Wednesday 2 July 2014

निर्वाण समाध



ॐ गुरु जी सतगुरु खोजोमन कर चंगा इस विधि रहना उत्तम संगा। सहजे संगम आवे हाथ श्री गुरु उवाच निर्वाण समाध॥

ॐ गुरु जी कंचन काया ज्ञान रतन सतगुरु खोजोलाख यतन। हस्तीमनु राखो डाट श्री गुरु उवाच निर्वाण समाध॥

ॐ गुरु जी बोलन चालन बहु जंजाला गुरु वचनी-वचनी योग रसाला। नियम धर्म दोराखो पास श्रीगुरु उवाच निर्वाण समाध॥

ॐ गुरु जी निरे निरंतर सिद्धों का वासाइच्छा भोजन परम निवासा। काम क्रोध अहंकार निवार श्री गुरु उवाच निर्वाण समाध॥

ॐ गुरु जी पहिले छोड़ो वाद विवाद पीछे छोड़ो जिभ्याका स्वाद। त्यागोहर्ष और विषाद श्री गुरु उवाच निर्वाण समाध॥

ॐ गुरु जी आलस निद्रा छींक जंभा तृष्णा डायन बन जग को खा। आकुल व्याकुल बहु जंजाल श्रीगुरु उवाच निर्वाण समाध॥

ॐ गुरु जी आलस तोड़ोनिद्रा छोड़ो गुरु चरण में इच्छा जोड़ो। जिह्वा इंद्री राखो डाट श्री गुरु उवाच निर्वाण समाध॥

ॐ गुरु जी योग दामोदर भगवाकरोज्योतिनाथ का दर्शन करो। जत सत दो राखोपास श्री गुरु उवाच निर्वाण समाध॥

ॐ गुरु जी अगम अगोचर कंठीबंध द्वादस वायु खेले चौसठ फंद। अगम पुजारीखांडे की धार श्रीगुरु उवाच निर्वाण समाध॥

ॐ गुरु जी डेरे डूंगरे चढ़ नहीं मारना राजे द्वारे पर पग नहीं धरना छोड़ो राजा रंग की आस श्री गुरु उवाच निर्वाण समाध॥

ॐ गुरु जी जड़ी बूटी कीबहु विस्तारा परम जोत का अंत न पारा। जड़ी बूटी से कारज सरे वैद्य धवंतरी काहे को मरे॥

जड़ी बूटी सोचो मत को पहले रांड वैद्य की हो। जड़ी बूटी वैद्यों की आस श्री गुरु उवाच निर्वाण समाध॥

ॐ गुरु जी वेद शास्त्र को बहु विस्तारापरम जोत का अंत न पारा। पढ़े-लिखे से अमर होय ब्रह्मा परले काहे को होय। वेद शास्त्र ब्राह्मणों कीआस श्री गुरु उवाच निर्वाण समाध॥

ॐ गुरु जी कनक कामनी दोनों त्यागो अन्न भिक्षा पांच घर मांगो। छोड़ो माया मोह की आस श्री गुरु उवाच निर्वाण समाध॥

ॐ गुरु जी सोने चांदी का बहु विस्तारापरम जोत का अंत न पारा। सोना चांदी से कारज सरे भूपति चक्रवर्ती राजे राज काहे को तजे। सोना चांदी जगत की आस श्री गुरु उवाच निर्वाण समाध॥

ॐ गुरु जी ज्योतिरूप एक ओंकारा सतगुरु खोजोहोवे निस्तारा। गुरु वचनों के रहना पास श्री गुरु उवाच निर्वाण समाध॥

ॐ गुरु जी गगनमंडल में गुरु जी का वासा जहां पर हंसा करे निवासा। पांच तत्त्व ले रमना साथ श्री गुरु उवाच निर्वाण समाध॥

ॐ गुरु जी उड़ान योगी मृड़ान कायामरे न योगीधरे न औतार। सत्य सत्य भाषंते श्री शंभु जती गुरु गोरक्ष नाथ निर्वाण समाध॥

