Tuesday 25 February 2014

श्रीगुरुमन्त्रका माहात्म्य


ॐ गुरुजी ! ओं सोऽहं अलियं कलियं श्रीसुन्दरी बाला | कौन जपन्ते ओं ? कौन जपन्ते सोऽहं ? कौन जपन्ते अलियं ? कौन जपन्ते कलियं ? कौन जपन्ते सुन्दरी ? कौन जपन्ते बाला ? ओं जपन्ते निरन्जन निराकार अवगत सरुपी | सोऽहं जपन्ते माई पारवती महादेव ध्यान सरुपी | अलियं जपन्ते ब्रह्मा सरस्वती वेद सरुपी | कलियं जपन्ते धरतीमाता अन्नपूर्णेश्वरि | बाला जपन्ते श्रीशम्भुयति गुरुगोरक्षनाथ शिव सरुपी | आ ओ सुन्दर आलं पूछे देह कौन कौक योगेश्वरा ? कौन कौन नगेश्वरा ? धाव धाव ईश्वरी ! धाव धाव महेश्वरी ! बायें हाथ पुस्तक | दाहिने हाथ माला | जपो तपो श्रीसुन्दरी गुरुगोरक्ष बाला | इतना मन्त्र सम्पूर्ण भया अनन्तकोटि सिद्धों में बैठकर श्रीशम्भुयति गुरु गोरक्षनाथजी ने नौनाथ चौरासी सिद्धों को पढ़ कथकर सुनाया सिद्धों ! आदेश आदेश ||

श्रीबाला जाप बीजमंत्र

ॐ नमो आदेश गुरूजी कौं, आदेश ॐ गुरूजी - ॐ सोहं ऐं क्लीं श्री सुन्दरी बाला काहे हात पुस्तक काहे हात माला | बायें हात पुस्तक दायें हात माला जपो तपो श्रीसुन्दरी बाला | जिवपिण्डका तूं रखवाला हंस मंत्र कुलकुण्डली बाला | बाला जपे सो बाला होय बूढा जपे सो बाला होय || घट पिण्डका रखवाला श्रीशंभु जति गुरु गोरख बाला | उलटंत वाला पलटंत काया सिद्धोंका मारग साधकोंने पाया || ॐ गुरूजी, ॐ कौन जपंते सोहं कौन जपंते ऐं कौन जपंते | क्लीं कौन जपंते श्रीसुन्दरी कौन जपंते बाला कौन जपंते || ॐ गुरूजी, ॐ जपंते भूचरनाथ अलख अगौचर अचिंत्यनाथ | सोहं जपंते गुरु आदिनाथ ध्यान रूप पठन्ते पाठ || ऐ जपंते व्रह्माचार वेद रूप जग सरजन हार | क्लीं जपंते विष्णु देवता तेज रूप राजासन तपता || श्रीसुन्दरी पारवती जपन्ती धरती रूप भण्डार भरन्ती | बाला जपंते गोरख बाला ज्योति रूप घट घट रखवाला || जो वालेका जाने भेव आपहि करता आपहि देव | एक मनो कर जपो जाप अन्तवेले नहि माई बाप || गुरु सँभालो आपो आप विगसे ज्ञान नसे सन्ताप | जहां जोत तहाँ गुरुका ज्ञान गतगंगा मिल धरिये ध्यान || घट पिण्डका रखवाला श्रीशंभु जति गुरु गोरख बाला | जहां बाला तहां धर्मशाला सोनेकी कूची रुपेका ताला || जिन सिर ऊपर सहंसर तपई घटका भया प्रकाश | निगुरा जन सुगुरा भया कटे कोटि अघ राश || सुचेत सैन सत गुरु लखाया पडे न पिण्ड विनसे न काया | सैन शब्द गुरु कन्हें सुनाया अचेत चेतन सचेत आया || ध्यान स्वरूप खोलिया ताला पिण्ड व्रह्माण्ड भया उजियाला | गुरु मंत्र जाप संपूरण भया सुण पारवती माहदेव कह्ना || नाथ निरंजन नीराकार बीजमंत्र पाया तत सार | गगन मण्डल में जय जय जपे कोटि देवता निज सिर तपे || त्रिकुटि महल में चमका होत एकोंकार नाथ की जोत | दशवें द्वार भया प्रकाश बीजमंत्र, निरंजन जोगी के पास || ॐ सों सिद्धोंकी माया सत गुरु सैन अगम गति पाया | बीज मंत्र की शीतल छाया भरे पिण्ड न विनसे काया || जो जन धरे बाला का ध्यान उसकी मुस्किल ह्नोय आसान | ॐ सोहं एकोंकार जपो जाप भव जल उतरो पार || व्रह्मा विष्णु धरंते ध्यान बाला बीजमंत्र तत जान | काशी क्षेत्र धर्म का धाम जहां फूक्या सत गुरने कान || ॐ बाला सोहं बाला किस पर बैठ किया प्रति पाला | ऋद्ध ले आवै सुण्ढ सुण्ढाला हित ले आवै हनुमत बाला || जोग ले आवे गोरख बाला जत ले आवे लछमन बाला | अगन ले आवे सूरज बाला अमृत ले आवे चन्द्रमा बाला || बाला वाले का धर ध्यान असंख जग की करणी जान | मंगला माई जोत जगाई त्रिकुटि महल में सुरती पाई || शिव शक्ति मिल वैठे पास बाला सुन्दरी जोत प्रकाश | शिव कैलास पर थापना थापी व्रह्मा विष्णु भरै जन साखी || बाला आया आपहि आप तिसवालेका माइ न बाप | बाला जपो सुन्न महा सुन्न बाला जपो पुन्न महा पुन्न || बाला जपो जोग कर जुक्ति बाला जपो मोक्ष महा मुक्ति | बाला बीज मंत्र अपार बाला अजपा एकोंकार || जो जन करे बाला की सेव ताकौं सूझे त्रिभुवन देव | जो जन करे बाला की भ्राँत ताको चढे दैत्यके दाँत || भरम पडा सो भार उठावै जहाँ जावै तहाँ ठौर न पावै | धूप दीप ले जोत जगाई तहाँ वैठी श्री त्रिपुरा माई || ऋद्ध सिद्ध ले चौक पुराया सुगुरा जन मिल दर्शन पाया | सेवक जपै मुक्ति कर पावै बीज मंत्र गुरु ज्ञान सुहावै || ॐ सोहं सोधन काया गुरु मंत्र गुरु देव बताया | सव सिद्धनके मुखसे आया सिद्ध वचन निरंजन ध्याया || ओवं कारमें सकल पसारा अक्षय जोगि जगतसे न्यारा | श्री सत गुरु गुरुमंतर दीजै अपना जन अपना कर लीजै || जो गुरु लागा सन्मुख काना सो गुरु हरि हर व्रह्मा समाना | गुरु हमारे हरके जागे अरज करूं सत गुरुके आगे || जोत पाट मैदान रचाया सतसे ल्याया धर्मसे विठाया | कान फूक सर जीवत कीया सो जोगेसर जुग जुग जीया || जो जन करे बालाकी आसा सो पावै शिवपुरिका वास | जपिये भजिये श्रीसुन्दरी बाला आवा गवन मिटे जंजाला || जो फल मांगूँ सो फल होय बाला बीज मंत्र है सोय | गुरु मंत्र संपूरण माला रक्षा करै गुरु गोरख वाला || सेवक आया सरणमें धन्या चरणमें शीष | बालक जान कर कीजिये दयादृष्टि आशीष || गुरु हमारे हरके जागे नीवँ नीवँ नावूँ माथ | वलिहारी गुरुर आपणे जिन दीपक दीना हाथ ||

गोरक्षपंचाक्षर जाप


गोरषनाथ लिंवस्वरूपं गउ गो प्रतिपालनं | अगोचरं गहर गभीरं गकाराइ न्मो न्मो || १ || रहतंच निरालंबं अस्थंभं भवनं त्रियं | राष राष श्रव भूतानं रकाराइ न्मो न्मो || २ || षकार इकयिस व्रह्मांडं षेचरं जगद गुरुं | षेत्रपालं षडग वंसे षकाराइ न्मो न्मो || ३ || नाना सास समो दाइ नाना रूप प्रकासितं | नाद विंद समो जोति नकाराइ न्मो न्मो || ४ || थापितं थल संसारं अलेषं अपारं अगोचरं | थावरे जंगमे सचिवं थकाराइ न्मो न्मो || ५ || गकारं ग्यान संयुक्तं रकारं रूप लाछ्नं | षकारं इकीस व्रह्मंडं नकारं नादि विंदए || ६ || थाकारं थानमानयो थिर थापन थर्पनं | गोरषनाथ अक्षरं मंत्रं श्रवाधाराइ न्मो न्मो || ७ || ॐ गों गोराक्षनाथाय विद्महे शून्यपुत्राय धीमहि तन्नो गोरक्ष निरंजनः प्रचोदयात् | आदेश आदेश शिवगोरक्ष || गोरक्षवालं गुरु शिष्यपालं शेषाहिमालं शशिखण्ड भालम | कालस्यकालं जितजन्मजालं वन्दे जटालं जगदब्ज नालं ||

84 SIDHA


1. कपिल नाथ जी 2. सनक नाथ जी 3. लंक्नाथ रवें जी 4. सनातन नाथ जी 5. विचार नाथ जी / भ्रिथारी नाथ जी 6. चक्रनाथ जी 7. नरमी नाथ जी 8. रत्तन नाथ जी 9. श्रृंगेरी नाथ जी 10. सनंदन नाथ जी 11. निवृति नाथ जी 12. सनत कुमार जी 13. ज्वालेंद्र नाथ जी 14. सरस्वती नाथ जी 15. ब्राह्मी नाथ जी 16. प्रभुदेव नाथ जी 17. कनकी नाथ जी 18. धुन्धकर नाथ जी 19. नारद देव नाथ जी 20. मंजू नाथ जी 21. मानसी नाथ जी 22. वीर नाथ जी 23. हरिते नाथ जी 24. नागार्जुन नाथ जी 25. भुस्कई नाथ जी 26. मदर नाथ जी 27. गाहिनी नाथ जी 28. भूचर नाथ जी 29. हम्ब्ब नाथ जी 30. वक्र नाथ जी 31. चर्पट नाथ जी 32. बिलेश्याँ नाथ जी 33. कनिपा नाथ जी 34. बिर्बुंक नाथ जी 35. ज्ञानेश्वर नाथ जी 36. तारा नाथ जी 37. सुरानंद नाथ जी 38. सिद्ध बुध नाथ जी 39. भागे नाथ जी 40. पीपल नाथ जी 41. चंद्र नाथ जी 42. भद्र नाथ जी 43. एक नाथ जी 44. मानिक नाथ जी 45. गेहेल्लेअराव नाथ जी 46. काया नाथ जी 47. बाबा मस्त नाथ जी 48. यज्यावालाक्य नाथ जी 49. गौर नाथ जी 50. तिन्तिनी नाथ जी 51. दया नाथ जी 52. हवाई नाथ जी 53. दरिया नाथ जी 54. खेचर नाथ जी 55. घोड़ा कोलिपा नाथ जी 56. संजी नाथ जी 57. सुखदेव नाथ जी 58. अघोअद नाथ जी 59. देव नाथ जी 60. प्रकाश नाथ जी 61. कोर्ट नाथ जी 62. बालक नाथ जी 63. बाल्गुँदै नाथ जी 64. शबर नाथ जी 65. विरूपाक्ष नाथ जी 66. मल्लिका नाथ जी 67. गोपाल नाथ जी 68. लघाई नाथ जी 69. अलालम नाथ जी 70. सिद्ध पढ़ नाथ जी 71. आडबंग नाथ जी 72. गौरव नाथ जी 73. धीर नाथ जी 74. सहिरोबा नाथ जी 75. प्रोद्ध नाथ जी 76. गरीब नाथ जी 77. काल नाथ जी 78. धरम नाथ जी 79. मेरु नाथ जी 80. सिद्धासन नाथ जी 81. सूरत नाथ जी 82. मर्कंदय नाथ जी 83. मीन नाथ जी 84. काक्चंदी नाथ जी

अमोघ शिव गोरख प्रयोग (AMOGH SHIV GORAKH PRAYOG)


