Saturday 26 September 2020

योग वाणी

 गुरू माने मिलया पूरा भेद बतायाः मूल कमल पे गणपती बोले खटदल ब्रहम बिकाना ।अष्ट कमल पर विष्णु रूप है ,द्वादश शिव का थाना ।छे मूल पर त्रिकुटी रूप है झिलमिल जोत प्रकाशा ।पाँचो उलट अमीरस बरसे जहाँ हँस करे असनाना ।सात मूल पे सूरज दरसे वहां कोटि भानू प्रकाशा । अष्ट मूल पर चंदा रूप है ,वहां अमी का वासा ।नव मूल पर तारा दरसे वहीं शक्ति का वासा ।दस मूल पर ब्रहम का वासा जहां कोटि सूरज प्रकाशा ।शरण मछंदर गोरक्ष बोले उलट पलट मिल जाना ।।  ः वाणी ः तीरथ जाऊँ करूँ न तपस्या ,ना कोई देवल ध्याऊंगो । घडया घाट कदे न पूजूं ,अनघड़ देव मनाऊंगो । याद करो जद आऊं सतगुरू ,हुकम करो जद जाऊंग़ो ।हरिरस प्रेम प्याला पीकर,लाल मगन हो जाऊंगो ।मकड़ी मंदिर चढि सत धारो,ऐसी निवण लगाऊगो ।दसवे देस इकीसवे बिरमांड ,वहां पूग्या पद पाऊगो । गंगा जमना नहीं नहाऊं ,ना कोई तीरथ जाऊंगो ।इसी फकीरी गुरू फरमाई ,घर ही गंगा नहाऊगो ।जडी खाऊं ना बूटी खाऊं ना कोई वेद बुलाऊंगो ।नाडी का वेद सतगुरू देवा,वाने नबज दिखाऊंगो ।बस्ती बसूं न वन मे जाऊं ,भूखा रेण नपाऊगो ।इसी फकीरी गुरू फरमाई, रिदि सिद्वी ले घर आऊंगो।इगंला ना साजूं पिगंला न साजूं,त्रिकुटी ध्यान लगाऊगो ।शरण मछंदर गोरक्ष बोले, जोत मे जोत मिलाऊंगो।।

!! गोरखनाथ का प्रिय जंजीरा मंत्र !!

मनुष्य ने अपने स्वार्थ के लिए नाना प्रकार की सिद्धियाँ की एवं उस पर विजय प्राप्त करने के बाद स्वार्थ-परमार्थ दोनों कार्य भी किए। किसी ने भैरव को, किसी ने दुर्गा को, किसी ने हनुमान जी को इस प्रकार सभी ने अपने-अपने हिसाब से देवताओं की आराधना कर सिद्ध किया और अपने कार्य को किया !!

यहाँ पर गुरु गोरखनाथ को प्रसन्न करने के लिए मंत्र (जंजीरा) दे रहे हैं जो 21 दिन में सिद्ध होता है। साथ में गोरखनाथ जी का आशीर्वाद भी मिलता है इसे सिर्फ परोपकार के लिए ही कार्य में लें अपने स्वार्थ के लिए नहीं !!

मंत्र (जंजीरा)                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                            !! ऊँ गुरुजी मैं सरभंगी सबका संगी, दूध-माँस का इकरंगी, अमर में एक तमर दरसे, तमर में एक झाँई, झाँई में पड़झाँई, दर से वहाँ दर से मेरा साईं, मूल चक्र सरभंग का आसन, कुण सरभंग से न्यारा है, वाहि मेरा श्याम विराजे ब्रह्म तंत्र ते न्यारा है, औघड़ का चेला, फिरू अकेला, कभी न शीश नवाऊँगा, पत्र पूर पत्रंतर पूरूँ, ना कोई भ्राँत ‍लाऊँगा, अजर अमर का गोला गेरूँ पर्वत पहाड़ उठाऊँगा, नाभी डंका करो सनेवा, राखो पूर्ण वरसता मेवा, जोगी जुण से है न्यारा, जुंग से कुदरत है न्यारी, सिद्धाँ की मूँछयाँ पकड़ो, गाड़ देवो धरणी माँही बावन भैरूँ, चौसठ जोगन, उल्टा चक्र चलावे वाणी, पेडू में अटकें नाड़ा, न कोई माँगे हजरता भाड़ा मैं ‍भटियारी आग लगा दूँ, चोरी-चकारी बीज बारी सात रांड दासी म्हाँरी बाना, धरी कर उपकारी कर उपकार चलावूँगा, सीवो, दावो, ताप तेजरो, तोडू तीजी ताली खड चक्र जड़धूँ ताला कदई न निकसे गोरखवाला, डाकिणी, शाकिनी, भूलां, जांका, करस्यूं जूता, राजा, पकडूँ, डाकम करदूँ मुँह काला, नौ गज पाछा ढेलूँगा, कुँए पर चादर डालूँ, आसन घालूँ गहरा, मड़, मसाणा, धूणो धुकाऊँ नगर बुलाऊँ डेरा, ये सरभंग का देह, आप ही कर्ता, आप ही देह, सरभंग का जप संपूर्ण सही संत की गद्दी बैठ के गुरु गोरखनाथ जी कही !!

!! सिद्ध करने की विधि एवं प्रयोग !!

किसी भी एकांत स्थान पर धुनी जलाएँ। उसमें एक लोहे का चिमटा गाड़ दें। नित्य प्रति धुनी में एक रोटी पकाएँ और वह रोटी किसी काले कुत्ते को खिला दें। (रोटी कुत्ते को देने के ‍पहले चिमटे पर चढ़ाएँ।) प्रतिदिन आसन पर बैठकर 21 बार जंजीरा (मंत्र) का विधिपूर्वक पाठ करें। 21 दिन में सिद्ध हो जाएगा।
किसी भी प्रकार का ज्वर हो, तीन काली मिर्च को सात बार मंत्र पढ़कर रोगी को खिला दें, ज्वर समाप्त हो जाएगा।
भूत-प्रेत यक्ष, डाकिनी, शाकिनी नजर एवं टोने-टोटके किसी भी प्रकार का रोगी हो, मंत्र (जंजीरा) सात बार पढ़कर झाड़ दें। रोगी ठीक हो जाएगा।
यदि आप किसी भी कार्य से जा रहे हो, जाने से पूर्व मंत्र को पढ़कर हथेली पर फूँक मार कर उस हथेली को पूरे चेहरे पर घुमा लें फिर कार्य से जाएँ, आपका कार्य सिद्ध होगा और आपको सफलता जरूर मिलेगी।
आत्मा एवं परमात्मा का मिलन आपके कार्य सिद्ध करेंगे !!

यंत्र पूजा विधि : –

भगवान शिव के इस तांत्रिक यंत्र/Shiv Tantrik Yantra को आप ताम्रपत्र पर खुदवा या भोजपत्र पर बना सकते है | भोजपत्र पर इस यन्त्र को बनाने के लिए अष्टगंधा की स्याही का ही प्रयोग करें |

सुबह-सुबह प्रातः काल स्नान आदि से निवृत होकर सफ़ेद कपड़े धारण करें | अब पूर्व दिशा की तरफ एक चौकी पर लाल कपड़ा बिछाकर भगवान भोलेनाथ की फोटो या मूर्ती की स्थापना करें | अब शिव तांत्रिक यंत्र को चौकी पर रखे | घी का दीपक व धुप आदि लगाये | अब इस मंत्र को पढ़ते हुए भगवान भोलेनाथ की फोटो और यंत्र पर पुष्प अर्पित करें | मंत्र इस प्रकार है :

कर्पूर गौरं करुणावतारं, संसार सारं भुजगेन्द्र हारम्।
सदा वसन्तं हृदयारबिन्दे, भवं भवानि सहितं नमामि॥

अब भगवान शिव के तांत्रिक यंत्र को अक्षत(चावल), सफ़ेद आक के पुष्प और फल व मिठाई आदि अर्पित करें | एक लौटे में जल भरकर रखे | अब जल के कुछ छींटे यंत्र पर लगाये |

इसके उपरांत आप भगवान शिव का स्मरण करते हुए शिव चालीसा का पाठ करें | पाठ समाप्त होने पर – ” ॐ नमः शिवाय ” मंत्र की 3 माला का जप करें | मंत्र जप में जल्दी न करें | सहजता के साथ व लयबद्धता के साथ मंत्र जप करें | अंत में भगवान शिव की आरती करें और प्रणाम करते हुए आसन से खड़े हो जाये | अब अपने माता-पिता से आशीर्वाद ग्रहण करें |
शिव तांत्रिक यंत्र को सिद्ध करने की विधि : –
कोई भी यंत्र हो वह पूर्ण रूप से अपना प्रभाव तभी दिखाता है जब उसे विधिवत सिद्ध किया जाये | भगवान शिव के इस तांत्रिक यंत्र/(Shiv Tantrik Yantra) को भी सिद्ध करने के उपरांत ही पूजा स्थल पर स्थापित किया जाना चाहिए |

शिव तांत्रिक यंत्र को इस प्रकार से सिद्ध करें : – उपरोक्त यंत्र पूजा विधि के अनुसार ही यंत्र पूजा करें | यंत्र पूजा से पहले यंत्र को पंचामृत(दूध ,दही,घी,शहद और गंगाजल के मिश्रण) से स्नान कराये | फिर गंगाजल से स्नान कराये | इसके बाद ऊपर दी गयी विधि अनुसार ही यंत्र पूजा करें | यन्त्र पूजा के पश्चात् हाथ में  जल लेकर संकल्प ले | तत्पश्चात  – ‘ॐ नमः शिवाय ‘ मंत्र के 5000 जप करें |मंत्र जप के पश्चात् हवन करें | हवन में अधिक से अधिक आहुतियाँ ॐ नमः शिवाय मंत्र की दे | हवन सम्पूर्ण होने के उपरांत यन्त्र को हवन के ऊपर से 21 बार घुमाए और मन ही मन भगवान शिव का ध्यान करें | हवन की विभूति से यंत्र को तिलक करें | अब इस सिद्ध तांत्रिक यंत्र को अपने पूजा स्थल पर स्थापित करें

 

पितृ-आकर्षण मन्त्र

 कभी-कभी पितृ-पीड़ा से मनुष्य का जीवन दुःख-मय हो जाता है। निर्धारित कार्यों में बाधा, विफलता की प्राप्ति होती है। आकस्मिक दुर्घटनाएँ घटती है। पूरा कुटुम्ब दुःखी रहता है। ऐसी दशा में निम्नलिखित ‘प्रयोग’ करे। यह ‘प्रयोग’ निर्दोष है। पितृ-पीड़ा हो या न हो, सभी प्रकार की बाधाएँ नष्ट हो जाती है और सुख-शान्ति की प्राप्ति होती है। यदि यह ज्ञात हो कि किस पितृ की पीड़ा है, तो उस पितृ का मन-ही-मन आवाहन-पूजन कर निम्न ‘प्रयोग’ करे। पितृ-पीड़ा दूर हो जाएगी।

“ॐ नमो कामद काली कामाक्षा देवी। तेरे सुमरे, बेड़ा पार। पढ़ि-पढ़ि मारूँ, गिन-गिन फूल। जाहि बुलाई, सोई आये। हाँक मार हनुमान बीर, पकड़ ला जल्दी। दुहाई तोय, सीता सती, अञ्जनी माता की, मेरा मन्त्र साँचा, पिण्ड काँचा। फुरो मन्त्र, ईश्वरो वाचा।”
विधिः- उक्त मन्त्र का राम-दूत परम-वीर श्री हनुमान जी के मन्दिर में एकान्त में, प्रतिदिन १ हजार जप ४१ दिन तक करें। यन-नियम का पालन करें। पहले दिन पूजन करें। ४१ दिन में मन्त्र चैतन्य हो जाएगा। ४२वें दिन, श्री हनुमानजी के उसी मन्दिर में २१ गुलाब के फूल लेकर जाए। हनुमानजी के सामने बैठकर उक्त मन्त्र से २१ फूलों को अभिमन्त्रित करें और मन-ही-मन संकल्प करें-“ज्ञात-अज्ञात पितृ-देवता मुझे दर्शन दें या आशीष दें।” 
इसके बाद सभी फूल, सभी दिशाओं-विदिशाओं में फेंक दें। फिर थोड़ी देर मन्दिर में रुके रहें, ध्यान से बैठे रहें। फिर गृह चले जायें। एक सप्ताह के अन्दर उचित निर्देश मिल जायेगा .

गुरु गोरक्षनाथ पंचमात्रा

 ।। ॐ शिव गोरक्ष योगी ।।

            


सतनमो आदेश । श्री नाथ जी गुरु जी को आदेश । 
ॐ गुरु जी । 

कहो रे बालक किस मूण्डा किस मुण्डाया किसका भेजा नगरी आया । 

सतगुरु मुण्डा लेख मुण्डाया, गुरुं का भेजा नगरी आया । चेताऊ नगरी तारू गांव ,अलख पुरुष का सिमरू नाम । 

गुरु अविनाशी खेल रचाया, अगम निगम का पंथ बनाया । ज्ञान की गोदड़ी क्षमा की टोपी , जत का आडंबर - शील लंगोट । 

आकार खिन्था - निराश झोली , युक्ति का टोप - गुरु मुख की बोली । धर्म का चोला सत की सेली , मरी जात मेखले गले मे सेली ।

 ध्यान का बटुवा - निरत का सूईदान - ब्रह्म अचवा पहिने सुजान । बहुरंगी मोरदल - निर्लेप दृष्टि निर्भिजन डोरा न कोई सृष्टि । 

जाप जपोला , शिव सा दानी । सिंगी शब्द गुरु मुख को बानी । संतोष सूत - विवेक धागा , अनेक टिल्ली तहाँ जा लागा ।

 शर्म की मुद्रा - शिव विभूता , हर वक्त मृगयानी ले पहनी गुरु पूता ।

 सूरत की सुई - सतगुरु सेवे जो ले राखे निर्भय रहे , सेली कहे शील को राख - हर्ष शोक मन मे नही भाख । 

चोरी यारी निद्रा परि हरे । काम क्रोध मल सूत्र न धरे । इतना गोरक्षनाथ जी पंचमात्रा जाप सम्पूर्ण भया ।