नाथ जीगुरु जी आदेश आदेश आदेश 

महात्मा किसे कहते है? महात्मा शब्द अर्थ और का प्रयोग: -


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'महात्मा' शब्द का अर्थ है 'महान आत्मा' यानी सबका आत्मा ही सका आत्मा है | इस सिद्धान्त से 'महात्मा' शब्द वस्तुत: एक परमेश्वर के लिए ही शोभा देता है, क्योकि सबके आत्मा होने के कारण वे ही महात्मा है | श्रीभगवदगीता में भगवान स्वयं कहते है | 'हे अर्जुन! मैं सब भूत प्राणियोंके ह्रदय में स्तिथ सबका आत्मा हूँ | 'परन्तु जो पुरुष भगवान को तत्व से जानता है अर्थात भगवान को प्राप्त हो जाता है वह भी महात्मा ही है, अवश्य ही ऐसे महात्माओ का मिलना बहुत ही दुर्लभ है | गीता में भगवान ने कहा है -
'हजारों मनुष्यों में कोई ही मेरी प्राप्ति के लिये यत्न करता है और उन यत्न करने वाले योगिओं में कोई ही पुरुष (मेरे परायण हुआ) मुझको तत्व से जानता है |
जो भगवान को प्राप्त हो जाता है, उसके लिए सम्पूर्ण भूतों का आत्मा उसी का आत्मा हो जाता है | क्योकि परमात्मा सबके आत्मा है और वह भक्त परमात्मा में स्तिथ है | इसलिए सबका आत्मा ही उसका आत्मा है | इसके सिवाय 'सर्वभूतात्मभूतात्मा' (गीता 5 / 7) यह विशेषण भी उसी के लिए आया है | वह पुरुष सम्पूर्ण भूत - प्राणियों को अपने आत्मा में और आत्मा को सम्पूर्ण भूत - प्राणियों में देखता है | उसके ज्ञान में सम्पूर्ण भूत - प्राणियोंके और अपने आत्मा में कोई भेद - भाव नहीं रहता | 'जो समस्त भूतों को अपने आत्मा में और समस्त भूतोमें अपने आत्मा को ही देखता है, वह फिर किसी से घ्रणा नहीं करता |' (इश 0 6)
सर्वर्त्र ही उसकी आत्म - दृष्टी हो जाती है, अथवा यों कहिये की उसकी दृष्टी में एक विज्ञानानन्ध्घन वासुदेव से भिन्न और कुछ भी नहीं रहता | ऐसे ही महात्माओ की प्रशंसामें भगवान ने कहा है, 'सब कुछ वासुदेव ही है, इस प्रकार (जाननेवाला) महात्मा दुर्लभ है अति | '
खेद की बात है की आजकल लोग स्वार्थवश किसी साधारण - से - साधारण मनुष्य को भी महात्मा कहने लगे है | 'महात्मा' या 'भगवान' शब्द का प्रयोग वस्तुत: बहुत सोच समझ कर किया जाना चाहिये | वास्तव में महात्मा तो वे ही है जिनमे महात्माओ के लक्षण और आचरण हों | ऐसे महात्मा का मिलना बहुत दुर्लभ है, यदि मिल भी जाए तो उनका पहचानना तो असम्भव सा ही है, 'महत्सगस्तु दुर्लभोअगम्योअमोघस्च' (नारद सूत्र 39) 'महात्मा का संग दुर्लभ, दुर्गम और अमोघ है |'
साधारणतया उनकी यही पहचान सुनी जाती है की उनका संग अमोघ होने के कारण उनके दर्शन, भाषण और आचरणों से मनुष्य पर बड़ा भरी प्रभव पडता है | ईश्वर - स्मृति, विषयों से वैराग्य, सत्य, न्याय और सदाचार में प्रीति, चित में प्रसन्ता तथा शान्ति आदि सद्गुणों का स्वाभाविक ही प्रादुर्भाव हो जाता है | इतने पर भी बाहरी आचरणों से तो यथार्थ महात्माओ का पहचानना बहुत ही कठिन है, क्योकि पाखण्डी मनुष्य भी लोगों को ठगने के लिए महात्माओ - जैसा स्वांग रच सकता है | इसलिए परमात्मा की पूर्ण दया से ही महात्मा मिलते है और उनकी दया से ही उनको पहचाना भी जा सकता है |
सर्वत्र सम दृष्टि होने के कारण राग - द्वेषका अत्यन्त अभाव हो जाता है, इसलिए उनको प्रिय और अप्रिय की प्राप्ति में हर्ष - शोक नहीं होता | सम्पूर्ण भूतों में आत्म - बुद्धि होने के कारण अपने आत्मा के सद्र्श ही उनका प्रेम हो जाता है, इससे अपने और दुसरे के सुख - दुःख में उनकी समबुद्धि हो जाती है और इसलिए वे सम्पूर्ण भूतो के हित में स्वाभाविक ही रत होते है | उनका अंत: करण अति पवित्र हो जाने के कारण उनके ह्रदय में भय, शोक, उद्वेग, काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि दोषों का अत्यन्त अभाव हो जाता है | देह में अहंकार का अभाव हो जाने से मान, बड़ाई और प्रतिष्ठा की इच्छा तो उनमे गन्ध मात्र भी नहीं रहती | शांति, सरलता, समता, सुह्रिद्ता, शीतलता, सन्तोष, उदारता और दया के तो वे अनन्त समुद्र होते है | इसलिए उनका मन सर्वदा पप्रफुल्ल्ति, प्रेम और आनन्द में मग्न और सर्वथा शान्त रहता है |
महात्माओं के आचरण: -
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देखने में उनके बहुत से आचरण दैवी सम्पदावाले सात्विक पुरुषों - से होते है, परन्तु सूक्ष्म विचार करनेपर दैवी सम्पदावाले सात्विक पुरुषोंकी अपेक्षा उनकी अवस्था और उनके आचरण कहीं महत्वपूर्ण होते है | सत्य स्वरुप में स्थित होने के कारण उनका प्रत्येक आचरण सदाचार समझा जाता है | उनके आचरण में असत्य के लिए कोई स्थान ही नहीं रह जाता | उनका व्यक्तिगत किन्चित भी स्वार्थ न रहने के कारण उनके आचरण में किसी भी दोष का प्रवेश नहीं हो सकता, इसलिए उनके सम्पूर्ण आचरण दिव्य समझे जाते है |
वे सम्पूर्ण भूतों को अभयदानं देते हुए ही विचरते है | वे किसी के मन में उद्वेग करनेवाला कोई आचरण नहीं करते | सर्वर्त्र परमेश्वर के स्वरुप को देखते हुए स्वाभाविक ही तन, मन और धन को सम्पूर्ण भूतों के हित में लगाये रहते है | उनके द्वारा झूठ , कपट, व्यभिचार, चोरी और दुराचार तो हो ही नहीं सकते | याग, दान, तप, सेवा आदि जो उत्तम कर्म होते है, उनमे भी अहंकार का अभाव होने के कारण आसक्ति, इच्छा, अभिमान और वासना आदि का नामो - निशान भी नहीं रहता | स्वार्थ का त्याग होने के कारण उनके वचन और आचरण का लोगों पर अद्भूत प्रभाव पढता है | उनके आचरण लोगों के लिए अत्यन्त हितकर और प्रिय होने से लोग सहज ही उनका अनुकरण करते है |
श्री गीता जी में है भगवान कहते 'श्रेष्ठ पुरुष जो - जो आचरण करते है, दुसरे लोग भी उसी अनुसार बरतते के है, वह जो कुछ प्रमाण कर देते है, लोग भी उसी अनुसार बरतते के है |'
उनका प्रत्येक आचरण सत्य, न्याय और ज्ञान से पूर्ण होता है, किसी समय उनका कोई आचरण बाह्यद्रष्टि से भ्रमवश लोगों को अहितकर या क्रोधयुक्त मालूम हो सकता है, किन्तु विचारपूर्वक तत्वदृष्टी से देखने पर वस्तुत: उस आचरण में भी दया और प्रेम ही भरा हुआ मिलता है और परिणाम में उससे लोगो का परम हित ही होता है | उनमे अहंता - ममता का अभाव होने के कारण उनका वर्ताव सबके साथ पक्षपातरहित, प्रेममय, और शुद्ध होता है | प्रिय और अप्रिय में उनकी समद्रष्टि होती है | वे भक्तराज प्रह्लाद की भाँती आपतिकाल में भी सत्य, धर्म और न्यायके पक्ष पर ही दृढ रहते है | कोई भी स्वार्थ या भय उन्हें सत्य से नहीं डिगा सकता |
एक समय केशिनी - नाम्नी कन्या को देखकर प्रह्लाद - पुत्र विरोचन और अंगिरा - पुत्र सुधन्वा उनके साथ विवाह करने के लिए परस्पर विवाद करने लगे | कन्या ने कहा की 'तुम दोनों में जो श्रेष्ठ होगा, मैं उसी के साथ विवाह करुँगी |' इसपर वे दोनों ही अपने को श्रेष्ठ बतलाने लगे | अंत में वे परस्पर प्राणों की बाजी लगा कर इस विषय में न्याय करने के लिए प्रह्लाद जी के पास गए | प्रह्लाद जी ने पुत्र के अपेक्षा धर्म को श्रेष्ठ समझकर यथोचित न्याय करते हुए अपने पुत्र विरोचन से कहा की 'सुधन्वा तुझसे श्रेष्ठ है, इसके पिता अंगिरा मुझसे श्रेष्ठ है और इस सुधन्वा की माता तेरी माता से श्रेष्ठ है, इसलिए यह सुधन्वा तेरे प्राणों का स्वामी है |' यह न्याय सुनकर सुधन्वा मुग्ध हो गया और उसने कहा, 'हे प्रह्लाद! पुत्र - प्रेम को त्याग कर तुम धर्म पर अटल रहे, इसलिए तुम्हारा यह पुत्र सौ वर्षो तक जीवित रहे | '(महा सभा 0 0 68 | 76-77)
महात्मा पुरुषों का मन और इन्द्रियाँ जीती हुई होने के कारण न्यायविरुद्ध विषयों में तो उनकी कभी प्रवृति नहीं होती | वस्तुत: ऐसे महातमाओ की दृष्टीमें एक सच्चिदानंदघन वासुदेवसे भिन्न कुछ नहीं होने के कारण यह सब भी लीलामात्र ही है, तथापि लोकद्रष्टिमें भी उनके मन, वाणी , शरीर से होने वाले आचरण परम पवित्र और लोकहितकर ही होते है | कामना, आसक्ति और अभिमान से रहित होने के कारण उनके मन और इद्रियों द्वारा किया हुआ कोई भी कर्म अपवित्र या लोकहानिकारक नहीं हो सकता | इसी से वे संसार में प्रमाणस्वरुप माने जाते है |
महात्माओं की महिमा: -
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ऐसे महापुरुषों की महिमा का कौन बखान कर सकता है? श्रुति, स्मृति, पुराण, इतिहास, सन्तो की वाणीऔर आधुनिक महात्माओं के वचन इनकी महिमा भरे पड़े से है |
गोस्वामी तुलसीदासजी ने तो यहाँतक कह दिया है की को भगवान प्राप्त हुए भगवान के दास भगवान से भी बढ़कर है |
मोरें मन प्रभु अस बिस्वासा | राम राम ते अधिक कर दासा | |
राम सिन्धु घन सज्जन पीरा | चन्दन तरु हरी सन्त समीरा | |
सो कुल धन्य उमा सुनु जगत पूज्य सुपुनीत |
श्री रघुबीर परायन जेहि नर उपज बिनीत | |
ऐसे महात्मा जहाँ विचरते है वहाँ का वायुमंडल पवित्र हो जाता है | श्रीनारद जी कहते है 'वे अपनें प्रभाव से तीर्थों को (पवित्र करके) तीर्थ बनाते है, कर्म को सुकर्म बनाते है और शास्त्रों को शत - शास्त्र बना देते है |' वे जहाँ रहते है, वाही स्थान तीर्थ बन जाता है या उनके रहने से तीर्थ का तीर्थत्व स्थायी हो जाता है, वे को कर्म करते है, वे ही सुकर्म बन जाते है, उनकी वाणी ही शास्त्र है अथवा वे जिस शास्त्र को अपनाते है, वही सत - शास्त्र समझा जाता है |
शास्त्रों में है कहा, 'जिसका चित अपार संवित सुखसागर परब्रह्म में है लीन, उसके जन्म कुल पवित्र होता से है, उसकी जननी है और कृतार्थ होती पृथ्वी पुण्यवती हो जाती है |'