भगवान शिव का वर्णन करना भी क्या संभव है. एक तरफ वह भोलेपन की सर्व उच्चावस्था मे रह कर भोलेनाथ के रूप मे पूजित है वही दूसरी और महाकाल के रूम मे साक्षात प्रलय रुपी भी. निर्लिप्त स्मशानवासी हो कर भी वह देवताओं मे उच्च है तथा महादेव रूप मे पूजित है. तो इस निर्लिप्तता मे भी सर्व कल्याण की भावना समाहित हो कर समस्त जिव को बचाने के लिए विषपान करने वाले नीलकंठ भी यही है. मोह से दूर वह निरंतर समाधि रत रहने वाले महेश भी उनका रूप है तथा सती के अग्निकुंड मे दाह के बाद ब्रम्हांड को कंपाने वाले, तांडव के माध्यम से तीनों लोक को एक ही बार मे भयभीत करने वाले नटराज भी यही है. संहार क्रम के देवता होने पर भी अपने मृत्युंजय रूप मे भक्तो को हमेशा अभय प्रदान करते है. अत्यंत ही विचित्र तथा निराला रूप, जो हमें उनकी तरफ श्रध्धा प्रदर्शित करने के लिए प्रेम से मजबूर ही कर दे. सदाशिव तो हमेशा से साधको के मध्य प्रिय रहे है, अत्यधिक करुणामय होने के कारण साधको की अभिलाषा वह शीघ्रातिशिघ्र पूर्ण करते है. शैव साधना और नाथयोगियो का सबंध तो अपने आप मे विख्यात है. भगवान के अघोरेश्वर स्वरुप तथा आदिनाथ भोलेनाथ का स्वरुप अपने आप मे इन योगियो के मध्य विख्यात रहा है. शिव तो अपने आप मे तन्त्र के आदिपुरुष रहे है. इस प्रकार उच्च कोटि के नाथयोगियो की शिव साधना अपने आप मे अत्यधिक महत्वपूर्ण रही है. शिवरात्री तो इन साधको के लिए कोई महाउत्सव से कम नहीं है. एक धारणा यह है की शिव रात्री के दिन साधक अगर शिव पूजन और मंत्र जाप करे तो भगवान शिव साधक के पास जाते ही है. वैसे भी यह महारात्रि तंत्र की द्रष्टि से भी अत्यधिक महत्वपूर्ण समय है. अगर इस समय पर शिव साधना की जाए तो चेतना की व्यापकता होने के कारण साधक को सफलता प्राप्ति की संभावना तीव्र होती है. नाथयोगियो के गुप्त प्रयोग अपने आप मे बेजोड होते है. चाहे वह शिव साधना से सबंधित हो या शक्ति साधना के सबंध मे. इन साधनाओ का विशेष महत्व इस लिए भी है की सिद्ध मंत्र होने के कारण इन पर देवी देवताओं की विभ्भिन शक्तिया वचन बद्ध हो कर आशीर्वाद देती ही है साथ ही साथ साधक को नाथसिद्धो का आशीष भी प्राप्त होता है. इस प्रकार ऐसे प्रयोग अपने आप मे बहोत ही प्रभावकारी है. शिवरात्री पर किये जाने वाले गुप्त प्रयोगों मे से एक प्रयोग है अमोध शिव गोरख प्रयोग. यह गुप्त प्रयोग श्री गोरखनाथ प्रणित है. साधक को पुरे दिन निराहार रहना चाहिए, दूध तथा फल लिए जा सकते है. रात्री काल मे १० बजे के बाद साधक सर्व प्रथम गुरु पूजन गणेश पूजन सम्प्पन करे तथा अपने पास ही सद्गुरु का आसान बिछाए और कल्पना करे की वह उस आसान पर विराज मान है. उसके बाद अपने सामने पारद शिवलिंग स्थापित करे अगर पारद शिवलिंग संभव नहीं है तो किसी भी प्रकार का शिवलिंग स्थापीत कर उसका पंचोपचार पूजन करे. धतूरे के पुष्प अर्पित करे. इसमें साधक का मुख उत्तर दिशा की तरफ होना चाहिए. वस्त्र आसान सफ़ेद रहे या फिर काले रंग के. उसके बाद रुद्राक्ष माला से निम्न मंत्र का ३ घंटे के लिए जाप करे. साधक थक जाए तो बिच मे कुछ देर के लिए विराम ले सकता है लेकिन आसान से उठे नहीं. यह मंत्र जाप ३:३० बजने से पहले हो जाना चाहिए. ॐ शिव गोरख महादेव कैलाश से आओ भूत को लाओ पलित को लाओ प्रेत को लाओ राक्षस को लाओ, आओ आओ धूणी जमाओ शिव गोरख शम्भू सिद्ध गुरु का आसन आण गोरख सिद्ध की आदेश आदेश आदेश मंत्र जाप समाप्त होते होते साधक को इस प्रयोग की तीव्रता का अनुभव होगा. यह प्रयोग अत्यधिक गुप्त और महत्वपूर्ण है क्यों की यह सिर्फ महाशिवरात्री पर किया जाने वाला प्रयोग है. और इस प्रयोग के माध्यम से मंत्र जाप पूरा होते होते साधक उसी रात्री मे भगवान शिव के बिम्बात्मक दर्शन कर लेता है. एक ही रात्रि मे साधक भगवान शिव का आशीर्वाद प्राप्त कर सकता है और अपने जीवन को धन्य बना सकता है. अगर इस प्रयोग मे साधक की कही चूक भी हो जाए तो भी उसे भगवान शिव के साहचर्य की अनुभूति निश्चित रूप से होती ही है.

सिद्धों की भोग-प्रधान योग-साधना


सिद्धों की भोग-प्रधान योग-साधना की प्रतिक्रिया के रूप में आदिकाल में नाथपंथियों की हठयोग साधना आरम्भ हुई। इस पंथ को चलाने वाले मत्स्येन्द्रनाथ (मछंदरनाथ) तथा गोरखनाथ (गोरक्षनाथ) माने जाते हैं। इस पंथ के साधक लोगों को योगी, अवधूत, सिद्ध, औघड़ कहा जाता है। कहा यह भी जाता है कि सिद्धमत और नाथमत एक ही हैं। सिद्धों की भोग-प्रधान योग-साधना की प्रवृत्ति ने एक प्रकार की स्वच्छंदता को जन्म दिया जिसकी प्रतिक्रिया में नाथ संप्रदाय शुरू हुआ। नाथ-साधु हठयोग पर विशेष बल देते थे। वे योग मार्गी थे। वे निर्गुण निराकार ईश्वर को मानते थे। तथाकथित नीची जातियों के लोगों में से कई पहुंचे हुए सिद्ध एवं नाथ हुए हैं। नाथ-संप्रदाय में गोरखनाथ सबसे महत्वपूर्ण थे। आपकी कई रचनाएं प्राप्त होती हैं। इसके अतिरिक्त चौरन्गीनाथ, गोपीचन्द, भरथरी आदि नाथ पन्थ के प्रमुख कवि है। इस समय की रचनाएं साधारणतः दोहों अथवा पदों में प्राप्त होती हैं, कभी-कभी चौपाई का भी प्रयोग मिलता है। परवर्ती संत-साहित्य पर सिध्दों और विशेषकर नाथों का गहरा प्रभाव पड़ा है। गोरक्षनाथ के जन्मकाल पर विद्वानों में मतभेद हैं। राहुल सांकृत्यायन इनका जन्मकाल 845 ई. की 13वीं सदी का मानते हैं। नाथ परम्परा की शुरुआत बहुत प्राचीन रही है, किंतु गोरखनाथ से इस परम्परा को सुव्यवस्थित विस्तार मिला। गोरखनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ थे। दोनों को चौरासी सिद्धों में प्रमुख माना जाता है। गुरु गोरखनाथ को गोरक्षनाथ भी कहा जाता है। इनके नाम पर एक नगर का नाम गोरखपुर है। गोरखनाथ नाथ साहित्य के आरम्भकर्ता माने जाते हैं। गोरखपंथी साहित्य के अनुसार आदिनाथ स्वयं भगवान शिव को माना जाता है। शिव की परम्परा को सही रूप में आगे बढ़ाने वाले गुरु मत्स्येन्द्रनाथ हुए। ऐसा नाथ सम्प्रदाय में माना जाता है। गोरखनाथ से पहले अनेक सम्प्रदाय थे, जिनका नाथ सम्प्रदाय में विलय हो गया। शैव एवं शाक्तों के अतिरिक्त बौद्ध, जैन तथा वैष्णव योग मार्गी भी उनके सम्प्रदाय में आ मिले थे। गोरखनाथ ने अपनी रचनाओं तथा साधना में योग के अंग क्रिया-योग अर्थात तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणीधान को अधिक महत्व दिया है। इनके माध्‍यम से ही उन्होंने हठयोग का उपदेश दिया। गोरखनाथ शरीर और मन के साथ नए-नए प्रयोग करते थे। गोरखनाथ द्वारा रचित ग्रंथों की संख्या ४० बताई जाती है किन्तु डा. बड़्थ्याल ने केवल १४ रचनाएं ही उनके द्वारा रचित मानी है जिसका संकलन ‘गोरखबानी’ मे किया गया है। जनश्रुति अनुसार उन्होंने कई कठ‍िन (आड़े-त‍िरछे) आसनों का आविष्कार भी किया। उनके अजूबे आसनों को देख लोग अ‍चम्भित हो जाते थे। आगे चलकर कई कहावतें प्रचलन में आईं। जब भी कोई उल्टे-सीधे कार्य करता है तो कहा जाता है कि ‘यह क्या गोरखधंधा लगा रखा है।’ गोरखनाथ का मानना था कि सिद्धियों के पार जाकर शून्य समाधि में स्थित होना ही योगी का परम लक्ष्य होना चाहिए। शून्य समाधि अर्थात समाधि से मुक्त हो जाना और उस परम शिव के समान स्वयं को स्थापित कर ब्रह्मलीन हो जाना, जहाँ पर परम शक्ति का अनुभव होता है। हठयोगी कुदरत को चुनौती देकर कुदरत के सारे नियमों से मुक्त हो जाता है और जो अदृश्य कुदरत है, उसे भी लाँघकर परम शुद्ध प्रकाश हो जाता है। सिद्ध योगी : गोरखनाथ के हठयोग की परम्परा को आगे बढ़ाने वाले सिद्ध योगियों में प्रमुख हैं :- चौरंगीनाथ, गोपीनाथ, चुणकरनाथ, भर्तृहरि, जालन्ध्रीपाव आदि। 13वीं सदी में इन्होंने गोरख वाणी का प्रचार-प्रसार किया था। यह एकेश्वरवाद पर बल देते थे, ब्रह्मवादी थे तथा ईश्वर के साकार रूप के सिवाय शिव के अतिरिक्त कुछ भी सत्य नहीं मानते थे। नाथ सम्प्रदाय गुरु गोरखनाथ से भी पुराना है। गोरखनाथ ने इस सम्प्रदाय के बिखराव और इस सम्प्रदाय की योग विद्याओं का एकत्रीकरण किया। पूर्व में इस समप्रदाय का विस्तार असम और उसके आसपास के इलाकों में ही ज्यादा रहा, बाद में समूचे प्राचीन भारत में इनके योग मठ स्थापित हुए। आगे चलकर यह सम्प्रदाय भी कई भागों में विभक्त होता चला गया।