 श्री नाथ जी गुरु जी को आदेश आदेश आदेश ।

                            ।। इति शुभम् ।।

Wednesday 16 September 2020

अघोर गायत्री मंत्र

 सतनमो आदेश।श्री नाथजी गुरुजी को आदेश।ॐ गुरुजी मैं अघोरी सर्वरंगी।गुरु हमारे बहुरंगी।भूत प्रेत वैताल मेंरे संगी।डाकिनी शाकिनी अंग अंग में लगी।भूतनी प्रेतनी हाथ जोड़ पांव में पड़ी।चुड़ैल पिशाचिनी सेंवा में हाजिर हजूर खड़ी। अघोरी अघोरी भाई भाई।अघोरी साधो मढ़ी मसान के मांई।अघोरी की संगत करना।जिस संगत से पार उतरना।मढ़ी मसान से अघोरी आया।खुर खुर खावें।लुदर मांगे।आस पल के संग न जावें।गगन मण्डल में उनकी फेरी।काली नागिन उसकी चेली।उस नागिन पर अघोरी की छायां।अघोरी ने छायां से अघोर उपाया।अघोर से अघोरी हो कर ब्रम्ह चेताया।सेली सिंगी बटुआ लाया।बटुवें में काली नागिन।काली नागिन लाकर तलें बिछाई।तब अघोरी ने जुगत कमाई।रक्त गुलासी।शुद्ध गुलासी।केतु केतु हेरो भाई।ना किसी के भेलें जावें।ना किसी के भेलें खावें।मढ़ी मसान मेरा वासा।मैं छोड़ी कुल की आशा।अघोर अघोर महाअघोर।आदि शक्ति का भग वो भी अघोर।गौरी नन्द गणेश के शुभ लाभ वो भी अघोर।काली पुत्र काल भैरव का कपाल वो भी अघोर।अंजनी सुत हनुमान कि ललकार वो भी अघोर।ब्रम्हा जी के चार वेद छहः शास्त्र वो भी अघोर।वासुदेव श्री कृष्ण के छप्पन करोड़ यादव वो भी अघोर।देवाधिदेव महादेव के ग्यारह रुद्र वो भी अघोर।गौरां पार्वती माई की दस महाविद्या वो भी अघोर।कामदेव की रति वो भी अघोर।ब्रम्हऋषि वाल्मिकी जी की रामायण वो भी अघोर।महऋषि वेदव्यास जी की श्रीमद्भागवत गीता वो भी अघोर।गोस्वामी तुलसीदास जी की रामचरित मानस वो भी अघोर।माता पिता वो भी अघोर।गुरु शिष्य वो भी अघोर।मढ़ी मसान की राख वो भी अघोर।मुआ मुर्दा की ख़ाक वो भी अघोर।सदाशिव गुरू गोरक्ष नाथ जी ने अघोर गायत्री मंत्र सिद्ध गहनी नाथ जी को कान में सुनाया।अज्जर वज्जर किन्हें हाड़ चाम ,अमर किन्हीं सिद्ध गहनी नाथ जी की काया।आवें नहीं जावें नहीं।मरें नहीं जन्में नहीं।काल कभी नहीं खावें।मरें नहीं कभी घट पिण्ड ,सड़े नहीं नाद बिन्द की काया।शिव शक्ति ने अण्ड फोड़ ब्रम्हाण्ड रचाया।ले सिन्दूर लिलाट चढ़ाया।सिन्दूर सिन्दूर महासिन्दूर।महा सिन्दूर कहाँ से आया।कैलाश पर्वत से आया।कौन कौन ल्याया।गौरी नंद गणेश काली पुत्र काल भैरव अंजनी सुत हनुमान ल्याया।कौन कारण ल्याये।माता आदि शक्ति के कारण ल्याये।तेल तेल महातेल।देंखु रे सिन्दूर तेरी शक्ति का खेल।तेल में लेऊँ सिन्दूर मिलाय।बीच लिलाट बिंदी लेऊँ लगाय।भूत प्रेत बेरी दुश्मन के लगाऊँ वज्र शैल।एक सेवा से हनुमन्त ध्याऊँ।पकड़ भुजा काल भैरव की ल्याऊं।हथेली तो हनुमान बसे बिंदी बसे दुर्गा माई काल भैरव बसे कपाल।विभुति उलेटू विभुति पलेटु।विभुति का करूँ शिंणगार।आप लगायें धरती के मै लगाऊँ संसार।अवधूत दत्तात्रेय नाथ जी बोलें बंम बंम ओउमकार।माया मछिन्द्र नाथ जी ने ओउमकार का ध्यान लगाया।ओउमकार में अलख निरंजन निराकार।अलख निरंजन निराकार में पारब्रम्ह।पारब्रम्ह में कामधेनु गाय।कामधेनु गाय से उत्पन्न भई माता अघोर गायत्री।अघोर गायत्री अज़रा जरें।काट्या घाव भरें।अमिया पीवें।अभय मण्डल में रहन्ती।असँख्य रूप धरन्ती।साधु संतों को तारन्ती।अभेद कवच भेदन्ती।छल कपट छेदन्ती।लख चौरासी जिया जून से टालन्ती।अपने ग्वाल बाल को पालन्ती।इंद्री का श्राप टालन्ती।वैतरणी नदी से पार उतारन्ती।अघोर गायत्री माई सत्य सागरी।ओउम तरी।सोहंम तरी।रेवन्तरी।धावन्तरि।अजरावन्ती।वजरावन्ती।वासु मुनि के वचना दुर्वासा ऋषि के लार पडन्ती।अट्ठारह भार वनस्पति चरन्ती।गोचरी।अगोचरी।खेचरी।भूचरी।चाचरी।।सुमेरू पर्वत पर बैठन्ती।हूँ हूँ कार करन्ती।पंचमुख पसारन्ती।गंगा यमुना सरस्वती में खेलन्ती।अजपा जाप जपन्ती।सात हत्या पाप उतारन्ती।अघोर गायत्री अनहद में गाजे।काल पुरुष खाये तो गुरु गोरक्षनाथ लाजे।तार तार माता अघोर गायत्री तारिणी।सकल दुःख निवारिणी।बोलो बंम बंम।ॐ अघोराय विदमहे महाअघोराय धीमहि तन्नो अघोराय प्रचोदयात।इतना अघोर गायत्री मंत्र जाप सम्पूर्ण भया।शून्य की गादी बैठ राजा गोपीचन्द नाथ जी ने आपो आप सुनाया।श्री नाथजी गुरुजी को आदेश                                                                                                                                                 ।आदेश।आदेश।

Sunday 4 March 2018

जटा बांधने का गायत्री मंत्र

ॐ सत नमो आदेश गुरु जी को
ओमगुरुजी नीली पिली सिर जटा , जटा रमाई पाताल गंगा नाम शतानि शिवजटा ,अनन्त जटा भुजा पसर |नाम सहस्त्रेण विष्णु ब्रह्मा , भेद जटा का शिव शंकर पाया |अगन प्रजाले ब्रह्माजी बैठे , जटा अगन में होमे काया |तापी जटा तापी काया , तक महादेव बन्दा पाया  |उरम धुरम सिर  जटा ज्वाला ,सिर उनमन पलटे पारा |अह्नाद नाद बजे हमारा  ,सिद्ध नाथ श्री गोरखजी ने कहाया |शब्द का सुच्चा , गुरां का बन्दा . गुरुप्रसाद जटा जमाया |काम क्रोध त्यागे माया ,अक्षय योगी सबसे न्यारा |बिना मंत्र पढ़ जटा जमाया , सो योगी नरक समाया |मंत्र पढ़ जटा समाया , सो योगी जटा शिवपुरी में बासा |इतना जटा जप सम्पूर्ण भया |श्री नाथ गुरूजी को आदेश | आदेश | आदेश |

Tuesday 17 October 2017

अघोर व अघोरी साधना

शैव संप्रदाय में साधना की एक रहस्यमयी शाखा है अघोरपंथ। अघोरी की कल्पना की जाए तो श्मशान में तंत्र क्रिया करने वाले किसी ऐसे साधु की तस्वीर जेहन में उभरती है जिसकी वेशभूषा डरावनी होती है। अघोरियों के वेश में कोई ढोंगी आपको ठग सकता है लेकिन अघोरियों की पहचान यही है कि वे किसी से कुछ मांगते नहीं है और बड़ी बात यह कि तब ही संसार में दिखाई देते हैं जबकि वे पहले से नियुक्त श्मशान जा रहे हो या वहां से निकल रहे हों। दूसरा वे कुंभ में नजर आते हैं।

अघोरी को कुछ लोग ओघड़ भी कहते हैं। अघोरियों को डरावना या खतरनाक साधु समझा जाता है लेकिन अघोर का अर्थ है अ+घोर यानी जो घोर नहीं हो, डरावना नहीं हो, जो सरल हो, जिसमें कोई भेदभाव नहीं हो। कहते हैं कि सरल बनना बड़ा ही कठिन होता है। सरल बनने के लिए ही अघोरी कठिन रास्ता अपनाते हैं। साधना पूर्ण होने के बाद अघोरी हमेशा- हमेशा के लिए हिमालय में लीन हो जाता है।

जिनसे समाज घृणा करता है अघोरी उन्हें अपनाता है। लोग श्मशान, लाश, मुर्दे के मांस व कफन आदि से घृणा करते हैं लेकिन अघोर इन्हें अपनाता है। अघोर विद्या व्यक्ति को ऐसा बनाती है जिसमें वह अपने-पराए का भाव भूलकर हर व्यक्ति को समान रूप से चाहता है, उसके भले के लिए अपनी विद्या का प्रयोग करता है।

अघोर विद्या सबसे कठिन लेकिन तत्काल फलित होने वाली विद्या है। साधना के पूर्व मोह-माया का त्याग जरूरी है। मूलत: अघोरी उसे कहते हैं जिसके भीतर से अच्छे-बुरे, सुगंध-दुर्गंध, प्रेम-नफरत, ईर्ष्या-मोह जैसे सारे भाव मिट जाएं। सभी तरह के वैराग्य को प्राप्त करने के लिए ये साधु श्मशान में कुछ दिन गुजारने के बाद पुन: हिमालय या जंगल में चले जाते हैं।

अघोरी खाने-पीने में किसी तरह का कोई परहेज नहीं नहीं करता। रोटी मिले तो रोटी खा लें, खीर मिले खीर खा लें, बकरा मिले तो बकरा और मानव शव मिले तो उससे भी परहेज नहीं। यह तो ठीक है अघोरी सड़ते पशु का मांस भी बिना किसी हिचकिचाहट के खा लेता है। अघोरी लोग गाय का मांस छोड़कर बाकी सभी चीजों का भक्षण करते हैं। मानव मल से लेकर मुर्दे का मांस तक।

घोरपंथ में श्मशान साधना का विशेष महत्व है। अघोरी जानना चाहता है कि मौत क्या होती है और वैराग्य क्या होता है। आत्मा मरने के बाद कहां चली जाती है? क्या आत्मा से बात की जा सकती है? ऐसे ढेर सारे प्रश्न है जिसके कारण अघोरी श्मशान में वास करना पसंद करते हैं। मान्यता है कि श्मशान में साधना करना शीघ्र ही फलदायक होता है। श्मशान में साधारण मानव जाता ही नहीं, इसीलिए साधना में विघ्न पड़ने का कोई प्रश्न नहीं।

अघोरी मानते हैं कि जो लोग दुनियादारी और गलत कामों के लिए तंत्र साधना करते हैं अंत में उनका अहित ही होता है। श्मशान में तो शिव का वास है उनकी उपासना हमें मोक्ष की ओर ले जाती है।

अघोरी श्मशान में कौन-सी साधना करते हैं...अघोरी श्मशान घाट में तीन तरह से साधना करते हैं- श्मशान साधना, शव साधना और शिव साधना।

शव साधना : मान्यता है कि इस साधना को करने के बाद मुर्दा बोल उठता है और आपकी इच्छाएं पूरी करता है

शिव साधना में शव के ऊपर पैर रखकर खड़े रहकर साधना की जाती है। बाकी तरीके शव साधना की ही तरह होते हैं। इस साधना का मूल शिव की छाती पर पार्वती द्वारा रखा हुआ पांव है। ऐसी साधनाओं में मुर्दे को प्रसाद के रूप में मांस और मदिरा चढ़ाया जाता है।

शव और शिव साधना के अतिरिक्त तीसरी साधना होती है श्मशान साधना, जिसमें आम परिवारजनों को भी शामिल किया जा सकता है। इस साधना में मुर्दे की जगह शवपीठ की पूजा की जाती है। उस पर गंगा जल चढ़ाया जाता है। यहां प्रसाद के रूप में भी मांस-मंदिरा की जगह मावा चढ़ाया जाता है।

भूत-पिशाचों से बचने के लिए क्या करते हैं अघोरी...

अघोरियों के पास भूतों से बचने के लिए एक खास मंत्र रहता है। साधना के पूर्व अघोरी अगरबत्ती, धूप लगाकर दीपदान करता है और फिर उस मंत्र को जपते हुए वह चिता के और अपने चारों ओर लकीर खींच देता है। फिर तुतई बजाना शुरू करता है और साधना शुरू हो जाती है। ऐसा करके अघोरी अन्य प्रेत-पिशाचों को चिता की आत्मा और खुद को अपनी साधना में विघ्न डालने से रोकता है।

क्यों जिद्दी और गुस्सैल होते हैं अघोरी...
अघोरियों के बारे में मान्यता है कि वे बड़े ही जिद्दी होते हैं। अगर किसी से कुछ मांगेंगे, तो लेकर ही जाएंगे। क्रोधित हो जाएंगे तो अपना तांडव दिखाएंगे या भला-बुरा कहकर उसे शाप देकर चले जाएंगे। एक अघोरी बाबा की आंखें लाल सुर्ख होती हैं लेकिन अघोरी की आंखों में जितना क्रोध दिखाई देता हैं बातों में उतनी ही शीतलता होती है।

अघोरी की वेशभूषा...
कफन के काले वस्त्रों में लिपटे अघोरी बाबा के गले में धातु की बनी नरमुंड की माला लटकी होती है। नरमुंड न हो तो वे प्रतीक रूप में उसी तरह की माला पहनते हैं। हाथ में चिमटा, कमंडल, कान में कुंडल, कमर में कमरबंध और पूरे शरीर पर राख मलकर रहते हैं ये साधु। ये साधु अपने गले में काली ऊन का एक जनेऊ रखते हैं जिसे 'सिले' कहते हैं। गले में एक सींग की नादी रखते हैं। इन दोनों को 'सींगी सेली' कहते है।

अघोरपंथ तांत्रिकों के तीर्थस्थल...
अघोरपंथ के लोग चार स्थानों पर ही श्मशान साधना करते हैं। चार स्थानों के अलावा वे शक्तिपीठों, बगलामुखी, काली और भैरव के मुख्य स्थानों के पास के श्मशान में साधना करते हैं। यदि आपको पता चले कि इन स्थानों को छोड़कर अन्य स्थानों पर भी अघोरी साधना करते हैं तो यह कहना होगा कि वे अन्य श्मशान में साधना नहीं करते बल्कि यात्रा प्रवास के दौरान वे वहां विश्राम करने रुकते होंगे या फिर वे ढोंगी होंगे।

तीन प्रमुख स्थान :

1. तारापीठ का श्मशान : कोलकाता से 180 किलोमीटर दूर स्थित तारापीठ धाम की खासियत यहां का महाश्मशान है। वीरभूम की तारापीठ (शक्तिपीठ) अघोर तांत्रिकों का तीर्थ है। यहां आपको हजारों की संख्या में अघोर तांत्रिक मिल जाएंगे। तंत्र साधना के लिए जानी-मानी जगह है तारापीठ, जहां की आराधना पीठ के निकट स्थित श्मशान में हवन किए बगैर पूरी नहीं मानी जाती। कालीघाट को तांत्रिकों का गढ़ माना जाता है।

कालीघाट में होती हैं अघोर तांत्रिक सिद्धियां

2. कामाख्या पीठ के श्मशान : कामाख्या पीठ भारत का प्रसिद्ध शक्तिपीठ है, जो असम प्रदेश में है। कामाख्या देवी का मंदिर गुवाहाटी रेलवे स्टेशन से 10 किलोमीटर दूर नीलांचल पर्वत पर स्थित है। प्राचीनकाल से सतयुगीन तीर्थ कामाख्या वर्तमान में तंत्र-सिद्धि का सर्वोच्च स्थल है। कालिका पुराण तथा देवीपुराण में 'कामाख्या शक्तिपीठ' को सर्वोत्तम कहा गया है और यह भी तांत्रिकों का गढ़ है।

3. रजरप्पा का श्मशान : रजरप्पा में छिन्नमस्ता देवी का स्थान है। रजरप्पा की छिन्नमस्ता को 52 शक्तिपीठों में शुमार किया जाता है लेकिन जानकारों के अनुसार छिन्नमस्ता 10 महाविद्याओं में एक हैं। उनमें 5 तांत्रिक और 5 वैष्णवी हैं। तांत्रिक महाविद्याओं में कामरूप कामाख्या की षोडशी और तारापीठ की तारा के बाद इनका स्थान आता है।

4. चक्रतीर्थ का श्मशान : मध्यप्रदेश के उज्जैन में चक्रतीर्थ नामक स्थान और गढ़कालिका का स्थान तांत्रिकों का गढ़ माना जाता है। उज्जैन में काल भैरव और विक्रांत भैरव भी तांत्रिकों का मुख्य स्थान माना जाता है।

दस महा विद्या साबर गायत्री मंत्र

दश महाविद्या शाबर मन्त्र :
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सत नमो आदेश । गुरुजी को आदेश । ॐ गुरुजी । ॐ सोऽहं सिद्ध की काया, तीसरा नेत्र त्रिकुटी ठहराया । गगण मण्डल में अनहद बाजा । वहाँ देखा शिवजी बैठा, गुरु हुकम से भितरी बैठा, शुन्य में ध्यान गोरख दिठा । यही ध्यान तपे महेशा, यही ध्यान ब्रह्माजी लाग्या । यही ध्यान विष्णु की माया ! ॐ कैलाश गिरी से, आयी पार्वती देवी, जाकै सन्मुख बैठ गोरक्ष योगी, देवी ने जब किया आदेश । नहीं लिया आदेश, नहीं दिया उपदेश । सती मन में क्रोध समाई, देखु गोरख अपने माही, नौ दरवाजे खुले कपाट, दशवे द्वारे अग्नि प्रजाले, जलने लगी तो पार पछताई । राखी राखी गोरख राखी, मैं हूँ तेरी चेली, संसार सृष्टि की हूँ मैं माई । कहो शिवशंकर स्वामीजी, गोरख योगी कौन है दिठा । यह तो योगी सबमें विरला, तिसका कौन विचार । हम नहीं जानत, अपनी करणी आप ही जानी । गोरख देखे सत्य की दृष्टि । दृष्टि देख कर मन भया उनमन, तब गोरख कली बिच कहाया । हम तो योगी गुरुमुख बोली, सिद्धों का मर्म न जाने कोई । कहो पार्वती देवीजी अपनी शक्ति कौन-कौन समाई । तब सती ने शक्ति की खेल दिखायी, दस महाविद्या की प्रगटली ज्योति ।