धर्मराज युधिस्टर ने भक्तराज विदुरजी से कहा था 'हे स्वामिन! आप सरीखे भगवदभक्त स्वयं तीर्थ रूप है | (पापियों के द्वारा कलुषित हुए) तीर्थों को आप लोग अपने ह्रदय में स्तिथ भगवान श्रीगदाधरके प्रभाव से पुन: तीर्थतत्व प्राप्त करा देते है | '(श्रीमद्भागवत 1 | 13 | 10)
महातामों का तो कहना ही क्या है, उनकी आज्ञा पालन करने वाले मनुष्य भी परम पदको प्राप्त हो जाते है | भगवान स्वयं भी कहते है की जो किसी प्रकार का साधन न जानता हो वह भी महान पुरुषों के पास जाकर उनके कहे अनुसार चलने से मुक्त हो जाता है | 'परन्तु दुसरे इस प्रकार के तत्वसे न जानते हुए दूसरों से अर्थात तत्व को जानने वाले महापुरुषों से सुनकर ही उपासना करते है | वे सुनने के परायण हुए भी मृत्युरूप संसार - सागर से निसंदेह तर जाते है |
बनने के महात्मा उपाय: -
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इसका वास्तविक उपाय तो परमेश्वर की अनन्य - शरण होना ही है, क्योकि परमेश्वर की कृपा से ही यह पद मिलता है | श्रीम्ध्भ्गवतगीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है, 'हे भारत! सब प्रकार से उस परमेश्वर की ही अनन्य शरण को प्राप्त हो, उस परमात्मा की दया से ही तू परमशान्ति और सनातन परमधाम को प्राप्त होगा | '(18 | 62) परन्तु इसके लिए ऋषियों ने और भी उपाय बतलाये है | जैसे मनु महाराज ने धर्म के दस लक्षण कहे है 'घृति, क्षमा, मन का निग्रह, अस्तेय, सौच, इन्द्रियनिग्रह, बुद्धि, विद्या, सत्य और अक्रोध - ये धर्म के दस लक्षण है |'
महर्षि पतंजलि ने अंत: करणकी शुद्धिके लिए (जो की आत्मसाक्षात्कार के लिए अत्यन्त आवश्यक है) एवं मन को निरोध करने के लिए बहुत - से उपाय बतलाये है | जैसे 'सुखियोंके परति मैत्री, दुखियों के प्रति करुणा, पुन्यमाओं को देख कर प्रसन्नता और पापियों के प्रति उपेक्षा की भावना से चित स्थिर होता है | '(1 | 33)
'अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रहचर्य, अपरिग्रह - ये पाँच यम है और सौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और इस्वरप्रणिधान - ये पाँच नियम है |' (2 | 30) (2 | 32)
और भी अनेकों ऋषियों ने महात्मा बननेके यानी परमात्माके पद को प्राप्त होनेके लिए सद्भाव और सदाचार अनेक उपाय बतलाये है |
भगवान ने श्रीमध्भगवतगीता के तेरहवेअध्याय मेंन श्लोक 7 से 11 तक 'ज्ञान' के नाम से और सोलहवे अध्याय में श्लोक 1-2-3 में 'दैवी सम्पदा' के नाम से एवं सत्रहवे अध्याय में श्लोक 14-15-16 में 'तप' के नाम से सदाचार और सद्गुणों का वर्णन किया है |
यह सब होने पर भी महर्षि पतंजलि, शुकदेव, भीष्म, वाल्मीकि, तुलसीदास, सूरदास यहांतक की स्वयं भगवान ने भी शरणागति को ही बहुत सहज और सुगम उपाय बताया है | अनन्य शक्ति, ईश्वर - प्रणिधान, अव्यभिचारिणी भक्ति और परम प्रेम आदि उसी के नाम है |
'हे पार्थ! जो पुरुष मुझमे अनन्य चित से स्तिथ हुआ सदा ही निरन्तर मुझको स्मरण करता है उस मुझमे युक्त हुए योगी के लिए मैं सुलभ हूँ अर्थात सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ | '(गीता 8 | 14)
'जो एक बार भी मेरे शरण होकर' मैं तेरा हूँ 'ऐसा कह देता है, मैं उसे सर्व भूतो से अभय कर देता हूँ, यह मेरा व्रत है |' (वा रा 0 0 6 | 18 | 33)
इसलिए पाठक सज्जनों से प्रार्थना है की ज्ञानी, महात्मा और भक्त बनने के लिए ज्ञान और आनन्द के भण्डार सत्यस्वरूप उस परमात्मा की ही अनन्य शरण ली चाहिये | फिर उपर्युक्त सदाचार और सद्भाव तो अनायास ही प्राप्त हो जाते है |
भगवान की शरण ग्रहण करने पर उनकी दयासे आप ही सारे विघ्नों का नाश होकर भक्त को भगवतप्राप्ति हो जाती है | योगदर्शन में कहा है, 'उसका वाचक प्रणव (ओंकार) है |' 'उसका जप और उसके अर्थ की भावना करनी चाहिये |' 'इससे अन्तरात्मा की प्राप्ति और विघ्नों का अभाव भी होता हैं | '
भगवत - शरणागति के बिना इस कलिकाल में संसार - सागर से पार होना अत्यन्त ही कठिन है |
कलिजुग केवल नाम अधारा | सुमिर सुमिर भव उतरही पारा |
कलिजुग सम जुग आन जो नर नहीं कर बिस्वास |
गाई राम गुनगन बिमल भाव तर बिनही प्रयास | | |
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेनामेव केवलम |
कलो नास्तःयेव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा | |
दैवी हेशाम गुणमयी मम माया दुरत्यया |
मामेव ये प्रप्ध्यनते मायामेता तरन्ति ते | |
'कलियुग में हरी का नाम, हरी का नाम, केवल हरी का नाम ही (उद्धार करता) है, इसके सिवा अन्य उपाय नहीं है, नहीं है, नहीं है |'
'क्योकि यह अलोकिक ( अति अद्भुत) त्रिगुणमयी मेरी योगमाया बड़ी दुस्तर है, जो पुरुष निरन्तर मुझको ही भजते है, वे इस माया को उलंघन कर जाते है यानि संसार से तर जाते है |
हरी माया कृत दोष गुण बिनु हरी भजन ऑनलाइनफ़्लैशखेलों जाही |
भजीअ राम तजि काम सब अस बिचारी मन माहि |
महात्मा बनने के मुख्य मार्ग में विघ्न: -
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ज्ञानी, महात्मा और भक्त कहलाने तथा बनने के लिए तो प्राय: सभी इच्छा करते है, परन्तु उसके लिए सच्चे ह्रदय से साधन करने वाले लोग बहुत कम है | साधन करने वालों में भी परमात्मा के निकट कोई ही पहुचता है; क्योकि राह में ऐसी बहुत सी विपद - जनक घाटियाँ आती है जिनमे फसकर साधक गिर जाते है | उन घाटियों में 'कन्चन; और 'कामिनी' ये दो घाटियाँ बहुत कठिन ही है, परन्तु इनसे भी कठिन तीसरी घाटी मान - बड़ाई की है और ईर्ष्या | किसी कवी ने कहा है
कंच्चन तजना सहज है, सहज त्रिया का नेह |
मान बड़ाई ईर्ष्या, दुर्लभ तजना येह | |
इन तीनो में सबसे कठिन है बड़ाई | इसी को कीर्ति, प्रसंसा, लोकेष्णा आदि कहते है | शास्त्र में जो तीन प्रकार की त्रष्णा (पुत्रेष्णा, लोकेष्णा और वितेश्ना) बताई गयी है | उन तीनो में लोकेष्णा ही सबसे बलवान है | इसी लोकेष्णा के लिए मनुष्य धन, धाम, पुत्र, स्त्री और प्राणों का भी त्याग करने के लिए तैयार हो जाता है |
जिस मनुष्य ने संसार में मान - बड़ाई और प्रतिष्ठा का त्याग कर दिया, वही महात्मा है और वही देवता और ऋषियों द्वारा भी पूजनीय है | साधू और महात्मा तो बहुत लोग कहलाते है किन्तु उनमे मान - बड़ाई और प्रतिष्ठा का त्याग करने वाला कोई विरला ही होता है | ऐसे महात्माओं की खोज करने वाले भाइयों को इस विषय का कुछ अनुभव भी होगा |
हम लोग पहले जब किसी किसी अच्छे पुरुष का नाम सुनते है तो उनमे श्रधा होती है पर उनके पास जाने पर जब हम उनमे मान - बड़ाई, प्रतिष्ठा दिखलाई देती है, तब उन पर हमारी वैसी श्रद्धा नहीं ठहरती जैसी उनके गुण सुनने के समय हुई थी | यदपि अच्छे पुरुषों में किसी प्रकार भी दोषद्र्स्टी करना हमारी भूल है, परन्तु स्वभाव दोष से ऐसी वृतियाँ होती हुई प्राय: देखि जाती है और ऐसा होना बिलकुल निराधार भी नहीं है | क्योकि वास्तव में एक ईश्वर के सिवा बड़े - से - बड़े गुणवान पुरुषों में भी दोष का कुछ मिश्रण रहता ही है | जहाँ बड़ाई का दोष आया की झूठ, कपट और दम्भ को स्थान मिल जाता है तो अन्यान्य दोषों के आने को सुगम मार्ग मिल जाता है | यह कीर्ति रूप दोष देखने में छोटा सा है परन्तु यह केवल महातामो को छोड़कर एनी अच्छे - से - अच्छे पुरुषों में भी सूक्ष्म और गुप्तरूप से रहता है | यह साधक को साधन पथ से गिरा कर उसका मूलोछेदन कर डालता है |
अच्छे पुरुष बड़ाई हो हानिकर समझकर विचारदृष्टी से उसको अपने में रखना नहीं चाहते और प्राप्त होनेपर उसका त्याग भी करना चाहते है | तो भी यह सहज में उनका पिण्ड नहीं छोडती | इसका शीघ्र नाश तो तभी होता है जब की यह ह्रदयसे बुरी लगने लगे और इसके प्राप्त होने पर यथार्थ में दुःख और घ्रणा हो | साधक के लिए साधन में विघ्न डालनेवाली यह मायाकी मोहिनी मूर्ती है, जैसे चुम्बक लोहे को, स्त्री कामी पुरुष को, धन लोभी पुरुष को आकर्षण करता है, यह उससे भी बढ्कर साधक को संसार समुद्र की और खीच कर उसे इसमें बरबस डुबो देती है | अतएव साधक को सबसे अधिक बड़ाई से ही डरना चाहिये | जो मनुष्य बड़ाई को जीत लेता है वह सभी विघ्नों को जीत सकता है |
योगी पुरुष के ध्यान में तो चित की चंचलता और आलस्य ये दो ही महाशत्रु के तुल्य विघ्न करते है | चित में वैराग्य होने पर विषयों में और शरीर में आसक्ति का नाश हो जाता है, इससे उपर्युक्त दोष तो कोई विघ्नं उपस्थित नहीं कर सकते परन्तु बड़ाई एक ऐसा महान दोष है जो इन दोषों के नाश होने पर भी अन्दर छिपा रहता है | अच्छे पुरुष भी जब हम उनके सामने उनकी बड़ाई करते है तो उसे सुनकर विचारदृष्टी से इसको बुरा समझते हुए भी इसकी मोहिनी शक्ति से मोहित हुए - से उस बड़ाई करने वाले के अधीन - से हो जाते है | विचार करने पर मालूम होता है की इस कीर्तिरुपी मोहिनी शक्ति से मोहित न होने वाले वीर करोड़ों में एक ही है |
कीर्तिरुपी मोहिनी शक्ति जिसको नहीं मोह सकती, वही पुरुष धन्य है, वही माया के दासत्व से मुक्त है, वही ईश्वर के समीप है और वही यथार्थ महात्मा है | यह बहुत ही गोपनीय रहस्य की बात है | जिस पर भगवान की पूर्ण दया होती है, या यों कहे की जो भगवान की दया के तत्व को समझ जाता है, वाही इस कीर्तिरूपी दोष पर विजय पा सकता है | इस विघ्न से बचने के लिए प्रत्येक साधक को सदा सावधान रहना चाहिये |

