहिले
प्रकृष्ट दुख साहिले,

गुरु उदार माउली , प्रशांत सौख्य साउली , जया नरसी पाउली , तयासी सिद्धि गावली

गुरु गुरु गुरु गुरु म्हणोनी जो स्मरे नरु , तरोनी मोह सागरु सुखी घडे निरंतरू,

गुरु चिदब्धि चंद्र हा , महत्पदी महेंद्र हा , गुरु प्रताप रुद्र हा ,
गुरु कृपा समुद्र हा ,

गुरु स्वरुप दे स्वता, गुरुची ब्रह्म सर्वथा , गुरु विना महा व्यथा नसे
जनी निवारिता
शिवा हुनी गुरु असे अधिक मला दिसे , नरासी मोक्ष द्यावया गुरु स्वरुप घेतसे
शिव स्वरुप अपुले न मोक्ष देखिले , गुरुत्व सर्व घेतले म्हणोनी कृत्य साधीले ,

GORAKH SANTAK MOCHAN


बाल योगी भये रूप लिए तब, आदिनाथ लियो अवतारों।
ताहि समे सुख सिद्धन को भयो, नाती शिव गोरख नाम उचारो॥
भेष भगवन के करी विनती तब अनुपन शिला पे ज्ञान विचारो।
को नही जानत है जग मे जती गोरखनाथ है नाम तुम्हारो ॥

सत्य युग मे भये कामधेनु गौ तब जती गोरखनाथ को भयो प्रचारों।
आदिनाथ वरदान दियो तब , गौतम ऋषि से शब्द उचारो॥
त्रिम्बक क्षेत्र मे स्थान कियो तब गोरक्ष गुफा का नाम उचारो ।
को नही जानत है जग मे जती गोरखनाथ है नाम तुम्हारो ॥

सत्य वादी भये हरिश्चंद्र शिष्य तब, शुन्य शिखर से भयो जयकारों।
गोदावरी का क्षेत्र पे प्रभु ने , हर हर गंगा शब्द उचारो।
यदि शिव गोरक्ष जाप जपे , शिवयोगी भये परम सुखारो।
को नही जानत है जग मे जती गोरखनाथ है नाम तुम्हारो ॥

अदि शक्ति से संवाद भयो जब , माया मत्सेंद्र नाथ भयो अवतारों।
ताहि समय प्रभु नाथ मत्सेंद्र, सिंहल द्वीप को जाय सुधारो ।
राज्य योग मे ब्रह्म लगायो तब, नाद बंद को भयो प्रचारों।
को नही जानत है जग मे जती गोरखनाथ है नाम तुम्हारो ॥

आन ज्वाला जी किन तपस्या , तब ज्वाला देवी ने शब्द उचारो।
ले जती गोरक्षनाथ को नाम तब, गोरख डिब्बी को नाम पुकारो॥
शिष्य भय जब मोरध्वज राजा ,तब गोरक्षापुर मे जाय सिधारो।
को नही जानत है जग मे जती गोरखनाथ है नाम तुम्हारो ॥

ज्ञान दियो जब नव नाथों को , त्रेता युग को भयो प्रचारों।
योग लियो रामचंद्र जी ने जब, शिव शिव गोरक्ष नाम उचारो ॥
नाथ जी ने वरदान दिया तब, बद्रीनाथ जी नाम पुकारो।
को नही जानत है जग मे जती गोरखनाथ है नाम तुम्हारो ॥

गोरक्ष मढ़ी पे तपस्चर्या किन्ही तब, द्वापर युग को भयो प्रचारों।
कृष्ण जी को उपदेश दियो तब, ऋषि मुनि भये परम सुखारो॥
पाल भूपाल के पालनते शिव , मोल हिमाल भयो उजियारो।
को नही जानत है जग मे जती गोरखनाथ है नाम तुम्हारो ॥

ऋषि मुनि से संवाद भयो जब , युग कलियुग को भयो प्रचारों।
कार्य मे सही किया जब जब राजा भरतुहारी को दुःख निवारो,
ले योग शिष्य भय जब राजा, रानी पिंगला को संकट तारो।
को नही जानत है जग मे जती गोरखनाथ है नाम तुम्हारो ॥

मैनावती रानी ने स्तुति की जब कुवा पे जाके शब्द उचारो।
राजा गोपीचंद शिष्य भयो तब, नाथ जालंधर के संकट तारो। ।
नवनाथ चौरासी सिद्धो मे , भगत पूरण भयो परम सुखारो।
को नही जानत है जग मे जती गोरखनाथ है नाम तुम्हारो ॥

दोहा :- नव नाथो मे नाथ है , आदिनाथ अवतार ।
जती गुरु गोरक्षनाथ जो , पूर्ण ब्रह्म करतार॥
संकट -मोचन नाथ का , सुमरे चित्त विचार ।
जती गुरु गोरक्षनाथ जी मेरा करो निस्तार ॥

अल्लख निरंजन ॥ आदेश ॥
ॐ र्हीम र्हाम रक्ष रक्ष शिव गोरक्ष ॥

श्रीबाला जाप बीजमंत्र


ॐ नमो आदेश गुरूजी कौं, आदेश ॐ गुरूजी -
ॐ सोहं ऐं क्लीं श्री सुन्दरी बाला
काहे हात पुस्तक काहे हात माला |
बायें हात पुस्तक दायें हात माला जपो तपो श्रीसुन्दरी बाला |
जिवपिण्डका तूं रखवाला हंस मंत्र कुलकुण्डली बाला |
बाला जपे सो बाला होय बूढा जपे सो बाला होय ||
घट पिण्डका रखवाला श्रीशंभु जति गुरु गोरख बाला |
उलटंत वाला पलटंत काया सिद्धोंका मारग साधकोंने पाया ||
ॐ गुरूजी, ॐ कौन जपंते सोहं कौन जपंते ऐं कौन जपंते |
क्लीं कौन जपंते श्रीसुन्दरी कौन जपंते बाला कौन जपंते ||
ॐ गुरूजी, ॐ जपंते भूचरनाथ अलख अगौचर अचिंत्यनाथ |
सोहं जपंते गुरु आदिनाथ ध्यान रूप पठन्ते पाठ ||
ऐ जपंते व्रह्माचार वेद रूप जग सरजन हार |
क्लीं जपंते विष्णु देवता तेज रूप राजासन तपता ||
श्रीसुन्दरी पारवती जपन्ती धरती रूप भण्डार भरन्ती |
बाला जपंते गोरख बाला ज्योति रूप घट घट रखवाला ||
जो वालेका जाने भेव आपहि करता आपहि देव |
एक मनो कर जपो जाप अन्तवेले नहि माई बाप ||
गुरु सँभालो आपो आप विगसे ज्ञान नसे सन्ताप |
जहां जोत तहाँ गुरुका ज्ञान गतगंगा मिल धरिये ध्यान ||
घट पिण्डका रखवाला श्रीशंभु जति गुरु गोरख बाला |
जहां बाला तहां धर्मशाला सोनेकी कूची रुपेका ताला ||
जिन सिर ऊपर सहंसर तपई घटका भया प्रकाश |
निगुरा जन सुगुरा भया कटे कोटि अघ राश ||
सुचेत सैन सत गुरु लखाया पडे न पिण्ड विनसे न काया |
सैन शब्द गुरु कन्हें सुनाया अचेत चेतन सचेत आया ||
ध्यान स्वरूप खोलिया ताला पिण्ड व्रह्माण्ड भया उजियाला |
गुरु मंत्र जाप संपूरण भया सुण पारवती माहदेव कह्ना ||
नाथ निरंजन नीराकार बीजमंत्र पाया तत सार |
गगन मण्डल में जय जय जपे कोटि देवता निज सिर तपे ||
त्रिकुटि महल में चमका होत एकोंकार नाथ की जोत |
दशवें द्वार भया प्रकाश बीजमंत्र, निरंजन जोगी के पास ||
ॐ सों सिद्धोंकी माया सत गुरु सैन अगम गति पाया |
बीज मंत्र की शीतल छाया भरे पिण्ड न विनसे काया ||
जो जन धरे बाला का ध्यान उसकी मुस्किल ह्नोय आसान |
ॐ सोहं एकोंकार जपो जाप भव जल उतरो पार ||
व्रह्मा विष्णु धरंते ध्यान बाला बीजमंत्र तत जान |
काशी क्षेत्र धर्म का धाम जहां फूक्या सत गुरने कान ||
ॐ बाला सोहं बाला किस पर बैठ किया प्रति पाला |
ऋद्ध ले आवै सुण्ढ सुण्ढाला हित ले आवै हनुमत बाला ||
जोग ले आवे गोरख बाला जत ले आवे लछमन बाला |
अगन ले आवे सूरज बाला अमृत ले आवे चन्द्रमा बाला ||
बाला वाले का धर ध्यान असंख जग की करणी जान |
मंगला माई जोत जगाई त्रिकुटि महल में सुरती पाई ||
शिव शक्ति मिल वैठे पास बाला सुन्दरी जोत प्रकाश |
शिव कैलास पर थापना थापी व्रह्मा विष्णु भरै जन साखी ||
बाला आया आपहि आप तिसवालेका माइ न बाप |
बाला जपो सुन्न महा सुन्न बाला जपो पुन्न महा पुन्न ||
बाला जपो जोग कर जुक्ति बाला जपो मोक्ष महा मुक्ति |
बाला बीज मंत्र अपार बाला अजपा एकोंकार ||
जो जन करे बाला की सेव ताकौं सूझे त्रिभुवन देव |
जो जन करे बाला की भ्राँत ताको चढे दैत्यके दाँत ||
भरम पडा सो भार उठावै जहाँ जावै तहाँ ठौर न पावै |
धूप दीप ले जोत जगाई तहाँ वैठी श्री त्रिपुरा माई ||
ऋद्ध सिद्ध ले चौक पुराया सुगुरा जन मिल दर्शन पाया |
सेवक जपै मुक्ति कर पावै बीज मंत्र गुरु ज्ञान सुहावै ||
ॐ सोहं सोधन काया गुरु मंत्र गुरु देव बताया |
सव सिद्धनके मुखसे आया सिद्ध वचन निरंजन ध्याया ||
ओवं कारमें सकल पसारा अक्षय जोगि जगतसे न्यारा |
श्री सत गुरु गुरुमंतर दीजै अपना जन अपना कर लीजै ||
जो गुरु लागा सन्मुख काना सो गुरु हरि हर व्रह्मा समाना |
गुरु हमारे हरके जागे अरज करूं सत गुरुके आगे ||
जोत पाट मैदान रचाया सतसे ल्याया धर्मसे विठाया |
कान फूक सर जीवत कीया सो जोगेसर जुग जुग जीया ||
जो जन करे बालाकी आसा सो पावै शिवपुरिका वास |
जपिये भजिये श्रीसुन्दरी बाला आवा गवन मिटे जंजाला ||
जो फल मांगूँ सो फल होय बाला बीज मंत्र है सोय |
गुरु मंत्र संपूरण माला रक्षा करै गुरु गोरख वाला ||
सेवक आया सरणमें धन्या चरणमें शीष |
बालक जान कर कीजिये दयादृष्टि आशीष ||
गुरु हमारे हरके जागे नीवँ नीवँ नावूँ माथ |
वलिहारी गुरुर आपणे जिन दीपक दीना हाथ ||