प्रथम ज्योति महाकाली प्रगटली ।
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।। महाकाली ।।

ॐ निरंजन निराकार अवगत पुरुष तत सार, तत सार मध्ये ज्योत, ज्योत मध्ये परम ज्योत, परम ज्योत मध्ये उत्पन्न भई माता शम्भु शिवानी काली ओ काली काली महाकाली, कृष्ण वर्णी, शव वहानी, रुद्र की पोषणी, हाथ खप्पर खडग धारी, गले मुण्डमाला हंस मुखी । जिह्वा ज्वाला दन्त काली । मद्यमांस कारी श्मशान की राणी । मांस खाये रक्त-पी-पीवे । भस्मन्ति माई जहाँ पर पाई तहाँ लगाई । सत की नाती धर्म की बेटी इन्द्र की साली काल की काली जोग की जोगीन, नागों की नागीन मन माने तो संग रमाई नहीं तो श्मशान फिरे अकेली चार वीर अष्ट भैरों, घोर काली अघोर काली अजर बजर अमर काली भख जून निर्भय काली बला भख, दुष्ट को भख, काल भख पापी पाखण्डी को भख जती सती को रख, ॐ काली तुम बाला ना वृद्धा, देव ना दानव, नर ना नारी देवीजी तुम तो हो परब्रह्मा काली ।
क्रीं क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं ह्रीं दक्षिणे कालिके क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं ह्रीं स्वाहा ।

द्वितीय ज्योति तारा त्रिकुटा तोतला प्रगटी ।
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।। तारा ।।
ॐ आदि योग अनादि माया जहाँ पर ब्रह्माण्ड उत्पन्न भया । ब्रह्माण्ड समाया आकाश मण्डल तारा त्रिकुटा तोतला माता तीनों बसै ब्रह्म कापलि, जहाँ पर ब्रह्मा विष्णु महेश उत्पत्ति, सूरज मुख तपे चंद मुख अमिरस पीवे, अग्नि मुख जले, आद कुंवारी हाथ खण्डाग गल मुण्ड माल, मुर्दा मार ऊपर खड़ी देवी तारा । नीली काया पीली जटा, काली दन्त में जिह्वा दबाया । घोर तारा अघोर तारा, दूध पूत का भण्डार भरा । पंच मुख करे हां हां ऽऽकारा, डाकिनी शाकिनी भूत पलिता सौ सौ कोस दूर भगाया । चण्डी तारा फिरे ब्रह्माण्डी तुम तो हों तीन लोक की जननी ।
ॐ ह्रीं स्त्रीं फट्, ॐ ऐं ह्रीं स्त्रीं हूँ फट्

तृतीय ज्योति त्रिपुर सुन्दरी प्रगटी ।
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।। षोडशी-त्रिपुर सुन्दरी ।।
ॐ निरञ्जन निराकार अवधू मूल द्वार में बन्ध लगाई पवन पलटे गगन समाई, ज्योति मध्ये ज्योत ले स्थिर हो भई ॐ मध्याः उत्पन्न भई उग्र त्रिपुरा सुन्दरी शक्ति आवो शिवधर बैठो, मन उनमन, बुध सिद्ध चित्त में भया नाद । तीनों एक त्रिपुर सुन्दरी भया प्रकाश । हाथ चाप शर धर एक हाथ अंकुश । त्रिनेत्रा अभय मुद्रा योग भोग की मोक्षदायिनी । इडा पिंगला सुषम्ना देवी नागन जोगन त्रिपुर सुन्दरी । उग्र बाला, रुद्र बाला तीनों ब्रह्मपुरी में भया उजियाला । योगी के घर जोगन बाला, ब्रह्मा विष्णु शिव की माता ।
श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं सौः ॐ ह्रीं श्रीं कएईलह्रीं
हसकहल ह्रीं सकल ह्रीं सोः
ऐं क्लीं ह्रीं श्रीं ।

चतुर्थ ज्योति भुवनेश्वरी प्रगटी ।‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍
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।। भुवनेश्वरी ।।
ॐ आदि ज्योति अनादि ज्योत ज्योत मध्ये परम ज्योत परम ज्योति मध्ये शिव गायत्री भई उत्पन्न, ॐ प्रातः समय उत्पन्न भई देवी भुवनेश्वरी । बाला सुन्दरी कर धर वर पाशांकुश अन्नपूर्णी दूध पूत बल दे बालका ऋद्धि सिद्धि भण्डार भरे, बालकाना बल दे जोगी को अमर काया । चौदह भुवन का राजपाट संभाला कटे रोग योगी का, दुष्ट को मुष्ट, काल कन्टक मार । योगी बनखण्ड वासा, सदा संग रहे भुवनेश्वरी माता ।
ह्रीं

पञ्चम ज्योति छिन्नमस्ता प्रगटी ।
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।। छिन्नमस्ता ।।
सत का धर्म सत की काया, ब्रह्म अग्नि में योग जमाया । काया तपाये जोगी (शिव गोरख) बैठा, नाभ कमल पर छिन्नमस्ता, चन्द सूर में उपजी सुष्मनी देवी, त्रिकुटी महल में फिरे बाला सुन्दरी, तन का मुन्डा हाथ में लिन्हा, दाहिने हाथ में खप्पर धार्या । पी पी पीवे रक्त, बरसे त्रिकुट मस्तक पर अग्नि प्रजाली, श्वेत वर्णी मुक्त केशा कैची धारी । देवी उमा की शक्ति छाया, प्रलयी खाये सृष्टि सारी । चण्डी, चण्डी फिरे ब्रह्माण्डी भख भख बाला भख दुष्ट को मुष्ट जती, सती को रख, योगी घर जोगन बैठी, श्री शम्भुजती गुरु गोरखनाथजी ने भाखी । छिन्नमस्ता जपो जाप, पाप कन्टन्ते आपो आप, जो जोगी करे सुमिरण पाप पुण्य से न्यारा रहे । काल ना खाये ।
श्रीं क्लीं ह्रीं ऐं वज्र-वैरोचनीये हूं हूं फट् स्वाहा ।

षष्टम ज्योति भैरवी प्रगटी ।
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।। भैरवी ।।
ॐ सती भैरवी भैरो काल यम जाने यम भूपाल तीन नेत्र तारा त्रिकुटा, गले में माला मुण्डन की । अभय मुद्रा पीये रुधिर नाशवन्ती ! काला खप्पर हाथ खंजर, कालापीर धर्म धूप खेवन्ते वासना गई सातवें पाताल, सातवें पाताल मध्ये परम-तत्त्व परम-तत्त्व में जोत, जोत में परम जोत, परम जोत में भई उत्पन्न काल-भैरवी, त्रिपुर-भैरवी, सम्पत्त-प्रदा-भैरवी, कौलेश-भैरवी, सिद्धा-भैरवी, विध्वंसिनि-भैरवी, चैतन्य-भैरवी, कामेश्वरी-भैरवी, षटकुटा-भैरवी, नित्या-भैरवी । जपा अजपा गोरक्ष जपन्ती यही मन्त्र मत्स्येन्द्रनाथजी को सदा शिव ने कहायी । ऋद्ध फूरो सिद्ध फूरो सत श्रीशम्भुजती गुरु गोरखनाथजी अनन्त कोट सिद्धा ले उतरेगी काल के पार, भैरवी भैरवी खड़ी जिन शीश पर, दूर हटे काल जंजाल भैरवी मन्त्र बैकुण्ठ वासा । अमर लोक में हुवा निवासा ।
ॐ ह्सैं ह्स्क्ल्रीं ह्स्त्रौः

सप्तम ज्योति धूमावती प्रगटी
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।। धूमावती ।।
ॐ पाताल निरंजन निराकार, आकाश मण्डल धुन्धुकार, आकाश दिशा से कौन आये, कौन रथ कौन असवार, आकाश दिशा से धूमावन्ती आई, काक ध्वजा का रथ अस्वार आई थरै आकाश, विधवा रुप लम्बे हाथ, लम्बी नाक कुटिल नेत्र दुष्टा स्वभाव, डमरु बाजे भद्रकाली, क्लेश कलह कालरात्रि । डंका डंकनी काल किट किटा हास्य करी । जीव रक्षन्ते जीव भक्षन्ते जाजा जीया आकाश तेरा होये । धूमावन्तीपुरी में वास, न होती देवी न देव तहा न होती पूजा न पाती तहा न होती जात न जाती तब आये श्रीशम्भुजती गुरु गोरखनाथ आप भयी अतीत ।
ॐ धूं धूं धूमावती स्वाहा ।

अष्टम ज्योति बगलामुखी प्रगटी ।
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।। बगलामुखी ।।
ॐ सौ सौ दुता समुन्दर टापू, टापू में थापा सिंहासन पिला । संहासन पीले ऊपर कौन बसे । सिंहासन पीला ऊपर बगलामुखी बसे, बगलामुखी के कौन संगी कौन साथी । कच्ची बच्ची काक-कूतिया-स्वान-चिड़िया, ॐ बगला बाला हाथ मुद्-गर मार, शत्रु हृदय पर सवार तिसकी जिह्वा खिच्चै बाला । बगलामुखी मरणी करणी उच्चाटण धरणी, अनन्त कोट सिद्धों ने मानी ॐ बगलामुखी रमे ब्रह्माण्डी मण्डे चन्दसुर फिरे खण्डे खण्डे । बाला बगलामुखी नमो नमस्कार ।
ॐ ह्लीं ब्रह्मास्त्राय विद्महे स्तम्भन-बाणाय धीमहि तन्नो बगला प्रचोदयात् ।

नवम ज्योति मातंगी प्रगटी ।
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।। मातंगी ।।
ॐ शून्य शून्य महाशून्य, महाशून्य में ॐ-कार, ॐ-कार में शक्ति, शक्ति अपन्ते उहज आपो आपना, सुभय में धाम कमल में विश्राम, आसन बैठी, सिंहासन बैठी पूजा पूजो मातंगी बाला, शीश पर अस्वारी उग्र उन्मत्त मुद्राधारी, उद गुग्गल पाण सुपारी, खीरे खाण्डे मद्य-मांसे घृत-कुण्डे सर्वांगधारी । बुन्द मात्रेन कडवा प्याला, मातंगी माता तृप्यन्ते । ॐ मातंगी-सुन्दरी, रुपवन्ती, कामदेवी, धनवन्ती, धनदाती, अन्नपूर्णी अन्नदाती, मातंगी जाप मन्त्र जपे काल का तुम काल को खाये । तिसकी रक्षा शम्भुजती गुरु गोरखनाथजी करे ।
ॐ ह्रीं क्लीं हूं मातंग्यै फट् स्वाहा ।

दसवीं ज्योति कमला प्रगटी ।
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।। कमला ।।
ॐ अ-योनी शंकर ॐ-कार रुप, कमला देवी सती पार्वती का स्वरुप । हाथ में सोने का कलश, मुख से अभय मुद्रा । श्वेत वर्ण सेवा पूजा करे, नारद इन्द्रा । देवी देवत्या ने किया जय ॐ-कार । कमला देवी पूजो केशर पान सुपारी, चकमक चीनी फतरी तिल गुग्गल सहस्र कमलों का किया हवन । कहे गोरख, मन्त्र जपो जाप जपो ऋद्धि सिद्धि की पहचान गंगा गौरजा पार्वती जान । जिसकी तीन लोक में भया मान । कमला देवी के चरण कमल को आदेश ।
ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं श्रीं सिद्ध-लक्ष्म्यै नमः ।

सुनो पार्वती हम मत्स्येन्द्र पूता, आदिनाथ नाती, हम शिव स्वरुप उलटी थापना थापी योगी का योग, दस विद्या शक्ति जानो, जिसका भेद शिव शंकर ही पायो । सिद्ध योग मर्म जो जाने विरला तिसको प्रसन्न भयी महाकालिका । योगी योग नित्य करे प्रातः उसे वरद भुवनेश्वरी माता । सिद्धासन सिद्ध, भया श्मशानी तिसके संग बैठी बगलामुखी । जोगी खड दर्शन को कर जानी, खुल गया ताला ब्रह्माण्ड भैरवी । नाभी स्थाने उडीय्यान बांधी मनीपुर चक्र में बैठी, छिन्नमस्ता रानी । ॐ-कार ध्यान लाग्या त्रिकुटी, प्रगटी तारा बाला सुन्दरी । पाताल जोगन (कुण्डलिनी) गगन को चढ़ी, जहां पर बैठी त्रिपुर सुन्दरी । आलस मोड़े, निद्रा तोड़े तिसकी रक्षा देवी धूमावन्ती करें । हंसा जाये दसवें द्वारे देवी मातंगी का आवागमन खोजे । जो कमला देवी की धूनी चेताये तिसकी ऋद्धि सिद्धि से भण्डार भरे । जो दसविद्या का सुमिरण करे । पाप पुण्य से न्यारा रहे । योग अभ्यास से भये सिद्धा आवागमन निवरते । मन्त्र पढ़े सो नर अमर लोक में जाये । इतना दस महाविद्या मन्त्र जाप सम्पूर्ण भया । अनन्त कोट सिद्धों में, गोदावरी त्र्यम्बक क्षेत्र अनुपान शिला, अचलगढ़ पर्वत पर बैठ श्रीशम्भुजती गुरु गोरखनाथजी ने पढ़ कथ कर सुनाया श्रीनाथजी गुरुजी को आदेश । आदेश ।।
शिव गोरक्ष कल्याण करे

Sunday 17 September 2017

तंत्र

1. तंत्र में शरीर है महत्वपूर्ण : साधारण अर्थ में तंत्र का अंर्थ तन से, मंत्र का अर्थ मन से और यंत्र का अर्थ किसी मशीन या वस्तु से होता है। तंत्र का एक दूसरा अर्थ होता है व्यवस्था। तंत्र मानता है कि हम शरीर में है यह एक वास्तविकता है। भौतिक शरीर ही हमारे सभी कार्यों का एक केंद्र है। अत: इस शरीर को हर तरह से तृप्त और स्वस्थ रखना अत्यंत जरूरी है। इस शरीर की क्षमता को बढ़ाना जरूरी है। इस शरीर से ही अध्यात्म को साधा जा सकता है। योग भी यही कहता है। तंत्र का मांस, मदिरा और संभोग से किसी भी प्रकार का संबंध नहीं है, जो व्यक्ति इस तरह के घोर कर्म में लिप्त है, वह कभी तांत्रिक नहीं बन सकता। तंत्र को इसी तरह के लोगों ने बदनाम कर दिया है। तांत्रिक साधना का मूल उद्देश्य सिद्धि से साक्षात्कार करना है। इसके लिए अंतर्मुखी होकर साधनाएं की जाती हैं।

2.तंत्र के ग्रंथ : तंत्र को मूलत: शैव आगम शास्त्रों से जोड़कर देखा जाता है, लेकिन इसका मूल अथर्ववेद में पाया जाता है। तंत्र शास्त्र 3 भागों में विभक्त है आगम तंत्र, यामल तंत्र और मुख्‍य तंत्र। आगम में शैवागम, रुद्रागम और भैरवागमन प्रमुख है। वाराहीतंत्र के अनुसार जिसमें सृष्टि प्रलय, देवताओं की पूजा, सत्कर्यों के साधन, पुरश्चरण, षट्कर्मसाधन और चार प्रकार के ध्यानयोग का वर्णन हो उसे ‘आगम’ कहते हैं। जिसमें सृष्टितत्त्व, ज्योतिष, नित्य कृत्य, क्रम, सूत्र, वर्णभेद और युगधर्म का वर्णन हो उसे ‘यामल’ कहते हैं। इसी तरह जिसमें सृष्टि, लय, मन्त्र, निर्णय, तीर्थ, आश्रमधर्म, कल्प, ज्योतिषसंस्थान, व्रतकथा, शौच-अशौच, स्त्रीपुरुषलक्षण, राजधर्म, दानधर्म, युगधर्म, व्यवहार तथा आध्यात्मिक नियमों का वर्णन हो, वह ‘मुख्य तंत्र’ कहलाता है। वाराही तंत्र के अनुसार तंत्र के नौ लाख श्लोकों में एक लाख श्लोक भारत में हैं। तंत्र साहित्य विस्मृति के चलते विनाश और उपेक्षा का शिकार हो गया है। अब तंत्र शास्त्र के अनेक ग्रंथ लुप्त हो चुके हैं। वर्तमान में प्राप्त सूचनाओं के अनुसार 199 तंत्र ग्रंथ हैं। तंत्र का विस्तार ईसा पूर्व से तेरहवीं शताब्दी तक बड़े प्रभावशाली रूप में भारत, चीन, तिब्बत, थाईदेश, मंगोलिया, कंबोज आदि देशों में रहा। तंत्र को तिब्बती भाषा में ऋगयुद कहा जाता है। समस्त ऋगयुद 78 भागों में है जिनमें 2640 स्वतंत्र ग्रंथ हैं। इनमें कई ग्रंथ भारतीय तंत्र ग्रंथों का अनुवाद है और कई तिब्बती तपस्वियों द्वारा रचित है।