Monday 23 June 2014

भगवे का मन्त्र

सत नमो आदेश। गुरूजी को आदेश।
ऊँ गुरूजी। ऊँ सोहं धुन्धुकारा शिव शक्ति ने मिल किया पसारा, नख चीर भग बनाया-रक्त रूप में भगवा आया।
अनष पुरूष ने धारण किया तब पिछे सिध्दों को दिया।
आवों सिध्दों धरो ध्यान, भगवा, मन्त्र भया प्रमाण इतना भगवा मन्त्र सम्पूर्ण भया।
श्री नाथजी गुरूजी को आदेश।

भगवे का मन्त्र

सत नमो आदेश। गुरूजी को आदेश।
ऊँ गुरूजी। ऊँ सोहं धुन्धुकारा शिव शक्ति ने मिल किया पसारा, नख चीर भग बनाया-रक्त रूप में भगवा आया।
अनष पुरूष ने धारण किया तब पिछे सिध्दों को दिया।
आवों सिध्दों धरो ध्यान, भगवा, मन्त्र भया प्रमाण इतना भगवा मन्त्र सम्पूर्ण भया।
श्री नाथजी गुरूजी को आदेश।

ज्योति जगाने का मन्त्र

सत नमो आदेश। गुरूजी को आदेश।
ऊँ गुरूजी। जोत जोत महाजोत, सकल जोत जगाय, तूमको पूजे सकल संसार ज्योत माता ईश्वरी।
तू मेरी धर्म की माता मैं तेरा धर्म का पूत ऊँ ज्योति पुरूषाय विद्येह महाज्योति पुरूषाय धीमहि तन्नो ज्योति निरंजन प्रचोदयात्॥
अत: धूप प्रज्वलित करें।

धूप लगाने का मन्त्र

सत नमो आदेश। गुरूजी को आदेश। ऊँ गुरूजी। धूप कीजे, धूपीया कीजे वासना कीजे।
जहां धूप तहां वास जहां वास तहां देव जहां देव तहां गुरूदेव जहां गुरूदेव तहां पूजा।
अलख निरंजन ओर नही दूजा निरंजन धूप भया प्रकाशा। प्रात: धूप-संध्या धूप त्रिकाल धूप भया संजोग।
गौ घृत गुग्गल वास, तृप्त हो श्री शम्भुजती गुरू गोरक्षनाथ।
इतना धूप मन्त्र सम्पूर्ण भया नाथजी गुरू जी को आदेश।

आसन मन्त्र

सत नमो आदेश। गुरूजी को आदेश। ऊँ गुरूजी।
ऊँ गुरूजी मन मारू मैदा करू, करू चकनाचूर। पांच महेश्वर आज्ञा करे तो बेठू आसन पूर।
श्री नाथजी गुरूजी को आदेश।

हठ योग

ह = सूर्य
ठ = चन्द्र
।। अवधू मन का शुन्य रूप, पवन का निरालंब आकार
दम कि अलेख दशा, सधिबा दसवें का द्वार ।।
                                                                                                                                                                      आदिनाथ सदाशिव गोरक्षनाथजब से ब्रह्माण्ड है, तब से नाद है, जब से नाद है तब से नाथ सम्प्रदाय है। आदि शिव से आरम्भ होकर अनेक सिध्दों के नाथ योगी शिवरूप देकर सत्य मार्ग प्रकाश ही इस धंर्णा पर सिध्दों की इस अखण्ड परम्परा के अन्तर्गत गुरू अपने शिष्य के इस परम्परा की शक्ति व अधिकार सौंपते आये है। गूरूदृष्टि, स्पर्श, शब्द या संकल्प के द्वारा शिष्य की सुप्त कुण्डलिनी शक्ति को जगा दंते है। गोरख बोध वाणी संग्रह में से श्री गुरू-शिष्य शंका समाधान विषयक एक संवाद, जिसमें गोरखनाथजी अपने गुरूदेव श्री मच्छंद्रनाथजी से मन की जिज्ञासाओं का निवारण करने प्रश्न पूछते हैं और गुरू मच्छंद्रनाथजी नाथ ज्ञान का बोध कराते हैं। मच्छंद्र उवाच के रूप में नाथ-शिक्षा बोध को सरल साहित्य में समाविष्ट किया गया है। पाठकों के लाभार्थ प्रस्तुत है प्राचीन भाव-प्रवचन :- 

साधक को चाहिए कि आरंभिक अवस्था में किसी एक जगह जगत प्रपंची में न रहें और मार्ग, धर्मशाला या किसी वृक्ष की छाया में विश्वास करें। संसार कि संसृति, ममता, अहंत कामना, क्रोध, लोभ, मोहवृत्ति की धारण्ााओं को त्याग कर अपने आत्म तत्व का चितंन करें। कम भोजन तथा निद्र आलस्य को जीत कर रहें। अपने आप को देखना, अनंत अगोचर को विचारना और स्वरूप में वास करना, गुरू नाम सोहं शब्द ले मस्तक मुंडावे तथा ब्रह्मज्ञान को लेकर भवसागर पार उतरना चाहिए। मन का शुन्य रूप है। पवन निराकार आकार है, दम की अलेख दशा और दसवें द्वार की साधना करनी चाहिए। वायु बिना पेड़ के डाल (टहनी) है, मन पक्षी बिना पंखों के, धीरज बिना पाल (किनारे) की नार (नदी) बिना काल रूप नींद है। सूर्य स्वर अमावस, चन्द्र स्वर प्रतिपदा, नाभि स्थान का प्राण रस लेकर गगन स्थान चढ़ता है और दसवें मन अंतर्ध्यान रहता है। आदि का गुरू अनादि है। पृथ्वी का पति आकाश है, ज्ञान का चिंतन में निवास है और शून्य का स्थान परचा (ब्रह्म) है। मन के पर्चे (साधे-वश करने) से माया-मोह की निवृति, पवन वश करने से चन्द्र स्वर सिध्दि तथा ज्ञान सिध्दि से योगबन्ध (जीव-ईश्वर एकता), गुरू की प्रसन्नता से अजर बन्ध (जीवनमुक्ति तत्व) सिध्दि प्राप्त होती है। शरीर में स्वरोदय इडा नाड़ी तथा त्रिकूटी स्थाने दो चन्द्र स्थान, पुष्पों में चैतन्य सामान्य गंध पूर्ण रहती है। दूध में घी अन्तरहित व्याप्त तथा इसी प्रकार शरीर के रोमांश में जीवात्मा की अव्यहृत शक्ति रहती है। अन्तरहित साधना में गगन (दसवें) स्थान चन्द्र (ज्ञान-ध्येय) और निम्न नाभि स्थाने अग्नि-नागनि नाड़ी मे सूर्य का निवास हैं। शब्द का निवास हृदय में है, जो बिन्दू का मूल स्त्रोत केन्द्र है। जीवात्मा पवन-कसौटी से दसवें चढ़कर शान्ति बून्द को प्राप्त करता है। अपनी शक्ति को उलटी कर स्थिर की गई। मल, विक्षेप सहित दु:साध्य भूमि हो तो योग में कठिनाई है। नाभि के उडियान बंध से सिध्द मुर्त तथा साक्षी चेतन ही उनमुनि में रहता है। मूलाधार से नाभि-प्रमाण चक्र सिध्दि से स्वर सिध्दि होकर ज्ञान प्रकार करता है। जालन्धर बंध लगाकर अमृत प्राप्त करना और नाभि स्थाने स्वाधिष्ठान सिध्दि से प्राण वायु का निरोध करना, हृदय स्थाने अनाहत चक्र में जीवात्मा ''सोहं'' ध्वनि का ध्यान और ज्ञानचक्र (आज्ञा) में ज्योति दर्शनोपरांत ब्रह्मरंध्र में विश्राम की प्राप्ति होती है। 

शांभवी योग मुद्रा:
आदिनाथ सदाशिव गोरक्षनाथहमारे गुरूदेव की बताई साधना है जो साधक अभ्यास को गुरू के सानिघ्य में करनी चाहिये जो बता रहा हूं, कुण्डलिनी अवश्य जागृत होगी व तुम्हें अपने स्वयं दिव्य प्रकाश का अनुभव होगा यह गुरू कृपा है। सीधे पैर को खूब दबा कर योनि तथा गुदा की सीवन के बीच में ऐड़ी रखो फिर योनि स्थान के ऊपर दूसरे पैर की ऐड़ी रखो फिर काया शिर तथा ग्रीवा को सम करके शरीर को तोल दो। ब्राह्य इन्द्रियो को बन्द करके ठूठ के समान निश्चल हो जाओं स्थिर दृष्टि से अर्धनेत्र खुले निश्चल रहो यह शांभवी मुद्रा सिध्दासन है। अन्तरमुख मन से हृदय में शिव सिध्द शरण सात बार बोले व सात बार मन ही से सुनो, वृति को हृदय में स्फुरण्ा से एक कर सोऽहम का चिन्तन करों और फिर निश्चल संकल्प विकल्प से रहित स्थित अर्ध नेत्र खुले रहे इस तरह से शांभवी मुद्रा में बैठे रहो। इस प्रकार के सतत चिन्तन अभ्यास से मुलाधार में ब्रह्म रन्ध्र तक सातों चक्र रूपी कपाट स्वत: ही खुल जाते है, जिससे प्रथम अपने आप में परिजातक गहरी सुगन्ध प्रकट होती है फिर स्वयं का दिव्या प्रकाश पुंज अपने अन्दर प्रकट होकर सम्पूर्ण दंह में व्याप्त हो जाता है और फिर अन्दर-बाहर एक सा दिव्या प्रकाश ही प्रकाश अनुभूत होता है। यह जीव ब्रह्मलोक रूपी शिव शक्ति समायोग नामक मोक्ष है, इसके प्रभाव से जीवन मुक्ति रूप स्वाभाविक अवस्था स्वत: ही प्राप्त होती है।
 
 
॥ आदेश आदेश ॥

 
   

नेति-धौति

छ: कर्मो को शरीर-शोधन के लिए नामांकित किया गया है। धौति, वस्ति, नेति, नौलि, त्राटक् और कपालभाति।
1. धौति – धौति तीन प्रकार की होति है – वारिधौति, ब्रह्मदातौन और वासधौति।
 
 
वारि-धौति अर्थात् कॄञ्जर कर्म –
खालि पेट लवण-मिश्रित गुनगुना पानी पीकर छाती हिलाकर वमन की तरह निकाल दिया जाता है। इसको गजकरणी भी कहते है, क्योंकि जैसे हाथी सूंड से जल खींचकर फेंकता है उसी प्रकार इसमे जल पीकर निकाला जाता है। आरम्भ मे पानी का निकालना कठिन होता है। तालु से ऊपर छोटी जिह्वा को सीधे हाथ की दो अंगुलियों से दबाने से पानी निकलने लगता है।

 
 