गोरक्षपंचाक्षर जाप


गोरषनाथ लिंवस्वरूपं गउ गो प्रतिपालनं |
अगोचरं गहर गभीरं गकाराइ न्मो न्मो || १ ||
रहतंच निरालंबं अस्थंभं भवनं त्रियं |
राष राष श्रव भूतानं रकाराइ न्मो न्मो || २ ||
षकार इकयिस व्रह्मांडं षेचरं जगद गुरुं |
षेत्रपालं षडग वंसे षकाराइ न्मो न्मो || ३ ||
नाना सास समो दाइ नाना रूप प्रकासितं |
नाद विंद समो जोति नकाराइ न्मो न्मो || ४ ||
थापितं थल संसारं अलेषं अपारं अगोचरं |
थावरे जंगमे सचिवं थकाराइ न्मो न्मो || ५ ||
गकारं ग्यान संयुक्तं रकारं रूप लाछ्नं |
षकारं इकीस व्रह्मंडं नकारं नादि विंदए || ६ ||
थाकारं थानमानयो थिर थापन थर्पनं |
गोरषनाथ अक्षरं मंत्रं श्रवाधाराइ न्मो न्मो || ७ ||
ॐ गों गोराक्षनाथाय विद्महे शून्यपुत्राय धीमहि तन्नो
गोरक्ष निरंजनः प्रचोदयात् | आदेश आदेश शिवगोरक्ष ||
गोरक्षवालं गुरु शिष्यपालं शेषाहिमालं शशिखण्ड भालम |
कालस्यकालं जितजन्मजालं वन्दे जटालं जगदब्ज नालं ||

रामरक्षामंत्र जाप


वोउं सीस राखै सांइयां श्रवण सिरजन हार |
नैनूं राषै निरहरी नासा अपरं पार || १ ||
मुख रक्षा माधवै कण्ठ रक्षा करतार |
हृदै हरि रक्षा करै नाभी त्रिभवण सार || २ ||
जांघ रक्षा जगदीसकी पीडी पालन हार |
गिर रक्षा गोविन्दकी पगतलि परम उदार || ३ ||
आगै राषै रामजी पीछै राषण हार |
बांम दाहिणै राषिलै कर ग्रही करतार || ४ ||
जम डँक लागै नहीं विघनकालभै दूर |
राम रक्षा जनकी करै वाजै अन हद तूर || ५ ||
कलेजो राषै केसवो जिभ्याकूं जगदीस |
आतमकूं अलष राषै जीवकूं जोतिसरूप || ६ ||
राष राष सरनागति जीवकूं अवकी वार |
साधांकी रक्षा करै श्रीगोरष सतगुरु सिरजन हार || ७ ||

नौनाथरक्षा जाप


ॐ अवधूनाथ गोरष आवे, सिद्ध बाल गुदाई |
घोड़ा चोली आवे, आवे कन्थड़ वरदाई || १ ||
सिध कणेरी पाव आवे, आवे औलिया जालंधर |
अजै पाल गुरुदेव आवे, आवे जोगेसर मछंदर || २ ||
धूँधलीमल आवे, आवे गोपिचन्द निजततगहणा |
नौनाथ आवो सिधां सहत महाराजै !
मुझ रक्षा करणा || ३ ||

आदेश गायत्री जाप


ॐ नम आदेश गुरान्जीकूँ आदेश , ॐ आदेशाय विद्महे |
सोहं आदेशाय धीमहि नन्नो आदेशनाम प्रचोदयात् ||
आदेश नाम गायत्री जाप उठन्ते अनुभवदेवा |
सप्त दीप नव खण्डमें आदेश नामकी सेवा ||
आदेश नाम अनघड़की काया ररंकारमें झंकार समाया |
सोहंकारसे ॐ उपाया वज्र शरीर अमर करी काया ||
आदेश नाम अमृत रसमेवा आद जुगाद करूँ मै सेवा |
आदेश नाम अनघड़जीने भाख्या लख चौरासी पड़ता राख्या ||
आदेश नाम पाखान तराई आदेश नाम जपोरे भाई |
आदेश नाम जपन्ते देवा व्रह्मा विष्णु महेश्वर एवा ||
सिद्ध चौरासी नाथ नव जोगी आवा गमन कदे नहि भोगी |
राजा प्रजा जपै दिन राति दूध पूत घर संपति आति ||
आदेश नाम गायत्री सार जपो भौ उतरो पार |
आदेश नाम गायत्री उत्तम जपतांवार न कीजै जनम ||
इतना आदेश नाम गायत्री जाप सम्पूरणं सही |
अटल दलीचे वैठके श्रीनाथजी गुरुजी ने कही ||
नाथजी गुरुजी को आदेश आदेश ||

शिव गुरु गोरक्षनाथ जी की संध्या आरती


ॐ गुरूजी शिव जय जय गोरक्ष देवा। श्री अवधू हर हर गोरक्ष देवा॥
सुर मुनि जन ध्यावत सुर नर मुनि जन सेवत ।
सिद्ध करे सब सेवा, श्री अवधू संत करे सब सेवा। शिव जय जय गोरक्ष देवा॥ १॥

ॐ गुरूजी योग युगती कर जानत मानत ब्रह्म ज्ञानी ।
श्री अवधू मानत सर्व ज्ञानी।
सिद्ध शिरोमणि रजत संत शिरोमणि साजत।
गोरक्ष गुन ज्ञानी , श्री अवधू गोरक्ष सर्व ज्ञानी । शिव जय जय गोरक्ष देवा॥ 2॥

ॐ गुरूजी ज्ञान ध्यान के धरी गुरु सब के हो हितकारी।
श्री अवधू सब के हो सुखकारी ।
गो इन्द्रियों के रक्षक सर्व इन्द्रियों के पालक।
रखत सुध साडी, श्री अवधू रखत सुध सारी। शिव जय जय गोरक्ष देवा॥ 3॥

ॐ गुर्जी रमते श्रीराम सकल युग माहि चाय है नाही।
श्री अवधू माया है नाही ।
घाट घाट के गोरक्ष व्यापे सर्व घाट श्री नाथ जी विराजत।
सो लक्ष मन माहि श्री अवधू सो लक्ष दिल माहि॥ शिव जय जय गोरक्ष देवा॥ ४॥

ॐ गुरूजी भस्मी गुरु लसत सर्जनी है अंगे।
श्री अवधू जननी है संगे ।
वेड उचारे सो जानत योग विचारे सो मानत ।
योगी गुरु बहुरंगा श्री अवधू बाले गोरक्ष सर्व संगा। शिव जय जय गोरक्ष देवा॥ ५॥

ॐ गुरूजी कंठ विराजत सेली और शृंगी जत मत सुखी बेली ।
श्री अवधू जत सैट सुख बेली ।
भगवा कंथा सोहत- गेरुवा अंचल सोहत ज्ञान रतन थैली ।
श्री अवधू योग युगती झोली। शिव जय जय गोरक्ष देवा॥ ६॥

ॐ गुरूजी कानो में कुंडल राजत साजत रवि चंद्रमा ।
श्री अवधू सोहत मस्तक चंद्रमा ।
बजट शृंगी नादा- गुरु बाजत अनहद नादा -गुरु भाजत दुःख द्वंदा।
श्री अवधू नाशत सर्व संशय । शिव जय जय गोरक्ष देवा॥ ७॥

ॐ गुरु जी निद्रा मरो गुरु कल संहारो -संकट के हो बेरी।
श्री अवधू दुष्टन के हो बेरी।
करो कृपा संतान पर गुरु दया पालो भक्तन शरणागत तुम्हारी । शिव जय जय
गोरक्ष देवा॥ ८॥

ॐ गुरु जी इतनी श्रीनाथ जी की संध्या आरती।
निष् दिन जो गावे - श्री अवधू सर्व दिन रट गावे ।
वरनी राजा रामचंद्र स्वामी गुरु जपे राजा , रामचंद्र योगी ।
मनवांछित फल पावे श्री अवधू सुख संपत्ति फल पावे। शिव जय जय गोरक्ष देवा॥ ९॥

शिव गुरु गोरक्षनाथ जी की संध्या आरती


ॐ गुरूजी शिव जय जय गोरक्ष देवा। श्री अवधू हर हर गोरक्ष देवा॥
सुर मुनि जन ध्यावत सुर नर मुनि जन सेवत ।
सिद्ध करे सब सेवा, श्री अवधू संत करे सब सेवा। शिव जय जय गोरक्ष देवा॥ १॥

ॐ गुरूजी योग युगती कर जानत मानत ब्रह्म ज्ञानी ।
श्री अवधू मानत सर्व ज्ञानी।
सिद्ध शिरोमणि रजत संत शिरोमणि साजत।
गोरक्ष गुन ज्ञानी , श्री अवधू गोरक्ष सर्व ज्ञानी । शिव जय जय गोरक्ष देवा॥ 2॥

ॐ गुरूजी ज्ञान ध्यान के धरी गुरु सब के हो हितकारी।
श्री अवधू सब के हो सुखकारी ।
गो इन्द्रियों के रक्षक सर्व इन्द्रियों के पालक।
रखत सुध साडी, श्री अवधू रखत सुध सारी। शिव जय जय गोरक्ष देवा॥ 3॥