3.रहस्यमयी विद्याएं : तंत्र में बहुत सारी विद्याएं आती है उसी में एक है गुह्य-विद्या। गुह्य का अर्थ है रहस्य। तंत्र विद्या के माध्‍यम से व्यक्ति अपनी आत्मशक्ति का विकास करके कई तरह की शक्तियों से संपन्न हो सकता है। यही तंत्र का उद्देश्य है। इसी तरह तंत्र से ही सम्मोहन, त्राटक, त्रिकाल, इंद्रजाल, परा, अपरा और प्राण विद्या का जन्म हुआ है। तंत्र से वशीकरण, मोहन, विद्वेषण, उच्चाटन और स्तम्भन क्रियाएं भी की जाती है। इसी तरह मनुष्य से पशु बन जाना, गायब हो जाना, एक साथ 5-5 रूप बना लेना, समुद्र को लांघ जाना, विशाल पर्वतों को उठाना, करोड़ों मील दूर के व्यक्ति को देख लेना व बात कर लेना जैसे अनेक कार्य ये सभी तंत्र की बदौलत ही संभव हैं। तंत्र शास्त्र के मंत्र और पूजा अलग किस्म के होते हैं।

4.तांत्रिक गुरु : तंत्र के प्रथम उपदेशक भगवान शंकर और उसके बाद भगवान दत्तात्रेय हुए हैं। बाद में सिद्ध, योगी, शाक्त और नाथ परंपरा का प्रचलन रहा है। तंत्र साधना के प्रणेता, शिव, दत्तात्रेय के अलावा नारद, परशुराम, पिप्पलादि, वसिष्ठ, सनक, शुक, सन्दन, सनतकुमार, भैरव, भैरवी, काली आदि कई ऋषि मुनि इस साधना के उपासक रहे हैं। ब्रह्मयामल में बहुसंख्यक ऋषियों का नामोल्लेख है, जिसमें शिव ज्ञान के प्रवर्तक थे; उनमें उशना, बृहस्पति, दधीचि, सनत्कुमार, नमुलीश आदि उल्लेख मिलता है। जयद्रथयामल के मंगलाष्टक प्रकरण में तन्त्र प्रवर्तक बहुत से ऋषियों के नाम हैं, जैसे दुर्वासा, सनक, विष्णु, कस्प्य, संवर्त, विश्वामित्र, गालव, गौतम, याज्ञवल्क्य, शातातप, आपस्तम्ब, कात्यायन, भृगु आदि।

5.तंत्र से हथियार :- तंत्र के माध्यम से ही प्राचीनकाल में घातक किस्म के हथियार बनाए जाते थे, जैसे पाशुपतास्त्र, नागपाश, ब्रह्मास्त्र आदि। जिसमें यंत्रों के स्थान पर मानव अंतराल में रहने वाली विद्युत शक्ति को कुछ ऐसी विशेषता संपन्न बनाया जाता है जिससे प्रकृति से सूक्ष्म परमाणु उसी स्थिति में परिणित हो जाते हैं जिसमें कि मनुष्य चाहता है। पदार्थों की रचना, परिवर्तन और विनाश का बड़ा भारी काम बिना किन्हीं यंत्रों की सहायता के तंत्र द्वारा हो सकता है। विज्ञान के इस तंत्र भाग को ‘सावित्री विज्ञान’ तंत्र-साधना, वाममार्ग आदि नामों से पुकारते हैं। तंत्र-शास्त्र में जो पंच प्रकार की साधना बतलाई गई है, उसमें मुद्रा साधन बड़े महत्व का और श्रेष्ठ है। मुद्रा में आसन, प्राणायाम, ध्यान आदि योग की सभी क्रियाओं का समावेश होता है।

👉🏿6.तांत्रिक साधना : तांत्रिक साधना को साधारणतया 3 मार्ग- वाम मार्ग, दक्षिण मार्ग और मध्यम मार्ग कहा गया है। हालांकि यह मुख्यत: दो प्रकार की होती है- एक वाम मार्गी तथा दूसरी दक्षिण मार्गी। वाम मार्गी साधना बेहद कठिन है। वाम मार्गी तंत्र साधना में 6 प्रकार के कर्म बताए गए हैं जिन्हें षट् कर्म कहते हैं। शांति, वक्ष्य, स्तम्भनानि, विद्वेषणोच्चाटने तथा। गोरणों तनिसति षट कर्माणि मणोषणः॥ अर्थात शांति कर्म, वशीकरण, स्तंभन, विद्वेषण, उच्चाटन, मारण ये छ: तांत्रिक षट् कर्म। इसके अलावा नौ प्रयोगों का वर्णन मिलता है:- मारण मोहनं स्तम्भनं विद्वेषोच्चाटनं वशम्। आकर्षण यक्षिणी चारसासनं कर त्रिया तथा॥ अर्थात: मारण, मोहनं, स्तम्भनं, विद्वेषण, उच्चाटन, वशीकरण, आकर्षण, यक्षिणी साधना, रसायन क्रिया तंत्र के ये 9 प्रयोग हैं। रोग कृत्वा गृहादीनां निराण शन्तिर किता। विश्वं जानानां सर्वेषां निधयेत्व मुदीरिताम्॥ पूधृत्तरोध सर्वेषां स्तम्भं समुदाय हृतम्। स्निग्धाना द्वेष जननं मित्र, विद्वेषण मतत॥ प्राणिनाम प्राणं हरपां मरण समुदाहृमत्। जिससे रोग, कुकृत्य और ग्रह आदि की शांति होती है, उसको शांति कर्म कहा जाता है और जिस कर्म से सब प्राणियों को वश में किया जाए, उसको वशीकरण प्रयोग कहते हैं तथा जिससे प्राणियों की प्रवृत्ति रोक दी जाए, उसको स्तम्भन कहते हैं तथा दो प्राणियों की परस्पर प्रीति को छुड़ा देने वाला नाम विद्वेषण है और जिस कर्म से किसी प्राणी को देश आदि से पृथक कर दिया जाए, उसको उच्चाटन प्रयोग कहते हैं तथा जिस कर्म से प्राण हरण किया जाए, उसको मारण कर्म कहते हैं।

7.तंत्र के प्रतीक : त्रिकोण से बनाए गए स्टार के बीच स्वास्तिक या ॐ का चिन्हा, हाथों में लगाई जाने वाली मेहंदी, आंगन द्वारों पर चित्रित की जाने वाली अल्पना, बालक के संध्या काल पैदा होने पर लगाए जाने वाले स्वास्तिक और डलिया की आकृति, दीपावली और अन्य त्योहारों पर सजाई गई रंगोली आदि तंत्र के प्रतीक हैं। हालांकि तंत्र के और भी प्रतीक हैं जैसे योग की कुछ मुद्राएं, क्रियाएं आदि।

8.तांत्रिक मंत्र : मुख्यत: 3 प्रकार के मंत्र होते हैं- 1. वैदिक मंत्र, 2. तांत्रिक मंत्र और 3. शाबर मंत्र। तांत्रिकों के बीज मंत्रों में ह्नीं, क्लीं, श्रीं, ऐं, क्रूं आदि तरह के अक्षरों का उपयोग किया जाता है। जिस भी मंत्र में प्रारंभ में इस तरह के अक्षर होते हैं वे सभी तांत्रिक मंत्र होते हैं। एक अक्षर से पता चलता है कि यह किस देवता का मंत्र है जैसे लक्ष्मी माता के लिये श्रीं का उपयोग करते हैं। काली माता के लिये क्रीं का।

तंत्रिक मंत्रों में भी एकाक्षरी (काली) मंत्र ॐ क्रीं,

तीन अक्षरी काली मंत्र ॐ क्रीं ह्रुं ह्रीं॥,

पांच अक्षरी काली मंत्र ॐ क्रीं ह्रुं ह्रीं हूँ फट्॥,

षडाक्षरी काली मंत्र ॐ क्रीं कालिके स्वाहा॥,

सप्ताक्षरी काली मंत्र ॐ हूँ ह्रीं हूँ फट् स्वाहा॥,

श्री दक्षिणकाली पूर्ण मंत्र ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रुं ह्रुं क्रीं क्रीं क्रीं दक्षिणकालिके क्रीं क्रीं क्रीं ह्रुं ह्रुं ह्रीं ह्रीं॥ या    ॐ ह्रुं ह्रुं क्रीं क्रीं क्रीं ह्रीं ह्रीं दक्षिणकालिके ह्रुं ह्रुं क्रीं क्रीं क्रीं ह्रीं ह्रीं स्वाहा॥

9.तंत्र साधना के देवी और देवता : तंत्र साधना में देवी काली, अष्ट भैरवी, नौ दुर्गा, दस महाविद्या, 64 योगिनी आदि देवियों की साधना की जाती है। इसी तरह देवताओं में बटुक भैरव, काल भैरव, नाग महाराज की साधना की जाती है। उक्त की साधना को छोड़कर जो लोग यक्षिणी, पिशाचिनी, अप्सरा, वीर साधना, गंधर्व साधना, किन्नर साधना, नायक नायिका साधान, डाकिनी-शाकिनी, विद्याधर, सिद्ध, दैत्य, दानव, राक्षस, गुह्मक, भूत, वेताल, अघोर आदि की साधनाएं निषेध है।

10.कैसे करें तांत्रिक साधना : सबसे पहली बात तो यह कि आपक क्यों तंत्र साधना करना चाहते हैं? जब आपका यह ‘क्यों’ स्पष्ट हो जाए तब आप उक्त साधना से संबंधित किताबों का अध्ययन करें। किताबों का अध्ययन करने के बाद आप किसी योग्य तंत्र साधन को खोजे। संभव: यह आपको हिन्दू धर्म के संन्यासी समाज के मुख्‍य 13 अखाड़ों के संन्यासियों में मिल जाएंगे। जब यदि कोई योग्य साधक मिल जाता है तो उसके पास रहकर ही यह साधना सीखें और करें। यदि आप चार किताबें पढ़कर यह साधना करते हैं तो आप सावधान हो जाएं, क्योंकि इससे बुरा परिणाम हो सकता है। यदि आपका उद्येश्य इस साधना के माध्यम से किसी का बुरा करना है तब भी आप सावधान हो जाएंगे क्योंकि इसके परिणाम भी आप ही को भुगतने हो सकते हैं।

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Saturday 16 September 2017

शिव का रहस्य

बरगद के पेड़ के नीचे दक्षिण दिशा की ओर मुख कर बैठे हुए भगवान शिव को दक्षिणमूर्ति कहा जाता है। यह रूप गुरुओं के गुरु के रूप में शिव को दर्शाता है। दक्षिण भारत के कई मंदिरों में बरगद के पेड़ के नीचे दक्षिण दिशा की ओर मुख किये हुए भगवान शिव की मूर्तियों का पाया जाना आम बात है। शिव का यह रूप दक्षिणमूर्ति कहलाता है। यह रूप शिव को गुरुओं के गुरु के रूप में दर्शाता है। दक्षिणमूर्ति कैलाश पर्वत के उपर और ध्रुव तारा के नीचे बैठते हैं। यह उत्तर दिशा में है और अब तक इस स्थान को इस गोल पृथ्वी का केंद्र माना जाता है। वह बरगद के पेड़ की छाया में बैठते हैं। बरगद का पेड़ भारत के साधु परंपराओं के साथ जुड़ा हुआ है और ये तपस्वी भौतिकवादी संसार के गृहस्थ लोगों को ज्ञान प्रदान करते हैं। दक्षिण केंद्रदक्षिण में दक्षिणकली प्रसिद्ध है जो देवी का सबसे भयंकर रूप मानी जाती है। यहां दक्षिण दिशा मृत्यु और परिवर्तन को दर्शाती है। यहां वैतर्नी बहती है। यह नदी जीवित लोगों की भूमि को मृतकों की भूमि से अलग करती है। हिंदू गांवों में दक्षिण दिशा में शमशान भूमि का होना आम बात है। यहां मृतकों के शरीर को भी दक्षिण दिशा की ओर रखा जाता है। शिव के कई रूप हैं लेकिन इस रूप में शिव के गले के चारो ओर एक सर्प लिपटा हुआ है और जटाओं के उपर एक चांद है। उनकी दाहिनी तरफ पुरुष की और बाईं ओर स्त्री की बाली है। यह स्वरूप तीन स्तरों को बतलाता है। पहला पौरुष और स्त्रीत्व रूप, दूसरा मन और भौतिकता और तीसरा नाम और रूपों के संसार के साथ अज्ञात और निराकार दुनिया। दक्षिणमूर्ति का बायां हाथ वरद मुद्रा को दर्शाता है जो दान की मुद्रा है। उनके दाहिने हाथ की मुद्रा में उनकी तर्जनी अंगुली अंगुठे को छूती दिखाई गई है जो ज्ञान या पांडित्य को दर्शाता है। यह मुद्रा उन्हें एक गुरु के रूप में भी दिखलाता है जो ज्ञान देते हैं। उनके दो और हाथ दिखाए गये हैं। उनके संकेत अलग-अलग हैं लेकिन वो सभी पांडित्य को दर्शाते हैं। यह एक ईंधनविहीन ताप की आग है या ध्यान का अभ्यास है, जो ज्ञान को दर्शाता है और उन सभी गांठों को जला देता है जो मन को विस्तृत होने से रोकते हैं। उनकी जटा मे लिपटा सांप ज्ञान की जगमगाहट को दर्शाता है और संसार में लिप्त होने के बजाय यह इसकी उत्पत्ति के गवाहों में से एक है। उनके पास मनकों की एक माला है जिसका उपयोग जाप करने और यादाश्त के लिए किया जाता है। उनके पास कई वाद्ययंत्र और किताबें हैं। उनके दाहिने पैर के नीचे अपस्मार नाम का एक राक्षस है जिसे विकृत यादों का राक्षस माना गया है और जो हमारे मन को अनंतता की ओर विस्तृत होने से रोकता है। शिव अपना बायां पैर अपनी दाहिनी जांघ पर रखते हैं। पारंपरिक रूप से शरीर का बायां हिस्सा प्रकृति को दर्शाता है और दायां हिस्सा मन को। नटराज की मूर्ति के अनुसार शिव अपने दाएं पैर को जमीन पर रखे हुए हैं और उनका दायां पैर या तो हवा में है या दाईं जांघ पर। इस छवि के विपरीत कृष्ण हमेशा अपने बाएं पैर पर आराम करते हैं या दायें पैर को बायें पैर के उपर रखते हैं। कृष्ण भौतिकता का आनंद लेते हैं पर वह इसमें ज्ञान को भी समाहित करते हैं। जब कृष्ण के दोनों पैर जमीन पर होते हैं तो इसका अर्थ है कि वो भौतिकता और मन दोनों को महत्ता देते हैं। शिव भौतिकता के उपर मन को महत्ता देते हैं, इसलिये उनका केवल एक पैर जमीन पर होता है और इस कारण उन्हें एकपद यानि कि एक पैर वाला भगवान कहा जाता है। इस प्रकार सांकेतिक रूप से यह रूप ज्ञान के कई प्रकारों को बतलाता है जैसे कि, भौतिकवाद की उथल-पुथल जो दुख का कारण बनती है और उस विचलित मन को स्थिर करने का ज्ञान। शिव के चरणों में कई संत बैठते हैं। शिव कभी-कभी उनलोगों को वेद और तंत्र का रहस्य बतलाते हैं। यह प्रवचन अगम या पौराणिक मंदिर परंपरा कहलाती है और यह निगम या वैदिक अनुष्ठान परंपरा का पूरक है। यह प्रवचन दक्षिणमूर्ति उपनिषद भी कहलाता है। शिव का यह रूप उत्तर भारत से ज्यादा दक्षिण भारत की परंपराओं में अधिक लोकप्रिय है। कहानी के अनुसार सभी साधू शिव के प्रवचन को सुनने के लिए उत्तर की ओर गये और इस कारण पृथ्वी उनके बोझ से एक ओर झुक गया। धरती को संतुलित करने के लिए शिव ने अपने शिष्य अगस्त्य को दक्षिण की ओर यात्रा करने को कहा। यही कारण है कि अगस्त्य दक्षिण के महान साधुओं में गिने जाते हैं। जिन साधुओं ने प्रवचन सुना, उन्होंने शिव से व्याघ्रपद का दान मांगा ताकि वो आसानी से उनकी पूजा के लिए जंगल से फूल इकठ्ठा कर सकें। पतंजलि, सर्प, नंदी बैल और भृंगी को भी एक तीसरे पैर की आवश्यकता थी ताकि वो एक तिपाई की तरह खड़े हो सकें। हयग्रीव एक ऐसे पशु हैं जिनका सिर घोड़े का है और वो कृष्ण का एक रूप माने जाते हैं। कभी-कभी वो सूका का भी रूप माने जाते हैं जिसका सिर तोते का है और जो व्यास के पुत्र हैं। काल और कालीआदि शंकर ने दक्षिणमूर्ति स्त्रोतम की रचना की जिसमें उन्होंने महसूस किया कि किस प्रकार खामोश दिखने वाला यह युवा शिक्षक अपने ज्ञान से बूढ़े साधुओं को प्रकाशित करता है। शिव ज्ञान का साक्षात रूप हैं। साधुओं के द्वारा नहीं बल्कि स्वयं देवी के द्वारा उनसे प्रश्न पूछे गये। बाद में उन्होंने शिव से शादी कर ली और उन्होंने उन्हें प्रवचन के लिए और अपने ज्ञान को चिंतन के माध्यम से साधुओं के बीच साझा करने के लिए प्रोत्साहित किया। तंत्र में इसी प्रकार यह संवाद दिखाया गया है। अगर वो काल यानि समय हैं तो वो काली हैं जो समय को अपने अधीन रखती हैं। यह वो ही हैं जो शव या शिव में शव बनाती हैं। यह देवी ही हैं जो दक्षिण से हैं, जो भौतिकता और परिवर्तन को मूर्त रूप देती हैं और जवाबों को प्रेरित करती हैं। जवाब केवल बोलकर ही नहीं दिए जाते हैं बल्कि इन्हें नृत्य या गीतों के द्वारा भी दर्शाया जाता है। इसलिये भारतीय शास्त्रीय नृत्य इतना समृद्ध है।.

