Wednesday 2 July 2014

निर्वाण समाध



ॐ गुरु जी सतगुरु खोजोमन कर चंगा इस विधि रहना उत्तम संगा। सहजे संगम आवे हाथ श्री गुरु उवाच निर्वाण समाध॥

ॐ गुरु जी कंचन काया ज्ञान रतन सतगुरु खोजोलाख यतन। हस्तीमनु राखो डाट श्री गुरु उवाच निर्वाण समाध॥

ॐ गुरु जी बोलन चालन बहु जंजाला गुरु वचनी-वचनी योग रसाला। नियम धर्म दोराखो पास श्रीगुरु उवाच निर्वाण समाध॥

ॐ गुरु जी निरे निरंतर सिद्धों का वासाइच्छा भोजन परम निवासा। काम क्रोध अहंकार निवार श्री गुरु उवाच निर्वाण समाध॥

ॐ गुरु जी पहिले छोड़ो वाद विवाद पीछे छोड़ो जिभ्याका स्वाद। त्यागोहर्ष और विषाद श्री गुरु उवाच निर्वाण समाध॥

ॐ गुरु जी आलस निद्रा छींक जंभा तृष्णा डायन बन जग को खा। आकुल व्याकुल बहु जंजाल श्रीगुरु उवाच निर्वाण समाध॥

ॐ गुरु जी आलस तोड़ोनिद्रा छोड़ो गुरु चरण में इच्छा जोड़ो। जिह्वा इंद्री राखो डाट श्री गुरु उवाच निर्वाण समाध॥

ॐ गुरु जी योग दामोदर भगवाकरोज्योतिनाथ का दर्शन करो। जत सत दो राखोपास श्री गुरु उवाच निर्वाण समाध॥

ॐ गुरु जी अगम अगोचर कंठीबंध द्वादस वायु खेले चौसठ फंद। अगम पुजारीखांडे की धार श्रीगुरु उवाच निर्वाण समाध॥

ॐ गुरु जी डेरे डूंगरे चढ़ नहीं मारना राजे द्वारे पर पग नहीं धरना छोड़ो राजा रंग की आस श्री गुरु उवाच निर्वाण समाध॥

ॐ गुरु जी जड़ी बूटी कीबहु विस्तारा परम जोत का अंत न पारा। जड़ी बूटी से कारज सरे वैद्य धवंतरी काहे को मरे॥

जड़ी बूटी सोचो मत को पहले रांड वैद्य की हो। जड़ी बूटी वैद्यों की आस श्री गुरु उवाच निर्वाण समाध॥

ॐ गुरु जी वेद शास्त्र को बहु विस्तारापरम जोत का अंत न पारा। पढ़े-लिखे से अमर होय ब्रह्मा परले काहे को होय। वेद शास्त्र ब्राह्मणों कीआस श्री गुरु उवाच निर्वाण समाध॥

ॐ गुरु जी कनक कामनी दोनों त्यागो अन्न भिक्षा पांच घर मांगो। छोड़ो माया मोह की आस श्री गुरु उवाच निर्वाण समाध॥

ॐ गुरु जी सोने चांदी का बहु विस्तारापरम जोत का अंत न पारा। सोना चांदी से कारज सरे भूपति चक्रवर्ती राजे राज काहे को तजे। सोना चांदी जगत की आस श्री गुरु उवाच निर्वाण समाध॥

ॐ गुरु जी ज्योतिरूप एक ओंकारा सतगुरु खोजोहोवे निस्तारा। गुरु वचनों के रहना पास श्री गुरु उवाच निर्वाण समाध॥

ॐ गुरु जी गगनमंडल में गुरु जी का वासा जहां पर हंसा करे निवासा। पांच तत्त्व ले रमना साथ श्री गुरु उवाच निर्वाण समाध॥

ॐ गुरु जी उड़ान योगी मृड़ान कायामरे न योगीधरे न औतार। सत्य सत्य भाषंते श्री शंभु जती गुरु गोरक्ष नाथ निर्वाण समाध॥