योग-साधना अथवा अध्यात्म

सद्भावी सत्यान्वेषी बन्धुओं ! अध्यात्म जीव का आत्मा-ईश्वर-शिव से दरश-परश और मेल-मिलाप करते हुए आत्मामय ईश्वरमय-ज्योतिर्मय शिवमय रूप में स्थित-स्थापित करने-कराने का एक क्रियात्मक आध्यात्मिक साधना पध्दति है। जिस प्रकार शिक्षा से संसार और शरीर के मध्य की जानकारी प्राप्त होती है तथा स्वाध्याय शरीर और जीव के बीच की 'स्व' का एक अधययन विधान है, ठीक उसी प्रकार योग-अधयात्म जीव और आत्मा-ईश्वर-शिव के मधय तथा आत्मा से सम्बन्धित क्रियात्मक या साधनात्मक जानकारी और दर्शन उपलब्धि वाला विधान होता है । दूसरे शब्दों में आत्मा-ईश्वर-शिव से सम्बन्धित क्रियात्मक अधययन पध्दति ही योग-अध्यात्म है । अध्यात्म सामान्य मानव से महामानव या महापुरुष या दिव्य पुरुष बनाने वाला एक योग या साधना से सम्बन्धित विस्तृत क्रियात्मक एवं अनुभूतिपरक आधयात्मिक जानकारी है, जिसके अन्तर्गत शरीर में मूलाधार स्थित अहम् नाम सूक्ष्म शरीर रूप जीव का आत्म ज्योति या दिव्य ज्योति रूप ईश्वरीय सत्ता-शक्ति या ब्रम्ह ज्योति रूप ब्रम्ह शक्ति या आलिमे नूर या आसमानी रोशनी या नूरे इलाही या DIVINE LIGHT या LIFE LIGHT या जीवन ज्योति या सहज प्रकाश या परम प्रकाश या स्वयं ज्योतिरूप शिव का साक्षात् दर्शन करना एवं हँऽसो जप का निरन्तर अभ्यास पूर्वक आत्मामय या ईश्वरमय या ब्रम्हमय या शिवमय होने-रहने का एक क्रियात्मक अध्ययन पध्दति या विधान होता है । स्वाध्याय तो मनुष्य को पशुवत् एवं असुरता और शैतानियत के जीवन से ऊपर उठाकर मानवता प्रदान करता-कराता है परन्तु यह आध्यात्मिक क्रियात्मक अध्ययन विधान मनुष्य को सांसारिकता रूप जड़ता से मोड़कर जीव को नीचे गिरने से बचाते हुए ऊपर श्रेष्ठतर आत्मा-ईश्वर- ब्रम्ह- नूर-सोल-स्प््रािरिट दिव्य ज्योति रूप चेतन-शिव से जोड़कर चेतनता रूप दिव्यता (DIVINITY) प्रदान करता-कराता है । पुन: 'शान्ति और आनन्द रूप चिदानन्द' की अनुभूति कराने वाला चेतन विज्ञान ही योग या अध्यात्म है, जिसका एकमात्र लक्ष्य शरीरस्थ जीव को शरीरिकता-पारिवारिकता एवं सांसारिकता रूप जड़ जगत् से लगा-बझा ममता-मोहासक्ति से सम्बन्ध मोड़कर चेतन आत्मा से सम्बन्ध जोड़-जोड़ कर जीवों को आत्मामय या ब्रम्हमय या चिदानन्दमय या दिव्यानन्दमय या चेतनानन्दमय बनाना ही है । मुक्ति-अमरता तो इसमें नहीं मिलता है; मगर शान्ति-आनन्द तो मिलता ही है । योग या अध्यात्म की महत्ता योग या अध्यात्म अपने से निष्कपटता पूर्वक श्रध्दा एवं विश्वास के साथ चिपके हुये, लगे हुये लीन साधक को शक्ति-साधना-सिध्दि प्रदान करता हुआ सिध्द, योगी, ऋषि, महर्षि, ब्रम्हर्षि, तथा अध्यात्मवेत्ता, योगी-महात्मा रूप महापुरुष बना देने या दिव्य पुरुष बना देने वाला एक दिव्य क्रियात्मक विज्ञान है, जो शारीरिकता- पारिवारिकता एवं सांसारिकता रूप माया-मोह ममता-वासना आदि माया जाल से जीव का सम्बन्धा मोड़ता हुआ दिव्य ज्योति से सम्बन्धा जोड़कर दिव्यता प्रदान करते हुये जीवत्त्व भाव को शिवत्त्व या ब्रम्हत्त्व भाव में करता-बनाता हुआ कल्याणकारी यानी कल्याण करने वाला मानव बनाता है, जो समाज कल्याण करे यानी शारीरिकता-पारिवारिकता एवं सांसारिकता में फँसे-जकड़े 'जीव' को छुड़ावे तथा आत्मा या ईश्वर या ब्रम्ह से मिलावे और आत्मामय या ईश्वरमय या ब्रम्हमय बनावे । कर्म एवं स्वाध्याय और योग-अध्यात्म की जानकारी और उपलब्धि की तुलनात्मक स्थिति सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक एवं श्रोता बन्धुओं ! स्वाध्याय तो कर्म का विरोधी नहीं बल्कि कर्म को गुणों से गुणान्वित कर, अच्छे कर्मों को करने तथा दूषित भाव-विचार व्यवहार-कर्म से दूर रहने को जनाता-सिखाता तथा नैतिकता से युक्त करता हुआ उसे परिष्कृत एवं परिमार्जित रूप में ग्रहण करने को सिखाता है जबकि अध्यात्म कर्म का घोर विरोधी एवं जबर्दस्त शत्रु होता है। कर्म और योग या अध्यात्म दोनों ही एक दूसरे का विरोधी, शत्रु तथा विपरीत मार्ग गामी होते हैं । कर्म, मन्त्र और प्रार्थना के माध्यम से इन्द्रियों को मजबूत बनाने का प्रयत्न करता है, तो योग-साधना या अध्यात्म नियम-आसन और प्रत्याहार के माध्यम से इन्द्रियों को कमजोर बनाने तथा विषय वृत्तिायों से मोड़-खींच कर उनको अपने-अपने गोलकों में बन्द करने-कराने की क्रिया-प्रक्रिया का साधनाभ्यास या योगाभ्यास करने-कराने की विधि बताता एवं कर्म से मोड़ कर योग-साधना में लगाता है । कर्म का लक्ष्य कार्य है जीवमय आत्मा (सोऽहँ) में से जीव का सम्बन्ध काट-कटवा कर चेतन से मोड़ कर शरीर-संसार में माया-मोह, ममता-वासना आदि के माधयम से प्रलोभन देते हुये भ्रमित करते-कराते हुये माया-जाल में फँसाता-जकड़ता व चेतन आत्मा में से बिछुड़ा- भुला-भटका कर शरीरमय बनाता हुआ पारिवारिकता के बन्धान में बाँधाता हुआ, जड़-जगन्मय बना देना ताकि आत्मा और परमात्मा तो आत्मा और परमात्मा है; इसे अपने 'स्व' रूप का भी भान यानी आभाष न रह जाय । यह शरीरमय से भी नीचे उतर कर जड़वत् रूप सम्पत्तिमय या सम्पत्ति प्रधान, जो कि मात्र जड़ ही होता है, बनाने वाला ही कर्म विधान होता है, जिसका ठीक उल्टा अध्यात्म विधान होता है अर्थात् चेतन जीवात्मा( हँऽसो) जड़-जगत् को मात्र अपना साधान मान-जान-समझ कर अपने सहयोगार्थ चालित परिचालित करता या कराता है। कर्म चेतन जीवमय आत्मा(सोऽहँ) को ही जड़वत् बनाकर अपने सेवार्थ या सहयोगार्थ अपने अधाीन करना चाहता है, चेतन मयजीव को सदा ही जड़ में बदलने की कोशिश या प्रयत्न करता रहता है तथा योग-साधना अध्यात्म जड़-जगत् में जकड़े हुये, फँसे हुये अपने अंश रूप जीव को छुड़ा कर, फँसाहट से निकाल कर, चेतन ( हँऽस) बनाता हुआ कि फँसा हुआ था, छुड़ाता है । इसलिये जीव अपने शारीरिक इन्द्रियों को उनके विषयों से मोड़कर, इन्द्रियों को उनके अपने-अपने गोलकों में बन्द करके तब श्वाँस-नि:श्वाँस के क्रिया को करने-पकड़ने हेतु मन को बाँधा कर स्वयं 'अहं' नाम सूक्ष्म शरीर रूप जीव आत्म-ज्योति रूप आत्मा या दिव्य ज्योति रूप ईश्वर या ब्रम्ह-ज्योति रूप ब्रम्ह या स्वयं ज्योति रूप शिव का साक्षात्कार कर, आत्मामय या ब्रम्हमय बनता या होता हुआ अहँ सूक्ष्म शरीर रूप (जीव) हँऽस रूप शिव-शक्ति बन जाता या हो जाता है । यहाँ पर शिव-शक्ति का अर्थ शंकर-पार्वती से नहीं समझकर, स्वयं ज्योति रूप शिव या आत्म ज्योति आत्मा या ब्रम्ह ज्योति रूप ब्रम्ह शक्ति से समझना चाहिये। सृष्टि की उत्पत्ति और लय-विलय-प्रलय 'शिव' का अर्थ कल्याण होता है । हँऽस रूप ब्रम्ह-शक्ति या शिव-शक्ति की उत्पत्ति 'परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम्' रूप शब्द-ब्रम्ह गॉड या अलम या परम ब्रम्ह से ही होती है तथा सृष्टि के अन्त में सामान्यत: ब्रम्हाण्डीय विधि-विधान से तथा मध्य में भी भगवदवतार के माध्यम से तत्त्वज्ञान (Supreme KNOWLEDGE) के यथार्थत: विधि-विधान से परमतत्त्वम् से सोऽहँ से की उत्पत्ति की प्रक्रिया या रहस्य जना-बता दिखा सुझा-बुझा कर 'अद्वैत्तत्त्वबोध' कराते हुये जिज्ञासु को खुदा-गॉड-भगवान् से बात-चीत करते-कराते हुए जब अहँ एवं सोऽहँ-हँऽसो के समस्त मैं-मैं, तू-तू को अपने मुख से निकालते हुये, पुन: अपने ही मुख में समस्त मैं-मैं तू-तू को चाहे वह मैं-मैं तू-तू अहँरूप जीव का हो या हँऽस रूप जीवात्मा का या केवल स: या आत्म शब्द आत्मा का ही क्यों न हो, सभी को ही अपने मुख में ही प्रवेश कराते हुये ज्ञान-दृष्टि से या तत्त्व-दृष्टि से दिखाते हुये, बात-चीत करते-कराते हुये जीव (अहं), जीवात्मा (हँऽसो) व आत्मा (स: या आत्म शब्द) और सृष्टि के सम्पूर्ण को ही 'एक' एकमेव एकमात्र 'एक' अपने तत्त्वम् रूप से अनेकानेक सम्पूर्ण सृष्टि में अपने अंश-उपाँश रूप में बिखेर देते हैं । ऐसा ही अपने निष्कपट उत्कट परम श्रध्दालु एवं सर्वतोभावेन समर्पित शरणागत जिज्ञासुओं को अज्ञान रूप माया का पर्दा हटाकर अपना कृपा पात्र बनाकर अपना यथार्थ यानी 'वास्तविक तत्त्व' रूप परमतत्तवं रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप अद्वैत्तत्त्वम् को दिखला देते हैं तथा अपने अनन्य समर्पित-शरणागत भक्तों-सेवकों को अपने में भक्ति-सेवा प्रदान करते हुये अपना प्रेम-पात्र बना लेते हैं, तब मध्य में भी लक्ष्य रूप रहस्य को समझा-बुझा कर मुक्ति और अमरता का भी साक्षात् बोध कर-करा देते हैं, तो मध्य में भी अन्यथा सामान्य सृष्टि लय विधान से अन्त में अपने में लय-विलय हो जाया करती है । यही सृष्टि उत्पत्ति और लय है । तत्त्वज्ञान के माधयम से विलय तथा महाविनाश के माध्यम से महाप्रलय होता है । आध्यात्मिक सन्तुलन बिगड़ने से पतन और विनाश भी अध्यात्म इतना सिध्दि, शक्ति प्रदान करने वाला विधान होता है; जिससे प्राय: सिध्द-योगी, सिध्द-साधक या आध्यात्मिक सन्त-महात्मा को विस्तृत धान-जन-समूह को अपने अनुयायी रूप में अपने पीछे देखकर एक बलवती अंहकार रूप उल्टी मति-गति हो जाती है; जिससे योग-साधना या आध्यात्मिक क्रिया की उल्टी गति रूप सोऽहँ ही उन्हें सीधी लगने लगती है और उसी उल्टी साधना सोऽहँ में अपने अनुयायिओं को भी जोड़ते जाते हैं, जबकि उन्हें यह आभाष एवं भगवत् प्रेरणा भी मिलती रहती है कि यह उल्टी है। फिर भी वे नहीं समझते। उल्टी सोऽहँ साधाना का ही प्रचार करने-कराने लगते है । अहँ नाम सूक्ष्म शरीर रूप जीव को आत्मा में मिलाने के बजाय स: ज्योति रूप आत्मा को ही लाकर अपने अहँ में जोड़ कर सोऽहँ 'वही मैं हूँ' का भाव भरने लगते हैं जिससे कि उल्टी मति के दुष्प्रभाव से भगवान् और अवतार ही बनने लगते हैं, जो इनका बिल्कुल ही मिथ्या ज्ञानाभिमानवश मिथ्याहंकार ही होता है। ये अज्ञानी तो होते ही हैं मिथ्याहंकारवश जबरदस्त भ्रम एवं भूल के शिकार भी हो जाते हैं । आये थे भगवद् भक्ति करने, खुद ही बन गये भगवान् । यह उनका बनना उन्हें भगवान् से विमुख कर सदा-सर्वदा के लिये पतनोन्मुखी बना देता हैं। विनाश के मुख में पहुँचा देता है। विनाश के मुख में पहुँचा ही देता है । आध्यात्मिक धर्मोपदेशकों का मिथ्याज्ञानाभिमान सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक बन्धुओं ! योग-अध्यात्म विधान स्वाध्याय से ऊपर यानी श्रेष्ठतर तथा तत्त्वज्ञान से नीचे होता है, परन्तु आध्यात्मिक सन्त-महात्मा मिथ्याज्ञानाभिमान के कारण जीव को ही आत्मा और आत्मा को ही परमात्मा, जीव को ही ब्रम्ह और ब्रम्ह को ही परमब्रम्ह, जीव