Sunday 10 September 2017

नाद जनेऊ गायत्री मंत्र



सत नमो आदेश गुरु जी को आदेश | ॐ गुरूजी |
आदि से शुन्य ,शुन्य में ओंकार ,आओ सिद्धो नाद बाँध का करो विचार |
नादे चन्द्रमा ,नादे सूर्य नाद रहा घट पिंड भरपूर |
नाद काया का पेखना ,बिन्द काया की राह |
नादे बिन्दे योगी तीनो एक स्वभाव |
बाजै नाद  भई प्रतीत, आये श्री शम्भुजती गुरु गोरखनाथ अतीत |
नाद बाजै काल भागै ,ज्ञान टोपी गोरक्ष साजै |
डंकनी शङ्कनि टिल्ले बाल गुंथाई ,बाड़े घाटे टल्ल जागै |
सुन सकेसर पीर पटेश्वर नगर कोट महामाई टिल्ला शिवपुरी का स्थान
चार युग में मान मूल चक्र मूल थान |
पढ़ मंत्र योगी बजावै नाद ,छत्तीस भोजन अमृत कर पावै |
बिना मंतर योगी नाद बजावै ,तीन लोक मैं कही ठार नहीं पावै |
जो जाने नाद बिन्द का भेद ,आप ही करता ,आपही देव |
संध्या शिवपुरी का बेला अनंत कोटि सिद्धो का युग युग मेला |
इतना नाद जनेऊ मंत्र सम्पूर्ण भया |
श्री नाथ जी गुरूजी को  आदेश | आदेश | आदेश |

Saturday 9 September 2017

गुगुल धूप गायत्री मंत्र



ॐ नमो आदेश. गुरूजी को आदेश. ॐ गुरूजी. पानी का बूंद, पवनका थम्ब, जहा
उपजा कल्प वृक्ष का कंध।

कल्पवृक्ष वृक्ष को छाया । जिसमे तिल घुसले के किया वास।

धुनी धूपिया अगन चढाया, सिद्ध का मार्ग विरले पाया।
उरध मुख चढ़े अगन मुख जले होम धुप वासना होय ली, l

एकिस ब्रह्मंडा तैतीस करोड़, देवी देव कुन होम धुप वास।
सप्तमे पटल नव्कुली नाग , वसुक कुन होम घृत वास।

श्री नाथाजी की चरण कम पादुका कुन होम धुप वास।
अलील अनद धर्मं राजा धर्मं गुरु देव कुन होम धुप वास।

धरतरी अकास पवन पानी कुन होम धुप वास। चाँद सूरज कूं होम धुप वास ,

तारा ग्रह नक्षत्र कूं होम धुप वास। नवनाथ चौरासी सिद्ध कूं होम धुप वास।
अग्नि मुख धुप पवन मुख वास। वासना वासलो थापना थाप्लो जहाँ धुप तह देव।

जहा देव तह पूजा . अलख निरंजन और न दूजा।
इति मंत्र पढ़ धुप ध्यान करे सो जोगी अमरपुर तारे।

बिना मंत्र धुप ध्यान करे खाय जरे न वाचा फुरे। इतना धुप का मंत्र जप संपूर्ण सही। ।

अनंत कोट सिद्ध मे श्री नाथजी कही, नाथजी गुरूजी कूं आदेश आदेश, , ,

Friday 10 July 2015

अथ गोरक्ष उपनिषत्॥



श्री नाथ परमानन्द है विश्वगुरु है निरञ्जन है
विश्वव्यापक है महासिद्धन के लक्ष्य है तिन प्रति हमारे आदेश
होहु॥ इहां आगे अवतरन॥ एक समै विमला नाम महादेवी किंचितु
विस्मय जुक्त भईश्रीमन्महा गोरक्षनाथ तिनसौंपूछतु है।
ताको विस्मय दूर करिबै मैं तात्पर्य है लोकन को मोक्ष करिबै हेतु
कृपालु तासौं महाजोग विद्या प्रगट करिबे को तिन के एसे श्री नाथ
स्वमुख सौं उपनिषद् प्रगट अरै है। गो कहियै इन्द्रिय तिनकी
अन्तर्यामियासों रक्षा करे है भव भूतन की तासों गोरक्षनाथ
नाम है। अरु जोग को ज्ञान करावै है या वास्तै उपनिषद् नाम है।
यातैं ही गोरक्षोपनिषद् महासिद्धनमें प्रसिद्ध हैं। इहां आगै
विमला उवाच॥ मूलको अर्थ॥ जासमै महाशुन्य था आकाशादि
महापंचभूत अरु तिनही पञ्चभूतनमय ईश्वर अरु जीवादि कोई
प्रकार न थे तब या सृष्टि कौ करता कौन था। तात्पर्य ए है
कि नाना प्रकार की सृष्टि होय वै मै प्रथम कर्ता महाभूत है
अरु वैही शुद्ध सत्वांशले के ईश्वर भ वैही मलिन सत्व करि
जीव भये तौतौ साक्षात् कर्त्ता न भय तब जिससमै ए न थे तब
को अनिर्वचनीय पदार्थ था॥ सो कर्त्ता सो कर्त्ता सो कर्त्ता कौन
भयो एसे प्रश्न पर। श्री महागोरक्षनाथ उत्तर करै है श्री
गोरक्षनाथ उवाच। आदि अनादि महानन्दरूप निराकार साकार
वर्जित अचिन्त्य को पदार्थ था तांकु हे देवि मुख्य कर्ता जानियै
क्यों कि निराकार कर्ता होय तौ आकार इच्छा धारिबे मैं विरुद्ध
आवे है। साकार करता होय तौ साकार को व्यापकता नहीं है
यह विरुद्ध आवै है। तातैं करता ओही है जो द्वैताद्वैत रहित
अनिर्वचनीय नथा सदानन्द स्वरूप सोही आजे कुं वक्ष्यमाण है।
इह मार्ग मै देवता कोन है यह आशंका वारनै कहै है। अद्वैतो
परि म्महानन्द देवता। अद्वैत ऊपर भयो तब द्वैत ऊपर तौ
स्वतः भयो॥ इह प्रकार अहं कर्त्ता सिद्ध तूं जान ञ्छह करता
अपनी इच्छा शक्ति प्रगट करी। ताकरि पीछे पिण्ड ब्रह्माण्ड
प्रगट भ तिनमै अव्यक्त निर्गुन स्वरूप सों व्यापक भयो। व्यक्त
आनन्द विग्रह स्वरूप सों विहार करत भयौ पीछै ज्यौही मैं एक
स्वरूप सों नव स्वरूप होतु भयौ -- तैं सत्यनाथ अनन्तर
सन्तोषनाथ विचित्र विश्व के गुन तिन सों असंग रहत भयौ यातैं
संतोषनाथ भयौ। आगे कूर्मनाथ आकाश रूप श्री आदिनाथ।
कूर्मशब्द तै पाताल तरै अधोभूमि तकौ नाम कूर्मनाथ। बीच के
सर्वनाथ पृथ्वीमण्डल के नाथ औरप्रकार सप्तनाथ भ।
अनन्तर मत्स्येन्द्रनाथ के पुनह पुत्र श्री -- जगत की उत्पत्ति के हेत
लाये माया कौ लावण्य तांसौ असंग जोगधर्म -- द्रष्टा रमण
कियौ है आत्मरूप सौं सर्व जीवन मैं। तत् शिष्य गोरखनाथ।



गो कहियै वाक्‍शब्द ब्रह्म ताकी, र कहियै
रक्षा करै, क्ष कहियै क्षय करि रहित अक्षय ब्रह्म
एसे श्रीगोरक्षनाथ चतुर्थरूप भयो और प्रकार नव स्वरूप
भयो तामे एक निरन्तरनाथ कुं किह मार्ग करि पायौ जातु। ताकौ
कारन कहतु हैं। दोय मार्ग विश्व मै प्रगट कियो है कुल अरु अकुल।
कुल मार्ग शक्ति मार्गः अकुल मार्ग अखण्डनाथ चैतन्य मार्ग
तन्त्र अंस जोग तिनमै किंचित प्रपञ्च की॥ एवं॥ या रीत मै
द्वैताद्वैत रहित नाथ स्वरूप तै व्यवहार के हेतु अद्वैत
निर्गुणनाथ भयौ अद्वैत तै द्वैत रूप आनन्द विग्रहात्म नाथ
भयौ तामै ही मो एक तैं मैं विशेष व्यवहार के हेतु नव
स्वरूप भयौ तिन नव स्वरूप कौ निरूपण। श्री कहियै अखण्ड
शोभा संजुक्त गुरु कहिये सर्वोपदेष्टा आदि कहियै इन वक्ष्यमाण
नव स्वरूप मैं प्रथम नाथ  ना करि नाद ब्रह्म को
बोध करावे  थ करि थापन कि है त्रय जगत जित एसो
श्री आदिनाथ स्वरूप। अनन्तर मत्स्येन्द्र नाथ। ता पाछ तत् पुत्र
तत् शिष्य उदयनाथ श्री आदिनाथ तैं जोग शास्त्र प्रगट कियौ
द्वहै। योग कौ उदय जाहरि महासिद्ध निकरि बहुत भयो आतैं
उदयनाथ नाम प्रसिद्ध भयो। अनन्तर दण्डनाथ ताही जोग के
उपदेश तै खण्डन कियो है। काल दण्डलोकनि कौ य्यातै
दण्डनाथ भयौ॥

अगै मत्स्यनाथ असत्य माया स्वरूपमय काल ताको खंडन
कर महासत्य तैं शोभत भयौ आण निर्गुणातीत ब्रह्मनाथ ताकुं
जानैयातै आदि ब्राह्मण सूक्ष्मवेदी। ब्राह्मण वेद पाठी होतु है
ऋग यजु साम इत्यादि कर इनके सूक्ष्म वेदी खेचरी मुद्रा अन्तरीय
खेचरी मुद्रा बाह्यवेषरी कर्ण मुद्रा मुद्राशक्ति की निशक्ति
करबी सिद्धसिद्धान्त पद्धति के लेख प्रमाण। अनन्त मठ मन्दिर
शिव शक्ति नाथ अरु ईच्छा शिव तन्तुरियं जज्ञोपवीत शिव तं तु
आत्मा तं तु जज्ञ जोग जग्य उपवीत शयाम उर्णिमासूत्र। ब्रह्म
पदाचरणं ब्रह्मचर्य शान्ति संग्रहणं गृहस्थाश्रमं
अध्यात्म वासं वानप्रस्थं स सर्वेच्छा विन्यासं संन्यासं आदि
ब्राह्मण कहिवे मै चतुर वर्ण कौ गुरु भयौ अरु इहां च्यारों आश्रम
कौ समावेस जामै होय है य्यातै ही अत्याश्रमी आश्रमन कोहु गुरु
भयौ। सो विशेष करि शिष्य पद्धति मै कह्यो ही है। तात्पर्य
भेदाभेद रहित अचिन्त्य वासना जुक्त जीव होय ते तौ कुल मार्ग
करियौ मै आवतु है अरु समस्त वासना रहित भ है अन्तह्करण
जिनके ऐसै जीव जोग भजन मै आवतु है ऐसो मार्गन मै अकुल मार्ग
है। और शास्त्र वाक् जालकर उपदेश करतु है। मैरो संकेत
शास्त्र है प्तो शुन्य कहिये नाथ सोही संकेत है इह मार्ग में
देवता कोन है यह आशंका वारन कहै है ईश्वर संतान।
संतान दोय प्रकार कौ नाद रूप विन्दु विन्दु नाद रूप। शिष्य
विन्दु रूप पूत्र नाथ रूप नाद शक्तिरूप विन्दु नादरूप करि भ।
शिष्य सौ प्रथम कहै नवनाथ स्वरूप शक्ति विन्दु रूप पर शिव
सोही ईश्वर नाम कर मैरो संतान है। ता करि विश्व की प्रवृत्ति
करतु है। जोग मत अष्टाश्ण्ग जोग मुख्य कर षंडग जोग अकुल कहनै
सो अवधूत जोग जोग मत सौं साधन अष्टाश्ण्ग जोग। आदि ब्राह्मणा
ब्राह्मण क्षत्री वैश्व शूद्रच्यार वर्ण करि पृथ्वी भरी है
तिनमै ब्राह्मण वर्ण मुख्य है। ब्राह्मण किसको कहियै ब्राह्मंकू
सगुण ब्रह्म द्वारे निर्गुण ब्रह्म करिजानै सो ब्राह्मण ए जोगीश्वर
सगुणनाथ गम्य पदार्थ। आनन्द विग्रहात्मनाथ उपदेष्टा उपास्य
रूप अत्याश्रमी गुरु अवधूत जोग साधन मुमुक्षु अधिकारी बन्ध
मोक्ष रहित कोक अनिर्वचनीय मोक्ष मोक्ष ऐसो आ ग्रन्थ मै निरूपण
है सो जो को पढे पढावै जाको अनन्त अचिन्त्य फल है।

Tuesday 28 April 2015

!! मन्त्र जप विधान !!

मंत्र का मूल भाव होता है- मनन। मनन के लिए ही मंत्रों के जप के सही तरीके धर्मग्रंथों में उजागर है। शास्त्रों के मुताबिक मंत्रों का जप पूरी श्रद्धा और आस्था से करना चाहिए। साथ ही एकाग्रता और मन का संयम मंत्रों के जप के लिए बहुत जरुरी है। माना जाता है कि इनके बिना मंत्रों की शक्ति कम हो जाती है और कामना पूर्ति या लक्ष्य प्राप्ति में उनका प्रभाव नहीं होता है।
यहां मंत्र जप से संबंधित कुछ जरूरी नियम और तरीके बताए जा रहे हैं, जो गुरु मंत्र हो या किसी भी देव मंत्र और उससे मनचाहे कार्य सिद्ध करने के लिए बहुत जरूरी माने गए हैं-
- मंत्रों का पूरा लाभ पाने के लिए जप के दौरान सही मुद्रा या आसन में बैठना भी बहुत जरूरी है। इसके लिए पद्मासन मंत्र जप के लिए श्रेष्ठ होता है। इसके बाद वीरासन और सिद्धासन या वज्रासन को प्रभावी माना जाता है।
- मंत्र जप के लिए सही वक्त भी बहुत जरूरी है। इसके लिए ब्रह्ममूर्हुत यानी तकरीबन 4 से 5 बजे या सूर्योदय से पहले का समय श्रेष्ठ माना जाता है। प्रदोष काल यानी दिन का ढलना और रात्रि के आगमन का समय भी मंत्र जप के लिए उचित माना गया है।
- अगर यह वक्त भी साध न पाएं तो सोने से पहले का समय भी चुना जा सकता है।
- मंत्र जप प्रतिदिन नियत समय पर ही करें।
- एक बार मंत्र जप शुरु करने के बाद बार-बार स्थान न बदलें। एक स्थान नियत कर लें।
- मंत्र जप में तुलसी, रुद्राक्ष, चंदन या स्फटिक की 108 दानों की माला का उपयोग करें। यह प्रभावकारी मानी गई है।
- कुछ विशेष कामनों की पूर्ति के लिए विशेष मालाओं से जप करने का भी विधान है। जैसे धन प्राप्ति की इच्छा से मंत्र जप करने के लिए मूंगे की माला, पुत्र पाने की कामना से जप करने पर पुत्रजीव के मनकों की माला और किसी भी तरह की कामना पूर्ति के लिए जप करने पर स्फटिक की माला का उपयोग करें।
- किसी विशेष जप के संकल्प लेने के बाद निरंतर उसी मंत्र का जप करना चाहिए।
- मंत्र जप के लिए कच्ची जमीन, लकड़ी की चौकी, सूती या चटाई अथवा चटाई के आसन पर बैठना श्रेष्ठ है। सिंथेटिक आसन पर बैठकर मंत्र जप से बचें।
- मंत्र जप दिन में करें तो अपना मुंह पूर्व या उत्तर दिशा में रखें और अगर रात्रि में कर रहे हैं तो मुंह उत्तर दिशा में रखें।
- मंत्र जप के लिए एकांत और शांत स्थान चुनें। जैसे- कोई मंदिर या घर का देवालय।
- मंत्रों का उच्चारण करते समय यथासंभव माला दूसरों को न दिखाएं। अपने सिर को भी कपड़े से ढंकना चाहिए।
- माला का घुमाने के लिए अंगूठे और बीच की उंगली का उपयोग करें।
- माला घुमाते समय माला के सुमेरू यानी सिर को पार नहीं करना चाहिए, जबकि माला पूरी होने पर फिर से सिर से आरंभ करना चाहिए !
- माला के मानकों के बीच गाँठ लगी होनी चाहिए !