ॐ गुर्जी रमते श्रीराम सकल युग माहि चाय है नाही।
श्री अवधू माया है नाही ।
घाट घाट के गोरक्ष व्यापे सर्व घाट श्री नाथ जी विराजत।
सो लक्ष मन माहि श्री अवधू सो लक्ष दिल माहि॥ शिव जय जय गोरक्ष देवा॥ ४॥

ॐ गुरूजी भस्मी गुरु लसत सर्जनी है अंगे।
श्री अवधू जननी है संगे ।
वेड उचारे सो जानत योग विचारे सो मानत ।
योगी गुरु बहुरंगा श्री अवधू बाले गोरक्ष सर्व संगा। शिव जय जय गोरक्ष देवा॥ ५॥

ॐ गुरूजी कंठ विराजत सेली और शृंगी जत मत सुखी बेली ।
श्री अवधू जत सैट सुख बेली ।
भगवा कंथा सोहत- गेरुवा अंचल सोहत ज्ञान रतन थैली ।
श्री अवधू योग युगती झोली। शिव जय जय गोरक्ष देवा॥ ६॥

ॐ गुरूजी कानो में कुंडल राजत साजत रवि चंद्रमा ।
श्री अवधू सोहत मस्तक चंद्रमा ।
बजट शृंगी नादा- गुरु बाजत अनहद नादा -गुरु भाजत दुःख द्वंदा।
श्री अवधू नाशत सर्व संशय । शिव जय जय गोरक्ष देवा॥ ७॥

ॐ गुरु जी निद्रा मरो गुरु कल संहारो -संकट के हो बेरी।
श्री अवधू दुष्टन के हो बेरी।
करो कृपा संतान पर गुरु दया पालो भक्तन शरणागत तुम्हारी । शिव जय जय
गोरक्ष देवा॥ ८॥

ॐ गुरु जी इतनी श्रीनाथ जी की संध्या आरती।
निष् दिन जो गावे - श्री अवधू सर्व दिन रट गावे ।
वरनी राजा रामचंद्र स्वामी गुरु जपे राजा , रामचंद्र योगी ।
मनवांछित फल पावे श्री अवधू सुख संपत्ति फल पावे। शिव जय जय गोरक्ष देवा॥ ९॥

शिव गोरक्ष बावनी ॥


शिव गोरक्ष शुभनाम को रटते शेष महेश॥
सरस्वती पूजन करे वंदन करे गणेश॥
शिव गोरक्ष शुभनाम को रटे जो मन दिन रात॥
आवागमन को भेट के मनवांछित फल पात॥
शिव गोरक्ष शुभनाम से हुए है सिद्ध सुजन॥
नाम प्रभाव से मिट गया लोभ क्रोध अभिमान॥
शिव गोरक्ष शुभनाम से हो जाओ भावः पार॥
कलिकाल में है बड़ा सुंदर खेवन हार॥
शिव गोरक्ष शुभनाम है जिसने लिया चित्तलय ॥
अश्त्ता सिद्धि नवनिधि मिली, अंत में अमर कहे ॥
शिव गोरक्ष शुभनाम में शक्ति अपरम्पार ॥
लेत ही मिट जाट है अन्तर के अन्धकार ॥
शिव गोरक्ष शुभनाम है रटे जो निष् दिन जिव ॥
नश्वर यह तन छोड़ के जिव बनेगा शिव॥
शिव गोरक्ष शुभनाम को मन तू रट ले अघाय
काहे को चंचल भया जैसे पशु हराय॥
शिव गोरक्ष शुभनाम में निष् दिन कर तू वास॥
अशुभ कर्म सब छूट है सत्य का होगा भास॥

शिव गोरक्ष शुभनाम में शक्ति भरी अगाध॥
लेने से ही तर गए नीच कोटि के व्याध ॥
शिव गोरक्ष शुभनाम को जो धरे अन्तर बिच॥
सबसे ऊँचा होत है भले होया वह नीच ॥
शिव गोरक्ष शुभनाम में करे जो नर अति प्रेम ॥
उसको नही करना पड़े पूजा व्रत जप नेम ॥
शिव गोरक्ष शुभनाम को रटे जो बारम्बार
सहजही में हो जायेंगे भावः सिन्धु से पार।
शिव गोरक्ष शुभनाम से सिख लेव अद्वैत।
मेरा तेरा छोड़ दो तजो सका ये द्वैत ॥
शिव गोरक्ष शुभनाम को रत्ना आठो यम् ॥
आख़िर में यह आएगी मोदी तुमको कम
शिव गोरक्ष शुभनाम में शक्ति भरी अथाह॥
रटने वालो को मिला भावः सिन्धु का थाह॥
शिव गोरक्ष शुभनाम को पहिचान जयदेव
यह दुस्सह संसार से तर गए वो तट खेव॥
शिव गोरक्ष शुभनाम को रसना रट तू हमेश॥
वृथा नही बकवाद कर पल पल काहे आदेश॥
शिव गोरक्ष शुभनाम को रतल तू चिट्टा लाया
घोर कलि से बचने का एक यही उपाय ॥
शिव गोरक्ष शुभनाम को मन तू रट दिन रात ॥
झूट प्रपंच को त्याग दे छोड़ जगत की बात॥
शिव गोरक्ष शुभनाम को रसना कर तू याद॥
काहे स्वार्थ में भूल के वृथा करत बद्कवाद॥
शिव गोरक्ष शुभनाम को मन तू रट दिन रैन ॥
कभू न खली जन दे एक भी तेरा बैन॥
शिव गोरक्ष शुभनाम को सुमिरे कोटि संत॥
श्री नाथ कृपा से हो गया जन्म मरण का अंत
शिव गोरक्ष शुभनाम है निर्मल पवन गंग
रटने से रहती है सदा सदा रिद्धि सिद्धि सब संग॥
शिव गोरक्ष शुभनाम है जैसा पूनम चाँद ॥
रटते है निशदिन उन्हें राम कृष्ण गोविन्द ॥
शिव गोरक्ष शुभनाम है जैसा गंगा नीर ॥
रट के उतरे कोटि जन भावः सागर के तीर॥
शिव गोरक्ष शुभनाम में जो जन करते आस
निश्चय वो तो जाट है अलख पुरूष के पास ॥
शिव गोरक्ष शुभनाम है जैसे सुंदर आम ॥
रटने से ही हो गया अमर जगत में नाम ॥
शिव गोरक्ष शुभनाम में जैसे दीप प्रकाश॥
नित रटने से होत है अलख पुरूष का भास ॥
शिव गोरक्ष शुभनाम है उदधि तरन को जहाज ॥
रटने से हो गया है अमर भरतरी राज ॥
शिव गोरक्ष शुभनाम है जैसे सूर्य किरण ॥
रतल जिव तू प्रेम से चाहे जो सिन्धु तरन ॥
शिव गोरक्ष शुभनाम है निर्मल और विशुधा ॥
रटने से शुदा होत है होया जो जिव अशुधा ॥
शिव गोरक्ष शुभनाम है अमर सुधा रस बिन्द॥
पिने से हो गए है अजर अमर गोपीचंद ॥
शिव गोरक्ष शुभनाम है रटे अनेको राज ॥
जरा मरण का भय मिटा सुधरे सबके काज॥
शिव गोरक्ष शुभनाम को रता है पूरण मल ॥
आधी व्याधि मिट गई जन्म मरण गया टल॥
शिव गोरक्ष शुभनाम को रटते चतुर सुजन
अन्तर तिमिर विनाश हो उपजत है शुध्हा ज्ञान ॥
शिव गोरक्ष शुभनाम है सुंदर उज्जवल भान ॥
रटने वालो को कभी होवे नही कुछ हान॥
शिव गोरक्ष शुभनाम को परस पत्थर जान ॥
जिव रूपी इस लोह को करते स्वर्ण समान ॥
शिव गोरक्ष शुभनाम को जानो सुर तरु वर ॥
रटने से मिल जाट है जिव को इच्छित वर ॥
शिव गोरक्ष शुभनाम को रटते कोटिक संत
नाम प्रताप से कट गया चौरासी का फंद ॥
शिव गोरक्ष शुभनाम का बहुत बड़ा है पर्व ॥
जिसको है रटते सदा सुर नर मुनि गन्धर्व ॥
शिव गोरक्ष शुभनाम को रटते श्री हनुमान
भक्तो में हुए अग्रगण्य देवो में मिला मान ॥
शिव गोरक्ष शुभनाम को रटे जो जिव अज्ञान
नाभि प्रताप से होत है निश्चय चतुर सुजान॥
शिव गोरक्ष शुभनाम है जैसे निर्मल जल ॥
प्रेम लगा रटते रहो क्षण क्षण और पल ॥
शिव गोरक्ष शुभनाम है कलि तरन हार ॥
रटने वालो के लिए खुला है मोक्ष का द्वार॥
शिव गोरक्ष शुभनाम है जैसा स्वच्छा आकाश ॥
रटने वालो को बना लेते है निज दास॥

शिव गोरक्ष शुभनाम है अग्ने अपो आप ॥
रटने वालो को सभी जल जाते है पाप ॥
शिव गोरक्ष शुभनाम है अमर सुधारस बिन्दु ॥
पिने से तर जाट है सहज ही में भावः सिन्धु ॥
शिव गोरक्ष शुभनाम की महिमा अपरम्पार ॥
कृपा सिन्धु की बिन्दु को कार्ड भावः से पार ॥
शिव गोरक्ष शुभनाम को बंदन करू हज़ार ॥
कृपा करो त्रिलोक पार करदो भावः से पार ॥
शिव गोरक्ष शुभनाम को प्रेम सहित आदेश ॥
ऐसी कृपा करो प्रभु रहे नही कुछ शेष ॥
शिव गोरक्ष शुभनाम को कोटि करू आदेश॥
करके कृपा मिटाइए जन्म मरण का क्लेश॥

ॐ शिव गोरक्ष अल्लख निरंजन आदेश ।
गोरक्ष बालम गुरु शिष्य पालं शेष हिमालम
शशि खंड भालं ॥
कालस्य कालं जित जन्म जालम वंदे जटालं जग्दाब्जा नालं ॥