ब्रह्मदातौन –
सुत की बनी हुई बारीक रस्सी के टुकड़े को अथवा रबर की ट्यूब को लवण ‍मिश्रित गुनगुने पानी को खाली पेट पीने के पश्चासत् बिना दांत लगाये गले से दूध के घूंट के सदृश निगला जाता है, फिर छाती हिलाकर उसको निकाल सारे पानी को वमन के सदृश निकाल दिया जाता है।

 
 
वास-धौति (वस्त्र-धौति) –
धौति लगभग चार अंगुल चौड़ी, लगभग पंद्रह हाथ लंबी, बारीक मलमल जैसे कपडे की होति है। खाली पेट पानी अथवा आरम्भ मे दूध मे भीगी हुई धौति के एक सिरे को अंगुली से हलक मे ले जाकर बिना दांत लगाये शनै:-शनै: दूध के घूंट के सदृश निगला जाता है। आरम्भ मे निगलना कठिन होता है और उल्टी अती है, इसलिए उक घूंट गुनगुने पानी के साथ निगली जाती है। प्रथम दिन एक साथ नहीं निगली जा सकती है। शनै:-शनै: अभ्यास बढाया जाता है। सब धौति निगलने के पश्चांत् कुछ अंश मुंह के बाहर रखना पडता है। इसके बाद नौली को चालन करके धौति तथा सब पिये हुए पानी को अमन के सदृश निकाल दिया जाता है। इन क्रियाओं से कफ और पित्त रोग दूर होकर शरीर शुद्ध और हलका हो जाता है, और मन सुगमता से एकाग्र होने लगता है। घेरण्ड-संतिता मे धौतिकर्म के चार निम्न भेद बतलाये है – (क) अन्तधौति (ख) दन्त-धौति (ग) हृद्धौति (घ) मूलशोधन

 
 
(क) अन्तधौति –
इसके भी चार भेद बतलाये है –

वातसार
वारिंसार
वह्निसार
बहिष्कृत
वातासर अन्तधौति –
मुख को कोए ‍की चोंच के समान करके अर्थात् दोनों ‍होठों ‍को सिकोडकर धीरे-धीरे वायु का पान करें। यहां तक कि पेट मे वायु पूर्णतया भर जाये फिर वायु को पेट के अंदर चारों ओर संचलित करके धीरे-धीरे नासिकापुट के द्वारा निकाल दे। इसे काकी-मुद्रा और काक-प्राणायाम भी कहते है।
फल – ह्रदय, पेट और कण्ठ की व्याधियों का दूर होना, शरीर का शुद्ध और निर्मल होना, क्षुधा की वृद्धि, मन्दाग्नि का नाश, फेंफड़ों का विकास कण्ठ मे सुरीलापन होना। वीर्य के लिए भी लाभदायक बताया गया है।
वारिंसार अन्तधौति –
इसमे मुख द्वारा धीरे-धीरे जल पी कर कण्ठ तक भर लिया जाता है। फिर उदर मे चारों ओर संचलित करके गुदामार्ग द्वारा बाहर निकाल दिया जाता है।
फल - देह का ‍निर्मल होना, कोष्ठबद्धता, तथा पेट के आमादि सब रोगों का दूर होना, शरीर का युद्ध होकर कांतिमान होना बतलाया गया है।

इस क्रिया को शंख-प्रक्षालन भी कहते है। क्योंकि शंख के चक्राकारमार्ग मे पानी डालने से घूमता हुआ जल जिस प्रकार बाहर आ जाता है उसी प्रकार से मुख से जल पीने पर कुछ समय पश्चा त् मल को साथ लेकर अंतडियों को शुद्ध करता हुआ गुदा द्वार से बाहर आ जाता है।
बह्निसार अन्तधौति –
नाभि की गांठ को मेरूपृष्ठ में सौ बार लगायें, अर्थात् उदर को इस प्रकार बार-बार फुलावें-सिकोड़े कि नाभि ग्रन्थि पीठ मे लग जाया करे। इससे उदर के समस्त रोग नष्ट होते ‍है और जठराग्नि प्रदीप्त होती है।
बहिष्कृत अन्तधौति –
कौए की चोंच के सदृश मुख बनाकर इतनी मात्रा मे वायु का पान करे कि पेट भर जाय, फिर उस वायु ‍को डेढ़ घंटे तक (अथवा यथाशक्ति) पेट मे धारण किये रहे। तत्पश्चा त् गुदामार्ग द्वारा बाहर निकाल देना बतलाया गया है। जब तक आधे पहर तक वायु को रोकने का अभ्यास न ‍हो जाये, तब तक इस क्रिया को करने का यत्न न करें, अन्यथा वायु के कुपित होने का भय है।
फल – इससे सब ना‍डियां शुद्ध होति है। जैसी यह क्रिया कठिन है वैसे ही इसका लाभ अकथ्य तथा अगम्य बतलाया गया है।

 
 
(ख) दन्त-धौति –
यह भी चार प्रकार ‍की होती है –
दन्तमूल
जिह्वामूल
कर्णरन्ध्र
कपालरन्ध्र
दन्तमूल धौति –
खैर का रस सूखी मिट्टी अथवा अन्य किसी ओषधि-विशेष से दांतों की जड़ों को अच्छी प्रकार साफ करें।
जिह्वामूल-धौति –
तर्जनी, मध्यमा और अनामिका अंगुलियों को गलें के भीतर डालकर जीभ को जड़ तक बार-बार घिसे। इस प्रकार ‍धीरे-धीरे कफ के दोष को बाहर निकाल दें।
कर्णरन्ध्र-धौति –
तर्जनी और अनामिका अंगुलियों के योग से दोनो कानो के छिद्रों को साफ करें, इससे एक प्रकार का नाद प्रकट होना बतलाया गया है।
कपालरन्ध्र-धौति –
निद्रा से उठने पर, भोजन के अन्त में और सूर्य के अस्त होने पर सिर के गढ़े को दाहिने हाथ के अंगूठे द्वारा प्रतिदिन जल से साफ करें। इससे नाडियां स्वच्छ हो जाति है और दृष्टि दिव्य होती है।

 
 
(ग) हृद्धौति –
इसके तीन भेद है –

दण्ड-धौति
वमन-धौति
वास-धौति
दण्ड-धौति –
केलेंडर के दण्ड, हल्दी के दण्ड, चिकने बेंत के दण्ड अथवा वट वृक्ष की जटा-डाढि को धीरे-धीरे ह्रदयस्थल में प्रविष्ट कर दें, फिर ह्रदय के चारों ओर घुमाकर युक्ति पूर्वक बारि निकाल दे। इससे पित्त, कफ, अकुलाहट आदि विकारी मल बाहर निकल जातें हैं और ह्रदय के सारे रोग नष्ट हो जाते है। इसको भोजन के पूर्व करना चाहिये।
वमन-धौति –
भोन करने के पश्चारत् कण्ठ तक पानी पी कर भर लें और थोडी देर तक उपर की ओर लेकर उस पानी को मुख द्वारा बाहर निकाल दें। पानी कण्ठ के अंदर न जाने पावें। इससे कफ-दोष और पित्त-दोष दूर होते है।
वास-धौति (वस्त्र-धौति) –
लबभब छ: अंगुल चौडा और लगभग अठारहा हाथ का बारीक वस्त्र किंचित् उष्ण (गर्म) जल से भिगोकर गुरू के बताये हुए क्रम से पहिले दिन एक हाथ, दूसरे दिन दो ‍हाथ, तीसरे दिन तीन हाथ अथवा इससे न्यूनाधिक युक्ति पूर्वक अंदर ले जाय, फिर धीरे-धीरे ही बाहर निकाल दे। इसको भोजन के पहिले करना चाहिये। इससे गुल्म, ज्वर, पील्हा, कुष्ठ एवं कफ-पित्त आदि अन्य विकार नष्ट होते है।

 
 
(घ) मूलशोधन (गणेश-क्रिया) –
कच्ची मूली की जड़ से अथवा तर्जनी अंगुली से यन्त्रपूर्वक सावधानी से बार-बार जल द्वारा गुदामार्ग को साफ करें। इसके पश्चा त् घृत या मक्खन उस स्थान पर लगाना अधिक लाभदायक है। इससे उदर रोग का काठिन्य दूर ‍होता है। आजनित एवं अजीर्णजनित रोग उत्पन्न नही होते और शरीर की पुष्टि और कान्ति की वृद्धि होती है। यह जठराग्नि को प्रदीप्त करती है। इससे सब प्रकार के अर्श-रोग तथा वीर्यदोष भी दूर होते है।

 
 
2. वस्ति –
वस्ति मूलाधार के समीप है। इसके साफ करने के कर्म को वस्ति कर्म कहते है। एक चिकनी नली ‍को गुदा में ले जाकर नौलि-कर्म की सहायता से गुदामार्ग द्वारा वस्ति मे जल चढाया और निकाला जाता है। साधारण तया इस क्रिया का कठिन है। उसके स्थान पर एनिमा से काम लिया जा सकता है। इससे आंतों का मल जल के साथ मिकर पतला हो जाता है और शीघ्रतापूर्वक बाहर निकल जाता है।

 



 
॥ आदेश आदेश ॥

अष्टांङग-योग

'योग’ शब्द ‘युज समाधौ’ धातु से बनता है। इसका अर्थ है समाधि।


 