नाथ जीगुरु जी आदेश आदेश आदेश 

महात्मा किसे कहते है? महात्मा शब्द अर्थ और का प्रयोग: -


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'महात्मा' शब्द का अर्थ है 'महान आत्मा' यानी सबका आत्मा ही सका आत्मा है | इस सिद्धान्त से 'महात्मा' शब्द वस्तुत: एक परमेश्वर के लिए ही शोभा देता है, क्योकि सबके आत्मा होने के कारण वे ही महात्मा है | श्रीभगवदगीता में भगवान स्वयं कहते है | 'हे अर्जुन! मैं सब भूत प्राणियोंके ह्रदय में स्तिथ सबका आत्मा हूँ | 'परन्तु जो पुरुष भगवान को तत्व से जानता है अर्थात भगवान को प्राप्त हो जाता है वह भी महात्मा ही है, अवश्य ही ऐसे महात्माओ का मिलना बहुत ही दुर्लभ है | गीता में भगवान ने कहा है -
'हजारों मनुष्यों में कोई ही मेरी प्राप्ति के लिये यत्न करता है और उन यत्न करने वाले योगिओं में कोई ही पुरुष (मेरे परायण हुआ) मुझको तत्व से जानता है |
जो भगवान को प्राप्त हो जाता है, उसके लिए सम्पूर्ण भूतों का आत्मा उसी का आत्मा हो जाता है | क्योकि परमात्मा सबके आत्मा है और वह भक्त परमात्मा में स्तिथ है | इसलिए सबका आत्मा ही उसका आत्मा है | इसके सिवाय 'सर्वभूतात्मभूतात्मा' (गीता 5 / 7) यह विशेषण भी उसी के लिए आया है | वह पुरुष सम्पूर्ण भूत - प्राणियों को अपने आत्मा में और आत्मा को सम्पूर्ण भूत - प्राणियों में देखता है | उसके ज्ञान में सम्पूर्ण भूत - प्राणियोंके और अपने आत्मा में कोई भेद - भाव नहीं रहता | 'जो समस्त भूतों को अपने आत्मा में और समस्त भूतोमें अपने आत्मा को ही देखता है, वह फिर किसी से घ्रणा नहीं करता |' (इश 0 6)
सर्वर्त्र ही उसकी आत्म - दृष्टी हो जाती है, अथवा यों कहिये की उसकी दृष्टी में एक विज्ञानानन्ध्घन वासुदेव से भिन्न और कुछ भी नहीं रहता | ऐसे ही महात्माओ की प्रशंसामें भगवान ने कहा है, 'सब कुछ वासुदेव ही है, इस प्रकार (जाननेवाला) महात्मा दुर्लभ है अति | '
खेद की बात है की आजकल लोग स्वार्थवश किसी साधारण - से - साधारण मनुष्य को भी महात्मा कहने लगे है | 'महात्मा' या 'भगवान' शब्द का प्रयोग वस्तुत: बहुत सोच समझ कर किया जाना चाहिये | वास्तव में महात्मा तो वे ही है जिनमे महात्माओ के लक्षण और आचरण हों | ऐसे महात्मा का मिलना बहुत दुर्लभ है, यदि मिल भी जाए तो उनका पहचानना तो असम्भव सा ही है, 'महत्सगस्तु दुर्लभोअगम्योअमोघस्च' (नारद सूत्र 39) 'महात्मा का संग दुर्लभ, दुर्गम और अमोघ है |'
साधारणतया उनकी यही पहचान सुनी जाती है की उनका संग अमोघ होने के कारण उनके दर्शन, भाषण और आचरणों से मनुष्य पर बड़ा भरी प्रभव पडता है | ईश्वर - स्मृति, विषयों से वैराग्य, सत्य, न्याय और सदाचार में प्रीति, चित में प्रसन्ता तथा शान्ति आदि सद्गुणों का स्वाभाविक ही प्रादुर्भाव हो जाता है | इतने पर भी बाहरी आचरणों से तो यथार्थ महात्माओ का पहचानना बहुत ही कठिन है, क्योकि पाखण्डी मनुष्य भी लोगों को ठगने के लिए महात्माओ - जैसा स्वांग रच सकता है | इसलिए परमात्मा की पूर्ण दया से ही महात्मा मिलते है और उनकी दया से ही उनको पहचाना भी जा सकता है |