सुने सुनावे प्रेमवश पूजे अपने हाथ ।
मन इच्छा सब कामना , पुरे गोरक्षनाथ

गुरु ॐ गुरु ॐ गुरु ॐ गुरु ॐ गुरु ॐ गुरु ॐ
अल्लख ॥ ॥ ॥ ॥ ॥

ज्योति


प्रथम ज्योति महाकाली
(महाकाली)
ॐ निरन्जन निराकार अवगत पुरुष तत सार, तत सार मध्ये ज्योत ज्योत मध्ये परम ज्योत, परम ज्योत मध्ये उत्पन्न भई, माता शम्भु शिवानी काली, ओ काली काली महाकाली, कृष्ण वर्णी, शव वाहनी, रुद्र की पोषणी, हाथ खप्पर खडंग धारी, गले मुण्डमाल हंस मुखी | जिह्वा ज्वाला दन्त काली | मद्य मांस कारी श्मशान की रानी | मांस खाये रक्त - पी - पावे | भस्मन्ति माई जहां पर पाई तहां लगाई | सत की नाती धर्म की बेटी इन्द्र की साली काल की काली जोग की जोगिन, नागों की नागिन मन माने तो संग रमाई नहीं तो श्मशान फिरे अकेली ४ वीर अष्ट भैरी, घोर काली अघोर काली अजर बजर अमर काली भख जून निर्भय काली बला भख, दुष्ट को भख, काल भख पापी पाखण्डी को भख जती सती को रख, ओं काली तुम बाला ना वृद्धा, देव न दानव, नर या नारी देवीजी तुम तो हो परब्रह्मा काली |
क्रीं क्रीं क्रीं हूँ हूँ ह्रीं ह्रीं दक्षिणे हूँ हूँ ह्रीं ह्रीं क्रीं क्रीं क्रीं स्वाहा,
द्वितीय ज्योति तारा त्रिकुटा तोतला प्रगटी |
(तारा)
ॐ आदि योग अनादि माया जहां पर ब्रह्माण्ड उत्पन्न भया | ब्रह्माण्ड समाया आकाश मण्डल तारा त्रिकुटा तोतला माता तीनों बसै ब्रह्म कपालि, जहां पर ब्रह्मा विष्णु महेश उत्पत्ति, सूरज मुख तपे चंद्र मुख अमिरस पीवे, अग्नि मुख जले, आद कुंवारी हाथ खङग गल मुण्ड माल, मुर्दा मार ऊपर खड़ी देवी तारा | नीली काया पीली जटा, काली दन्त जिह्वा दबाया | घोर तारा अघोर तारा, दूध पूत का भण्डार भरा | पंच मुख करे हा हा ऽ:ऽ:कारा, डांकनी शाकिनी भूत पलिता सौ सौ कोस दूर भगाया | चंडी तारा फिरे ब्रह्मांडी तुम तो हों तीन लोक की जननी |
ॐ ह्रीं श्रीं फट्, ओं ऐं ह्रीं श्रीं हूं फट् |
तृतीय ज्योति त्रिपुर सुन्दरी प्रगटी |
(षोडशी - त्रिपुर सुन्दरी)
ॐ निरन्जन निराकार अवधू मूल द्वार में बन्ध लगाई पवन पलटे गगन समाई, ज्योति मध्ये ज्योत ले स्थिर हो भई ॐ मध्या: उत्पन्न भई उग्र त्रिपुरा सुन्दरी शक्ति आवो शिवघर बैठो, मन उनमन, बुध सिद्ध चित्त में भया नाद | तीनों एक त्रिपुर सुन्दरी भया प्रकाश | हाथ चाप शर धर एक हाथ अंकुश | त्रिनेत्रा अभय मुद्रा योग भोग की मोक्षदायिनी | इडा पिंगला सुषुम्ना देवी नागन जोगन त्रिपुर सुन्दरी | उग्र बाला, रुद्र बाला तीनों ब्रह्मपुरी में भया उजियाला | योगी के घर जोगन बाला, ब्रह्मा विष्णु शिव की माता |
श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं सौं ह्रीं श्रीं कं एईल
ह्रीं हंस कहल ह्रीं सकल ह्रीं सो:
ऐं क्लीं ह्रीं श्रीं
चतुर्थ ज्योति भुवनेश्वरी प्रगटी |
(भुवनेश्वरी)
ॐ आदि ज्योत आनादि ज्योत, ज्योत मध्ये परम ज्योत - परम ज्योत मध्ये शिव गायत्री भई उत्पन्न, ॐ प्रात: समय उत्पन्न भई देवी भुवनेश्वरी | बाला सुन्दरी कर धर वर पाशांकुश अन्न्पुर्णी दुधपूत बल दे बालका ऋद्धि सिद्धि भण्डार भरे, बालकाना बल दे जोगी को अमर काया | १४ भुवन का राजपाट संभाला कटे रोग योगी का, दुष्ट को मुष्ट, काल कन्टक मार | योगी बनखण्ड वासा, सदा संग रहे भुवनेश्वरी माता |
ह्रीं
पंचम ज्योति छिन्नमस्ता प्रगटी |
(छिन्नमस्ता)
ॐ सत का धर्म सत की काया, ब्रह्म अग्नि में योग जमाया | काया तपाये जोगी (शिव गोरख) बैठा, नाभ कमल पर छिन्नमस्ता, चन्द्र सूर में उपजी सुषुम्नी देवी, त्रिकुटी महल में फिरे बाला सुन्दरी, तन का मुन्डा हाथ में लीन्हा, दाहिने हाथ में खप्पर धार्या | पी पी पीवे रक्त, बरसे त्रिकुट मस्तक पर अग्नि प्रजाली, श्वेत वर्णी मुक्त केशा कैची धारी | देवी उमा की शक्ति छाया, प्रलयी खाये सृष्टि सारी | चण्डी, चण्डी फिरे ब्रह्माण्डी भख भख बाला भख दुष्ट को मुष्ठ जाती, सती को रख, योगी घर जोगन बैठी, श्री शम्भुजती गोरखनाथ जी ने भाखी | छिन्नमस्ता जपो जाप, पाप कन्ट्न्ते आपो आप जो जोगी करे सुमिरण पाप पुण्य से न्यारा रहे | काल ना खाये |
श्रीं क्लीं ह्रीं ऐं वज्र वैरो चनीये हूँ हूँ फट् स्वाह: |