Wednesday 2 July 2014

निर्वाण समाध



ॐ गुरु जी सतगुरु खोजोमन कर चंगा इस विधि रहना उत्तम संगा। सहजे संगम आवे हाथ श्री गुरु उवाच निर्वाण समाध॥

ॐ गुरु जी कंचन काया ज्ञान रतन सतगुरु खोजोलाख यतन। हस्तीमनु राखो डाट श्री गुरु उवाच निर्वाण समाध॥

ॐ गुरु जी बोलन चालन बहु जंजाला गुरु वचनी-वचनी योग रसाला। नियम धर्म दोराखो पास श्रीगुरु उवाच निर्वाण समाध॥

ॐ गुरु जी निरे निरंतर सिद्धों का वासाइच्छा भोजन परम निवासा। काम क्रोध अहंकार निवार श्री गुरु उवाच निर्वाण समाध॥

ॐ गुरु जी पहिले छोड़ो वाद विवाद पीछे छोड़ो जिभ्याका स्वाद। त्यागोहर्ष और विषाद श्री गुरु उवाच निर्वाण समाध॥

ॐ गुरु जी आलस निद्रा छींक जंभा तृष्णा डायन बन जग को खा। आकुल व्याकुल बहु जंजाल श्रीगुरु उवाच निर्वाण समाध॥

ॐ गुरु जी आलस तोड़ोनिद्रा छोड़ो गुरु चरण में इच्छा जोड़ो। जिह्वा इंद्री राखो डाट श्री गुरु उवाच निर्वाण समाध॥

ॐ गुरु जी योग दामोदर भगवाकरोज्योतिनाथ का दर्शन करो। जत सत दो राखोपास श्री गुरु उवाच निर्वाण समाध॥

ॐ गुरु जी अगम अगोचर कंठीबंध द्वादस वायु खेले चौसठ फंद। अगम पुजारीखांडे की धार श्रीगुरु उवाच निर्वाण समाध॥

ॐ गुरु जी डेरे डूंगरे चढ़ नहीं मारना राजे द्वारे पर पग नहीं धरना छोड़ो राजा रंग की आस श्री गुरु उवाच निर्वाण समाध॥

ॐ गुरु जी जड़ी बूटी कीबहु विस्तारा परम जोत का अंत न पारा। जड़ी बूटी से कारज सरे वैद्य धवंतरी काहे को मरे॥

जड़ी बूटी सोचो मत को पहले रांड वैद्य की हो। जड़ी बूटी वैद्यों की आस श्री गुरु उवाच निर्वाण समाध॥

ॐ गुरु जी वेद शास्त्र को बहु विस्तारापरम जोत का अंत न पारा। पढ़े-लिखे से अमर होय ब्रह्मा परले काहे को होय। वेद शास्त्र ब्राह्मणों कीआस श्री गुरु उवाच निर्वाण समाध॥

ॐ गुरु जी कनक कामनी दोनों त्यागो अन्न भिक्षा पांच घर मांगो। छोड़ो माया मोह की आस श्री गुरु उवाच निर्वाण समाध॥

ॐ गुरु जी सोने चांदी का बहु विस्तारापरम जोत का अंत न पारा। सोना चांदी से कारज सरे भूपति चक्रवर्ती राजे राज काहे को तजे। सोना चांदी जगत की आस श्री गुरु उवाच निर्वाण समाध॥

ॐ गुरु जी ज्योतिरूप एक ओंकारा सतगुरु खोजोहोवे निस्तारा। गुरु वचनों के रहना पास श्री गुरु उवाच निर्वाण समाध॥

ॐ गुरु जी गगनमंडल में गुरु जी का वासा जहां पर हंसा करे निवासा। पांच तत्त्व ले रमना साथ श्री गुरु उवाच निर्वाण समाध॥

ॐ गुरु जी उड़ान योगी मृड़ान कायामरे न योगीधरे न औतार। सत्य सत्य भाषंते श्री शंभु जती गुरु गोरक्ष नाथ निर्वाण समाध॥