सर्वत्र सम दृष्टि होने के कारण राग - द्वेषका अत्यन्त अभाव हो जाता है, इसलिए उनको प्रिय और अप्रिय की प्राप्ति में हर्ष - शोक नहीं होता | सम्पूर्ण भूतों में आत्म - बुद्धि होने के कारण अपने आत्मा के सद्र्श ही उनका प्रेम हो जाता है, इससे अपने और दुसरे के सुख - दुःख में उनकी समबुद्धि हो जाती है और इसलिए वे सम्पूर्ण भूतो के हित में स्वाभाविक ही रत होते है | उनका अंत: करण अति पवित्र हो जाने के कारण उनके ह्रदय में भय, शोक, उद्वेग, काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि दोषों का अत्यन्त अभाव हो जाता है | देह में अहंकार का अभाव हो जाने से मान, बड़ाई और प्रतिष्ठा की इच्छा तो उनमे गन्ध मात्र भी नहीं रहती | शांति, सरलता, समता, सुह्रिद्ता, शीतलता, सन्तोष, उदारता और दया के तो वे अनन्त समुद्र होते है | इसलिए उनका मन सर्वदा पप्रफुल्ल्ति, प्रेम और आनन्द में मग्न और सर्वथा शान्त रहता है |
महात्माओं के आचरण: -
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देखने में उनके बहुत से आचरण दैवी सम्पदावाले सात्विक पुरुषों - से होते है, परन्तु सूक्ष्म विचार करनेपर दैवी सम्पदावाले सात्विक पुरुषोंकी अपेक्षा उनकी अवस्था और उनके आचरण कहीं महत्वपूर्ण होते है | सत्य स्वरुप में स्थित होने के कारण उनका प्रत्येक आचरण सदाचार समझा जाता है | उनके आचरण में असत्य के लिए कोई स्थान ही नहीं रह जाता | उनका व्यक्तिगत किन्चित भी स्वार्थ न रहने के कारण उनके आचरण में किसी भी दोष का प्रवेश नहीं हो सकता, इसलिए उनके सम्पूर्ण आचरण दिव्य समझे जाते है |
वे सम्पूर्ण भूतों को अभयदानं देते हुए ही विचरते है | वे किसी के मन में उद्वेग करनेवाला कोई आचरण नहीं करते | सर्वर्त्र परमेश्वर के स्वरुप को देखते हुए स्वाभाविक ही तन, मन और धन को सम्पूर्ण भूतों के हित में लगाये रहते है | उनके द्वारा झूठ , कपट, व्यभिचार, चोरी और दुराचार तो हो ही नहीं सकते | याग, दान, तप, सेवा आदि जो उत्तम कर्म होते है, उनमे भी अहंकार का अभाव होने के कारण आसक्ति, इच्छा, अभिमान और वासना आदि का नामो - निशान भी नहीं रहता | स्वार्थ का त्याग होने के कारण उनके वचन और आचरण का लोगों पर अद्भूत प्रभाव पढता है | उनके आचरण लोगों के लिए अत्यन्त हितकर और प्रिय होने से लोग सहज ही उनका अनुकरण करते है |
श्री गीता जी में है भगवान कहते 'श्रेष्ठ पुरुष जो - जो आचरण करते है, दुसरे लोग भी उसी अनुसार बरतते के है, वह जो कुछ प्रमाण कर देते है, लोग भी उसी अनुसार बरतते के है |'
उनका प्रत्येक आचरण सत्य, न्याय और ज्ञान से पूर्ण होता है, किसी समय उनका कोई आचरण बाह्यद्रष्टि से भ्रमवश लोगों को अहितकर या क्रोधयुक्त मालूम हो सकता है, किन्तु विचारपूर्वक तत्वदृष्टी से देखने पर वस्तुत: उस आचरण में भी दया और प्रेम ही भरा हुआ मिलता है और परिणाम में उससे लोगो का परम हित ही होता है | उनमे अहंता - ममता का अभाव होने के कारण उनका वर्ताव सबके साथ पक्षपातरहित, प्रेममय, और शुद्ध होता है | प्रिय और अप्रिय में उनकी समद्रष्टि होती है | वे भक्तराज प्रह्लाद की भाँती आपतिकाल में भी सत्य, धर्म और न्यायके पक्ष पर ही दृढ रहते है | कोई भी स्वार्थ या भय उन्हें सत्य से नहीं डिगा सकता |