षष्टम् ज्योति भैरवी प्रगटी |
(भैरवी)
ॐ सती भैरवी भैरो काल यम जाने यम भूपाल तीन नेत्र तारा त्रिकुटी, गले में माला मुण्डन की | अभय मुद्रा पीये रुधिर नाशवन्ती ! काला खप्पर हाथ खन्जर, कालापीर धर्म धूप खेवन्ते वासना गई सातवे पाताल, सातवे पाताल मध्ये परमतत्व परमतत्व में जोत, जोत में परम जोत, परम जोत में भई उत्पन्न काल भैरवी, त्रिपुर भैरवी, समपत प्रदा भैरवी, कैलेश भैरवी, सिद्धा भैरवी, विध्वंसिनि भैरवी, चैतन्य भैरवी, कामेश्वरी भैरवी, षटकुटा भैरवी, नित्या भैरवी | जपा अजपा गोरक्ष जपन्ती यही मंत्र मत्स्येन्द्रनाथ जी को सदा शिव ने कहायी | ऋद्ध फूरो सिद्ध फूरो सत श्री शम्भुजती गुरु गोरक्षनाथ जी अनन्त कोटि सिद्धा ले उतरेगी काल के पार, भैरवी भैरवी खड़ी जिन शीश पर, दूर हाटे काल जन्जाल भैरवी अमंत्र बैकुण्ठ वासा | अमर लोक में हुवा निवासा |
"ॐ हस्त्रो हस्कलरो हस्त्रो:" |
सप्तम ज्योति धूमावती प्रगटी |
(धूमावती)
ॐ पाताल निरन्जन निराकार, आकाश मण्डल धुन्धुकार, आकाश दिशा से कौन आई, कौन रथ कौन असवार, आकाश दिशा से धूमावंती आई, काक ध्वजा का रथ अस्वार थरै धरत्री थरै आकाश, विधवा रुप लम्बे हाथ, लम्बी नाक कुटिल नेत्र दुष्टा स्वभाव, डमरु बाजे भद्रकाली, क्लेश कलह कालरात्रि | डंका डंकनी काल किट किटा हास्य करी | जीव रक्षन्ते जीव भक्षन्ते जाया जीया आकाश तेरा होये | धूमावन्तीपुरी में वास, न होती देवी न देव तहाँ न होती पूजा न पाती तहाँ न होती जात न जाती तब आये श्री शम्भुजती गुरु गोरक्षनाथ आप भयी अतीत |
ॐ धूं: धूं: धूमावती फट् स्वाह: |
अष्ठम ज्योति बगलामुखी प्रगटी |
(बगलामुखी)
ॐ सौ सौ सुता समुन्दर टापू, टापू में थापा सिंहासन पीला | सिंहासन पीले ऊपर कौन बैसे सिंहासन पीला ऊपर बगलामुखी बैसे, बगलामुखी के कौन संगी कौन साथी | कच्ची बच्ची काक - कुतीया - स्वान चिड़िया, ॐ बगला बाला हाथ मुग्दर मार, शत्रु ह्रदय पर स्वार तिसकी जिव्हा खिच्चै बाला | बगलामुखी मरणी करणी उच्चाटन धरणी, अनन्त कोटि सिद्धों ने मानी ॐ बगलामुखी रमे ब्रह्माण्डी मण्डे चन्द्र्सूर फिरे खण्डे खण्डे | बाला बगलामुखी नमो नमस्कार |
ॐ हृलीं ब्रह्मास्त्रायैं विदमहे स्तम्भनबाणायै
धीमहि तन्नो बगला प्रचोदयात्
नवमी ज्योति मातंगी प्रगटी |
(मातंगी)
ॐ गुरूजी शून्य शून्य महाशून्य, महाशून्य में ओंकार ॐकार में शिवम् शिवम् में शक्ति - शक्ति अपन्ते उहज आपो आपना, सुभय में धाम कमल में विश्राम, आसन बैठी, सिंहासन बैठी पूजा पूजो मातंगी बाला, शीश पर शशी अमिरस प्याला हाथ खड्ग नीली काया | बल्ला पर अस्वारी उग्र उन्मत मुद्राधारी, उद गुग्गुल पाण सुपारी, खीरे खाण्डे मद्य मांसे घृत कुण्डे सर्वांगधारी | बुन्द मात्रेन कडवा प्याला, मातंगी माता तृप्यन्ते तृप्यन्ते | ॐ मातंगी सुन्दरी, रुपवंती, कामदेवी, धनवंती, धनदाती, अन्नपूर्णी अन्न्दाती, मातंगी जाप मंत्र जपे काल का तुम काल को खाये | तिसकी रक्षा शम्भुजती गुरु गोरक्षनाथ जी करे |
ॐ ह्री क्लीं हूँ मातंग्यै फट् स्वाहा |
दसवीं ज्योति कमला प्रगटी |
(कमला)
ॐ अयोनी शंकर ॐकार रुप, कमला देवी सती पार्वती का स्वरुप | हाथ में सोने का कलश मुख से अभय मुद्रा | श्वेत वर्ण सेवा पूजा करे, नारद इन्द्रा | देवी देवत्या ने किया जय ओंकार | कमला देवी पूजो केशर पान सुपारी, चकमक चीनी फतरी तिल गुग्गल सहस्त्र कमलों का किया हवन | कहे गोरख, मंत्र जपो जाप जपो ऋद्धि सिद्धि की पहचान गंगा गौरजा पार्वती जान | जिसकी तीन लोक में भया मान | कमला देवी के चरण कमल को आदेश |
ॐ ह्रीं क्लीं कमला देवी फट् स्वाह:
सुनो पार्वती हम मत्स्येन्द्र पूता, आदिनाथ नाती, हम शिव स्वरुप उलटी थापना थापी योगी का योग, दस विद्या शक्ति जानो, जिसका भेद शिव शंकर ही पायो | सिद्ध योग मरम जो जाने विरला तिसको प्रसन्न भयी महाकालिका | योगी योग नित्य करे प्रात: उसे वरद भुवनेश्वरी माता | सिद्धासन सिद्ध, भया श्मशानी तिसके संग बैठी बगलामुखी | जोगी खड दर्शन को कर जानी, खुल गया ताला ब्रह्माण्ड भैरवी | नाभी स्थाने उडीय्यान बांधी मनीपुर चक्र में बैठी, छिन्नमस्ता रानी | ॐकार ध्यान लाग्या त्रिकुटी, प्रगटी तारा बाला सुन्दरी | पाताल जोगन (कुण्डलिनी) गगन को चढ़ी, जहाँ पर बैठी त्रिपुर सुन्दरी | आलस मोड़े, निन्द्रा तोड़े तिसकी रक्षा देवी धूमावंती करें | हंसा जाये दसवें द्वारे देवी मातंगी का आवागमन खोजे | जो कमला देवी की धूनी चेताये तिसकी ऋद्धि सिद्धि से भण्डार भरे | जो दशविद्या का सुमिरण करे | पाप पुन्य से न्यारा रहे | योग अभ्यास से भये सिद्धा आवागमन निवराते | मन्त्र पढ़े सो नर अमर लोक में जायें | इतना दस महाविद्या मन्त्र जाप सम्पूर्ण भया | अनन्त कोट सिद्धों में, गोदावरी त्र्यम्बक क्षेत्र अनुपान शिला, अवलगढ़ पर्वत पर बैठ श्री शम्भुजती गुरु गोरक्षनाथ जी ने पढ़ कथ कर सुनाया श्री नाथजी गुरूजी को आदेश | आदेश |
ॐ शिव गोरक्ष योगी

गोरक्ष अंतर्ध्वनि



गोरख बोली सुनहु रे अवधू, पंचों पसर निवारी अपनी आत्मा एपी विचारो, सोवो पाँव पसरी “ऐसा जप जपो मन ली | सोऽहं सोऽहं अजपा गई असं द्रिधा करी धरो ध्यान | अहिनिसी सुमिरौ ब्रह्म गियान नासा आगरा निज ज्यों बाई | इडा पिंगला मध्य समाई || छः साईं सहंस इकिसु जप | अनहद उपजी अपि एपी || बैंक नाली में उगे सुर | रोम-रोम धुनी बजाई तुर || उल्टी कमल सहस्रदल बस | भ्रमर गुफा में ज्योति प्रकाश || गगन मंडल में औंधा कुवां, जहाँ अमृत का वसा | सगुरा होई सो भर-भर पिया, निगुरा जे प्यासा । ।



अलख निरंजन ॐ शिव गोरक्ष ॐ नमो सिद्ध नवं अनगुष्ठाभ्य नमः पर ब्रह्मा धुन धू कर शिर से ब्रह्म तनन तनन नमो नमः
नवनाथ में नाथ हे आदिनाथ अवतार , जाती गुरु गोरक्षनाथ जो पूर्ण ब्रह्म करतार
संकट मोचन नाथ का जो सुमारे चित विचार ,जाती गुरु गोरक्षनाथ ,मेरा करो विस्तार ,

संसार सर्व दुख क्षय कराय , सत्व गुण आत्मा गुण दाय काय ,मनो वंचित फल प्रदयकय
ॐ नमो सिद्ध सिद्धेश श्वाराया ,ॐ सिद्ध शिव गोरक्ष नाथाय नमः ।

मृग स्थली स्थली पुण्यः भालं नेपाल मंडले यत्र गोरक्ष नाथेन मेघ माला सनी कृता

श्री ॐ गो गोरक्ष नाथाय विधमाहे शुन्य पुत्राय धी माहि तन्नो गोरक्ष निरंजन प्रचोदयात

गोरखनाथ--ॐ शिव गोरख योगी


गोरख वाणी :" पवन ही जोग, पवन ही भोग,पवन इ हरै, छतीसौ रोग, या पवन कोई जाणे भव्, सो आपे करता, आपे दैव! " ग्यान सरीखा गिरु ना मिलिया, चित्त सरीखा चेला,मन सरीखा मेलु ना मिलिया, ताथै, गोरख फिरै, अकेला !"कायागढ भीतर नव लख खाई, दसवेँ द्वार अवधू ताली लाई !कायागढ भीतर देव देहुरा कासी, सहज सुभाइ मिले अवनासी !बदन्त गोरखनाथ सुणौ, ...नर लोइ, कायागढ जीतेगा बिरला नर कोई ! "

गोरख आया


ना कोई बारू , ना कोई बँदर, चेत मछँदर,

आप तरावो आप समँदर, चेत मछँदर

निरखे तु वो तो है निँदर, चेत मछँदर चेत !
...
धूनी धाखे है अँदर, चेत मछँदर

कामरूपिणी देखे दुनिया देखे रूप अपार

सुपना जग लागे अति प्यारा चेत मछँदर !

सूने शिखर के आगे आगे शिखर आपनो,

छोड छटकते काल कँदर , चेत मछँदर !

साँस अरु उसाँस चला कर देखो आगे,

अहालक आया जगँदर, चेत मछँदर !

देख दीखावा, सब है, धूर की ढेरी,

ढलता सूरज, ढलता चँदा, चेत मछँदर !

चढो चाखडी, पवन पाँवडी,जय गिरनारी,

क्या है मेरु, क्या है मँदर, चेत मछँदर !

गोरख आया ! आँगन आँगन अलख जगाया, गोरख आया!

जागो हे जननी के जाये, गोरख आया !

भीतर आके धूम मचाया, गोरख आया !

आदशबाद मृदँग बजाया, गोरख आया !

जटाजूट जागी झटकाया, गोरख आया !

नजर सधी अरु, बिखरी माया, गोरख आया !

नाभि कँवरकी खुली पाँखुरी, धीरे, धीरे,

भोर भई, भैरव सूर गाया, गोरख आया !

एक घरी मेँ रुकी साँस ते अटक्य चरखो,

करम धरमकी सिमटी काया, गोरख आया !

गगन घटामेँ एक कडाको, बिजुरी हुलसी,

घिर आयी गिरनारी छाया, गोरख आया !

लगी लै, लैलीन हुए, सब खो गई खलकत,

बिन माँगे मुक्ताफल पाया, गोरख आया !

"बिनु गुरु पन्थ न पाईए भूलै से जो भेँट,

जोगी सिध्ध होइ तब, जब गोरख से हौँ भेँट!"

श्री गोरक्षनाथ स्तोत्रराज


नमो s हं कलये हंसो हंसो s हं कलयेन्वहम !
नमो s हं कलये हंसो हंसो s हं कलयेन्वहम !!

अनन्यमानसो हंसो मानसं पद्मश्रीतहा
अनन्यमानसो हंसो मानसं पद्मश्रीतहा

र क्ष मा द क्ष गो र क्ष ! क्ष र गो क्ष द मा क्ष र
ज य का म म हा रा ज , ज रा हा म म का य जे

घ न सा र द ना था य य था ना द र सा ना घ !
ते स्तु मो न र धा मा हे ,हे मा धा र ! न मो s स्तु ते !!

वि भू सं म त ,ना दो वा वा दो ना त म सं भू वि !
ते स्तु मो न य वा दे शं,शं देवाय न मो s स्तु ते !!

न व पा र द सा या मा , मा या सा द र पा व न !
ते स्तु मो न व मी ना र्या ना मी व न मो s स्तु ते !!

व न जा नि व शा वे शा , शा वे श व नि जा न व !
का यि ना नु तं शं खे न , न खे शं त नु ना यि का !!

किं न ही न ज र दे व , व दे र ज न ही न कि म !
दा स सा र s म से वा , वा से मा स र सा स दा !!

स व ने ज य दे वे शा , शा वे दे य ज ने व स !
ता र या ज र वै दे वे , वे दे वै र ज या र ता !!


भा शु भा स ज रा भा षा , सा भा रा ज स भा शु भा !
सा र रा ज त या भा सा , सा भा या त ज रा र सा !!