योग क्या है ?
आदिनाथ सदाशिव गोरक्षनाथयोगा अंगों का अभ्यास करते हुए चित्तवृत्ति-निरोधपूर्वक असम्प्रज्ञात समाधि भूमिका में पहुंचकर अपने चैतन्य-स्वरूप या ब्रह्मस्वरूप में स्थित हो जाना ही योग है।
अनेको व्यक्ति ध्यान करने और समाधि लगाने की चेष्टा करते है, परंतु उन्हे सफलता नही मिलती। इसका कारण यह है कि समाधि की सिद्धि के लिए यम-नियमों के पालन की विशेष आवश्यकता है। यम-नियमों के पालन किये बिना ध्यान और समाधि सिद्ध होना अत्यन्त कठिन है। झूठ, कपट, चोरी, व्याभिचार आदि दुराचार की वृत्तियों के नष्ट हुए बिना चित्त का एकाग्र होना कठिन है और चित्त एकाग्र हुए बिना ध्यान और समाधि नही हो सकते। यों तो समाधि की इच्छावाले पुरूषों को योग के आठों ही अंङगों का साधन करना चाहिये, किन्तु यम और नियमों का पालन तो अवश्यमेव करना चाहिये।

जैसे नींव के बिना मकान नही ठहर सकता, ऐसे ही यम-नियमों के पालन किए बिना ध्यान और समाधि सिद्ध होना असम्भव सा है। यम-नियमों में भी जो पुरूष यमों का पालन न करके केवल नियमों का पालन करना चाहता है, उससे नियमों का पालन भी अच्छी प्रकार नही हो सकता।

बुहद्धि।मान् पूरूष नित्य-निरन्तर यमों का पालन करता हुआ ही नियमों का पालन करे, केवल नियमों का नही। जो यमों का पालन न करके, केवल नियमों का करता है। वह साधन पथ से गिर जाता है। इनके पालन से चोरी, जारी, झूठ, कपट, आदि दूराचारों का और काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि दुर्गुणों का नाश होकर, अन्त:करण की पवित्रता हो‍ती है और उसमें उत्तम गुणों का समावेश होकर इष्टदेवता के दर्शन एवं आत्मा ‍का साक्षात्कार भी जो साधक चाहता है वही हो सकता है। परंतु यम-नियमों के पालन किये बिना ध्यान और समाधि की बात तो दूर रही अच्छी प्रकार से प्राणायाम होना भी कठिन है।

ध्यान और समाधि की इच्छा करने वाले साधकों को दोषों का नाश करने के लिए प्रथम यम-नियमों कर पालन करके ही योग के अन्य अंङ्गों का अनुष्ठान करना चाहिये। जो पुरूष योग के आठों अंङ्गों का अच्छी प्रकार से साधन कर लेता है, उसका अन्त:करण पवित्र होने पर ज्ञान की अपार दीप्ति हो जाती है। जिससे उसको इच्छानुसार सिद्धियां प्राप्त हो सकती है और सिद्धियां न चाहने वाला पुरूष तो क्लेश और कर्मों से छूटकर आत्मसाक्षात्कार प्राप्त कर सकता है।



योग के अंङ्ग
योग के आठ अंङ्ग है - यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि


यम
नियम
आसन
प्राणायाम
प्रत्याहार
धारणा
ध्यान
समाधि
१ – यम
‘अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह – इन पांचों का नाम यम है।‘

किसी भूत-प्राणी को या अपने को भी मन, वाणी, शरीर द्वारा कभी किसी प्रकार, किञ्चन्मात्र भी कष्ट न पहुंचाने का नाम अहिंसा है।
अन्त:करण और इन्द्रियों द्वारा जैसा निश्चहय किया हो, हित की भावना से, कपटरहित प्रिय शब्दों में वैसा का वैसा ही प्रकट करने का नाम सत्य है।
मन, वाणी, शरीर द्वारा किसी प्रकार के भी किसी के भी स्वत्व (हक) को न चुराना, न लेना और न छीनना अस्तेय है।
मन, इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने वाले काम विकार के सर्वथा अभाव का नाम ब्रह्मचर्य है।
शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध आदि किसी भी भोग सामग्री का संग्रह न करना अपरिग्रह है।
इन पांचों यमों का सब जाति, सब देश, और सब काल मे पालन होने से एवं किसी भी निमित्त से इनके विपरीत हिंसादि दोषों के न घटने से इनकी संज्ञा ‘महाव्रत’ या ‘सार्वभौम’ ‍हो जाती है।

किसी देश अथवा काल में, किसी जीव के साथ, किसी भी निमित्त से, हिंसा, असत्य, चोरी, व्याभिचार आदि का आचरण न करना तथा परिग्रह आदि न रखना ‘सार्वभौम महाव्रत’ है।

 २ - नियम
‘पवित्रता, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वसर-प्राणिधान – ये पांच नियम है।‘

पवित्रता दो प्रकार की होती है – (१) बाहरी और (२) भीतरी। जल-मिट्टी से शरीर की, स्वार्थ त्याग से व्यवहार और आचरण की तथा न्यायोपार्जित द्रवय से प्राप्त सात्त्विक पदार्थों के पवित्रतापूर्वक सेवन से आहार की, यह बाहरी पवित्रता है। अहंता, ममता, राग-द्वेश, ईर्ष्या, भय और काम-क्रोधादि भीतरी दुर्गुणों के त्याग से भीतरी पवित्रता होती है।

सुख-दु:ख, लाभ-हानि, यश-अपयश, सिद्धि-असिद्धि, अनुकूलता-प्रतिकूलता आदि के प्राप्त होने पर सदा-सर्वदा संतुष्ट – प्रसन्नचित्तरहने का नाम संतोष है।
मन और इन्द्रियों के संयमरूप धर्म-पालन करने के लिए कष्ट सहने का और तितिक्षा एवं व्रतादि का नाम तप है।
कल्याण प्रद शास्त्रों का अध्ययन और इष्ट देव के नाम का जप तथा स्तोत्रादि पठन-पाठन एवं गुणानुवाद करने का नाम स्वाध्याय है।
ईश्वार की भक्ति अर्थात् मन-वाणी और शरीर द्वारा ईश्व र के लिए, ईश्वअर के अनुकूल ही चेष्टा करने का नाम ईश्वरर-प्रणिधान है।

 

 ३ - आसन
‘सुखपूर्वक स्थिरता से बहुत काल तक बैठने का नाम आसन है।‘

आसन अनेको प्रकार के होते है। अनमे से आत्मसंयम चा‍हने वाले पुरूष के लिए सिद्धासन, पद्मासन, और स्वास्तिकासन – ये तीन उपयोगी माने गये है। इनमे से कोई सा भी आसन हो, परंतु मेरूदण्ड, मस्तक और ग्रीवा को सीधा अवश्ये रखना चाहिये और दृष्टि नासिकाग्र पर अथवा भृकुटी में रखनी चाहिये। आलस्य न सतावे तो आंखे मुंद कर भी बैठ सकते ‍है। जिस आसन से जो पुरूष सुखपूर्वक दीर्घकाल तक बैठ सके, वही उसके लिए उत्तम आसन है।

शरीर की स्वाभाविक चेष्टा के शिथिल करने पर अर्थात् इनसे उपराम होने पर अथवा अनन्त परमात्मा में मन के तन्मय होने पर आसन की सिद्धि होती है। कम से कम एक पहर यानी तीन घंटे तक एक आसन से सुखपूर्वक स्थिर और अचल भाव से बैठने को आसनासिद्धि कहते है।
४ - प्राणायाम
आसन सि‍द्ध हो जाने पर श्वास और प्रश्वास की गति के अवरोध हो जाने का नाम प्राणायाम है। बाहरी वायु का भीतर प्रवेश करना श्वास है और भीतर की वायु का बाहर निकलना प्रश्वास है, इन दोनो के रूकने का नाम प्रणायाम है।

देश काल और संख्या (मात्रा) के सम्बन्ध से बाह्य, आभ्यन्तर, और स्तम्भवृत्ति वाले – ये तीनो प्राणायाम दीर्घ और सूक्ष्म होते है।

भीतर के श्वास को बाहर निकाल कर बाहर ही रोक रखना ‘बाह्यकुम्भक’ कहलाता है। इसकी विधि यह है कि आठ प्रणव (ॐ) से रेचक करके, सोलह से बाह्य कुम्भक करना और फिर चार से पूरक करना – इस पफकार से रेचक-पूरक के सहित बाहर कुम्भक करने का नाम बाह्यवृत्ति-प्राणायाम है।

बाहर के श्वास को भीतर खींचकर भीतर रोकने को ‘आभ्यन्तर कुम्भक कहते है। इसकी विधि यह है कि चार प्रणव से पूरक करके सोलह से आभ्यान्तर कुम्भक करें, फिर आठ से रेचक करे। इस प्रकार पूरक-रेचक के सहित भीतर कुम्भक करने का नाम आभ्यन्तरवृत्ति-प्रणायाम है।

बाहर या भीतर जहां कहीं भी सुखपूर्वक प्रणों के रोकन का नाम स्तम्भवृत्ति-प्रणायाम है। अथवा चार प्रणव से पूरका करके आठ से रेचक करे, इस प्रकार पूरक-रेचक करते-करते सुखपूर्वक़ जहां कहीं प्रणों को रोकने का नाम स्तम्भवृत्ति-प्रणायाम है।


५ – प्रत्याहार और उसका फल
अपने-अपने विषयों के संग से रहित होने पर, इन्द्रियों का चित्त के-से रूप मे अवस्थित हो जाना ‘प्रत्याहार’ है।

प्रत्याहार के सिद्ध होने पर प्रत्याहार के समय साधक को बाह्यज्ञान नही रहता। व्यवहार के समय बाह्यज्ञान होता है। क्योंकि व्यवहार के समय साधक शरीर यात्रा के हेतु से प्रत्याहार को काम में नही लाता।

प्रत्याहार से इन्द्रियां अत्यन्त वश मे हो जाती है, अर्थात् इन्द्रियों पर पूर्ण अधिकार प्राप्त हो जाता है।

६ – धारणा
अधारणा से ध्यान और समाधि होती है। यह योग का छठा अंग है।

चित्त को किसी एक देश विशेष में स्थिर करने का नाम धारणा है। अर्थात् स्थूल-सूक्ष्म या बाह्य-आभ्यन्तर, किसी एक ध्येय को स्थान मे चित्त को बांध देना, स्थिर कर देना अर्थात् लगा देना ‘धारणा’ कहलाता है।