एक समय केशिनी - नाम्नी कन्या को देखकर प्रह्लाद - पुत्र विरोचन और अंगिरा - पुत्र सुधन्वा उनके साथ विवाह करने के लिए परस्पर विवाद करने लगे | कन्या ने कहा की 'तुम दोनों में जो श्रेष्ठ होगा, मैं उसी के साथ विवाह करुँगी |' इसपर वे दोनों ही अपने को श्रेष्ठ बतलाने लगे | अंत में वे परस्पर प्राणों की बाजी लगा कर इस विषय में न्याय करने के लिए प्रह्लाद जी के पास गए | प्रह्लाद जी ने पुत्र के अपेक्षा धर्म को श्रेष्ठ समझकर यथोचित न्याय करते हुए अपने पुत्र विरोचन से कहा की 'सुधन्वा तुझसे श्रेष्ठ है, इसके पिता अंगिरा मुझसे श्रेष्ठ है और इस सुधन्वा की माता तेरी माता से श्रेष्ठ है, इसलिए यह सुधन्वा तेरे प्राणों का स्वामी है |' यह न्याय सुनकर सुधन्वा मुग्ध हो गया और उसने कहा, 'हे प्रह्लाद! पुत्र - प्रेम को त्याग कर तुम धर्म पर अटल रहे, इसलिए तुम्हारा यह पुत्र सौ वर्षो तक जीवित रहे | '(महा सभा 0 0 68 | 76-77)
महात्मा पुरुषों का मन और इन्द्रियाँ जीती हुई होने के कारण न्यायविरुद्ध विषयों में तो उनकी कभी प्रवृति नहीं होती | वस्तुत: ऐसे महातमाओ की दृष्टीमें एक सच्चिदानंदघन वासुदेवसे भिन्न कुछ नहीं होने के कारण यह सब भी लीलामात्र ही है, तथापि लोकद्रष्टिमें भी उनके मन, वाणी , शरीर से होने वाले आचरण परम पवित्र और लोकहितकर ही होते है | कामना, आसक्ति और अभिमान से रहित होने के कारण उनके मन और इद्रियों द्वारा किया हुआ कोई भी कर्म अपवित्र या लोकहानिकारक नहीं हो सकता | इसी से वे संसार में प्रमाणस्वरुप माने जाते है |
महात्माओं की महिमा: -
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ऐसे महापुरुषों की महिमा का कौन बखान कर सकता है? श्रुति, स्मृति, पुराण, इतिहास, सन्तो की वाणीऔर आधुनिक महात्माओं के वचन इनकी महिमा भरे पड़े से है |
गोस्वामी तुलसीदासजी ने तो यहाँतक कह दिया है की को भगवान प्राप्त हुए भगवान के दास भगवान से भी बढ़कर है |
मोरें मन प्रभु अस बिस्वासा | राम राम ते अधिक कर दासा | |
राम सिन्धु घन सज्जन पीरा | चन्दन तरु हरी सन्त समीरा | |
सो कुल धन्य उमा सुनु जगत पूज्य सुपुनीत |
श्री रघुबीर परायन जेहि नर उपज बिनीत | |
ऐसे महात्मा जहाँ विचरते है वहाँ का वायुमंडल पवित्र हो जाता है | श्रीनारद जी कहते है 'वे अपनें प्रभाव से तीर्थों को (पवित्र करके) तीर्थ बनाते है, कर्म को सुकर्म बनाते है और शास्त्रों को शत - शास्त्र बना देते है |' वे जहाँ रहते है, वाही स्थान तीर्थ बन जाता है या उनके रहने से तीर्थ का तीर्थत्व स्थायी हो जाता है, वे को कर्म करते है, वे ही सुकर्म बन जाते है, उनकी वाणी ही शास्त्र है अथवा वे जिस शास्त्र को अपनाते है, वही सत - शास्त्र समझा जाता है |
शास्त्रों में है कहा, 'जिसका चित अपार संवित सुखसागर परब्रह्म में है लीन, उसके जन्म कुल पवित्र होता से है, उसकी जननी है और कृतार्थ होती पृथ्वी पुण्यवती हो जाती है |'