को ही ईश्वर और ईश्वर को ही परमेश्वर; सेल्फ को ही सोल और सोल (DIVINE LIGHT) या (LIFE LIGHT) को ही (GOD) रूह को ही नूर और नूर को ही अल्लाहतआला या खुदा; जीव या रूह या सेल्फ रूप सूक्ष्म शरीर को ही दिव्य ज्योति और आत्म-ज्योति या दिव्य ज्योति या ब्रम्ह ज्योति या नूर या डिवाइन लाइट या डिवाइन लाइट या जीवन ज्योति या स्वयं ज्योति या सहज प्रकाश या परम प्रकाश तथा हँऽसो के उल्टे सोऽहँ के अजपा जप प्रक्रिया को ही 'परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप शब्द-ब्रम्ह या परमब्रम्ह' तथा उनका तत्त्वज्ञान पध्दति; आनन्दानुभूति को ही चिदानन्द रूप 'शान्ति और आनन्द' और सूक्ष्म दृष्टि को ही दिव्य दृष्टि और चिदानन्द को ही सच्चिदानन्द, स्वरूपानन्द को ही आत्मानन्द या ब्रम्हानन्द और आत्मानन्द को ही परमानन्द या सदानन्द; चेतन को ही परमतत्तवं; ब्रम्हपद या आत्मपद को ही परमपद या भगवत्पद; शिवलोक या ब्रम्ह लोक को ही अमरलोक या परम आकाश रूप परमधाम; अनुभूति को ही बोध; आध्यात्मिक सन्त-महात्मा या महापुरुष को ही तात्तिवक सत्पुरुष-परमात्मा या परमपुरुष या भगवदवतार रूप परमेश्वर या खुदा-गॉड-भगवान्; दिव्य दृष्टि को ही ज्ञान-दृष्टि; दिव्य चक्षु को ही ज्ञान चक्षु; सेप्टल आई को ही डिवाइन आई और डिवाइन आई को ही गॉडली आई; अपने पिण्ड को ही ब्रम्हाण्ड; अपने शरीरान्तर्गत अहम् जीव को ही हँऽसो जीवात्मा और जीवात्मा हँऽस को ही ब्रम्हाण्डीय परमब्रम्ह और सर्वसत्ता सामर्थ्य रूप 'परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप शब्द-ब्रम्ह या परमब्रम्ह'; शान्ति और आनन्द को ही परमशान्ति और परम आनन्द कहते-कहलाते हुये तथा स्वयं गुरु के स्थान पर सद्गुरु बनकर अपने को भगवदवतार घोषित कर-करवा कर अपने साधाना-विधान या आध्यात्मिक क्रिया-विधान से हटकर, पूजा-उपासना विधान आदि से युक्त होकर अपने जबर्दस्त भ्रम एवं भूल का शिकार अपने अनुयायियों को भी बनाते जाते हैं। हँऽसो के स्थान पर उल्टी साधाना सोऽहँ करने-कराने में मति-गति ही इन आध्यात्मिक सन्त-महात्माओं की उल्टी हो गई होती है या हो जाती है और वे इस बात पर थोड़ा भी ध्यान नहीं दे पाते हैं कि उनका लक्ष्यगामी सिध्दान्त अध्यात्म या योग है जिसकी अन्तिम पहुँच आत्मा तक ही होती है, परमात्मा या परमेश्वर या परमब्रम्ह या खुदा-गॉड-भगवान् तक इनकी पहुँच ही नहीं है । आदि में शंकर, सनकादि, सप्त ऋषि, व्यासादि, मूसा यीशु, मोहम्मद साहब, आद्यशंकराचार्य, महावीर जैन, कबीर, नानक, दरिया, तुलसी, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द, योगानन्द, आनन्दमयी, मुक्तानन्द, शिवानन्द आदि-आदि वर्तमान के भी प्राय: सभी तथाकथित अध्यात्मवेत्तागण जीव को आत्मा और आत्मा को ही परमात्मा या जीव को ईश्वर और ईश्वर को ही परमेश्वर आदि घोषित करते-कराते रहे हैं जिसमें शंकर, वशिष्ठ, व्यास, मोहम्मद, तुलसी आदि तो अपने से पृथक् परमात्मा या परमेश्वर या अल्लाहतआला के अस्तित्त्व को स्वीकार किये अथवा श्रीराम या श्रीकृष्ण की लीलाओं के बाद समयानुसार सुधर गये। बाल्मीकि भी इसी में हैं तथा जीव-आत्मा से परमात्मा या परमब्रम्ह या परमेश्वर या अल्लाहतआला या खुदा-गॉड-भगवान् का ही, एकमात्र भगवान् का ही, भक्ति प्रचार करने-कराने लगे। प्राय: अधिाकतर आधयात्मिक सन्त-महात्मा प्रॉफेट-पैगम्बर मिथ्याज्ञानाभिमान के भ्रम एवं भूल वश शिकार हो जाया करते हैं जिससे जीव को ही आत्मा-ईश्वर तथा आत्मा-ईश्वर आदि को ही परमात्मा-परमेश्वर आदि कहने-कहलवाने, घोषित करने-कराने लगते हैं । सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक एवं श्रोता बन्धुओं ! वर्तमान समस्त के योगी, महर्षि, साधक, सिध्द तथा आध्यात्मिक सन्त-महात्मनों से सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस का अनुरोध है कि योग-साधना या अध्यात्म भी कोई विशेष छोटा या महत्त्वहीन विधान या पद नहीं है । इसकी भी अपनी महत्ताा है । इसलिये स्वाध्याय को ही योग-साधना-अध्यात्म और अध्यात्म या योग को ही तत्त्वज्ञान पध्दति या सत्यज्ञान पध्दति घोषित तथा जीव को ही आत्मा और आत्मा को ही परमात्मा या जीव को ही ईश्वर और ईश्वर को ही परमेश्वर या जीव को ही ब्रम्ह और ब्रम्ह को ही परमब्रम्ह तथा सोऽहँ-ह ँ्सो एवं आत्म-ज्योति को ही 'परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप शब्द-ब्रम्ह या परमब्रम्ह' घोषित न करें और मिथ्या ज्ञानाभिमानवश अध्यात्म को ही तत्त्वज्ञान कथन रूप झूठी बात कह कर अध्यात्म के महत्त्व को न घटायें । स्वाध्याय को ही अध्यात्म और अध्यात्म को ही तत्त्वज्ञान का चोला न पहनावें अन्यथा स्वाध्याय और अध्यात्म दोनों ही पाखण्डी या आडम्बरी शब्दों से युक्त होकर अपमानित हो जायेगा । आत्मा को परमात्मा का या ब्रम्ह को परमब्रम्ह का या ईश्वर को परमेश्वर का चोला न पहनावें क्योंकि इससे आत्मा कभी परमात्मा नहीं बन सकता; ईश्वर कभी भी परमेश्वर नहीं बन सकता; ब्रम्ह कभी भी परमब्रम्ह नहीं बन सकता । इसलिये परमात्मा या परमेश्वर या परमब्रम्ह का चोला आत्मा-ईश्वर या ब्रम्ह को पहनाने से पर्दाफास होने पर आप महात्मन् महानुभावों को अपना मुख छिपाने हेतु जगह या स्थान भी नहीं मिलेगा । इसलिये एक बार फिर से ही सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द अनुरोध कर रहा है कि अपना-अपना नकली चोला उतार कर शीघ्रातिशीघ्र अपने शुध्द अध्यात्मवेत्ता, आत्मा वाला असल चोला धारण कर लीजिये तथा परमात्मा या परमेश्वर या परमब्रम्ह का चोला एकमात्र उन्हीं के लिये छोड़ दें, क्योंकि उस पर एकमात्र उन्हीं का एकाधिाकार रहता है । इसलियें अब तक पहने सो पहने, अब झट-पट अपने अपने नकली रूपों को असली में बदल लीजिये । अन्यथा सभी का पर्दाफास अब होना ही चाहता है ! तब आप सभी लोग बेनकाब हो ही जायेंगे । नतीजा या परिणाम होगा कि कहीं मुँह छिपाने का जगह नहीं मिलेगा । इसलिये समय रहते ही चेत जाइये ! चेत जाइये !!! अब परमप्रभु को खुल्लम खुल्ला अपना प्रभाव एवं ऐश्वर्य दिखाने में देर नहीं है। उस समय आप लोग भी कहीं चपेट में नहीं आ जायें । इसलिये बार-बार कहा जा रहा है कि चेत जायें ! चेत जायें !! चेत जायें !!! अब नकल, पाखण्ड, आडम्बर, जोर-जुल्म, असत्य-अधर्म, अन्याय-अनीति बिल्कुल ही समाप्त होने वाला है । अब देर नहीं, समीप ही है ! इसे समाप्त कर भगवान् अब अतिशीघ्र सत्य-धर्म न्याय-नीति का राज्य संस्थापित करेगा, करेगा ही करेगा, देर नहीं है। 'सत्य' को स्वीकारने-अपनाने में भय-संकोच से ऊपर उठकर यथाशीघ्र स्वीकार कर या अपना ही लेना चाहिये । क्योंकि देर करना पछतावा-प्रायश्चित का ही कारण बनेगा । चेतें। सद्भावी सत्यान्वेषी पाठक बन्धुओं ! सृष्टि की रचना या उत्पत्ति दो पदार्थों से हुई है जो जड़ और चेतन नाम से जाने जाते हैं । इस जड़ से सम्बन्धित सम्पूर्ण जानकारी तो भौतिक शिक्षा के अन्तर्गत आती है और चेतन तथा चेतन से सम्बन्धित या चेतन प्रधाान जीव-आत्मा आदि के सम्बन्ध के बारे में क्रियात्मक जानकारी मात्र ही योग या अध्यात्म है। अध्यात्म , स्वाध्याय और तत्त्वज्ञान के मध्य स्थित जीव का परमात्मा से तथा परमात्मा का जीव से सम्पर्क बनाने में आत्मा ही दोनों के मध्य के सम्बन्धांो को श्वाँस-नि:श्वाँस के एक छोर (बाहरी) पर परमात्मा तथा दूसरे छोर (भीतरी) पर जीव का वास होता है । आत्मा नित्य प्रति हर क्षण ही निर्मल एवं स्वच्छ शक्ति-सामर्थ्य (ज्योतिर्मय स:) रूप में शरीर में प्रवेश कर जीव को उस शक्ति-सामर्थ्य को प्रदान करती-रहती है और शरीरान्तर्गत गुण-दोष से युक्त सांस्कारिक होकर जीव रूप से बाहर हो जाया करती है । जब अहँ रूप जीव भगवत् कृपा से स: रूप आत्म-शक्ति का साक्षात्कार करता है तथा स: से युक्त हो शान्ति और आनन्द की अनुभूति पाता है, तब यह जीव आत्मविभोर हो उठता है । इस जीव को आत्मामय या ब्रम्हमय या चिदानन्दमय ही, पूर्व की अनुभूति, जिससे कि यह जीव आत्मा से बिछुड़ा-भटका कर तथा सांसारिकता में फँसा दिया गया था, अपना पूर्व का सम्बन्ध याद हो जाता है कि शारीरिक -पारिवारिक-सांसारिक होने के पूर्व 'मैं' जीव इसी आत्मा या ब्रम्ह के साथ संलग्न था; जिससे सांसारिक-पारिवारिक लोगों ने नार-पुरइन या ब्रम्ह-नाल काट-कटवा कर मुझे इस आत्मा या ब्रम्ह से बिछुड़ा दिया था, जिससे 'मैं' जीव शान्ति और आनन्द रूप चिदानन्द के खोज में इधर-उधर चारों तरफ भटकता और फँसता तथा जकड़ता चला गया था । यह तो परमप्रभु की कृपा विशेष से मनुष्य शरीर पाया। तत्पश्चात् परमप्रभु की मुझ पर दूसरी कृपा विशेष हुई कि मुझे सद्गुरु जी का सान्निधय प्राप्त हुआ तथा परमप्रभु की यह तीसरी कृपा हुई कि मेरे अन्दर ऐसी प्रेरणा जागी, जिससे सद्गुरुजी की आवश्यकता महसूस हुई और गुरु जी के सम्पर्क में आया। तत्पश्चात् परमप्रभु जी के ही कृपा विशेष, जो सद्गुरु कृपा के रूप में हमें 'आत्म' रूप स: से पुन: साक्षात्कार तथा मेल-मिलाप कराकर पुन: मुझ शरीर एवं संसारमय जीव को संसार एवं शरीर से उठाकर आत्मामय जीव(हँऽस) रूप में स्थापित कर-करा दिया। सद्गुरु कृपा से अब पुन: हँऽस हो गया। ध्यान दें कि हँऽस ही जीवात्मा है, जो अध्यात्म की अन्तिम उपलब्धि है। अध्यात्म हँऽस ही बना सकता है, तत्त्वज्ञानी नहीं ! तत्त्वज्ञान आत्मा के वश की बात नहीं होता और अध्यात्म की अन्तिम बात आत्मा तक ही होती है। आत्मा मात्र ही योग या अध्यात्म की अन्तिम मजिल‌ होता है, परमात्मा नहीं । आध्यात्मिक सन्त-महात्मन् बन्धुओं को मिथ्या ज्ञानाभिमान रूप भ्रम एवं भूल से अपने को बचाये रहते हुये सदा सावधान रहना-रखना चाहिये ताकि जीव को ही आत्मा और आत्मा को ही परमात्मा, जीव को ही ईश्वर और ईश्वर को ही परमेश्वर, जीव को ही ब्रम्ह और ब्रम्ह को ही परमब्रम्ह आदि तथा आध्यात्मिक सोऽहँ- हँऽसो-ज्योति को ही 'परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् और योग-साधाना या अध्यात्म को ही तत्त्वज्ञान कह-कहवा कर अध्यात्म के महत्त्व को मिथ्यात्त्व से जोड़कर घटाना या गिराना नहीं चाहिये । सन्त महात्मा ही झूठ या असत्य कहें या बोलना शुरू करें तो बहुत शर्म की बात है और तब 'और' समाज की गति क्या होगी? अत: हर किसी को ही झूठ या असत्य से हर हालत में ही बचना चाहिए । सन्त-महात्मन बन्धुओं को तो बचना ही बचना चाहिए । क्योंकि धर्म का आधार और मजिल दोनों ही 'सत्य ही तो है । सत्य नहीं तो धर्म नहीं ।