नाथ जीगुरु जी आदेश आदेश आदेश 

महात्मा किसे कहते है? महात्मा शब्द अर्थ और का प्रयोग: -


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'महात्मा' शब्द का अर्थ है 'महान आत्मा' यानी सबका आत्मा ही सका आत्मा है | इस सिद्धान्त से 'महात्मा' शब्द वस्तुत: एक परमेश्वर के लिए ही शोभा देता है, क्योकि सबके आत्मा होने के कारण वे ही महात्मा है | श्रीभगवदगीता में भगवान स्वयं कहते है | 'हे अर्जुन! मैं सब भूत प्राणियोंके ह्रदय में स्तिथ सबका आत्मा हूँ | 'परन्तु जो पुरुष भगवान को तत्व से जानता है अर्थात भगवान को प्राप्त हो जाता है वह भी महात्मा ही है, अवश्य ही ऐसे महात्माओ का मिलना बहुत ही दुर्लभ है | गीता में भगवान ने कहा है -
'हजारों मनुष्यों में कोई ही मेरी प्राप्ति के लिये यत्न करता है और उन यत्न करने वाले योगिओं में कोई ही पुरुष (मेरे परायण हुआ) मुझको तत्व से जानता है |
जो भगवान को प्राप्त हो जाता है, उसके लिए सम्पूर्ण भूतों का आत्मा उसी का आत्मा हो जाता है | क्योकि परमात्मा सबके आत्मा है और वह भक्त परमात्मा में स्तिथ है | इसलिए सबका आत्मा ही उसका आत्मा है | इसके सिवाय 'सर्वभूतात्मभूतात्मा' (गीता 5 / 7) यह विशेषण भी उसी के लिए आया है | वह पुरुष सम्पूर्ण भूत - प्राणियों को अपने आत्मा में और आत्मा को सम्पूर्ण भूत - प्राणियों में देखता है | उसके ज्ञान में सम्पूर्ण भूत - प्राणियोंके और अपने आत्मा में कोई भेद - भाव नहीं रहता | 'जो समस्त भूतों को अपने आत्मा में और समस्त भूतोमें अपने आत्मा को ही देखता है, वह फिर किसी से घ्रणा नहीं करता |' (इश 0 6)
सर्वर्त्र ही उसकी आत्म - दृष्टी हो जाती है, अथवा यों कहिये की उसकी दृष्टी में एक विज्ञानानन्ध्घन वासुदेव से भिन्न और कुछ भी नहीं रहता | ऐसे ही महात्माओ की प्रशंसामें भगवान ने कहा है, 'सब कुछ वासुदेव ही है, इस प्रकार (जाननेवाला) महात्मा दुर्लभ है अति | '
खेद की बात है की आजकल लोग स्वार्थवश किसी साधारण - से - साधारण मनुष्य को भी महात्मा कहने लगे है | 'महात्मा' या 'भगवान' शब्द का प्रयोग वस्तुत: बहुत सोच समझ कर किया जाना चाहिये | वास्तव में महात्मा तो वे ही है जिनमे महात्माओ के लक्षण और आचरण हों | ऐसे महात्मा का मिलना बहुत दुर्लभ है, यदि मिल भी जाए तो उनका पहचानना तो असम्भव सा ही है, 'महत्सगस्तु दुर्लभोअगम्योअमोघस्च' (नारद सूत्र 39) 'महात्मा का संग दुर्लभ, दुर्गम और अमोघ है |'
साधारणतया उनकी यही पहचान सुनी जाती है की उनका संग अमोघ होने के कारण उनके दर्शन, भाषण और आचरणों से मनुष्य पर बड़ा भरी प्रभव पडता है | ईश्वर - स्मृति, विषयों से वैराग्य, सत्य, न्याय और सदाचार में प्रीति, चित में प्रसन्ता तथा शान्ति आदि सद्गुणों का स्वाभाविक ही प्रादुर्भाव हो जाता है | इतने पर भी बाहरी आचरणों से तो यथार्थ महात्माओ का पहचानना बहुत ही कठिन है, क्योकि पाखण्डी मनुष्य भी लोगों को ठगने के लिए महात्माओ - जैसा स्वांग रच सकता है | इसलिए परमात्मा की पूर्ण दया से ही महात्मा मिलते है और उनकी दया से ही उनको पहचाना भी जा सकता है |
सर्वत्र सम दृष्टि होने के कारण राग - द्वेषका अत्यन्त अभाव हो जाता है, इसलिए उनको प्रिय और अप्रिय की प्राप्ति में हर्ष - शोक नहीं होता | सम्पूर्ण भूतों में आत्म - बुद्धि होने के कारण अपने आत्मा के सद्र्श ही उनका प्रेम हो जाता है, इससे अपने और दुसरे के सुख - दुःख में उनकी समबुद्धि हो जाती है और इसलिए वे सम्पूर्ण भूतो के हित में स्वाभाविक ही रत होते है | उनका अंत: करण अति पवित्र हो जाने के कारण उनके ह्रदय में भय, शोक, उद्वेग, काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि दोषों का अत्यन्त अभाव हो जाता है | देह में अहंकार का अभाव हो जाने से मान, बड़ाई और प्रतिष्ठा की इच्छा तो उनमे गन्ध मात्र भी नहीं रहती | शांति, सरलता, समता, सुह्रिद्ता, शीतलता, सन्तोष, उदारता और दया के तो वे अनन्त समुद्र होते है | इसलिए उनका मन सर्वदा पप्रफुल्ल्ति, प्रेम और आनन्द में मग्न और सर्वथा शान्त रहता है |
महात्माओं के आचरण: -
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देखने में उनके बहुत से आचरण दैवी सम्पदावाले सात्विक पुरुषों - से होते है, परन्तु सूक्ष्म विचार करनेपर दैवी सम्पदावाले सात्विक पुरुषोंकी अपेक्षा उनकी अवस्था और उनके आचरण कहीं महत्वपूर्ण होते है | सत्य स्वरुप में स्थित होने के कारण उनका प्रत्येक आचरण सदाचार समझा जाता है | उनके आचरण में असत्य के लिए कोई स्थान ही नहीं रह जाता | उनका व्यक्तिगत किन्चित भी स्वार्थ न रहने के कारण उनके आचरण में किसी भी दोष का प्रवेश नहीं हो सकता, इसलिए उनके सम्पूर्ण आचरण दिव्य समझे जाते है |
वे सम्पूर्ण भूतों को अभयदानं देते हुए ही विचरते है | वे किसी के मन में उद्वेग करनेवाला कोई आचरण नहीं करते | सर्वर्त्र परमेश्वर के स्वरुप को देखते हुए स्वाभाविक ही तन, मन और धन को सम्पूर्ण भूतों के हित में लगाये रहते है | उनके द्वारा झूठ , कपट, व्यभिचार, चोरी और दुराचार तो हो ही नहीं सकते | याग, दान, तप, सेवा आदि जो उत्तम कर्म होते है, उनमे भी अहंकार का अभाव होने के कारण आसक्ति, इच्छा, अभिमान और वासना आदि का नामो - निशान भी नहीं रहता | स्वार्थ का त्याग होने के कारण उनके वचन और आचरण का लोगों पर अद्भूत प्रभाव पढता है | उनके आचरण लोगों के लिए अत्यन्त हितकर और प्रिय होने से लोग सहज ही उनका अनुकरण करते है |
श्री गीता जी में है भगवान कहते 'श्रेष्ठ पुरुष जो - जो आचरण करते है, दुसरे लोग भी उसी अनुसार बरतते के है, वह जो कुछ प्रमाण कर देते है, लोग भी उसी अनुसार बरतते के है |'
उनका प्रत्येक आचरण सत्य, न्याय और ज्ञान से पूर्ण होता है, किसी समय उनका कोई आचरण बाह्यद्रष्टि से भ्रमवश लोगों को अहितकर या क्रोधयुक्त मालूम हो सकता है, किन्तु विचारपूर्वक तत्वदृष्टी से देखने पर वस्तुत: उस आचरण में भी दया और प्रेम ही भरा हुआ मिलता है और परिणाम में उससे लोगो का परम हित ही होता है | उनमे अहंता - ममता का अभाव होने के कारण उनका वर्ताव सबके साथ पक्षपातरहित, प्रेममय, और शुद्ध होता है | प्रिय और अप्रिय में उनकी समद्रष्टि होती है | वे भक्तराज प्रह्लाद की भाँती आपतिकाल में भी सत्य, धर्म और न्यायके पक्ष पर ही दृढ रहते है | कोई भी स्वार्थ या भय उन्हें सत्य से नहीं डिगा सकता |
एक समय केशिनी - नाम्नी कन्या को देखकर प्रह्लाद - पुत्र विरोचन और अंगिरा - पुत्र सुधन्वा उनके साथ विवाह करने के लिए परस्पर विवाद करने लगे | कन्या ने कहा की 'तुम दोनों में जो श्रेष्ठ होगा, मैं उसी के साथ विवाह करुँगी |' इसपर वे दोनों ही अपने को श्रेष्ठ बतलाने लगे | अंत में वे परस्पर प्राणों की बाजी लगा कर इस विषय में न्याय करने के लिए प्रह्लाद जी के पास गए | प्रह्लाद जी ने पुत्र के अपेक्षा धर्म को श्रेष्ठ समझकर यथोचित न्याय करते हुए अपने पुत्र विरोचन से कहा की 'सुधन्वा तुझसे श्रेष्ठ है, इसके पिता अंगिरा मुझसे श्रेष्ठ है और इस सुधन्वा की माता तेरी माता से श्रेष्ठ है, इसलिए यह सुधन्वा तेरे प्राणों का स्वामी है |' यह न्याय सुनकर सुधन्वा मुग्ध हो गया और उसने कहा, 'हे प्रह्लाद! पुत्र - प्रेम को त्याग कर तुम धर्म पर अटल रहे, इसलिए तुम्हारा यह पुत्र सौ वर्षो तक जीवित रहे | '(महा सभा 0 0 68 | 76-77)
महात्मा पुरुषों का मन और इन्द्रियाँ जीती हुई होने के कारण न्यायविरुद्ध विषयों में तो उनकी कभी प्रवृति नहीं होती | वस्तुत: ऐसे महातमाओ की दृष्टीमें एक सच्चिदानंदघन वासुदेवसे भिन्न कुछ नहीं होने के कारण यह सब भी लीलामात्र ही है, तथापि लोकद्रष्टिमें भी उनके मन, वाणी , शरीर से होने वाले आचरण परम पवित्र और लोकहितकर ही होते है | कामना, आसक्ति और अभिमान से रहित होने के कारण उनके मन और इद्रियों द्वारा किया हुआ कोई भी कर्म अपवित्र या लोकहानिकारक नहीं हो सकता | इसी से वे संसार में प्रमाणस्वरुप माने जाते है |
महात्माओं की महिमा: -
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ऐसे महापुरुषों की महिमा का कौन बखान कर सकता है? श्रुति, स्मृति, पुराण, इतिहास, सन्तो की वाणीऔर आधुनिक महात्माओं के वचन इनकी महिमा भरे पड़े से है |
गोस्वामी तुलसीदासजी ने तो यहाँतक कह दिया है की को भगवान प्राप्त हुए भगवान के दास भगवान से भी बढ़कर है |
मोरें मन प्रभु अस बिस्वासा | राम राम ते अधिक कर दासा | |
राम सिन्धु घन सज्जन पीरा | चन्दन तरु हरी सन्त समीरा | |
सो कुल धन्य उमा सुनु जगत पूज्य सुपुनीत |
श्री रघुबीर परायन जेहि नर उपज बिनीत | |
ऐसे महात्मा जहाँ विचरते है वहाँ का वायुमंडल पवित्र हो जाता है | श्रीनारद जी कहते है 'वे अपनें प्रभाव से तीर्थों को (पवित्र करके) तीर्थ बनाते है, कर्म को सुकर्म बनाते है और शास्त्रों को शत - शास्त्र बना देते है |' वे जहाँ रहते है, वाही स्थान तीर्थ बन जाता है या उनके रहने से तीर्थ का तीर्थत्व स्थायी हो जाता है, वे को कर्म करते है, वे ही सुकर्म बन जाते है, उनकी वाणी ही शास्त्र है अथवा वे जिस शास्त्र को अपनाते है, वही सत - शास्त्र समझा जाता है |
शास्त्रों में है कहा, 'जिसका चित अपार संवित सुखसागर परब्रह्म में है लीन, उसके जन्म कुल पवित्र होता से है, उसकी जननी है और कृतार्थ होती पृथ्वी पुण्यवती हो जाती है |'
धर्मराज युधिस्टर ने भक्तराज विदुरजी से कहा था 'हे स्वामिन! आप सरीखे भगवदभक्त स्वयं तीर्थ रूप है | (पापियों के द्वारा कलुषित हुए) तीर्थों को आप लोग अपने ह्रदय में स्तिथ भगवान श्रीगदाधरके प्रभाव से पुन: तीर्थतत्व प्राप्त करा देते है | '(श्रीमद्भागवत 1 | 13 | 10)
महातामों का तो कहना ही क्या है, उनकी आज्ञा पालन करने वाले मनुष्य भी परम पदको प्राप्त हो जाते है | भगवान स्वयं भी कहते है की जो किसी प्रकार का साधन न जानता हो वह भी महान पुरुषों के पास जाकर उनके कहे अनुसार चलने से मुक्त हो जाता है | 'परन्तु दुसरे इस प्रकार के तत्वसे न जानते हुए दूसरों से अर्थात तत्व को जानने वाले महापुरुषों से सुनकर ही उपासना करते है | वे सुनने के परायण हुए भी मृत्युरूप संसार - सागर से निसंदेह तर जाते है |
बनने के महात्मा उपाय: -
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इसका वास्तविक उपाय तो परमेश्वर की अनन्य - शरण होना ही है, क्योकि परमेश्वर की कृपा से ही यह पद मिलता है | श्रीम्ध्भ्गवतगीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है, 'हे भारत! सब प्रकार से उस परमेश्वर की ही अनन्य शरण को प्राप्त हो, उस परमात्मा की दया से ही तू परमशान्ति और सनातन परमधाम को प्राप्त होगा | '(18 | 62) परन्तु इसके लिए ऋषियों ने और भी उपाय बतलाये है | जैसे मनु महाराज ने धर्म के दस लक्षण कहे है 'घृति, क्षमा, मन का निग्रह, अस्तेय, सौच, इन्द्रियनिग्रह, बुद्धि, विद्या, सत्य और अक्रोध - ये धर्म के दस लक्षण है |'
महर्षि पतंजलि ने अंत: करणकी शुद्धिके लिए (जो की आत्मसाक्षात्कार के लिए अत्यन्त आवश्यक है) एवं मन को निरोध करने के लिए बहुत - से उपाय बतलाये है | जैसे 'सुखियोंके परति मैत्री, दुखियों के प्रति करुणा, पुन्यमाओं को देख कर प्रसन्नता और पापियों के प्रति उपेक्षा की भावना से चित स्थिर होता है | '(1 | 33)
'अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रहचर्य, अपरिग्रह - ये पाँच यम है और सौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और इस्वरप्रणिधान - ये पाँच नियम है |' (2 | 30) (2 | 32)
और भी अनेकों ऋषियों ने महात्मा बननेके यानी परमात्माके पद को प्राप्त होनेके लिए सद्भाव और सदाचार अनेक उपाय बतलाये है |
भगवान ने श्रीमध्भगवतगीता के तेरहवेअध्याय मेंन श्लोक 7 से 11 तक 'ज्ञान' के नाम से और सोलहवे अध्याय में श्लोक 1-2-3 में 'दैवी सम्पदा' के नाम से एवं सत्रहवे अध्याय में श्लोक 14-15-16 में 'तप' के नाम से सदाचार और सद्गुणों का वर्णन किया है |
यह सब होने पर भी महर्षि पतंजलि, शुकदेव, भीष्म, वाल्मीकि, तुलसीदास, सूरदास यहांतक की स्वयं भगवान ने भी शरणागति को ही बहुत सहज और सुगम उपाय बताया है | अनन्य शक्ति, ईश्वर - प्रणिधान, अव्यभिचारिणी भक्ति और परम प्रेम आदि उसी के नाम है |
'हे पार्थ! जो पुरुष मुझमे अनन्य चित से स्तिथ हुआ सदा ही निरन्तर मुझको स्मरण करता है उस मुझमे युक्त हुए योगी के लिए मैं सुलभ हूँ अर्थात सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ | '(गीता 8 | 14)
'जो एक बार भी मेरे शरण होकर' मैं तेरा हूँ 'ऐसा कह देता है, मैं उसे सर्व भूतो से अभय कर देता हूँ, यह मेरा व्रत है |' (वा रा 0 0 6 | 18 | 33)
इसलिए पाठक सज्जनों से प्रार्थना है की ज्ञानी, महात्मा और भक्त बनने के लिए ज्ञान और आनन्द के भण्डार सत्यस्वरूप उस परमात्मा की ही अनन्य शरण ली चाहिये | फिर उपर्युक्त सदाचार और सद्भाव तो अनायास ही प्राप्त हो जाते है |
भगवान की शरण ग्रहण करने पर उनकी दयासे आप ही सारे विघ्नों का नाश होकर भक्त को भगवतप्राप्ति हो जाती है | योगदर्शन में कहा है, 'उसका वाचक प्रणव (ओंकार) है |' 'उसका जप और उसके अर्थ की भावना करनी चाहिये |' 'इससे अन्तरात्मा की प्राप्ति और विघ्नों का अभाव भी होता हैं | '
भगवत - शरणागति के बिना इस कलिकाल में संसार - सागर से पार होना अत्यन्त ही कठिन है |
कलिजुग केवल नाम अधारा | सुमिर सुमिर भव उतरही पारा |
कलिजुग सम जुग आन जो नर नहीं कर बिस्वास |
गाई राम गुनगन बिमल भाव तर बिनही प्रयास | | |
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेनामेव केवलम |
कलो नास्तःयेव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा | |
दैवी हेशाम गुणमयी मम माया दुरत्यया |
मामेव ये प्रप्ध्यनते मायामेता तरन्ति ते | |
'कलियुग में हरी का नाम, हरी का नाम, केवल हरी का नाम ही (उद्धार करता) है, इसके सिवा अन्य उपाय नहीं है, नहीं है, नहीं है |'
'क्योकि यह अलोकिक ( अति अद्भुत) त्रिगुणमयी मेरी योगमाया बड़ी दुस्तर है, जो पुरुष निरन्तर मुझको ही भजते है, वे इस माया को उलंघन कर जाते है यानि संसार से तर जाते है |
हरी माया कृत दोष गुण बिनु हरी भजन ऑनलाइनफ़्लैशखेलों जाही |
भजीअ राम तजि काम सब अस बिचारी मन माहि |
महात्मा बनने के मुख्य मार्ग में विघ्न: -
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ज्ञानी, महात्मा और भक्त कहलाने तथा बनने के लिए तो प्राय: सभी इच्छा करते है, परन्तु उसके लिए सच्चे ह्रदय से साधन करने वाले लोग बहुत कम है | साधन करने वालों में भी परमात्मा के निकट कोई ही पहुचता है; क्योकि राह में ऐसी बहुत सी विपद - जनक घाटियाँ आती है जिनमे फसकर साधक गिर जाते है | उन घाटियों में 'कन्चन; और 'कामिनी' ये दो घाटियाँ बहुत कठिन ही है, परन्तु इनसे भी कठिन तीसरी घाटी मान - बड़ाई की है और ईर्ष्या | किसी कवी ने कहा है
कंच्चन तजना सहज है, सहज त्रिया का नेह |
मान बड़ाई ईर्ष्या, दुर्लभ तजना येह | |
इन तीनो में सबसे कठिन है बड़ाई | इसी को कीर्ति, प्रसंसा, लोकेष्णा आदि कहते है | शास्त्र में जो तीन प्रकार की त्रष्णा (पुत्रेष्णा, लोकेष्णा और वितेश्ना) बताई गयी है | उन तीनो में लोकेष्णा ही सबसे बलवान है | इसी लोकेष्णा के लिए मनुष्य धन, धाम, पुत्र, स्त्री और प्राणों का भी त्याग करने के लिए तैयार हो जाता है |
जिस मनुष्य ने संसार में मान - बड़ाई और प्रतिष्ठा का त्याग कर दिया, वही महात्मा है और वही देवता और ऋषियों द्वारा भी पूजनीय है | साधू और महात्मा तो बहुत लोग कहलाते है किन्तु उनमे मान - बड़ाई और प्रतिष्ठा का त्याग करने वाला कोई विरला ही होता है | ऐसे महात्माओं की खोज करने वाले भाइयों को इस विषय का कुछ अनुभव भी होगा |
हम लोग पहले जब किसी किसी अच्छे पुरुष का नाम सुनते है तो उनमे श्रधा होती है पर उनके पास जाने पर जब हम उनमे मान - बड़ाई, प्रतिष्ठा दिखलाई देती है, तब उन पर हमारी वैसी श्रद्धा नहीं ठहरती जैसी उनके गुण सुनने के समय हुई थी | यदपि अच्छे पुरुषों में किसी प्रकार भी दोषद्र्स्टी करना हमारी भूल है, परन्तु स्वभाव दोष से ऐसी वृतियाँ होती हुई प्राय: देखि जाती है और ऐसा होना बिलकुल निराधार भी नहीं है | क्योकि वास्तव में एक ईश्वर के सिवा बड़े - से - बड़े गुणवान पुरुषों में भी दोष का कुछ मिश्रण रहता ही है | जहाँ बड़ाई का दोष आया की झूठ, कपट और दम्भ को स्थान मिल जाता है तो अन्यान्य दोषों के आने को सुगम मार्ग मिल जाता है | यह कीर्ति रूप दोष देखने में छोटा सा है परन्तु यह केवल महातामो को छोड़कर एनी अच्छे - से - अच्छे पुरुषों में भी सूक्ष्म और गुप्तरूप से रहता है | यह साधक को साधन पथ से गिरा कर उसका मूलोछेदन कर डालता है |
अच्छे पुरुष बड़ाई हो हानिकर समझकर विचारदृष्टी से उसको अपने में रखना नहीं चाहते और प्राप्त होनेपर उसका त्याग भी करना चाहते है | तो भी यह सहज में उनका पिण्ड नहीं छोडती | इसका शीघ्र नाश तो तभी होता है जब की यह ह्रदयसे बुरी लगने लगे और इसके प्राप्त होने पर यथार्थ में दुःख और घ्रणा हो | साधक के लिए साधन में विघ्न डालनेवाली यह मायाकी मोहिनी मूर्ती है, जैसे चुम्बक लोहे को, स्त्री कामी पुरुष को, धन लोभी पुरुष को आकर्षण करता है, यह उससे भी बढ्कर साधक को संसार समुद्र की और खीच कर उसे इसमें बरबस डुबो देती है | अतएव साधक को सबसे अधिक बड़ाई से ही डरना चाहिये | जो मनुष्य बड़ाई को जीत लेता है वह सभी विघ्नों को जीत सकता है |
योगी पुरुष के ध्यान में तो चित की चंचलता और आलस्य ये दो ही महाशत्रु के तुल्य विघ्न करते है | चित में वैराग्य होने पर विषयों में और शरीर में आसक्ति का नाश हो जाता है, इससे उपर्युक्त दोष तो कोई विघ्नं उपस्थित नहीं कर सकते परन्तु बड़ाई एक ऐसा महान दोष है जो इन दोषों के नाश होने पर भी अन्दर छिपा रहता है | अच्छे पुरुष भी जब हम उनके सामने उनकी बड़ाई करते है तो उसे सुनकर विचारदृष्टी से इसको बुरा समझते हुए भी इसकी मोहिनी शक्ति से मोहित हुए - से उस बड़ाई करने वाले के अधीन - से हो जाते है | विचार करने पर मालूम होता है की इस कीर्तिरुपी मोहिनी शक्ति से मोहित न होने वाले वीर करोड़ों में एक ही है |
कीर्तिरुपी मोहिनी शक्ति जिसको नहीं मोह सकती, वही पुरुष धन्य है, वही माया के दासत्व से मुक्त है, वही ईश्वर के समीप है और वही यथार्थ महात्मा है | यह बहुत ही गोपनीय रहस्य की बात है | जिस पर भगवान की पूर्ण दया होती है, या यों कहे की जो भगवान की दया के तत्व को समझ जाता है, वाही इस कीर्तिरूपी दोष पर विजय पा सकता है | इस विघ्न से बचने के लिए प्रत्येक साधक को सदा सावधान रहना चाहिये |

Monday 23 June 2014

भगवे का मन्त्र

सत नमो आदेश। गुरूजी को आदेश।
ऊँ गुरूजी। ऊँ सोहं धुन्धुकारा शिव शक्ति ने मिल किया पसारा, नख चीर भग बनाया-रक्त रूप में भगवा आया।
अनष पुरूष ने धारण किया तब पिछे सिध्दों को दिया।
आवों सिध्दों धरो ध्यान, भगवा, मन्त्र भया प्रमाण इतना भगवा मन्त्र सम्पूर्ण भया।
श्री नाथजी गुरूजी को आदेश।

भगवे का मन्त्र

सत नमो आदेश। गुरूजी को आदेश।
ऊँ गुरूजी। ऊँ सोहं धुन्धुकारा शिव शक्ति ने मिल किया पसारा, नख चीर भग बनाया-रक्त रूप में भगवा आया।
अनष पुरूष ने धारण किया तब पिछे सिध्दों को दिया।
आवों सिध्दों धरो ध्यान, भगवा, मन्त्र भया प्रमाण इतना भगवा मन्त्र सम्पूर्ण भया।
श्री नाथजी गुरूजी को आदेश।

ज्योति जगाने का मन्त्र

सत नमो आदेश। गुरूजी को आदेश।
ऊँ गुरूजी। जोत जोत महाजोत, सकल जोत जगाय, तूमको पूजे सकल संसार ज्योत माता ईश्वरी।
तू मेरी धर्म की माता मैं तेरा धर्म का पूत ऊँ ज्योति पुरूषाय विद्येह महाज्योति पुरूषाय धीमहि तन्नो ज्योति निरंजन प्रचोदयात्॥
अत: धूप प्रज्वलित करें।

धूप लगाने का मन्त्र

सत नमो आदेश। गुरूजी को आदेश। ऊँ गुरूजी। धूप कीजे, धूपीया कीजे वासना कीजे।
जहां धूप तहां वास जहां वास तहां देव जहां देव तहां गुरूदेव जहां गुरूदेव तहां पूजा।
अलख निरंजन ओर नही दूजा निरंजन धूप भया प्रकाशा। प्रात: धूप-संध्या धूप त्रिकाल धूप भया संजोग।
गौ घृत गुग्गल वास, तृप्त हो श्री शम्भुजती गुरू गोरक्षनाथ।
इतना धूप मन्त्र सम्पूर्ण भया नाथजी गुरू जी को आदेश।

आसन मन्त्र

सत नमो आदेश। गुरूजी को आदेश। ऊँ गुरूजी।
ऊँ गुरूजी मन मारू मैदा करू, करू चकनाचूर। पांच महेश्वर आज्ञा करे तो बेठू आसन पूर।
श्री नाथजी गुरूजी को आदेश।