धर्मराज युधिस्टर ने भक्तराज विदुरजी से कहा था 'हे स्वामिन! आप सरीखे भगवदभक्त स्वयं तीर्थ रूप है | (पापियों के द्वारा कलुषित हुए) तीर्थों को आप लोग अपने ह्रदय में स्तिथ भगवान श्रीगदाधरके प्रभाव से पुन: तीर्थतत्व प्राप्त करा देते है | '(श्रीमद्भागवत 1 | 13 | 10)
महातामों का तो कहना ही क्या है, उनकी आज्ञा पालन करने वाले मनुष्य भी परम पदको प्राप्त हो जाते है | भगवान स्वयं भी कहते है की जो किसी प्रकार का साधन न जानता हो वह भी महान पुरुषों के पास जाकर उनके कहे अनुसार चलने से मुक्त हो जाता है | 'परन्तु दुसरे इस प्रकार के तत्वसे न जानते हुए दूसरों से अर्थात तत्व को जानने वाले महापुरुषों से सुनकर ही उपासना करते है | वे सुनने के परायण हुए भी मृत्युरूप संसार - सागर से निसंदेह तर जाते है |
बनने के महात्मा उपाय: -
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इसका वास्तविक उपाय तो परमेश्वर की अनन्य - शरण होना ही है, क्योकि परमेश्वर की कृपा से ही यह पद मिलता है | श्रीम्ध्भ्गवतगीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है, 'हे भारत! सब प्रकार से उस परमेश्वर की ही अनन्य शरण को प्राप्त हो, उस परमात्मा की दया से ही तू परमशान्ति और सनातन परमधाम को प्राप्त होगा | '(18 | 62) परन्तु इसके लिए ऋषियों ने और भी उपाय बतलाये है | जैसे मनु महाराज ने धर्म के दस लक्षण कहे है 'घृति, क्षमा, मन का निग्रह, अस्तेय, सौच, इन्द्रियनिग्रह, बुद्धि, विद्या, सत्य और अक्रोध - ये धर्म के दस लक्षण है |'
महर्षि पतंजलि ने अंत: करणकी शुद्धिके लिए (जो की आत्मसाक्षात्कार के लिए अत्यन्त आवश्यक है) एवं मन को निरोध करने के लिए बहुत - से उपाय बतलाये है | जैसे 'सुखियोंके परति मैत्री, दुखियों के प्रति करुणा, पुन्यमाओं को देख कर प्रसन्नता और पापियों के प्रति उपेक्षा की भावना से चित स्थिर होता है | '(1 | 33)
'अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रहचर्य, अपरिग्रह - ये पाँच यम है और सौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और इस्वरप्रणिधान - ये पाँच नियम है |' (2 | 30) (2 | 32)
और भी अनेकों ऋषियों ने महात्मा बननेके यानी परमात्माके पद को प्राप्त होनेके लिए सद्भाव और सदाचार अनेक उपाय बतलाये है |
भगवान ने श्रीमध्भगवतगीता के तेरहवेअध्याय मेंन श्लोक 7 से 11 तक 'ज्ञान' के नाम से और सोलहवे अध्याय में श्लोक 1-2-3 में 'दैवी सम्पदा' के नाम से एवं सत्रहवे अध्याय में श्लोक 14-15-16 में 'तप' के नाम से सदाचार और सद्गुणों का वर्णन किया है |
यह सब होने पर भी महर्षि पतंजलि, शुकदेव, भीष्म, वाल्मीकि, तुलसीदास, सूरदास यहांतक की स्वयं भगवान ने भी शरणागति को ही बहुत सहज और सुगम उपाय बताया है | अनन्य शक्ति, ईश्वर - प्रणिधान, अव्यभिचारिणी भक्ति और परम प्रेम आदि उसी के नाम है |
'हे पार्थ! जो पुरुष मुझमे अनन्य चित से स्तिथ हुआ सदा ही निरन्तर मुझको स्मरण करता है उस मुझमे युक्त हुए योगी के लिए मैं सुलभ हूँ अर्थात सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ | '(गीता 8 | 14)