तीव्र योगिनी इच्छापूर्ति प्रयोग

एक साधक के लिए काल ज्ञान अत्यधिक आवश्यक है क्यों की सिद्ध योगो मे उर्जा का प्रवाह अत्यधिक वेगवान होता है, विशेष काल मे विशेष देवी देवता अपने पूर्ण रूप मे जागृत होते है. तथा ब्रम्हांड मे शक्ति का संचार स्वतः बढ़ जाता है. साधको के लिए इन विशेष काल मे साधना करने से साधना मे सफलता की संभावना अत्यधिक बढ़ जाती है. इस दिशा मे ग्रहण का समय अपने आप मे साधको के लिए महत्वपूर्ण है. इस काल मे साधक किसी भी मंत्र जाप को करे तो उस मंत्र और प्रक्रिया से सबंधित योग्य परिणाम प्राप्त करना सहज हो जाता है. यु तो इस काल मे कोई भी साधना या मंत्र जाप किया जा सकता है लेकिन कुछ विशेष शाबर साधनाए ग्रहण काल के लिए ही निहित है, जिसे मात्र और मात्र ग्रहण के समय ही किया जाता है. इस क्रम मे ऐसे कई दुर्लभ विधान है जो की साधक को सफलता के द्वार तक ले के जाता है. वस्तुतः हमारा जीवन इच्छाओ के आधीन है, और अगर मनुष्य की इच्छाए ही ना रहे तो फिर जीवन ही ना रहे. क्यों की इच्छा मुख्य त्रिशक्ति मे से एक है, क्रियाज्ञानइच्छा च शक्तिः . अपनी इच्छा ओ की पूर्ति करना किसी भी रूप मे अनुचित नहीं है. तंत्र तो श्रृंगार की प्रक्रिया है, जो नहीं प्राप्त किया है उसे प्राप्त करना और जो प्राप्त हुआ है उसे और भी निखारना. यु भी तन्त्र दमन का समर्थन नहीं करता. अपनी योग्य इच्छाओ की साधक पूर्ति करे और अपने आपको पूर्णता के पथ पर आगे बढ़ने के लिए कदम भरता जाए. ग्रहण काल से सबंधित कई दुर्लभ विधानों मे इच्छापूर्ति के लिए भी विधान है. अगर इन विधानों को साधक विधिवत पूर्ण कर ले तब साधक के लिए निश्चित रूप से सफलता मिलती ही है. ऐसे ही विधानों मे से एक विधान है ‘तीव्र योगिनी इच्छापूर्ति प्रयोग’. जो की आप सब के मध्य इस ग्रहणकाल को ध्यान मे रखते हुए रख रहा हू. इस साधना के लिए साधक को अपने आसान की ज़मीं को गाय के गोबर से लिप दे. और उस पर आसान लगा कर बैठ जाए. अगर साधक के लिए यह संभव नहीं हो तो वह भूमि पर बैठ जाए. यह साधना निर्वस्त्र हो कर करे, अगर यह संभव नहीं है तो सफ़ेद वस्त्रों को धारण करे. साधना कक्ष मे और कोई व्यक्ति ना हो तो उत्तम है. साधक अपने सामने तेल का बड़ा दीपक लगाए और ६४ योगिनी को मन ही मन प्रणाम करते हुए मिठाई का भोग लगाये. और अपनी इच्छा को साफ साफ ३ बार दुहराए तथा योगोनियो से उसकी पूर्ति के लिए प्रार्थना करे. इसके बाद साधक निम्न मंत्र का जाप प्रारंभ कर दे. इसमें किसी भी प्रकार की माला की ज़रूरत नहीं है फिर भी अगर साधक चाहे तो रुद्राक्ष की माला उपयोग कर सकता है. साधक को यह प्रक्रिया ग्रहण काल शुरू होने से एक घंटे पहले ही शुरू कर देनी चाहिए तथा जितना भी संभव हो जाप करना चाहिए, यु उत्तम तो ये रहता है की साधक ग्रहण समाप्त हो जाने के बाद भी एक घंटे तक जाप करता रहे. ओम जोगिनी जोगिनी आवो आवो कल्याण धारो इच्छा पूरो आण दुर्गा की गोरखनाथ गुरु को आदेश आदेश आदेश. मंत्र जाप की समाप्ति पर मिठाई का भोग स्वयं ग्रहण करे तथा स्नान करे. साधक की इच्छा शीघ्र ही निश्चित रूप से पूरी होती है.

श्री नवग्रह शाबर मंत्र

...................................................................................................... ॐ गुरु जी कहे, चेला सुने, सुन के मन में गुने, नव ग्रहों का मंत्र, जपते पाप काटेंते, जीव मोक्ष पावंते, रिद्धि सिद्धि भंडार भरन्ते, ॐ आं चं मं बुं गुं शुं शं रां कें चैतन्य नव्ग्रहेभ्यो नमः, इतना नव ग्रह शाबर मंत्र सम्पूरण हुआ, मेरी भगत गुरु की शकत, नव ग्रहों को गुरु जी का आदेश आदेश आदेश ! मंत्र का १०० माला जप कर सिद्धि प्राप्त की जाती है. अगर नवरात्रों में दशमी तक १० माला रोज़ जप जाये तो भी सिद्धि होती है. दीपक घी का, आसन रंग बिरंगा कम्बल का, किसी भी समय, दिशा प्रात काल पूर्व, मध्यं में उत्तर, सायं काल में पश्चिम की होनी चाहिए. हवन किया जाये तो ठीक नहीं तो जप भी पर्याप्त है. रोज़ १०८ बार जपते रहने से किसी भी ग्रह की बाधा नहीं सताती है.

नाथ सम्प्रदाय का परिचय :-

यह सम्प्रदाय भारत का परम प्राचीन, उदार, ऊँच-नीच की भावना से परे एंव अवधूत अथवा योगियों का सम्प्रदाय है। इसका आरम्भ आदिनाथ शंकर से हुआ है और इसका वर्तमान रुप देने वाले योगाचार्य बालयति श्री गोरक्षनाथ भगवान शंकर के अवतार हुए है। इनके प्रादुर्भाव और अवसान का कोई लेख अब तक प्राप्त नही हुआ। पद्म, स्कन्द शिव ब्रह्मण्ड आदि पुराण, तंत्र महापर्व आदि तांत्रिक ग्रंथ बृहदारण्याक आदि उपनिषदों में तथा और दूसरे प्राचीन ग्रंथ रत्नों में श्री गुरु गोरक्षनाथ की कथायें बडे सुचारु रुप से मिलती है। श्री गोरक्षनाथ वर्णाश्रम धर्म से परे पंचमाश्रमी अवधूत हुए है जिन्होने योग क्रियाओं द्वारा मानव शरीरस्थ महा शक्तियों का विकास करने के अर्थ संसार को उपदेश दिया और हठ योग की प्रक्रियाओं का प्रचार करके भयानक रोगों से बचने के अर्थ जन समाज को एक बहुत बड़ा साधन प्रदान किया। श्री गोरक्षनाथ ने योग सम्बन्धी अनेकों ग्रन्थ संस्कृत भाषा में लिखे जिनमे बहुत से प्रकाशित हो चुके है और कई अप्रकाशित रुप में योगियों के आश्रमों में सुरक्षित हैं। श्री गोरक्षनाथ की शिक्षा एंव चमत्कारों से प्रभावित होकर अनेकों बड़े-बड़े राजा इनसे दीक्षित हुए। उन्होंने अपने अतुल वैभव को त्याग कर निजानन्द प्राप्त किया तथा जन-कल्याण में अग्रसर हुए। इन राजर्षियों द्वारा बड़े-बड़े कार्य हुए। श्री गोरक्षनाथ ने संसारिक मर्यादा की रक्षा के अर्थ श्री मत्स्येन्द्रनाथ को अपना गुरु माना और चिरकाल तक इन दोनों में शका समाधान के रुप में संवाद चलता रहा। श्री मत्स्येन्द्र को भी पुराणों तथा उपनिषदों में शिवावतर माना गया अनेक जगह इनकी कथायें लिखी हैं। यों तो यह योगी सम्प्रदाय अनादि काल से चला आ रहा किन्तु इसकी वर्तमान परिपाटियों के नियत होने के काल भगवान शंकराचार्य से 200 वर्ष पूर्व है। ऐस शंकर दिग्विजय नामक ग्रन्थ से सिद्ध होता है। बुद्ध काल में वाम मार्ग का प्रचार बहुत प्रबलता से हुअ जिसके सिद्धान्त बहुत ऊँचे थे, किन्तु साधारण बुद्धि के लोग इन सिद्धान्तों की वास्तविकता न समझ कर भ्रष्टाचारी होने लगे थे। इस काल में उदार चेता श्री गोरक्षनाथ ने वर्तमान नाथ सम्प्रदाय क निर्माण किया और तत्कालिक 84 सिद्धों में सुधार का प्रचार किया। यह सिद्ध वज्रयान मतानुयायी थे। इस सम्बन्ध में एक दूसरा लेख भी मिलता है जो कि निम्न प्रकार हैः- ओंकार नाथ, उदय नाथ, सन्तोष नाथ, अचल नाथ, गजबेली नाथ, ज्ञान नाथ, चौरंगी नाथ, मत्स्येन्द्र नाथ और गुरु गोरक्षनाथ। सम्भव है यह उपयुक्त नाथों के ही दूसरे नाम है। यह योगी सम्प्रदाय बारह पन्थ में विभक्त है, यथाः-सत्यनाथ, धर्मनाथ, दरियानाथ, आई पन्थी, रास के, वैराग्य के, कपिलानी, गंगानाथी, मन्नाथी, रावल के, पाव पन्थी और पागल। इन बारह पन्थ की प्रचलित परिपाटियों में कोई भेद नही हैं। भारत के प्रायः सभी प्रान्तों में योगी सम्प्रदाय के बड़े-बड़े वैभवशाली आश्रम है और उच्च कोटि के विद्वान इन आश्रमों के संचालक हैं। श्री गोरक्षनाथ का नाम नेपाल प्रान्त में बहुत बड़ा था और अब तक भी नेपाल का राजा इनको प्रधान गुरु के रुप में मानते है और वहाँ पर इनके बड़े-बड़े प्रतिष्ठित आश्रम हैं। यहाँ तक कि नेपाल की राजकीय मुद्रा (सिक्के) पर श्री गोरक्ष का नाम है और वहाँ के निवासी गोरक्ष ही कहलाते हैं। काबुल-गान्धर सिन्ध, विलोचिस्तान, कच्छ और अन्य देशों तथा प्रान्तों में यहा तक कि मक्का मदीने तक श्री गोरक्षनाथ ने दीक्षा दी थी और ऊँचा मान पाया था। इस सम्प्रदाय में कई भाँति के गुरु होते हैं यथाः- चोटी गुरु, चीरा गुरु, मंत्र गुरु, टोपा गुरु आदि। श्री गोरक्षनाथ ने कर्ण छेदन-कान फाडना या चीरा चढ़ाने की प्रथा प्रचलित की थी। कान फाडने को तत्पर होना कष्ट सहन की शक्ति, दृढ़ता और वैराग्य का बल प्रकट करता है। श्री गुरु गोरक्षनाथ ने यह प्रथा प्रचलित करके अपने अनुयायियों शिष्यों के लिये एक कठोर परीक्षा नियत कर दी। कान फडाने के पश्चात मनुष्य बहुत से सांसारिक झंझटों से स्वभावतः या लज्जा से बचता हैं। चिरकाल तक परीक्षा करके ही कान फाड़े जाते थे और अब भी ऐसा ही होता है। बिना कान फटे साधु को 'ओघड़' कहते है और इसका आधा मान होता है। भारत में श्री गोरखनाथ के नाम पर कई विख्यात स्थान हैं और इसी नाम पर कई महोत्सव मनाये जाते हैं। यह सम्प्रदाय अवधूत सम्प्रदाय है। अवधूत शब्द का अर्थ होता है " स्त्री रहित या माया प्रपंच से रहित" जैसा कि " सिद्ध सिद्धान्त पद्धति" में लिखा हैः- "सर्वान् प्रकृति विकारन वधु नोतीत्यऽवधूतः।" अर्थात् जो समस्त प्रकृति विकारों को त्याग देता या झाड़ देता है वह अवधूत है। पुनश्चः- " वचने वचने वेदास्तीर्थानि च पदे पदे। इष्टे इष्टे च कैवल्यं सोऽवधूतः श्रिये स्तुनः।" "एक हस्ते धृतस्त्यागो भोगश्चैक करे स्वयम् अलिप्तस्त्याग भोगाभ्यां सोऽवधूतः श्रियस्तुनः॥" उपर्युक्त लेखानुसार इस सम्प्रदाय में नव नाथ पूर्ण अवधूत हुए थे और अब भी अनेक अवधूत विद्यमान है। नाथ लोग अलख (अलक्ष) शब्द से अपने इष्ट देव का ध्यान करते है। परस्पर आदेश या आदीश शब्द से अभिवादन करते हैं। अलख और आदेश शब्द का अर्थ प्रणव या परम पुरुष होता है जिसका वर्णन वेद और उपनिषद आदि में किया गया है। योगी लोग अपने गले में काली ऊन का एक जनेऊ रखते है जिसे 'सिले' कहते है। गले में एक सींग की नादी रखते है। इन दोनों को सींगी सेली कहते है यह लोग शैव हैं अर्थात शिव की उपासना करते है। षट् दर्शनों में योग का स्थान अत्युच्च है और योगी लोग योग मार्ग पर चलते हैं अर्थात योग क्रिया करते है जो कि आत्म दर्शन का प्रधान साधन है। जीव ब्रह्म की एकता का नाम योग है। चित्त वृत्ति के पूर्ण निरोध का योग कहते है। वर्तमान काल में इस सम्प्रदाय के आश्रम अव्यवस्थित होने लगे हैं। इसी हेतु "अवधूत योगी महासभा" का संगठन हुआ है और यत्र तत्र सुधार और विद्या प्रचार करने में इसके संचालक लगे हुए है। प्राचीन काल में स्याल कोट नामक राज्य में शंखभाटी नाम के एक राजा थे। उनके पूर्णमल और रिसालु नाम के पुत्र हुए। यह श्री गोरक्षनाथ के शिष्य बनने के पश्चात क्रमशः चोरंगी नाथ और मन्नाथ के नाम से प्रसिद्ध होकर उग्र भ्रमण शील रहें। "योगश्चित वृत्ति निरोधः" सूत्र की अन्तिमावस्था को प्राप्त किया और इसी का प्रचार एंव प्रसार करते हुए जन कल्याण किया और भारतीय या माननीय संस्कृति को अक्षूण्ण बने रहने का बल प्रदान किया। उर्पयुक्त 12 पंथो में जो "मन्नाथी" पंथ है वह इन्ही का श्री मन्नाथ पंथ है। श्री मन्नाथ ने भ्रमण करते हुए वर्तमान जयपुर राज्यान्तर्गत शेखावाटी प्रान्त के बिसाऊ नगर के समीप आकर अपना आश्रम निर्माण किया। यह ग्राम अब 'टाँई' के नाम से प्रसिद्ध है। श्री मन्नाथ ने यहीं पर अपना शरीर त्याग किया था, यही पर इनका समाधि मन्दिर है और मन्नाथी योगियों का गुरु द्वार हैं। 'टाँई' के आश्रम के अधीन प्राचीन काल से 2000 बीघा जमीन है, अच्छा बड़ा मकान है और इसमे कई समाधियाँ बनी हुई है। इससे ज्ञात होता है कि श्री मन्नाथ के पश्चात् यहाँ पर दीर्घकाल तक अच्छे सन्त रहते रहे है। इस स्थान में बाबा श्री ज्योतिनाथ जी के शिष्य श्री केशरनाथ रहते थे। अब श्री ज्ञाननाथ रहते हैं। इन दिनों इस आश्रम का जीर्णोद्वार भी हुआ हैं। श्री मन्नाथ के परम्परा में आगे चल कर श्री चंचलनाथ अच्छे संत हुए और इन्होने कदाचित सं. 1700 वि. के आस पास झुंझुनु(जयपुर) में अपना आश्रम बनाया यही इनका समाधि मन्दिर हैं। इससे आगे का इतिहास इस पुस्तक के परिशिष्ट सं. 2 में लिखा गया है। यदि सम्भव हुआ तो श्री गोरक्षनाथ की शिक्षाएँ एकत्र करके प्रकाशित करने की चेष्टा की जायगी। नाथ लक्षणः- "नाकरोऽनादि रुपंच'थकारः' स्थापयते सदा" भुवनत्रय में वैकः श्री गोरक्ष नमोल्तुते। "शक्ति संगम तंत्र॥ अवधूत लोग अद्वैत वादी योगी होते है जो कि बिना किसी भौतिक साधन के यौगग्नि प्रज्वलित करके कर्म विपाक को भस्म कर निजानन्द में रमण करते है और अपनी सहज शिक्षा के द्वारा जन कलयाण करते रहते है। तभी उपयुक्त नाथ शब्द सार्थक होता है। इनका सिद्धान्तः- न ब्रह्म विष्णु रुद्रौ, न सुरपति सुरा, नैव पृथ्वी न चापौ। नैवाग्निनर्पि वायुः न च गगन तलं, नो दिशों नैव कालः। नो वेदा नैव यज्ञा न च रवि शशिनौ, नो विधि नैव कल्पाः। स्व ज्योतिः सत्य मेकं जयति तव पदं, सच्चिदानन्दमूर्ते, ऊँ शान्ति ! प्रेम!! आनन्द!!!