 ७ – ध्यान
उस पूर्वोत्त्क ध्येय वस्तु में चित्तवृत्ति की एकतानता का नाम ध्यान है।

अर्थात् चित्तवृत्ति का गंगा के प्रवाह की भांति या तैलधारावत् अविच्छिन्न रूप से निरन्तर ध्येय वस्तु मे ही अनवरत लगा रहना
‘ध्यान’ कहलाता है।

 ८ – समाधि
वह ध्यान ही ‘समाधि’ हो जाता है, जिस समय केवल ध्येय रूप ‍का (ही) भान होता है और अपने स्वरूप के भान का अभाव-सा रहता है। ध्यान करते-करते जब योगी का चित्त ध्येयाकार को प्राप्त ‍हो जाता है और वह स्वयं भी ध्येय में तन्मय सा बन जाता है, ध्येय से भिन्न अपने आप का ज्ञान उसे नही सा रह जाता है, उस स्थिति का नाम समाधि है। ध्यान मे ध्याता, ध्यान, ध्येय या त्रिपुटी रहती है। समाधि मे केवल अर्थमात्र वस्तु यानी ध्येय वस्तु ही रहती है, अर्थात् ध्याता, ध्यान, ध्येय – इन तीनों की एकता सी हो जाती है।

ऐसी समाधि जब स्थूल पदार्थ मे हाती है, तब उसे ‘निर्वितर्क’ कहते है और सूक्ष्म पदार्थ मे होती है तब उसे निर्विचार कहते है।

 योग के आठ अंङ्ग है - यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि

इन आठों अंङ्गों की दो भूमिकाएं है – (१) बहिरंग (२) अंतरंग
(१) बहिरंग ऊपर बतलाये हुए आठ अंगों मे से पहले पांच को बहिरंग कहते है, क्योंकि उनका विशेषतया बाहर की क्रियाओं से ‍ही सम्बन्ध ‍है।
(२) अंतरंग ऊपर बतलाये हुए आठ अंगों मे से धारण, ध्यान और समाधि अंतरंग है। इनका सम्बन्ध केवल अन्त:करण से होने के कारण इनको अंतरंग कहते है।  
 
॥ आदेश आदेश ॥

सतगुरू यन्त्र (अनहद चक्र)

सहृदय नाता होता है, गुरू-शिष्य का भक्ति प्रेम श्रद्धा आद्रता होता है हृदय में। हृदय-प्राण-ज्योत से योग में चेतनता आती है। यह है हृदय का मन्त्र अर्थात अनहद चक्र अर्थात् सतगुरू यन्त्र। येगेश्वर योगावृढ ‍होता है। प्राण-अपान प्राणायाम से चित्त मे एकाग्रता लाता है और अपनी एकाग्रता हृदय स्थान मध्ये केंद्रित करता है जिसे अनाहद चक्र कहते हैं। इस चक्र का मुख नीचे है। बारह दल का कमल पुष्प पर विष्णु जी का चक्र विराजमान है। बीज शब्द कँ खँ गँ घँ ङँ चँ छँ जँ झँ टँ ठँ इन दलों पर होता है । तत्व वायु अर्थात प्राण अपाण है। तत्व का बीज यँ शब्द है। यन्त्र मध्ये मे सतगुरू यन्त्र जो मृगावाहन पर आरूढ़ है। खड़े त्रिकोण के ऊपर सतगुरू जी तथा देवता रूद्रनाथ जी (श्री) तथा शक्ति उमा देवी विराजमान है। अर्थात सतगुरू शब्द (मन्त्र) से रूद्र-उमा शक्ति ‍का मिलाकर योगी मह: लोक जाकर महानन्द कैवल्यानन्द प्राप्त करता है। धयान योग मे योगी षटकोण यन्त्र को खडदर्शन स्वरूप मे पार करना पडता है। अर्थात सतगुरू प्राप्ति दीक्षा शबद, (गुरू मन्त्र)-प्राप्ति के पश्चात कृपा आशीर्वाद से पूर्ण योग (दृढ़ता) में आता है। तब सतगुरू सपर्श गुण से शक्तिपात जहां पश्विम द्वार से निकली हुई ब्रह्मनाडी पर ब्रह्मा आरूढ़ है। जिससे ब्रह्मज्ञान प्राप्त होता है तथा उत्तर द्वार मे वज्रा और दक्षिण द्वार से निकली हुई चित्रिणी जाग्रत से योगी, ईशत्व सिद्धि को प्राप्त होता है तथा पीला-नीला-वृन्दा-शारदा जाग्रति से काव्य शक्ति बाला को प्राप्त करता है।
इस प्रकार योगेश्वर अपने योग में हृदय के ऊपर ध्यान केन्द्रित कराके पूर्ण समाधि में आनन्द उपभोगते हैं।

 
 
।। सतगुरू यन्त्र का मन्त्र ।।
सत नमो आदेश। गुरू जी को आदेश। ॐगुरू जी। ॐआदि अनादि अखण्ड ज्योति। जोत जागे बिन बाती। सतगुरू शिव शक्ति मिल थापना थापी। ब्रह्माजी बैठे ब्रह्मनाडी, रूद्रनाथ जी संग उमा बैठी विषण चक्र, कमल के छत्र। मृगासन दिय बिछाय सतगुरू बैठे हृदय निवास । ॐ रूद्र नाथ जी का शंख बजे। अनहद नाद का डंका बाजे। ईश्वर गुरू देव ने मन्त्र फूंका। जपो मन्त्र काटो पाप सतगुरू सम्भालो अपना आप। गुरू शबद दीक्षा दीन्ही। इडा पिंगला जोगन भेटी। सुषम्ना मिल्या शिव घर शक्ति बैठी। ज्ञान गुरू मिलीया ज्ञान सिद्ध। पूरब पश्चिम दक्षिण उत्तर महालोक मे ईश सिद्ध। सतगुरू मन्त्र शक्ति बाला। रक्षा करे गुरू गोरखनाथ बाला। इतना मन्त्र जपे तपे सुमिरन करे। सो पर काया प्रवेश सिद्धि को पावे। जो ना करे सो भव सागर डूबे। इतना सतगुरू मन्त्र सम्पूर्ण भया। श्री नाक़ जी गुरू जी को आदेश।

 
 
॥ आदेश आदेश ॥

धरत्री गायत्री

धरत्री गायत्री पूजन
विधि:
प्रथम गौ-गोबर से धरती पर धरत्री विक्र के आकार का लेपन करें। वह सुखने के पश्चानत अष्ठगंध से चक्र मे दिखाया शेष नाग जैसा शोष केतकी डंठल से अष्ठगंध स्याही से या अक्षदा से बनावे अब भोज पत्र ऊपर या पाटला के ऊपर या शुभ्र वस्त्र के ऊपर चक्र बनावे अर्शित २७ नक्षत्र १२ राशि ९ ग्रह इत्यादि नाम देकर यह यन्त्र चक्र शेष ऊपर स्थापन करे, यंत्र चक्र के पूर्व दिशा मे दीप गौघृत धूप, दक्षिण दिशा में शस्त्र त्रिशूल, चिमटा, खडांग ‍इत्यादि रखें तथा पश्चिम दिशा मे कलश जल त्रिवेणी संगम या समुद्र जल रखे उत्तर दिशा में खनिज सुवर्ण, चांदी, कोयला तथा वनस्नति वटवृक्ष, पीपल, नीम इत्यरदि मे एक स्थापन करे।
विवरण:-
शेष नाग ऊपर धरत्रि‍ विराजमान ‍है तथा नक्षत्र राशी मे भ्रमण कराते है। जब सिंह कन्या तुला राशी के सूर्य मे शेषनाग का मुख इशान मे अग्नि दिशा मे खो देवें, तथा वृश्चि क, धनु मकर के सूर्य मे शेषनाग का मुख नैवृत्य वायत्य दिशा मे होता है वूषभ मिथुन कर्क के सूर्य के सूर्य में शेषनाग का मुख अग्नि मे नैॠत्य मे दिशा मे होता है ।
अब १२ मास में अश्वि न, भाद्रपद कार्तिक मास में शेषनाग का सिर पूर्व दिशा मे मार्गशीष, पौष माघ में उक्षिण में तथा फाल्गुन चैत्र वैशाख पश्चिशम में और जेष्ठ आषाढ़ श्रवण मे मुख उत्तर दिशा मे रहता है। फल:- यउद शेषनाब के सिर पर खुदवायें तो मातृपितृ गुरू की हानी होती है। पीठ पर खुदवायें तो भय रोग और पूंछ पर खुदवायें तो तीन गौत्र की हानी ‍होती है। खाली जगह पर खुदवायें तो शुभ लाभ ‍होता है।
शयन:-
सूर्य के नक्षत्र में पांचवे, २० वे ९ वे १२ वे २६ वे इन पर पृथ्वी धरत्रि शयन करती है। सोयी हुई पॄथ्वी पर तालाब, बावडी, कुंआ, हवेली, मठ मन्दिर कभी नही खोदना चाहिये। अत: धरत्री गायत्री पूजन जेष्ठ, आषाढ़ श्रावण में करें पूजन के लिए सोभाग्य सूचक कुंकुम, हल्दी अक्षदा कमल का फूल गंगा जल कलश, धुप दिश घृत इत्यादि साहित्य से धारत्री का द्वादश मन्त्र पढकर चक्र मे दिखाये हुये यन्त्र के ऊपर अक्षदा छोडें।


 
 