श्री मानार्य कृतः समोपुमयतः श्री स्तोत्र राजोघुनाह !
नाथना गुद्मावाहन विजयातेह निर्णित सारो रसः !!
पक्षे दक्ष विचारितेपी जनायान्नानंद मन्यर्थदो !
बालाना शरनार्थिना शरण दो वर्वर्ति सर्वोपरि !!

शिवम्

स्वस्ति श्री श्रेयः श्रेनयः श्रीमतां समुल्लसन्तुत्रम
इति श्री गोरक्षनाथ स्तोत्रराज सम्पुर्ण !!

गोरक्ष नाथाय


नित्याय नाथाय निराजनाया , निवांत निष्कंप - शिखोप्माया
ज्योति स्वरूपाय नमो निभाया, गोरक्ष नाथाय नमः शिवाय

मत्सेय्न्द्र शिष्याय महेश्वराय ,योग प्रचारय वपुर्धाराय
अयोनिजयामर विग्रह हाय , गोरक्ष नाथाय नमः शिवाय

शुद्धाय ,बुद्धाय , विमुक्ताकाया ,शान्ताय दान्ताय निरामयाय
सिद्धेश्वरयारिवल संश्रायाय ,गोरक्ष नाथाय नमः शिवाय

कर्पुर गौरया , जताधरय , कर्नान्त विश्रांत विलोचनाय
त्रिशुलिने भूति विभुशिताया गोरक्ष नाथाय नमः शिवाय

अनाथ नाथाय जग्द्विताया, कृपा कटो क्षद घृत कन्ताकाया
अपामर्ण योग सुधा प्रदाय , गोरक्ष नाथाय नमः शिवाय

श्रीगिरिजा दशक’: एक सिद्ध प्रयोग


बैल पर बैठे हुए शिव पार्वती का ध्यान कर माँ पार्वती से दया की भीख माँगनी चाहिए। जैसे सन्तान पेट दिखाकर माता से माँगती है, वैसे ही माँगना चाहिए। कल्याण की इच्छा होगी तो माँ अवश्य सर्वतोमुखी कल्याण करेगीं।

मन्दार कल्प हरि चन्दन पारिजात मध्ये सुधाब्धि1 मणि मण्डप वेदि संस्थे।
अर्धेन्दु-मौलि-सुललाट षडर्ध नेत्रे, भिक्षां प्रदेहि गिरिजे ! क्षुधिताय मह्यम्।।1
आली-कदम्ब-परिशोभित-पार्श्व-भागे, शक्रादयः सुरगणाः प्रणमन्ति तुभ्यम्।2
देवि ! त्वदिय चरणे शरणं प्रपद्ये, भिक्षां प्रदेहि गिरिजे ! क्षुधिताय मह्यम्।।2
केयूर-हार-मणि-कंकण-कर्ण-पूरे, कांची-कलापमणि-कान्त-लसद्-दुकूले।
दुग्धान्न-पूर्ण3-वर-कांचन-दर्वि-हस्ते, भिक्षां प्रदेहि गिरिजे ! क्षुधिताय मह्यम्।।3
सद्-भक्त-कल्प-लतिके भुवनैक-वन्द्ये, भूतेश-हृत्-कमल-लग्न-कुचाग्र-भृंगे !
कारूण्य-पूर्ण-नयने किमुपेक्ष्यसे मां, भिक्षां प्रदेहि गिरिजे ! क्षुधिताय मह्यम्।।4
शब्दात्मिके शशि-कलाऽऽभरणाब्धि-देहे, शम्भोः उरूस्थल-निकेतन-नित्यवासे।
दारिद्र्यदुःखभय हारिणि ! का त्वदन्या, भिक्षां प्रदेहि गिरिजे ! क्षुधिताय मह्यम्।।5
लीला वचांसि तव देवि! ऋगादि-वेदाः, सृष्टियादि कर्मरचना भवदीय चेष्टाः।
त्वत्तेजसा जगत् इदं प्रतिभाति4 नित्यं, भिक्षां प्रदेहि गिरिजे ! क्षुधिताय मह्यम्।।6
वृन्दार वृन्द मुनि5 नारद कौशिकात्रि व्यासाम्बरीष कलशोद्भव कश्यपादयः6।
भक्त्या स्तुवन्ति निगमागम सूक्त मन्त्रैः, भिक्षां प्रदेहि गिरिजे ! क्षुधिताय मह्यम्।।7
अम्ब ! त्वदीय चरणाम्बुज सेवनेन, ब्रह्मादयोऽपि विपुलाः श्रियमाश्रयन्ते।
तस्मादहं तव नतोऽस्मि पदारविन्दे, भिक्षां प्रदेहि गिरिजे ! क्षुधिताय मह्यम्।।8
सन्ध्यालये7 सकल भू सुर सेव्यमाने, स्वाहा स्वधाऽसि पितृ देव गणार्त्ति हन्त्रि।
जाया सुतो परिजनोऽतिथयोऽन्य कामा, भिक्षां प्रदेहि गिरिजे ! क्षुधिताय मह्यम्।।9
एकात्म मूल निलयस्य महेश्वरस्य, प्राणेश्वरि ! प्रणत भक्त जनाय शीघ्रम्।
कामाक्षि! रक्षित जगत त्रितये अन्न पूर्णे, भिक्षां प्रदेहि गिरिजे! क्षुधिताय मह्यम्।।10
भक्त्या पठन्ति गिरिजा दशकं प्रभाते, कामार्थिनो बहु धनान्न समृद्धि कामा।
प्रीत्या महेश वनिता हिमशैलकन्या, तेभ्यो ददाति सततं मनसेप्सितानि।।11
मन्दार कल्पवृक्ष, श्वेत चन्दन एवं पारिजात वृक्षों के मध्य में अमृत सिन्धु के बीच मणि मण्डप की वेदी पर बैठी हुई, सुन्दर ललाट पर अर्ध चन्द्रमा से सुशोभिता एवं तीन नेत्रोंवाली हे गिरिजे ! मुझ भूखे को भोजन दीजिए।
आपके दोनों ओर सखियाँ शोभायमान हैं, इन्द्रादि देवगण आपको नमस्कार करते हैं, हे देवि ! मैं आपके चरणों की शरण लेता हूँ। मुझ भूखे को भोजन दीजिए।
भुजबन्ध, मणियों का हार, कंकन, कर्णाभूषण, करधनी और मणियों के समान सुन्दर वस्त्र पहने तथा हाथों में खीर से भरी हुई श्रेष्ठ सोने की थाली लिए हे गिरिजे ! मुझ भूखे को भोजन दीजिए।
कल्पलता के समान सच्चे भक्तों की सभी कामनाओं को पूर्ण करने वाली, अखिल विश्व पूजिता, भगवान शंकर के हृदय कमल में अपने कुचाग्र रूपी भौरों के द्वारा प्रविष्टा और दया पूर्ण नेत्रोंवाली हे गिरिजे ! मुझ भूखे को भोजन दीजिए।
शब्द ब्रह्म स्वरूपे, अर्द्ध चन्द्र के आभूषण से विभूषित शरीर वाली और शिव के हृदय में सदा निवास करने वाली, आपके अतिरिक्त दरिद्रता के दुःख और भय को दूर करने वाला अन्य कोई नहीं है। हे गिरिजे ! मुझ भूखे को भोजन दीजिए।
हे देवि ! ऋक् आदि वेदों की वाणी आपके ही लीला वचन है। सृष्टि आदि क्रियाएँ आपकी ही चेष्टा हैं। आपके तेज से ही यह विश्व सदा दिखाई देता है। हे गिरिजे ! मुझ भूखे को भोजन दीजिए।
देव समूह, मुनि नारद, कौशिक, अत्रि, व्यास, अम्बरिष, अगस्त्य, कश्यप् आदि भक्ति पूर्वक वेद और तन्त्र के सूक्त मन्त्रों से आपकी स्तुति करते हैं। हे गिरिजे ! मुझ भूखे को भोजन दीजिए।
हे माँ ! तुम्हारे चरणों की सेवा से ब्रह्मा आदि भी अपार ऐश्वर्य पा जाते हैं। अतः मैं आपके चरण कमलों में नत मस्तक हूँ। हे गिरिजे ! मुझ भूखे को भोजन दीजिए।
सन्ध्या समय समस्त ब्राह्मणों द्वारा वन्दिता, पितरों व देवों के दुःख की नाशिका ‘स्वाहा-स्वधा’ आप ही हैं। मैं पत्नी, पुत्र, सेवक, अतिथियों एवं अन्य कामनाओंवाला हूँ। हे गिरिजे ! मुझ भूखे को भोजन दीजिए।
हे एकात्मा मूल महेश्वर की प्राणेश्वरि ! प्रणत भक्तों पर शीघ्र कृपा करने वाली हे कामाक्षि ! हे अन्नपूर्णे ! तीनों लोकों की रक्षा करने वाली हे गिरिजे ! मुझ भूखे को भोजन दीजिए।
बहु धन अन्न और ऐश्वर्य चाहने वाले जो लोग प्रातः काल इस ‘गिरिजा दशक’ को पढ़ते हैं, उन्हें महेश प्रिया, हिमालय पुत्री सदैव प्रेम पूर्वक मनचाही वस्तूएँ प्रदान करती हैं।

हठ-योग


ॐ-शतक-प्रारम्भः |

श्री-गुरुं परमानन्दं वन्दे स्वानन्द-विग्रहम् |

यस्य संनिध्य-मात्रेण चिदानन्दायते तनुः ||1||

अन्तर्-निश्चलितात्म-दीप-कलिका-स्वाधार-बन्धादिभिः

यो योगी युग-कल्प-काल-कलनात् त्वं जजेगीयते |

ज्ञानामोद-महोदधिः समभवद् यत्रादिनाथः स्वयं

व्यक्ताव्यक्त-गुणाधिकं तम् अनिशं श्री-मीननाथं भजे ||2||

नमस्कृत्य गुरुं भक्त्या गोरक्षो ज्ञानम् उत्तमम् |

अभीष्टं योगिनां ब्रूते परमानन्द-कारकम् ||3||

गोरक्षः शतकं वक्ति योगिनां हित-काम्यया |

ध्रुवं यस्यावबोधेन जायते परमं पदम् ||4||

एतद् विमुक्ति-सोपानम् एतत् कालस्य वञ्चनम् |

यद् व्यावृत्तं मनो मोहाद् आसक्तं परमात्मनि ||5|| (2)