'जो एक बार भी मेरे शरण होकर' मैं तेरा हूँ 'ऐसा कह देता है, मैं उसे सर्व भूतो से अभय कर देता हूँ, यह मेरा व्रत है |' (वा रा 0 0 6 | 18 | 33)
इसलिए पाठक सज्जनों से प्रार्थना है की ज्ञानी, महात्मा और भक्त बनने के लिए ज्ञान और आनन्द के भण्डार सत्यस्वरूप उस परमात्मा की ही अनन्य शरण ली चाहिये | फिर उपर्युक्त सदाचार और सद्भाव तो अनायास ही प्राप्त हो जाते है |
भगवान की शरण ग्रहण करने पर उनकी दयासे आप ही सारे विघ्नों का नाश होकर भक्त को भगवतप्राप्ति हो जाती है | योगदर्शन में कहा है, 'उसका वाचक प्रणव (ओंकार) है |' 'उसका जप और उसके अर्थ की भावना करनी चाहिये |' 'इससे अन्तरात्मा की प्राप्ति और विघ्नों का अभाव भी होता हैं | '
भगवत - शरणागति के बिना इस कलिकाल में संसार - सागर से पार होना अत्यन्त ही कठिन है |
कलिजुग केवल नाम अधारा | सुमिर सुमिर भव उतरही पारा |
कलिजुग सम जुग आन जो नर नहीं कर बिस्वास |
गाई राम गुनगन बिमल भाव तर बिनही प्रयास | | |
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेनामेव केवलम |
कलो नास्तःयेव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा | |
दैवी हेशाम गुणमयी मम माया दुरत्यया |
मामेव ये प्रप्ध्यनते मायामेता तरन्ति ते | |
'कलियुग में हरी का नाम, हरी का नाम, केवल हरी का नाम ही (उद्धार करता) है, इसके सिवा अन्य उपाय नहीं है, नहीं है, नहीं है |'
'क्योकि यह अलोकिक ( अति अद्भुत) त्रिगुणमयी मेरी योगमाया बड़ी दुस्तर है, जो पुरुष निरन्तर मुझको ही भजते है, वे इस माया को उलंघन कर जाते है यानि संसार से तर जाते है |
हरी माया कृत दोष गुण बिनु हरी भजन ऑनलाइनफ़्लैशखेलों जाही |
भजीअ राम तजि काम सब अस बिचारी मन माहि |
महात्मा बनने के मुख्य मार्ग में विघ्न: -
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ज्ञानी, महात्मा और भक्त कहलाने तथा बनने के लिए तो प्राय: सभी इच्छा करते है, परन्तु उसके लिए सच्चे ह्रदय से साधन करने वाले लोग बहुत कम है | साधन करने वालों में भी परमात्मा के निकट कोई ही पहुचता है; क्योकि राह में ऐसी बहुत सी विपद - जनक घाटियाँ आती है जिनमे फसकर साधक गिर जाते है | उन घाटियों में 'कन्चन; और 'कामिनी' ये दो घाटियाँ बहुत कठिन ही है, परन्तु इनसे भी कठिन तीसरी घाटी मान - बड़ाई की है और ईर्ष्या | किसी कवी ने कहा है
कंच्चन तजना सहज है, सहज त्रिया का नेह |
मान बड़ाई ईर्ष्या, दुर्लभ तजना येह | |
इन तीनो में सबसे कठिन है बड़ाई | इसी को कीर्ति, प्रसंसा, लोकेष्णा आदि कहते है | शास्त्र में जो तीन प्रकार की त्रष्णा (पुत्रेष्णा, लोकेष्णा और वितेश्ना) बताई गयी है | उन तीनो में लोकेष्णा ही सबसे बलवान है | इसी लोकेष्णा के लिए मनुष्य धन, धाम, पुत्र, स्त्री और प्राणों का भी त्याग करने के लिए तैयार हो जाता है |