लक्ष्मी पूजन


दीपावाली के अवसर पर लक्ष्मी माता को प्रसन्न करने के लिए आप घर की साज-सजावट पर खूब ध्यान देते हैं। लेकिन साज सजावट काफी नहीं है। लक्ष्मी माता को प्रसन्न करने के लिए सबसे जरूरी है कि आपकी पूजा विधि विधान पूर्वक हो। इसलिए दीपावली की रात गणेश लक्ष्मी के साथ कुबेर महाराज की भी पूजा करें। कुबेर देवताओं के खजांची हैं। देवी लक्ष्मी की पूजा हो और आप विष्णु भगवान की अनदेखी करें तो माता इसे कैसे सहन कर सकती हैं। इसलिए दीपावली में लक्ष्मी माता के साथ विष्णु की भी पूजा होती है। काली अमावस की रात में दीपावली का त्योहार मनाया जाता है। अमावस की कालिमा देवी काली का स्वरूप है। यह तमोगुणमयी रात होती है। इसलिए इस रात देवी कली की भी पूजा होती है। कई स्थानों पर तो विशेष पूजा पंडाल बनाकर इस रात देवी काली की पूजा होती है। काली, लक्ष्मी और सरस्वती तीनों ही महालक्ष्मी से उत्पन्न हुई हैं। यही कारण है कि दीपावली में शुभ लाभ की चाहत रखने वालों को महालक्ष्मी की प्रसन्न हेतु तीनों देवियों काली, लक्ष्मी और सरस्वती की पूजा जरूर करनी चाहिए। पूजा की संपूर्ण विधि बता रहे हैं पण्डित मुरली झा। पूजन सामग्री कलावा, रोली, सिंदूर, एक नारियल, अक्षत, लाल वस्त्र , फूल, पांच सुपारी, लौंग, पान के पत्ते, घी, कलश, कलश हेतु आम का पल्लव, चौकी, समिधा, हवन कुण्ड, हवन सामग्री, कमल गट्टे, पंचामृत (दूध, दही, घी, शहद, गंगाजल), फल, बताशे, मिठाईयां, पूजा में बैठने हेतु आसन, हल्दी , अगरबत्ती, कुमकुम, इत्र, दीपक, रूई, आरती की थाली। कुशा, रक्त चंदनद, श्रीखंड चंदन। पर्वोपचार पूजन शुरू करने से पूर्व चौकी को धोकर उस पर रंगोली बनाएं। चौकी के चारों कोने पर चार दीपक जलाएं। जिस स्थान पर गणेश एवं लक्ष्मी की प्रतिमा स्थापित करनी हो वहां कुछ चावल रखें। इस स्थान पर क्रमश: गणेश और लक्ष्मी की मूर्ति को रखें। अगर कुबेर, सरस्वती एवं काली माता की मूर्ति हो तो उसे भी रखें। लक्ष्मी माता की पूर्ण प्रसन्नता हेतु भगवान विष्णु की मूर्ति लक्ष्मी माता के बायीं ओर रखकर पूजा करनी चाहिए। आसन बिछाकर गणपति एवं लक्ष्मी की मूर्ति के सम्मुख बैठ जाएं। इसके बाद अपने आपको तथा आसन को इस मंत्र से शुद्धि करें- "ऊं अपवित्र : पवित्रोवा सर्वावस्थां गतोऽपिवा। य: स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तर: शुचि :॥" इन मंत्रों से अपने ऊपर तथा आसन पर 3-3 बार कुशा या पुष्पादि से छींटें लगायें फिर आचमन करें – ऊं केशवाय नम: ऊं माधवाय नम:, ऊं नारायणाय नम:, फिर हाथ धोएं, पुन: आसन शुद्धि मंत्र बोलें- ऊं पृथ्वी त्वयाधृता लोका देवि त्यवं विष्णुनाधृता। त्वं च धारयमां देवि पवित्रं कुरु चासनम्॥ शुद्धि और आचमन के बाद चंदन लगाना चाहिए। अनामिका उंगली से श्रीखंड चंदन लगाते हुए यह मंत्र बोलें चन्‍दनस्‍य महत्‍पुण्‍यम् पवित्रं पापनाशनम्, आपदां हरते नित्‍यम् लक्ष्‍मी तिष्‍ठतु सर्वदा। दीपावली पूजन हेतु संकल्प पंचोपचार करने बाद संकल्प करना चाहिए। संकल्प में पुष्प, फल, सुपारी, पान, चांदी का सिक्का, नारियल (पानी वाला), मिठाई, मेवा, आदि सभी सामग्री थोड़ी-थोड़ी मात्रा में लेकर संकल्प मंत्र बोलें- ऊं विष्णुर्विष्णुर्विष्णु:, ऊं तत्सदद्य श्री पुराणपुरुषोत्तमस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य ब्रह्मणोऽह्नि द्वितीय पराद्र्धे श्री श्वेतवाराहकल्पे सप्तमे वैवस्वतमन्वन्तरे, अष्टाविंशतितमे कलियुगे, कलिप्रथम चरणे जम्बुद्वीपे भरतखण्डे आर्यावर्तान्तर्गत ब्रह्मवर्तैकदेशे पुण्य (अपने नगर/गांव का नाम लें) क्षेत्रे बौद्धावतारे वीर विक्रमादित्यनृपते : 2070, तमेऽब्दे शोभन नाम संवत्सरे दक्षिणायने/उत्तरायणे हेमंत ऋतो महामंगल्यप्रदे मासानां मासोत्तमे कार्तिक मासे कृष्ण पक्षे अमावस तिथौ� (जो वार हो) रवि वासरे स्वाति नक्षत्रे आयुष्मान योग चतुष्पाद करणादिसत्सुशुभे योग (गोत्र का नाम लें) गोत्रोत्पन्नोऽहं अमुकनामा (अपना नाम लें) सकलपापक्षयपूर्वकं सर्वारिष्ट शांतिनिमित्तं सर्वमंगलकामनया– श्रुतिस्मृत्यो- क्तफलप्राप्तर्थं— निमित्त महागणपति नवग्रहप्रणव सहितं कुलदेवतानां पूजनसहितं स्थिर लक्ष्मी महालक्ष्मी देवी पूजन निमित्तं एतत्सर्वं शुभ-पूजोपचारविधि सम्पादयिष्ये। गणपति पूजन किसी भी पूजा में सर्वप्रथम गणेश जी की पूजा की जाती है। इसलिए आपको भी सबसे पहले गणेश जी की ही पूजा करनी चाहिए। हाथ में पुष्प लेकर गणपति का ध्यान करें। मंत्र पढ़ें- गजाननम्भूतगणादिसेवितं कपित्थ जम्बू फलचारुभक्षणम्। उमासुतं शोक विनाशकारकं नमामि विघ्नेश्वरपादपंकजम्।आवाहन: ऊं गं गणपतये इहागच्छ इह तिष्ठ।। इतना कहकर पात्र में अक्षत छोड़ें। अर्घा में जल लेकर बोलें- एतानि पाद्याद्याचमनीय-स्नानीयं, पुनराचमनीयम् ऊं गं गणपतये नम:। रक्त चंदन लगाएं: इदम रक्त चंदनम् लेपनम् ऊं गं गणपतये नम:, इसी प्रकार श्रीखंड चंदन बोलकर श्रीखंड चंदन लगाएं। इसके पश्चात सिन्दूर चढ़ाएं "इदं सिन्दूराभरणं लेपनम् ऊं गं गणपतये नम:। दर्वा और विल्बपत्र भी गणेश जी को चढ़ाएं। गणेश जी को वस्त्र पहनाएं। इदं रक्त वस्त्रं ऊं गं गणपतये समर्पयामि। पूजन के बाद गणेश जी को प्रसाद अर्पित करें: इदं नानाविधि नैवेद्यानि ऊं गं गणपतये समर्पयामि:। मिष्टान अर्पित करने के लिए मंत्र: इदं शर्करा घृत युक्त नैवेद्यं ऊं गं गणपतये समर्पयामि:। प्रसाद अर्पित करने के बाद आचमन करायें। इदं आचमनयं ऊं गं गणपतये नम:। इसके बाद पान सुपारी चढ़ायें: इदं ताम्बूल पुगीफल समायुक्तं ऊं गं गणपतये समर्पयामि:। अब एक फूल लेकर गणपति पर चढ़ाएं और बोलें: एष: पुष्पान्जलि ऊं गं गणपतये नम: इसी प्रकार से अन्य सभी देवताओं की पूजा करें। जिस देवता की पूजा करनी हो गणेश के स्थान पर उस देवता का नाम लें। कलश पूजन घड़े या लोटे पर मोली बांधकर कलश के ऊपर आम का पल्लव रखें। कलश के अंदर सुपारी, दूर्वा, अक्षत, मुद्रा रखें। कलश के गले में मोली लपेटें।� नारियल पर वस्त्र लपेट कर कलश पर रखें। हाथ में अक्षत और पुष्प लेकर वरूण देवता का कलश में आह्वान करें। ओ३म् त्तत्वायामि ब्रह्मणा वन्दमानस्तदाशास्ते यजमानो हविभि:। अहेडमानो वरुणेह बोध्युरुशंस मान आयु: प्रमोषी:। (अस्मिन कलशे वरुणं सांगं सपरिवारं सायुध सशक्तिकमावाहयामि, ओ३म्भूर्भुव: स्व:भो वरुण इहागच्छ इहतिष्ठ। स्थापयामि पूजयामि॥) इसके बाद जिस प्रकार गणेश जी की पूजा की है उसी प्रकार वरूण देवता की पूजा करें। इसके बाद देवराज इन्द्र फिर कुबेर की पूजा करें। लक्ष्मी पूजन सबसे पहले माता लक्ष्मी का ध्यान करें ��� ॐ या सा पद्मासनस्था, विपुल-कटि-तटी, पद्म-दलायताक्षी। ��� गम्भीरावर्त-नाभिः, स्तन-भर-नमिता, शुभ्र-वस्त्रोत्तरीया।। ��� लक्ष्मी दिव्यैर्गजेन्द्रैः। मणि-गज-खचितैः, स्नापिता हेम-कुम्भैः। ��� नित्यं सा पद्म-हस्ता, मम वसतु गृहे, सर्व-मांगल्य-युक्ता।। इसके बाद लक्ष्मी देवी की प्रतिष्ठा करें। हाथ में अक्षत लेकर बोलें “ॐ भूर्भुवः स्वः महालक्ष्मी, इहागच्छ इह तिष्ठ, एतानि पाद्याद्याचमनीय-स्नानीयं, पुनराचमनीयम्।” प्रतिष्ठा के बाद स्नान कराएं: ॐ मन्दाकिन्या समानीतैः, हेमाम्भोरुह-वासितैः स्नानं कुरुष्व देवेशि, सलिलं च सुगन्धिभिः।। ॐ लक्ष्म्यै नमः।। इदं रक्त चंदनम् लेपनम् से रक्त चंदन लगाएं। इदं सिन्दूराभरणं से सिन्दूर लगाएं। ‘ॐ मन्दार-पारिजाताद्यैः, अनेकैः कुसुमैः शुभैः। पूजयामि शिवे, भक्तया, कमलायै नमो नमः।। ॐ लक्ष्म्यै नमः, पुष्पाणि समर्पयामि।’इस मंत्र से पुष्प चढ़ाएं फिर माला पहनाएं। अब लक्ष्मी देवी को इदं रक्त वस्त्र समर्पयामि कहकर लाल वस्त्र पहनाएं। लक्ष्मी देवी की अंग पूजा बायें हाथ में अक्षत लेकर दायें हाथ से थोड़ा-थोड़ा छोड़ते जायें— ऊं चपलायै नम: पादौ पूजयामि ऊं चंचलायै नम: जानूं पूजयामि, ऊं कमलायै नम: कटि पूजयामि, ऊं कात्यायिन्यै नम: नाभि पूजयामि, ऊं जगन्मातरे नम: जठरं पूजयामि, ऊं विश्ववल्लभायै नम: वक्षस्थल पूजयामि, ऊं कमलवासिन्यै नम: भुजौ पूजयामि, ऊं कमल पत्राक्ष्य नम: नेत्रत्रयं पूजयामि, ऊं श्रियै नम: शिरं: पूजयामि। अष्टसिद्धि पूजा अंग पूजन की भांति हाथ में अक्षत लेकर मंत्रोच्चारण करें। ऊं अणिम्ने नम:, ओं महिम्ने नम:, ऊं गरिम्णे नम:, ओं लघिम्ने नम:, ऊं प्राप्त्यै नम: ऊं प्राकाम्यै नम:, ऊं ईशितायै नम: ओं वशितायै नम:। अष्टलक्ष्मी पूजन अंग पूजन एवं अष्टसिद्धि पूजा की भांति हाथ में अक्षत लेकर मंत्रोच्चारण करें। ऊं आद्ये लक्ष्म्यै नम:, ओं विद्यालक्ष्म्यै नम:, ऊं सौभाग्य लक्ष्म्यै नम:, ओं अमृत लक्ष्म्यै नम:, ऊं लक्ष्म्यै नम:, ऊं सत्य लक्ष्म्यै नम:, ऊं भोगलक्ष्म्यै नम:, ऊं� योग लक्ष्म्यै नम: नैवैद्य अर्पण पूजन के पश्चात देवी को "इदं नानाविधि नैवेद्यानि ऊं महालक्ष्मियै समर्पयामि" मंत्र से नैवैद्य अर्पित करें। मिष्टान अर्पित करने के लिए मंत्र: "इदं शर्करा घृत समायुक्तं नैवेद्यं ऊं महालक्ष्मियै समर्पयामि" बालें। प्रसाद अर्पित करने के बाद आचमन करायें। इदं आचमनयं ऊं महालक्ष्मियै नम:। इसके बाद पान सुपारी चढ़ायें: इदं ताम्बूल पुगीफल समायुक्तं ऊं महालक्ष्मियै समर्पयामि। अब एक फूल लेकर लक्ष्मी देवी पर चढ़ाएं और बोलें: एष: पुष्पान्जलि ऊं महालक्ष्मियै नम:। लक्ष्मी देवी की पूजा के बाद भगवान विष्णु एवं शिव जी पूजा करनी चाहिए फिर गल्ले की पूजा करें। पूजन के पश्चात सपरिवार आरती और क्षमा प्रार्थना करें- क्षमा प्रार्थना न मंत्रं नोयंत्रं तदपिच नजाने स्तुतिमहो न चाह्वानं ध्यानं तदपिच नजाने स्तुतिकथाः । नजाने मुद्रास्ते तदपिच नजाने विलपनं परं जाने मातस्त्व दनुसरणं क्लेशहरणं�������������������������� � विधेरज्ञानेन द्रविणविरहेणालसतया विधेयाशक्यत्वात्तव चरणयोर्याच्युतिरभूत् । तदेतत् क्षंतव्यं जननि सकलोद्धारिणि शिवे कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति������������������������ � पृथिव्यां पुत्रास्ते जननि बहवः संति सरलाः परं तेषां मध्ये विरलतरलोहं तव सुतः । मदीयो7यंत्यागः समुचितमिदं नो तव शिवे कुपुत्रो जायेत् क्वचिदपि कुमाता न भवति������������������������ � जगन्मातर्मातस्तव चरणसेवा न रचिता न वा दत्तं देवि द्रविणमपि भूयस्तव मया । तथापित्वं स्नेहं मयि निरुपमं यत्प्रकुरुषे कुपुत्रो जायेत क्वचिदप कुमाता न भवति������������������������ � परित्यक्तादेवा विविध सेवाकुलतया मया पंचाशीतेरधिकमपनीते तु वयसि इदानींचेन्मातः तव यदि कृपा नापि भविता निरालंबो लंबोदर जननि कं यामि शरणं������������ � श्वपाको जल्पाको भवति मधुपाकोपमगिरा निरातंको रंको विहरति चिरं कोटिकनकैः तवापर्णे कर्णे विशति मनुवर्णे फलमिदं जनः को जानीते जननि जपनीयं जपविधौ��� � ������������������ � चिताभस्म लेपो गरलमशनं दिक्पटधरो जटाधारी कंठे भुजगपतहारी पशुपतिः कपाली भूतेशो भजति जगदीशैकपदवीं भवानि त्वत्पाणिग्रहणपरिपाटीफलमिदं�������������������������� � न मोक्षस्याकांक्षा भवविभव वांछापिचनमे न विज्ञानापेक्षा शशिमुखि सुखेच्छापि न पुनः अतस्त्वां सुयाचे जननि जननं यातु मम वै मृडाणी रुद्राणी शिवशिव भवानीति जपतः������������������������ � नाराधितासि विधिना विविधोपचारैः किं रूक्षचिंतन परैर्नकृतं वचोभिः श्यामे त्वमेव यदि किंचन मय्यनाधे धत्से कृपामुचितमंब परं तवैव����������������������������������� � आपत्सु मग्नः स्मरणं त्वदीयं करोमि दुर्गे करुणार्णवेशि नैतच्छदत्वं मम भावयेथाः क्षुधातृषार्ता जननीं स्मरंति��������������������������������������� � जगदंब विचित्रमत्र किं परिपूर्ण करुणास्ति चिन्मयि अपराधपरंपरावृतं नहि माता समुपेक्षते सुतं���������������������������������������������������� � मत्समः पातकी नास्ति पापघ्नी त्वत्समा नहि एवं ज्ञात्वा महादेवि यथायोग्यं तथा कुरु��� �

शाबर मन्त्र और गुरु गोरखनाथ

~~~~~~~~~~ तंत्र साधना ~~~~~~~~~~ =========================== सृष्टि के आदि में ब्रह्म ने इच्छा की कि 'एकोऽद्दं बहुस्याम' मैं एक से बहुत हो जाऊँ । यह इच्छा ही शक्ति के रूप में परिणत हो गई । ब्रह्म और माया दो हो गये । यह माया या शक्ति दो विभागों में बँटी एक संकल्पमयी गायत्री, दूसरी परमाणुमयी सावित्री । संकल्पमयी गायत्री का उपयोग आत्मिक शक्तियों का बढ़ाने एवं दैवी और विशेषताओं के बढ़ाने एवं दैवी सान्निध्य प्राप्त करने क कारण साधक को सांसारिक कठिनाईयाँ पार करना, स्वल्प साधन में भी सुखी रहना एवं सुखकर स्थिति का उपलब्ध करना सहज होता है । अब तक इसी विधि-विधान की चर्चा इस पुस्तक के पृष्ठों पर की गई है । यह योग विज्ञान है इसे दक्षिण मार्ग भी कहते हैं । यह सत् प्रधान होने से हानिरहित एंव व्यक्ति तथा समाज के लिए सब प्रकार हितकर है । शक्ति की दूसरी श्रेणी परमाणुमयी सावित्री है । इसे स्थूल प्रकृति, पंचभूत, भौतिक सृष्टि आदि नामों से भी पुकारते हैं । इस प्रकृति के परमाणुओं के आकर्षण-विकर्षण से संसार में नाना प्रकार के पदर्थों की उत्पत्ति, वृद्धि और समाप्ति होती रहती है । इन परमाणुओं की स्वाभाविक साधारण क्रिया में हेर-फेर करके अपने लिए अधिक उपयोगी बना लेने की क्रिया का नाम विज्ञान है । यह विज्ञान दो भागों में विभक्त है-एक वह जो यंत्रों द्वारा प्रकृति के परमाणुओं को अपने लिए उपयोगी बनाता है । रेल, तार, टेलीफोन, रेडियो, हवाई जहाज, टेलीफोन, विद्युत शक्ति आदि अनेकों वैज्ञानिक यंत्र आविष्कार हुए हैं और होने वाले हैं, यह यंत्र विज्ञान है । दूसरा है तंत्र विज्ञान-जिसमें यन्त्रों के स्थान पर मानव अन्तराल में रहने वाली विद्युत शक्ति को कुछ ऐसी विशेषता सम्पन्न बनाया जाता है, जिससे प्रकृति से सूक्ष्म परमाणु उसी स्थिति में परिणति हो जाते हैं, जिसमें कि मनुष्य चाहता है । पदार्थों की रचना, परिवर्तन और विनाश का बड़ा भारी काम बिना किन्हीं यंत्रों की सहायता के तंत्र द्वारा हो सकता है । विज्ञान के इस तंत्र भाग को 'सावित्री विज्ञान' तंत्र-साधना, वाममार्ग आदि नामों से पुकारते हैं । यंत्र-विज्ञान का स्वतंत्र विद्या है । इस पुस्तक में उसके आधार और कार्य की चर्चा नहीं की जा सकती । इन पंक्तियों में तो हमें तंत्र के विज्ञान का पाठकों को थोड़ा सा परिचय कराना है । प्राचीन काल में भारत के विज्ञानाचार्य अनेक प्रयोजनों के लिए इसी मार्ग का अवलम्बन करते थे । प्राचीन इतिहास में ऐसी अनेक साक्षियाँ मिलती हैं, जिनसे प्रकट होता है कि उस समय बिना यंत्रों के भी ऐसे अद्भूत कार्य होते थे, जैसे आज यंत्रों से भी सम्भव नहीं हो पाये हैं । युद्धों में आज अनेक प्रकार के बहुमूल्य वैज्ञानिक अस्त्र-शस्त्र प्रयोग होते हैं, पर प्राचीन काल जैसे वरुणस्त्र-जो जल की भारी वर्षा कर दे, अग्नेयास्त्र जो भयंकर अग्नि ज्वालाओं का दावानल प्रकट कर दे, सम्मोहनास्त्र-जो लोगों को संज्ञाशून्य बना दे, नागपाश-जो लकवे की तरह, जकड़ दे, आज कहाँ है? इसी प्रकार ऐंजिन, भाप, पेट्रोल आदि के आकाश में, भूमि पर और जल में चलने वाले रथ आज कहाँ है? मारीच की तरह मनुष्य से पशु बन जाना, सुरसा की तरह बहुत बड़ा शरीर बढ़ा लेना हनुमान की तरह मच्छर के समान अति लघु रूप धारण करना, समुद्र लाँघना, पर्वत उठाना, नल-नील की भाँति पानी पर तैरने वाले पत्थरों का पुल बनाना, रावण, अहिरावण की भाँति बिना रेडियो के अमरीका और लंका के बीच वार्तालाप होना, अदृश्य हो जाना आदि अनेकों ऐसे अद्भूत कार्य थे, जो आज यंत्रों से भी नहीं हो पाते, पर एक समय बिना किसी यंत्र की सहायता के केवल आत्मशक्ति का तांत्रिक उपयोग होने से पूर्व सुगमतापूर्वक हो जाते थे । इस क्षेत्र में भारत भारी उन्नति कर चुका था और संसार पर चक्रवर्ती शासन करने एवं जगद्गुरु कहलाने का यह भी एक कारण था । नागार्जून, गोरखपुर, मछीन्द्रनाथ आदि सिद्ध पुरुषों के पश्चात् भारत से इस विद्या का लोप होता गया और आज तो इस क्षेत्र में अधिकार रखने वाले व्यक्ति कठिनाई से ढूढे़ मिलेंगे । इस तंत्र महाविज्ञान की कुछ लंगड़ी-लूली ,टूटी-फूटी शाखा-प्रशाखाएँ जहाँ-तहाँ मिलती हैं, उनके चमत्कार दिखाने वाले जहाँ-तहाँ मिल जाते हैं । उनमें से एक शाखा है-''दूसरों के शरीर और मन पर अच्छा या बुरा प्रभाव डालना'' जो इसे कर सकते हैं, वे यदि अभिचार करें तो स्वस्थ आदमी को रोगी बना सकते हैं, किसी भयंकर प्राणघातक पीड़ा, वेदना या बीमारी में अटका सकते हैं । उस पर प्राणघातक सूक्ष्म प्रहार कर सकते हैं, किसी की बुद्धि को फेर सकते हैं, उसे पागल, उन्मत्त, विक्षिप्त, मन्दबुद्धि या उलटा सोचने वाला कर सकते हैं । भ्रम, भय, संदेह, आशंका और बेचैनी के गहरे दलदल में फँसाकर उसके मानसिक धरातल को अस्त-व्यस्त कर सकते हैं । इसी प्रकार किसी धरातल चेतना शक्ति द्वारा किसी व्यक्ति का बुरा प्रभाव पड़ा हो तो उसे दूर कर सकते हैं । नजर लगना, उन्माद भूतोन्माद, ग्रहों का अनिष्ट, बुरे दिन, किसी के द्वारा प्रेरित अभिचार, मानसिक उद्वेग आदि को शांत किया जा सकता है । शारीरिक रोगों के निवारण, सर्प, बिच्छू आदि का दर्शन एवं विषैले फोड़ों का समाधान भी तंत्र द्वारा होता है । छोटे बालकों पर इस विद्या का बड़ी आसानी से भला या बुरा प्रभाव डाला जा सकता है । तंत्र साधना द्वारा सूक्ष्म जगत में विचरण करने वाली अनेक चेतना ग्रंथियों में से किसी विशेष प्रकार की ग्रंथि को अपने लिये जाग्रत, चैतन्य, क्रियाशील एवं अनुचरी बनाया जा सकता है । देखा गया है कि कई तांत्रिकों के मसान, पिशाच, भैरव, छाया, पुरुष, से बड़ा, ब्रह्मराक्षस, वेताल, कर्ण-पिशाचनी, त्रिपुरी-सुन्दरी, कालरात्रि, दुर्गा आदि की सिद्धि होती है । जैसे कोई सेवक प्रत्यक्ष शरीर से किसी यहाँ नौकर रहता है और मालिक की आज्ञानुसार काम करता है, वैसे ही यह शक्तियाँ अप्रत्यक्ष शरीर से उस तंत्र-सिद्धि पुरुष के वश में होकर सदा उसके समीप उपस्थित रहती हैं और जो आज्ञा दी जाती हैं उनको वे अपनी सामर्थ्यनुसार पूरा करती हैं । इस रीति से कई बार ऐसे-ऐसे अद्भूत का किये जाते हैं कि उनके आश्चर्य से दंग हो जाना पड़ता है । होता यह है कि अदृश्य लोक में कुछ ''चेनता ग्रन्थियाँ'' सदा विचरण करती रहती हैं । तांत्रिक साधना-विधानों द्वारा अपने योग्य गंथियों को पकड़ कर उनमें प्राण डाला जाता है । जब वह प्राणवान हो जाती हैं तब