हठ योग

ह = सूर्य
ठ = चन्द्र
।। अवधू मन का शुन्य रूप, पवन का निरालंब आकार
दम कि अलेख दशा, सधिबा दसवें का द्वार ।।
                                                                                                                                                                      आदिनाथ सदाशिव गोरक्षनाथजब से ब्रह्माण्ड है, तब से नाद है, जब से नाद है तब से नाथ सम्प्रदाय है। आदि शिव से आरम्भ होकर अनेक सिध्दों के नाथ योगी शिवरूप देकर सत्य मार्ग प्रकाश ही इस धंर्णा पर सिध्दों की इस अखण्ड परम्परा के अन्तर्गत गुरू अपने शिष्य के इस परम्परा की शक्ति व अधिकार सौंपते आये है। गूरूदृष्टि, स्पर्श, शब्द या संकल्प के द्वारा शिष्य की सुप्त कुण्डलिनी शक्ति को जगा दंते है। गोरख बोध वाणी संग्रह में से श्री गुरू-शिष्य शंका समाधान विषयक एक संवाद, जिसमें गोरखनाथजी अपने गुरूदेव श्री मच्छंद्रनाथजी से मन की जिज्ञासाओं का निवारण करने प्रश्न पूछते हैं और गुरू मच्छंद्रनाथजी नाथ ज्ञान का बोध कराते हैं। मच्छंद्र उवाच के रूप में नाथ-शिक्षा बोध को सरल साहित्य में समाविष्ट किया गया है। पाठकों के लाभार्थ प्रस्तुत है प्राचीन भाव-प्रवचन :- 

साधक को चाहिए कि आरंभिक अवस्था में किसी एक जगह जगत प्रपंची में न रहें और मार्ग, धर्मशाला या किसी वृक्ष की छाया में विश्वास करें। संसार कि संसृति, ममता, अहंत कामना, क्रोध, लोभ, मोहवृत्ति की धारण्ााओं को त्याग कर अपने आत्म तत्व का चितंन करें। कम भोजन तथा निद्र आलस्य को जीत कर रहें। अपने आप को देखना, अनंत अगोचर को विचारना और स्वरूप में वास करना, गुरू नाम सोहं शब्द ले मस्तक मुंडावे तथा ब्रह्मज्ञान को लेकर भवसागर पार उतरना चाहिए। मन का शुन्य रूप है। पवन निराकार आकार है, दम की अलेख दशा और दसवें द्वार की साधना करनी चाहिए। वायु बिना पेड़ के डाल (टहनी) है, मन पक्षी बिना पंखों के, धीरज बिना पाल (किनारे) की नार (नदी) बिना काल रूप नींद है। सूर्य स्वर अमावस, चन्द्र स्वर प्रतिपदा, नाभि स्थान का प्राण रस लेकर गगन स्थान चढ़ता है और दसवें मन अंतर्ध्यान रहता है। आदि का गुरू अनादि है। पृथ्वी का पति आकाश है, ज्ञान का चिंतन में निवास है और शून्य का स्थान परचा (ब्रह्म) है। मन के पर्चे (साधे-वश करने) से माया-मोह की निवृति, पवन वश करने से चन्द्र स्वर सिध्दि तथा ज्ञान सिध्दि से योगबन्ध (जीव-ईश्वर एकता), गुरू की प्रसन्नता से अजर बन्ध (जीवनमुक्ति तत्व) सिध्दि प्राप्त होती है। शरीर में स्वरोदय इडा नाड़ी तथा त्रिकूटी स्थाने दो चन्द्र स्थान, पुष्पों में चैतन्य सामान्य गंध पूर्ण रहती है। दूध में घी अन्तरहित व्याप्त तथा इसी प्रकार शरीर के रोमांश में जीवात्मा की अव्यहृत शक्ति रहती है। अन्तरहित साधना में गगन (दसवें) स्थान चन्द्र (ज्ञान-ध्येय) और निम्न नाभि स्थाने अग्नि-नागनि नाड़ी मे सूर्य का निवास हैं। शब्द का निवास हृदय में है, जो बिन्दू का मूल स्त्रोत केन्द्र है। जीवात्मा पवन-कसौटी से दसवें चढ़कर शान्ति बून्द को प्राप्त करता है। अपनी शक्ति को उलटी कर स्थिर की गई। मल, विक्षेप सहित दु:साध्य भूमि हो तो योग में कठिनाई है। नाभि के उडियान बंध से सिध्द मुर्त तथा साक्षी चेतन ही उनमुनि में रहता है। मूलाधार से नाभि-प्रमाण चक्र सिध्दि से स्वर सिध्दि होकर ज्ञान प्रकार करता है। जालन्धर बंध लगाकर अमृत प्राप्त करना और नाभि स्थाने स्वाधिष्ठान सिध्दि से प्राण वायु का निरोध करना, हृदय स्थाने अनाहत चक्र में जीवात्मा ''सोहं'' ध्वनि का ध्यान और ज्ञानचक्र (आज्ञा) में ज्योति दर्शनोपरांत ब्रह्मरंध्र में विश्राम की प्राप्ति होती है। 

शांभवी योग मुद्रा:
आदिनाथ सदाशिव गोरक्षनाथहमारे गुरूदेव की बताई साधना है जो साधक अभ्यास को गुरू के सानिघ्य में करनी चाहिये जो बता रहा हूं, कुण्डलिनी अवश्य जागृत होगी व तुम्हें अपने स्वयं दिव्य प्रकाश का अनुभव होगा यह गुरू कृपा है। सीधे पैर को खूब दबा कर योनि तथा गुदा की सीवन के बीच में ऐड़ी रखो फिर योनि स्थान के ऊपर दूसरे पैर की ऐड़ी रखो फिर काया शिर तथा ग्रीवा को सम करके शरीर को तोल दो। ब्राह्य इन्द्रियो को बन्द करके ठूठ के समान निश्चल हो जाओं स्थिर दृष्टि से अर्धनेत्र खुले निश्चल रहो यह शांभवी मुद्रा सिध्दासन है। अन्तरमुख मन से हृदय में शिव सिध्द शरण सात बार बोले व सात बार मन ही से सुनो, वृति को हृदय में स्फुरण्ा से एक कर सोऽहम का चिन्तन करों और फिर निश्चल संकल्प विकल्प से रहित स्थित अर्ध नेत्र खुले रहे इस तरह से शांभवी मुद्रा में बैठे रहो। इस प्रकार के सतत चिन्तन अभ्यास से मुलाधार में ब्रह्म रन्ध्र तक सातों चक्र रूपी कपाट स्वत: ही खुल जाते है, जिससे प्रथम अपने आप में परिजातक गहरी सुगन्ध प्रकट होती है फिर स्वयं का दिव्या प्रकाश पुंज अपने अन्दर प्रकट होकर सम्पूर्ण दंह में व्याप्त हो जाता है और फिर अन्दर-बाहर एक सा दिव्या प्रकाश ही प्रकाश अनुभूत होता है। यह जीव ब्रह्मलोक रूपी शिव शक्ति समायोग नामक मोक्ष है, इसके प्रभाव से जीवन मुक्ति रूप स्वाभाविक अवस्था स्वत: ही प्राप्त होती है।
 
 
॥ आदेश आदेश ॥

 
   

नेति-धौति

छ: कर्मो को शरीर-शोधन के लिए नामांकित किया गया है। धौति, वस्ति, नेति, नौलि, त्राटक् और कपालभाति।
1. धौति – धौति तीन प्रकार की होति है – वारिधौति, ब्रह्मदातौन और वासधौति।
 
 
वारि-धौति अर्थात् कॄञ्जर कर्म –
खालि पेट लवण-मिश्रित गुनगुना पानी पीकर छाती हिलाकर वमन की तरह निकाल दिया जाता है। इसको गजकरणी भी कहते है, क्योंकि जैसे हाथी सूंड से जल खींचकर फेंकता है उसी प्रकार इसमे जल पीकर निकाला जाता है। आरम्भ मे पानी का निकालना कठिन होता है। तालु से ऊपर छोटी जिह्वा को सीधे हाथ की दो अंगुलियों से दबाने से पानी निकलने लगता है।

 
 
ब्रह्मदातौन –
सुत की बनी हुई बारीक रस्सी के टुकड़े को अथवा रबर की ट्यूब को लवण ‍मिश्रित गुनगुने पानी को खाली पेट पीने के पश्चासत् बिना दांत लगाये गले से दूध के घूंट के सदृश निगला जाता है, फिर छाती हिलाकर उसको निकाल सारे पानी को वमन के सदृश निकाल दिया जाता है।

 
 
वास-धौति (वस्त्र-धौति) –
धौति लगभग चार अंगुल चौड़ी, लगभग पंद्रह हाथ लंबी, बारीक मलमल जैसे कपडे की होति है। खाली पेट पानी अथवा आरम्भ मे दूध मे भीगी हुई धौति के एक सिरे को अंगुली से हलक मे ले जाकर बिना दांत लगाये शनै:-शनै: दूध के घूंट के सदृश निगला जाता है। आरम्भ मे निगलना कठिन होता है और उल्टी अती है, इसलिए उक घूंट गुनगुने पानी के साथ निगली जाती है। प्रथम दिन एक साथ नहीं निगली जा सकती है। शनै:-शनै: अभ्यास बढाया जाता है। सब धौति निगलने के पश्चांत् कुछ अंश मुंह के बाहर रखना पडता है। इसके बाद नौली को चालन करके धौति तथा सब पिये हुए पानी को अमन के सदृश निकाल दिया जाता है। इन क्रियाओं से कफ और पित्त रोग दूर होकर शरीर शुद्ध और हलका हो जाता है, और मन सुगमता से एकाग्र होने लगता है। घेरण्ड-संतिता मे धौतिकर्म के चार निम्न भेद बतलाये है – (क) अन्तधौति (ख) दन्त-धौति (ग) हृद्धौति (घ) मूलशोधन

 
 
(क) अन्तधौति –
इसके भी चार भेद बतलाये है –

वातसार
वारिंसार
वह्निसार
बहिष्कृत
वातासर अन्तधौति –
मुख को कोए ‍की चोंच के समान करके अर्थात् दोनों ‍होठों ‍को सिकोडकर धीरे-धीरे वायु का पान करें। यहां तक कि पेट मे वायु पूर्णतया भर जाये फिर वायु को पेट के अंदर चारों ओर संचलित करके धीरे-धीरे नासिकापुट के द्वारा निकाल दे। इसे काकी-मुद्रा और काक-प्राणायाम भी कहते है।
फल – ह्रदय, पेट और कण्ठ की व्याधियों का दूर होना, शरीर का शुद्ध और निर्मल होना, क्षुधा की वृद्धि, मन्दाग्नि का नाश, फेंफड़ों का विकास कण्ठ मे सुरीलापन होना। वीर्य के लिए भी लाभदायक बताया गया है।
वारिंसार अन्तधौति –
इसमे मुख द्वारा धीरे-धीरे जल पी कर कण्ठ तक भर लिया जाता है। फिर उदर मे चारों ओर संचलित करके गुदामार्ग द्वारा बाहर निकाल दिया जाता है।
फल - देह का ‍निर्मल होना, कोष्ठबद्धता, तथा पेट के आमादि सब रोगों का दूर होना, शरीर का युद्ध होकर कांतिमान होना बतलाया गया है।

इस क्रिया को शंख-प्रक्षालन भी कहते है। क्योंकि शंख के चक्राकारमार्ग मे पानी डालने से घूमता हुआ जल जिस प्रकार बाहर आ जाता है उसी प्रकार से मुख से जल पीने पर कुछ समय पश्चा त् मल को साथ लेकर अंतडियों को शुद्ध करता हुआ गुदा द्वार से बाहर आ जाता है।
बह्निसार अन्तधौति –
नाभि की गांठ को मेरूपृष्ठ में सौ बार लगायें, अर्थात् उदर को इस प्रकार बार-बार फुलावें-सिकोड़े कि नाभि ग्रन्थि पीठ मे लग जाया करे। इससे उदर के समस्त रोग नष्ट होते ‍है और जठराग्नि प्रदीप्त होती है।
बहिष्कृत अन्तधौति –
कौए की चोंच के सदृश मुख बनाकर इतनी मात्रा मे वायु का पान करे कि पेट भर जाय, फिर उस वायु ‍को डेढ़ घंटे तक (अथवा यथाशक्ति) पेट मे धारण किये रहे। तत्पश्चा त् गुदामार्ग द्वारा बाहर निकाल देना बतलाया गया है। जब तक आधे पहर तक वायु को रोकने का अभ्यास न ‍हो जाये, तब तक इस क्रिया को करने का यत्न न करें, अन्यथा वायु के कुपित होने का भय है।
फल – इससे सब ना‍डियां शुद्ध होति है। जैसी यह क्रिया कठिन है वैसे ही इसका लाभ अकथ्य तथा अगम्य बतलाया गया है।

 
 
(ख) दन्त-धौति –
यह भी चार प्रकार ‍की होती है –
दन्तमूल
जिह्वामूल
कर्णरन्ध्र
कपालरन्ध्र
दन्तमूल धौति –
खैर का रस सूखी मिट्टी अथवा अन्य किसी ओषधि-विशेष से दांतों की जड़ों को अच्छी प्रकार साफ करें।
जिह्वामूल-धौति –
तर्जनी, मध्यमा और अनामिका अंगुलियों को गलें के भीतर डालकर जीभ को जड़ तक बार-बार घिसे। इस प्रकार ‍धीरे-धीरे कफ के दोष को बाहर निकाल दें।
कर्णरन्ध्र-धौति –
तर्जनी और अनामिका अंगुलियों के योग से दोनो कानो के छिद्रों को साफ करें, इससे एक प्रकार का नाद प्रकट होना बतलाया गया है।
कपालरन्ध्र-धौति –
निद्रा से उठने पर, भोजन के अन्त में और सूर्य के अस्त होने पर सिर के गढ़े को दाहिने हाथ के अंगूठे द्वारा प्रतिदिन जल से साफ करें। इससे नाडियां स्वच्छ हो जाति है और दृष्टि दिव्य होती है।

 
 
(ग) हृद्धौति –
इसके तीन भेद है –

दण्ड-धौति
वमन-धौति
वास-धौति
दण्ड-धौति –
केलेंडर के दण्ड, हल्दी के दण्ड, चिकने बेंत के दण्ड अथवा वट वृक्ष की जटा-डाढि को धीरे-धीरे ह्रदयस्थल में प्रविष्ट कर दें, फिर ह्रदय के चारों ओर घुमाकर युक्ति पूर्वक बारि निकाल दे। इससे पित्त, कफ, अकुलाहट आदि विकारी मल बाहर निकल जातें हैं और ह्रदय के सारे रोग नष्ट हो जाते है। इसको भोजन के पूर्व करना चाहिये।
वमन-धौति –
भोन करने के पश्चारत् कण्ठ तक पानी पी कर भर लें और थोडी देर तक उपर की ओर लेकर उस पानी को मुख द्वारा बाहर निकाल दें। पानी कण्ठ के अंदर न जाने पावें। इससे कफ-दोष और पित्त-दोष दूर होते है।
वास-धौति (वस्त्र-धौति) –
लबभब छ: अंगुल चौडा और लगभग अठारहा हाथ का बारीक वस्त्र किंचित् उष्ण (गर्म) जल से भिगोकर गुरू के बताये हुए क्रम से पहिले दिन एक हाथ, दूसरे दिन दो ‍हाथ, तीसरे दिन तीन हाथ अथवा इससे न्यूनाधिक युक्ति पूर्वक अंदर ले जाय, फिर धीरे-धीरे ही बाहर निकाल दे। इसको भोजन के पहिले करना चाहिये। इससे गुल्म, ज्वर, पील्हा, कुष्ठ एवं कफ-पित्त आदि अन्य विकार नष्ट होते है।

 
 
(घ) मूलशोधन (गणेश-क्रिया) –
कच्ची मूली की जड़ से अथवा तर्जनी अंगुली से यन्त्रपूर्वक सावधानी से बार-बार जल द्वारा गुदामार्ग को साफ करें। इसके पश्चा त् घृत या मक्खन उस स्थान पर लगाना अधिक लाभदायक है। इससे उदर रोग का काठिन्य दूर ‍होता है। आजनित एवं अजीर्णजनित रोग उत्पन्न नही होते और शरीर की पुष्टि और कान्ति की वृद्धि होती है। यह जठराग्नि को प्रदीप्त करती है। इससे सब प्रकार के अर्श-रोग तथा वीर्यदोष भी दूर होते है।

 
 
2. वस्ति –
वस्ति मूलाधार के समीप है। इसके साफ करने के कर्म को वस्ति कर्म कहते है। एक चिकनी नली ‍को गुदा में ले जाकर नौलि-कर्म की सहायता से गुदामार्ग द्वारा वस्ति मे जल चढाया और निकाला जाता है। साधारण तया इस क्रिया का कठिन है। उसके स्थान पर एनिमा से काम लिया जा सकता है। इससे आंतों का मल जल के साथ मिकर पतला हो जाता है और शीघ्रतापूर्वक बाहर निकल जाता है।

 



 
॥ आदेश आदेश ॥