जिस मनुष्य ने संसार में मान - बड़ाई और प्रतिष्ठा का त्याग कर दिया, वही महात्मा है और वही देवता और ऋषियों द्वारा भी पूजनीय है | साधू और महात्मा तो बहुत लोग कहलाते है किन्तु उनमे मान - बड़ाई और प्रतिष्ठा का त्याग करने वाला कोई विरला ही होता है | ऐसे महात्माओं की खोज करने वाले भाइयों को इस विषय का कुछ अनुभव भी होगा |
हम लोग पहले जब किसी किसी अच्छे पुरुष का नाम सुनते है तो उनमे श्रधा होती है पर उनके पास जाने पर जब हम उनमे मान - बड़ाई, प्रतिष्ठा दिखलाई देती है, तब उन पर हमारी वैसी श्रद्धा नहीं ठहरती जैसी उनके गुण सुनने के समय हुई थी | यदपि अच्छे पुरुषों में किसी प्रकार भी दोषद्र्स्टी करना हमारी भूल है, परन्तु स्वभाव दोष से ऐसी वृतियाँ होती हुई प्राय: देखि जाती है और ऐसा होना बिलकुल निराधार भी नहीं है | क्योकि वास्तव में एक ईश्वर के सिवा बड़े - से - बड़े गुणवान पुरुषों में भी दोष का कुछ मिश्रण रहता ही है | जहाँ बड़ाई का दोष आया की झूठ, कपट और दम्भ को स्थान मिल जाता है तो अन्यान्य दोषों के आने को सुगम मार्ग मिल जाता है | यह कीर्ति रूप दोष देखने में छोटा सा है परन्तु यह केवल महातामो को छोड़कर एनी अच्छे - से - अच्छे पुरुषों में भी सूक्ष्म और गुप्तरूप से रहता है | यह साधक को साधन पथ से गिरा कर उसका मूलोछेदन कर डालता है |
अच्छे पुरुष बड़ाई हो हानिकर समझकर विचारदृष्टी से उसको अपने में रखना नहीं चाहते और प्राप्त होनेपर उसका त्याग भी करना चाहते है | तो भी यह सहज में उनका पिण्ड नहीं छोडती | इसका शीघ्र नाश तो तभी होता है जब की यह ह्रदयसे बुरी लगने लगे और इसके प्राप्त होने पर यथार्थ में दुःख और घ्रणा हो | साधक के लिए साधन में विघ्न डालनेवाली यह मायाकी मोहिनी मूर्ती है, जैसे चुम्बक लोहे को, स्त्री कामी पुरुष को, धन लोभी पुरुष को आकर्षण करता है, यह उससे भी बढ्कर साधक को संसार समुद्र की और खीच कर उसे इसमें बरबस डुबो देती है | अतएव साधक को सबसे अधिक बड़ाई से ही डरना चाहिये | जो मनुष्य बड़ाई को जीत लेता है वह सभी विघ्नों को जीत सकता है |
योगी पुरुष के ध्यान में तो चित की चंचलता और आलस्य ये दो ही महाशत्रु के तुल्य विघ्न करते है | चित में वैराग्य होने पर विषयों में और शरीर में आसक्ति का नाश हो जाता है, इससे उपर्युक्त दोष तो कोई विघ्नं उपस्थित नहीं कर सकते परन्तु बड़ाई एक ऐसा महान दोष है जो इन दोषों के नाश होने पर भी अन्दर छिपा रहता है | अच्छे पुरुष भी जब हम उनके सामने उनकी बड़ाई करते है तो उसे सुनकर विचारदृष्टी से इसको बुरा समझते हुए भी इसकी मोहिनी शक्ति से मोहित हुए - से उस बड़ाई करने वाले के अधीन - से हो जाते है | विचार करने पर मालूम होता है की इस कीर्तिरुपी मोहिनी शक्ति से मोहित न होने वाले वीर करोड़ों में एक ही है |
कीर्तिरुपी मोहिनी शक्ति जिसको नहीं मोह सकती, वही पुरुष धन्य है, वही माया के दासत्व से मुक्त है, वही ईश्वर के समीप है और वही यथार्थ महात्मा है | यह बहुत ही गोपनीय रहस्य की बात है | जिस पर भगवान की पूर्ण दया होती है, या यों कहे की जो भगवान की दया के तत्व को समझ जाता है, वाही इस कीर्तिरूपी दोष पर विजय पा सकता है | इस विघ्न से बचने के लिए प्रत्येक साधक को सदा सावधान रहना चाहिये |