उनका सीधा आक्रमण साधक पर होता है, यदि साधक अपनी आत्मिक बलिष्ठता द्वारा उस आक्रमण को सह गया, उससे परास्त न हुआ तो प्रतिहत होकर वह ग्रन्थि उसके वशवर्ती हो जाती है और चौबीसों घण्टे के साथी आज्ञाकारी सेवक की तरह काम करती है । निर्जन, श्मशान आदि भयंकर प्रदेशों में ऐसी रोमांचकारी विधि-व्यवस्था का प्रयोग करना पड़ता है, जिससे साधारण मनुष्य का कलेजा दहज जाता है । उस समय में ऐसे घोर अनुभव होते हैं, जिनमें डर जाने, बीमार पड़ जाने, पागल हो जाने या मृत्यु के मुखी में चले जाने की आशंका रहती है । ऐसी साधनाएँ हर कोई नहीं कर सकता कोई करले तो सिद्धि मिलने पर उस अदृश्य शक्तियों को साध रखने की जो कष्टसाध्य शर्त्तें होती हैं उन्हें पालन नहीं कर सकता । यही कारण है, जो साहस करते हैं उसमें से कोई विरले ही साहस करते हैं और जो सफल होते हैं उनमें से कोई विरले ही अन्तकाल तक उनसे समुचित लाभ उठा पाते हैं । यहाँ तंत्र साधना की किन्हीं विधियों को बताने का हमारा कोई इरादा नहीं है, क्योंकि उन गुप्त रहस्यों को जन-साधारण के लिए प्रकाशित कर देने का अर्थ है-बालकों के क्रीड़ा-स्थल में बारूद बिखेर देना, जिसमें से विचारे क्रीड़ा-कौतुक करने के उपलक्ष में सर्वनाश का उपहार प्राप्त करें । यह परंपरा तो अधिकार और अधिकारी के आधार पर एक-दूसरे को सिखाने की रही है । हमें स्वयं इस मार्ग पर प्राणघातक खतरों में होकर गुजरने का कडुआ अनुभव है, फिर भोले-भाले पाठकों को कोई खतरा उपस्थित कर देने के लिए उस शिक्षण विधि को लिख मारने की भूल हम कैसे कर सकते हैं? इन पंक्तियों में तो हमारा इरादा केवल यह बताने का है कि प्रकृति की परमाणुमयी सावित्री शक्ति पर भी आत्मिक विद्युत शक्ति द्वारा भूतकाल में अधिकार प्राप्त किया जा चुका है और आगे भी प्राप्त किया जा सकता है । यह ठीक है कि आज ऐसे व्यक्ति दिखाई नहीं पड़ते जो प्रत्यक्ष रूप से यह प्रमाण दे सकें कि किस प्रकार अमुक यंत्र का काम, अन्दर की बिजली के अमुक प्रकार हो सकता है । यह विद्या विगत दो हजार वर्षों से धीरे-धीरे गुप्त होती चली आई है और अब तो उस विद्या के ऐसे ज्ञान ढूढ़े नहीं मिलते । वैसे तो वैज्ञानिक यंत्रों के अनेक आविष्कारों के कारण उतनी आवश्यकता आज नहीं रही है , फिर भी उस महाविद्या का प्रकाश तो जारी रहना चाहिए । यह आज के तांत्रिकों का कर्तव्य है कि इस लुप्त प्रायः सावित्री विद्या को अथक परिश्रम द्वारा पुनर्जीवन करके भारतीय विज्ञान की महत्ता संसार के सामने प्रतिष्ठित करें । आज के तांत्रिक जितना कर लेते हें यद्यपि वह भी कम महत्वपूर्ण और कम आश्चर्यजनक नहीं है, फिर भी इस मार्ग के पथिकों को तब तक चैन नहीं लेना चाहिए जब तक कि परमाणु प्रकृति पर आत्म-शक्ति द्वारा अधिकार करने के विज्ञान में पूर्वकाल जैसी सफलता प्राप्त न हो जाय । वर्तमान काल में तंत्र का जितना अंश प्रचलित, ज्ञात एवं क्रियान्वित है, उसकी चर्चा ऊपर दी जा चुकी है । मनुष्यों पर अदृश्य प्रकार से भला या बुरा प्रभाव डालना आज के तंत्र विज्ञान की मर्यादा है । वस्तुओं का रूपान्तर, परिवर्तन, प्रकटीकरण, लोप एवं विशेष जाति के परमाणुओं का एकीकरण करके उनके शक्तिशाली प्रयोग का भाग आज प्रायःलुप्त है । चैतन्य ग्रन्थियों का जागरण और उनको वशवर्ती बनाकर आज्ञा पालने कराने में विक्रमादित्य के समान साधक तो आज नहीं हैं, पर किन्हीं अंशों में इस विद्या का अस्तित्व मौजूद अवश्य है । तंत्र शास्त्र में अनेक मंत्र है पर उन सब मंत्रों का कार्य गायत्री से भी हो सकता है । गायत्री की, संकल्प-शक्ति की साधना ही सर्व हितकारी, सर्व सुलभ और सर्व मंगलमय है । परमाणुमयी मंत्र प्रधान, वाममार्गी सावित्री विद्या का अनुसंधान वैज्ञानिकों द्वारा प्रयोगशालाओं में भी हो रहा है । उसके आधार पर अगणित आविष्कार हो रहे हैं और प्रकृति के ऐसे रहस्य मालूम होते जा रहे हैं जिनके द्वारा राक्षस राज रावण को लज्जित कर देने वाले शास्त्रों एवं यंत्रों का स्वामित्व प्राप्त होता जाता है । प्राचीन काल में हमारे दूरदर्शी ऋषि जानते थे कि सावित्री की शोध, उपासना सीमित ही होना चाहिए अन्यथा मूर्ख मनुष्य उसके दुरुपयोग से प्रलय ही उपस्थित कर देगा । आज अणु बम, हाइड्रोजन बम, कीटाणु बम, मारक किरण आदि कितने पदार्थ सृष्टि में प्रलय उपस्थित कर देने की चुनौती दे रहे हैं । इस खतरे से परिचित होने के कारण उन्होंने भौतिक विज्ञान की अधिक शोधक न करके, सावित्री उपासना की उपेक्षा करके, गायत्री की आत्म शक्ति की, आराधना करना ही उचित समझा था, क्योंकि इसके द्वारा प्रत्येक कदम पर आनंद की ही वृद्धि होती जाती है । सावित्री गायत्री का ही एक भाग है । जैसे किसी ग्रह दशा में, छोटी-छोटी अन्तर्दशा बर्तती जाती हैं, वैसे ही गायत्री के अध्यात्म विज्ञान में एक शाखा सावित्री की है जिसके आधार पर आत्म शक्ति द्वारा पदार्थों को इच्छानुकूल ढंग से आकर्षित, परिवर्तन, परिवर्द्धित, विनिर्मित एवं छिन्न-भिन्न किया जा सकता है । मंत्र बल से अनेक प्रकार की चमत्कारी ऋषि-सिद्धियों की उपलब्धि इसी रीति से होती है । प्राचीन काल में अनेकों दिव्य अस्त्र-शस्त्र मंत्र बल से संचालित होते थे । वर्षा, कुहरा, अग्निकाण्ड उपस्थित किए जाते थे । पुष्पक विमान, उड़ने वाले रथ, विचार संचालन द्वारा दूर देशों के व्यक्तियों का आपस में बातें करना, शरीर बदल लेना, मनुष्य से पशु-पक्षी से मनुष्य बन जाना, अदृश्य हो जाना, वायु में बाते करना, पानी पर चलना, जैसे अनेकों सिद्धियों गायत्री शक्ति द्वारा सावित्री पर प्रभुत्व प्राप्त करने की साधना द्वारा होती थी । उस विद्या को 'तंत्र' कहते थे । आज तंत्र का बड़ा महत्वपूर्ण भाग लुप्त हो चला है । फिर भी मारण, मोहन, उच्चाटन आदि विनाशकारी करतूतें करते हुए आज भी कितने ही तांत्रिक देखे जा सकते हैं । तंत्र भी उन्हीं खतरों से भरा है जिनसे कि भौतिक विज्ञान के अमर्यादित अनुसंधान । इसलिए त्रिकालदर्शी ऋषियों ने पग-पग पर तंत्र की ऋषि-सिद्धियों की निन्दा की है । उस मार्ग पर चलने के लिए मनाही की है । जिन्हें कुछ प्राप्त है उन्हें उसका प्रदर्शन न करने का आदेश दिया है । कठोर प्रतिबन्ध लगाया है । तत्त्व ज्ञानी ऋषि जानते थे कि मानव जीवन के लिए परम उपयोगी, अपार आनन्ददायक, अनन्त सुख-शांति देने वाली वस्तु केवल मात्र विशुद्ध विद्या ही है । इसलिए उन्होंने गायत्री उपासना के लिए साधारण को प्रोत्साति किया है ।