द्विज-सेवित-शाखस्य श्रुति-कल्प-तरोः फलम् |

शमनं भव-तापस्य योगं भजति सज्जनः ||6|| (3)

आसनं प्राण-संयामः प्रत्याहारोथ धारणा |

ध्यानं समाधिरेतानि योगाङ्गानि भवन्ति षट् ||7|| (4)

आसनानि तु तावन्ति यावत्यो जीव-जातयः |

एतेषाम् अखिलान् भेदान् विजानाति महेश्वरः ||8|| (5)

चतुराशीति-लक्षाणां एकम् एकम् उदाहृतम् |

ततः शिवेन पीठानां षोडेशानं शतं कृतम् ||9|| (6)

आसनेभ्यः समस्तेभ्यो द्वयम् एव विशिष्यते |

एकं सिद्धासनं प्रोक्तं द्वितीयं कमलासनम् ||10|| (7)

योनि-स्थानकम् अङ्घ्रि-मूल-घटितं कृत्वा दृढं विन्यसेन्

मेढ्रे पादम् अथैकम् एव नियतं कृत्वा समं विग्रहम् |

स्थाणुः संयमितेन्द्रियोचल-दृशा पश्यन् भ्रुवोरन्तरम्

एतन् मोक्ष-कवाट-भेद-जनकं सिद्धासनं प्रोच्यते ||11|| (8)

वामोरूपरि दक्षिणं हि चरणं संस्थाप्य वामं तथा

दक्षोरूपरि पश्चिमेन विधिना धृत्वा कराभ्यां दृढम् |

अङ्गुष्ठौ हृदये निधाय चिबुकं नासाग्रम् आलोकयेद्

एतद्-व्याधि-विकार-हारि यमिनां पद्मासनं प्रोच्यते ||12|| (9)

षट्-चक्रं षोडशाधारं त्रिलक्षं व्योम-पञ्चकम् |

स्व-देहे ये न जानन्ति कथं सिध्यन्ति योगिनः ||13||

एक-स्तम्भं नव-द्वारं गृहं पञ्चाधिदैवतम् |

स्व-देहं ये न जानन्ति कथं सिध्यन्ति योगिनः ||14|

चतुर्दलं स्याद् आधारः स्वाधिष्ठानं च षट्-दलम् |

नाभौ दश-दलं पद्मं सूर्य-सङ्ख्य-दलं हृदि ||15||

कण्ठे स्यात् षोडश-दलं भ्रू-मध्ये द्विदलं तथा |

सहस्र-दलम् आख्यातं ब्रह्म-रन्ध्रे महा-पथे ||16||

आधारः प्रथमं चक्रं स्वाधिष्ठानं द्वितीयकम् |

योनि-स्थानं द्वयोर्मध्ये काम-रूपं निगद्यते ||17|| (10)

आधाराख्यं गुद-स्थानं पङ्कजं च चतुर्-दलम् |

तन्-मध्ये प्रोच्यते योनिः कामाक्षा सिद्ध-वन्दिता ||18|| (11)

योनि-मध्ये महा-लिङ्गं पश्चिमाभिमुखं स्थितम् |

मस्तके मणिवद् बिम्बं यो जानाति स योगवित् ||19|| (12)

तप्त-चामीकराभासं तडिल्-लेखेव विस्फुरत् |

त्रिकोणं तत्-पुरं वह्नेरधो-मेढ्रात् प्रतिष्ठितम् ||20|| (13)

यत् समाधौ परं ज्योतिरनन्तं विश्वतो-मुखम् |

तस्मिन् दृष्टे महा-योगे यातायातं न विद्यते ||21||

स्व-शब्देन भवेत् प्राणः स्वाधिष्ठानं तद्-आश्रयः |

स्वाधिष्ठानात् पदाद् अस्मान् मेढ्रम् एवाभिधीयते ||22|| (14)

तन्तुना मणिवत् प्रोतो यत्र कन्दः सुषुम्णया |

तन्-नाभि-मण्डलं चक्रं प्रोच्यते मणि-पूरकम् ||23|| (15)

द्वादशारे महा-चक्रे पुण्य-पाप-विवर्जिते |

तावज् जीवो भ्रमत्य् एव यावत् तत्त्वं न विन्दति ||24||

ऊर्ध्वं मेढ्राद् अधो नाभेः कन्द-योनिः खगाण्डवत् |

तत्र नाड्यः समुत्पन्नाः सहस्राणां द्विसप्ततिः ||25|| (16)

तेषु नाडि-सहस्रेषु द्विसप्ततिरुदाहृताः |

प्रधानं प्राण-वाहिन्यो भूयस्तत्र दश स्मृताः ||26|| (17)

इडा च पिङ्गला चैव सुषुम्णा च तृतीयका |

गान्धारी हस्ति-जिह्वा च पूषा चैव यशस्विनी ||27|| (18)

अलम्बुषा कुहूश्चैव शङ्खिनी दशमी स्मृता |

एतन् नाडि-मयं चक्रं ज्ञातव्यं योगिभिः सदा ||28|| (19)

इडा वामे स्थिता भागे पिङ्गला दक्षिणे तथा |

सुषुम्णा मध्य-देशे तु गान्धारी वाम-चक्षुषि ||29|| (20)

दक्षिणे हस्ति-जिह्वा च पूषा कर्णे च दक्षिणे |

यशस्विनी वाम-कर्णे चासने वाप्यलम्बुषा ||30|| (21)

कुहूश्च लिङ्ग-देशे तु मूल-स्थाने च शङ्खिनी |

एवं द्वारम् उपाश्रित्य तिष्ठन्ति दश-नाडिकाः ||31|| (22)

इडा-पिङ्गला-सुषुम्णा च तिस्रो नाड्य उदाहृताः |

सततं प्राण-वाहिन्यः सोम-सूर्याग्नि-देवताः ||32|| (23)

प्राणोपानः समानश्चोदानो व्यानौ च वायवः |

नागः कूर्मोथ कृकरो देवदत्तो धनञ्जयः ||33|| (24)

हृदि प्राणो वसेन् नित्यं अपानो गुद-मण्डले |

समानो नाभि-देशे स्याद् उदानः कण्ठ-मध्यगः ||34||

उद्गारे नागाख्यातः कूर्म उन्मीलने स्मृतः |

कृकरः क्षुत-कृज् ज्ञेयो देवदत्तो विजृम्भणे ||35||

न जहाति मृतं चापि सर्व-व्यापि धनञ्जयः |

एते सर्वासु नाडीषु भ्रमन्ते जीव-रूपिणः ||36|| (25)

आक्षिप्तो भुज-दण्डेन यथोच्चलति कन्दुकः |

प्राणापान-समाक्षिप्तस्तथा जीवो न तिष्ठति ||38|| (27)

प्राणापान-वशो जीवो ह्य् अधश्चोर्ध्वं च धावति |

वाम-दक्षिण-मार्गेण चञ्चलत्वान् न दृश्यते ||39|| (26)

रज्जु-बद्धो यथा श्येनो गतोप्याकृष्यते |

गुण-बद्धस्तथा जीवः प्राणापानेन कृष्यते ||40|| (28)

अपानः कर्षति प्राणः प्राणोपानं च कर्षति |

ऊर्ध्वाधः संस्थिताव् एतौ संयोजयति योगवित् ||41|| (29)

ह-कारेण बहिर्याति स-कारेण विशेत् पुनः |

हंस-हंसेत्य् अमुं मन्त्रं जीवो जपति सर्वदा ||42||

षट्-शतानित्वहो-रात्रे सहस्राण्य् एक-विंशतिः |

एतत् सङ्ख्यान्वितं मन्त्र जीवो जपति सर्वदा ||43||

अजपा नाम गायत्री योगिनां मोक्ष-दायिनी |

अस्याः सङ्कल्प-मात्रेण सर्व-पापैः प्रमुच्यते ||44||

अनया सदृशी विद्या अनया सदृशो जपः |

अनया सदृशं ज्ञानं न भूतं न भविष्यति ||45||

कुन्दलिन्याः समुद्भूता गायत्री प्राण-धारिणी |

प्राण-विद्या महा-विद्या यस्तां वेत्ति स योगवित् ||46||

कन्दोर्ध्वं कुण्डली शक्तिरष्टधा कुण्डलाकृति |

ब्रह्म-द्वार-मुखं नित्यं मुखेनाच्छाद्य तिष्ठति ||47|| (30)

येन द्वारेण गन्तव्यं ब्रह्म-स्थानम् अनामयम् |

मुखेनाच्छाद्य तद्-द्वारं प्रसुप्ता परमेश्वरी ||48||

प्रबुद्धा वह्नि-योगेन मनसा मारुता हता |

सूचीवद् गुणम् आदाय व्रजत्य् ऊर्ध्वं सुषुम्णया ||49|| (31)

प्रस्फुरद्-भुजगाकारा पद्म-तन्तु-निभा शुभा |

प्रबुद्धा वह्नि-योगेन व्रत्य ऊर्ध्वं सुषुम्णया ||50||

उद्घटयेत् कपातं तु यथा कुञ्चिकया हठात् |

कुण्डलिन्या तथा योगी मोक्ष-द्वारं प्रभेदयेत् ||51||

कृत्वा सम्पुटितौ करौ दृढतरं बद्ध्वा तु पद्मासनं

गाढं वक्षसि सन्निधाय चिबुकं ध्यात्वा च तत् प्रेक्षितम् |

वारं वारम् अपानम् ऊर्ध्वम् अनिलं प्रोच्चारयेत् पूरितं

मुञ्चन् प्राणम् उपैति बोधम् अतुलं शक्ति-प्रबोधान् नरः ||52||

(ह्य्प् 1.50)

अङ्गानां मर्दनं कुर्याच् छ्रम-जातेन वारिणा |

कट्व्-अम्ल-लवण-त्यागी क्षीर-भोजनम् आचरेत् ||53|| (50)

ब्रह्मचारी मिताहारी त्यागी योग-परायणः |

अब्दाद् ऊर्ध्वं भवेत् सिद्धो नात्र कार्या विचारणा ||54|| (ह्य्प् 1.59)

सुस्निग्धं मधुराहारं चतुर्थांश-विवर्जितम् |

भुज्यते सुर-सम्प्रीत्यै मिताहारः स उच्यते ||55|| (ह्य्प् 1.60)

कन्दोर्ध्वं कुण्डली शक्तिरष्टधा कुण्डलाकृतिः |

बन्धनाय च मूढानां योगिनां मोक्षदा स्मृता ||56|| (ह्य्प् 3.107)

महामुद्रां नमो-मुद्राम् उड्डियानं जलन्धरम् |

मूल-बन्धं च यो वेत्ति स योगी सिद्धि-भाजनम् ||57|| (32)

शोधनं नाडि-जालस्य चालनं चन्द्र-सूर्ययोः |

रसानां शोषणं चैव महा-मुद्राभिधीयते ||58||

वक्षो-न्यस्त-हनुर्निपीड्य सुचिरं योनिं च वामाङ्घ्रिणा

हस्ताभ्याम् अवधारितं प्रसरितं पादं तथा दक्षिणम् |

आपूर्य श्वसनेन कुक्षि-युगलं बद्ध्वा शनै रेचयेद्

एषा पातक-नाशिनी सुमहती मुद्रा न्णां प्रोच्यते ||59|| (33)

चन्द्राङ्गेन समभ्यस्य सूर्याङ्गेनाभ्यसेत् पुनः |

यावत् तुल्या भवेत् सङ्ख्या ततो मुद्रां विसर्जयेत् ||60|| (ह्य्प् 3.15)

न हि पथ्यम् अपथ्यं वा रसाः सर्वेपि नीरसाः |

अपि मुक्तं विषं घोरं पीयूषम् अपि जीर्यते ||61|| (ह्य्प् 3.16)

क्षय-कुष्ठ-गुदावर्त-गुल्माजीर्ण-पुरोगमाः |

तस्य दोषाः क्षयं यान्ति महामुद्रां तु योभ्यसेत् ||62|| (ह्य्प् 3.17)

कथितेयं महामुद्रा महा-सिद्धि-करा न्णाम् |

गोपनीया प्रयत्नेन न देया यस्य कस्यचित् ||63|| (ह्य्प् 3.18)

कपाल-कुहरे जिह्वा प्रविष्टा विपरीतगा |

भ्रुवोरन्तर्गता दृष्टिर्मुद्रा भवति खेचरी ||64|| (34)

न रोगो मरणं तन्द्रा न निद्रा न क्षुधा तृषा |

न च मूर्च्छा भवेत् तस्य यो मुद्रां वेत्ति खेचरीम् ||65|| (ह्य्प् 3.39)

पीड्यते न स रोगेण लिप्यते न च कर्मणा |

बाध्यते न स कालेन यो मुद्रां वेत्ति खेचरीम् ||66|| (ह्य्प् 3.40)

चित्तं चरति खे यस्माज् जिह्वा चरति खे गता |

तेनैषा खेचरी नाम मुद्रा सिद्धैर्निरूपिता ||67|| (ह्य्प् 3.41)

बिन्दु-मूलं शरीरं तु शिरास्तत्र प्रतिष्ठिताः |

भावयन्ति शरीरं या आपाद-तल-मस्तकम् ||68||

खेचर्या मुद्रितं येन विवरं लम्बिकोर्ध्वतः |

न तस्य क्षरते बिन्दुः कामिन्यालिङ्गितस्य च ||69||

यावद् बिन्दुः स्थितो देहे तावत् काल-भयं कुतः |

यावद् बद्धा नभो-मुद्रा तावद् बिन्दुर्न गच्छति ||70||

चलितोपि यदा बिन्दुः सम्प्राप्तश्च हुताशनम् |

व्रजत्य् ऊर्ध्वं हृतः शक्त्या निरुद्धो योनि-मुद्रया ||71|| (ह्य्प् 3.43)

स पुनर्द्विविधो बिन्दुः पण्डुरो लोहितस्तथा |

पाण्डुरं शुक्रम् इत्य् आहुर्लोहितं तु महाराजः ||72||

सिन्दूर-द्रव-सङ्काशं रवि-स्थाने स्थितं रजः |

शशि-स्थाने स्थितो बिन्दुस्तयोरैक्यं सुदुर्लभम् ||73||

बिन्दुः शिवो रजः शक्तिर्बिन्दुम् इन्दू रजो रविः |

उभयोः सङ्गमाद् एव प्राप्यते परमं पदम् ||74||

वायुना शक्ति-चारेण प्रेरितं तु महा-रजः |

बिन्दुनैति सहैकत्वं भवेद् दिव्यं वपुस्तदा ||75||

शुक्रं चन्द्रेण संयुक्तं रजः सूर्येण संयुतम् |

तयोः समरसैकत्वं योजानाति स योगवित् ||76||

उड्डीनं कुरुते यस्माद् अविश्रान्तं महा-खगः |

उड्डीयानं तद् एव स्यात् तव बन्धोभिधीयते ||77|| (ह्य्प् 3.56)

उदरात् पश्चिमे भागे ह्य् अधो नाभेर्निगद्यते |

उड्डीयनस्य बन्धोयं तत्र बन्धो विधीयते ||78||

बध्नाति हि सिराजालम् अधो-गामि शिरो-जलम् |

ततो जालन्धरो बन्धः कण्ठ-दुःखौघ-नाशनः ||79|| (ह्य्प् 3.71)

जालन्धरे कृते बन्धे कण्ठ-संकोच-लक्षणे |

पीयूषं न पतत्य् अग्नौ न च वायुः प्रकुप्यति ||80|| (36, ह्य्प् 3.72)

पार्ष्णि-भागेन सम्पीड्य योनिम् आकुञ्चयेद् गुदम् |

अपानम् ऊर्ध्वम् आकृष्य मूल-बन्धोभिधीयते ||81|| (37, ह्य्प् 3.61)

अपान-प्राणयोरैक्यात् क्षयान् मूत्र-पुरीषयोः |

युवा भवति वृद्धोपि सततं मूल-बन्धनात् ||82|| (38, ह्य्प् 3.65)

पद्मासनं समारुह्य सम-काय-शिरो-धरः |

नासाग्र-दृष्टिरेकान्ते जपेद् ओङ्कारम् अव्ययम् ||83||

भूर्भुवः स्वरिमे लोकाः सोम-सूर्याग्नि-देवताः |

यस्या मात्रासु तिष्ठन्ति तत् परं ज्योतिरोम् इति ||84||

त्रयः कालास्त्रयो वेदास्त्रयो लोकास्त्रयः स्वेराः |

त्रयो देवाः स्थिता यत्र तत् परं ज्योतिरोम् इति ||85||

क्रिया चेच्छा तथा ज्ञाना ब्राह्मी रौद्री च वैष्णवी |

त्रिधा शक्तिः स्थिता यत्र तत् परं ज्योतिरोम् इति ||86||

आकाराश्च तथो-कारो म-कारो बिन्दु-संज्ञकः |

तिस्रो मात्राः स्थिता यत्र तत् परं ज्योतिरोम् इति ||87||

वचसा तज् जयेद् बीजं वपुषा तत् समभ्यसेत् |

मनसा तत् स्मरेन् नित्यं तत् परं ज्योतिरोम् इति ||88||

शुचिर्वाप्यशुचिर्वापि यो जपेत् प्रणवं सदा |

लिप्यते न स पापेन पद्म-पत्रम् इवाम्भसा ||89||

चले वाते चलो बिन्दुर्निश्चले निश्चलो भवेत् |

योगी स्थाणुत्वम् आप्नोति ततो वायुं निरोधयेत् ||90|| (39, ह्य्प् 2.2)

यावद् वायुः स्थितो देहे तावज् जीवनम् उच्यते |

मरणं तस्य निष्क्रान्तिस्ततो वायुं निरोधयेत् ||91|| (ह्य्प् 2.3)

यावद् बद्धो मरुद् देहे यावच् चित्तं निराकुलम् |

यावद् दृष्टिर्भ्रुवोर्मध्ये तावत् काल-भयं कुतः ||92|| (ह्य्प् 2.40)

अतः काल-भयाद् ब्रह्मा प्राणायाम-परायणः |

योगिनो मुनयश्चैव ततो वायुं निरोधयेत् ||93||

षट्-त्रिंशद्-अङ्गुलो हंसः प्रयाणं कुरुते बहिः |

वाम-दक्षिण-मार्गेण ततः प्राणोभिधीयते ||94|| (40)

शुद्धिम् एति यदा सर्वं नाडी-चक्रं मलाकुलम् |

तदैव जायते योगी प्राण-संग्रहणे क्षमः ||95||

बद्ध-पद्मासनो योगी प्राणं चन्द्रेण पूरयेत् |

धारयित्वा यथा-शक्ति भूयः सूर्येण रेचयेत् ||96|| (43)

अमृतं दधि-सङ्काशं गो-क्षीर-रजतोपमम् |

ध्यात्वा चन्द्रमसो बिम्बं प्राणायामी सुखी भवेत् ||97|| (44)

दक्षिणो श्वासम् आकृष्य पूरयेद् उदरं शनैः |

कुम्भयित्वा विधानेन पुरश्चन्द्रेण रेचयेत् ||98|| (45)

प्रज्वलज्-ज्वलन-ज्वाला-पुञ्जम् आदित्य-मण्डलम् |

ध्यात्वा नाभि-स्थितं योगी प्राणायामे सुखी भवेत् ||99|| (46)

प्राणं चोदिडया पिबेन् परिमितं भूयोन्यया रेचयेत्

पीत्वा पिङ्गलया समीरणम् अथो बद्ध्वा त्यजेद् वामया |

सूर्य-चन्द्रमसोरनेन विधिना बिम्ब-द्वयं ध्यायतः

शुद्धा नाडि-गणा भवन्ति यमिनो मास-त्रयाद् ऊर्ध्वतः ||100|| (ह्य्प् 2.10)

यथेष्ठं धारणं वायोरनलस्य प्रदीपनम् |

नादाभिव्यक्तिरारोग्यं जायते नाडि-शोधनात् ||101||

इति ॐ-शतकं सम्पूर्णम् |