धरत्री गायत्री द्वादश मन्त्र
सत नमो आदेश। गुरूजी को आदेश। ॐ गुरूजी। जो समान धर्ती तिल समान काया, फाटक खोल धर्ती माता तेरे मे योगीश्वआर आया। हिन्दू को जलाया, मुसलमान को दबाया-तिसरा सिक्का श्री नाथ जी ने चलाया। सातवें पाताल एक निरंजन निराकार ज्यो‍ति स्वरूप उनकी चरण पादुका पूजिये जो ! चरण कमल पर जल, जल पर थल, थल पर मच्छ, मच्छ पर कच्छ, कच्छ पर कमल का फूल, कमल के फूल पर शोषनाग, शेषनाग पर धौल बैल धौल बैल के सींग पर राई का दाना। राई के दाने पर श्री नाथ जी ने नवखण्ड पृथ्वी ठहरायी। प्रथम नाम धर्ती (यन्त्र के ऊपर ‘’ॐ धर्ती माता को आदेश’’ कहकर अक्षद छोडें)‍ द्वितिये नाम विश्वलम्भरा (यन्त्र के ऊपर ‘’ॐ विश्वंम्भरा माता को आदेश’’ कहकर अक्षद छोडें) तृतीय नाम मेद मेदिनी (यन्त्र के ऊपर ‘’ॐ मेद मेदिनी माता को आदेश’’ कहकर अक्षद छोडें) चतुर्थ मनसा (यन्त्र के ऊपर ‘’ॐ माता मनसा को आदेश’’ कहकर अक्षद छोडें) पांचवे नाम कृतिका (यन्त्र के ऊपर ‘’ॐ कृतिका माता को आदेश’’ कहकर अक्षद छोडें) छटे नाम ब्रह्मचण्डी (यन्त्र के ऊपर ‘’ॐ माता ब्रह्मचण्डी को आदेश’’ कहकर अक्षद छोडें) सातवें कन्या कुमारी (यन्त्र के ऊपर ‘’ॐ माता कन्या कुमारी को आदेश’’ कहकर अक्षद छोडें) अष्ठ मे वज्रबाला भव योगनी (यन्त्र के ऊपर ‘’ॐ वज्रबाला माता को आदेश’’ कहकर अक्षद छोडें) नवमे नौ करोड दुर्गा (यन्त्र के ऊपर ‘’ॐ नो करोड दुर्गा माता को आदेश’’ कहकर अक्षद छोडें) दशमे सिंह भवानी (यन्त्र के ऊपर ‘’ॐ भवानी माता को आदेश’’ कहकर अक्षद छोडें) ग्यारहवें चन्द्रघण्टा मृतका (यन्त्र के ऊपर ‘’ॐ माता चन्द्रघण्टा को आदेश’’ कहकर अक्षद छोडें) बारहवें बरदायनी। (यन्त्र के ऊपर ‘’ॐ माता बरदायनी को आदेश’’ कहकर अक्षद छोडें) आदि सत्य, नाद सत्य, मुद्रा सत्य, सत्य धर्ती माई धर्ती ध्यान सदा से लायी, अरणी-अरणी सूर्य चान्द को धाई। धर्ती माता तुम बडी तुमसे बडा न कोय। जो धर्ती पर पग धरे तो कन्चन काया होय। आदि की धर्ती अन्त की काया। अमर हो धरती वज्र हो काया। धर्ती माता के पिण्ड प्राण सदा बालक स्वरूपी हो रहे। कसटया न काटे, जाल्या न जले, डुबाया न डुबे, ब्रह्म तेज ‍हो रहे धर्ती द्वादश पढ़न्ते सुन्नते मोक्ष मुक्ति फल पावन्ते। गर्भ योनी कभी न आवन्ते। श्री नाथजी गुरूजी को आदेश।आदेश।आदेश। इसी तरह मन्त्र पढकर सामुपचारे पंचोपचारे या षोडशोपचारे या यथालब्धोपचार धर्ती माँ की पूजा करें।
सुचना सि‍द्धि:-
गुफा मे या जमीन खोद कर धर्ती के अन्दर बाघांबर आसन लगा कर जेष्ठ, आषाढ़, श्रावण मास मे या शरद ॠतु मे सूर्य उत्तरायण में यह मन्त्र ४१ दिन तक जाप करे तो भूमि के अन्दर, द्रव्य दर्शन, जल दर्शन, खनिज दर्शन इत्यादि सिद्धियां प्राप्त होती हैं। साधक अनुष्ठान करके तथा गुरू की आज्ञा से यह साधना करे।
विशेष:-
कर्मकाण्ड (अभिषेक् यज्ञ-हवन-जप अनुष्ठान इत्यादि धार्मिक विधि) करते समय तथा नया घर (मकान, दुकान) जमीन खरीदने तथा नये घर मे गृह प्रवेश करने के समय उपरोक्त मन्त्र विधि से धरत्री पूजन करे और धरत्री माता की प्रार्थना करे कि ‘’हमे हमारे कार्य के लिए (जगह) स्थान प्रदान करने की कृपा करें’’ (ऐसा करने से शुभ-अशुभ, मुहूर्त या काल इत्यादि देखने की आवश्येकता नही पड़ती)।


 
 
॥ आदेश आदेश ॥

श्री नाथ सिद्ध-धूना (यज्ञ)

धूनी-पानी-सिद्धों की बानी
श्री नाथ सि‍द्धों का धूना आदि अना‍दि काल से चलती आई परम्परा है। विशेषत: नाथ सिद्ध योगेश्वर धूना को सर्वथा प्रधान मानते है। त्यागी, तपस्वी सिद्ध महासिद्ध इत्यादि योगेश्वर स्थान मकान में तथा रमत में और जंगलों में धूना को चेतन कराके अपनी साधना को युग-युग से सिद्ध करते आये हैं। धूना तथा धूना की भभूत संकट, भूत, प्रेत तथा काम क्रोध, मद मत्सर, मोह इन सभी को भस्म करती है। ऐसा महात्माओं का‍ विश्वास है। काया भस्मी स्नान से शरीर का सुरक्षा कवच बनता है।

नाथ योगी ध्यान योगी, ज्ञान योगी, पीर-महन्त नागे पीर, सन्यासी बैरागी जती-सती स्थानी मकानी त्यागी, तपस्वी सिद्ध महासिद्ध इत्यादि योगेश्व,र स्थान मकान में तथा रमत में और जंगलों में धूना को चेतन कराके अपनी साधना को युग-युग से सिद्ध करते आये हैं। अग्नि जंगलों मे सुरक्षा हेतु भी उपयोग होता है।जंगली प्राणी अग्नि से दूर रहतें ‍है। वातावरण के जीव जन्तु दूर रहते है। अर्थात साधु-सन्तों के लिए यह रक्षपाल तथा शस्त्र देवता ही प्रमाणित ‍होती है।

सन्त महात्मा धमनी की भभूति काया मे रमाते है जिसे भस्मी स्नान कहते है और भस्मी युक्त रहतें है। पूर्व आख्यायिका है कि भगवान शंकर जी ने माया स्वरूपी दादा मत्स्येन्द्रनाथ जी के ऊपर भस्मी डालकर भस्मी स्नान कराया था। ‘’उलटन्त बिभूत पलटन्त काया’’ यह भभूत काया को शुद्ध तथा तेजस्वी बनाती है। ‘’चढ़ी बभूत घट हुआ निर्मल’’ अर्थात् भभूत मन की मलिनता को हटाकर मन को निर्मल तथा पवित्र करती है। इसलिये धूना भस्मी अतिषय पवित्र मानी जाती है। धमना तथा धूना की भभूत संकट, भूत, प्रेत तथा काम क्रोध, मद मत्सर, मोह इन सभी को भस्म करती है। ऐसा महात्माओं का‍ विश्वालस है। काया भस्मी स्नान से शरीर का सुरक्षा कवच अनता है। वैज्ञानिक दृष्टि से जीव-जन्तु, कीड़े-मकोड़े तथाथ गर्मी के मोसम मे इनका कोई भी प्रभाव नहीस ‍होता। इस प्रकार धूनी-भभूति वरदायिनी है।

महात्माओं मे शैव पंथी धूना या धूनी कहते है। नाथ सिद्धों मे यह धूना नाम से प्रचलित है। वैष्णवी पंथ के महात्मा इसे यज्ञ या (होम) प्रकार से स्वीकारते है और यज्ञों मे पूजन स्थापन-हवन इत्यादि कर्मकाण्ड करते है। यज्ञ हवन-पूजन बहुत ही पुण्यप्रद तथा मोक्ष दायक और मुक्ति दायक होता है। यह यज्ञ नाथ सिद्धों मे धूना (धूनी) शैवपंथ मे रूद्रयज्ञ महारूद्र यज्ञ, शक्ति चण्डी यज्ञ, महाचण्डी, सतचण्डी, सहस्त्रचण्डी तथा राजा महराजाओं का अश्वमेघ यज्ञ (पुत्र) सन्तती प्राप्ति के लिए पुत्र कामेष्टी यज्ञ सत्कर्मी यज्ञ किये जातें है। यह सात्विक यज्ञ होते है। इस प्रकार अघोर कर्म मे अघोर यज्ञ भी किये जाते है।

यज्ञ अलग-अलग प्रकार से किये जाते हैं। वैदिक मन्त्र-तन्त्र विधि से तथा नाथ सिद्धों मे शाबर मन्त्र विधि से यज्ञ (धूनी) का पूजा पाठ तथा हवन किया जाता है।

 
 
।। श्री नाथ सिद्धों का प्रात: धूनी का कर्म ।।
यहां हमने शाबर मन्त्र विधि से धूना का नित्यकर्म पर प्रकाश डाल कर यज्ञ विधिवत करने का प्रयास किया है।

सिद्ध योगेश्वर तथा पुजारी प्रात:३ बजे उठकर प्रात: नित्य विधि के उपरान्त सब धूना पर आते है। पुजारी जी सब साफ सफाई करके प्रथम देवता के यहां दीपक लगाते है। धूनी के महन्त जी तथा पीर जी के आसन तैयार करते है और योगेश्वर भी अपने-अपने आसन बना लेते हैं। पुजारी जी अपने देवता के पूजन मे जुड़ जाते है। देवता की पूजा के पश्चात दबी हुई धूनी का पूजन यापन करने के पश्चात धूनी चेतन करते है और पूजा आरती के कार्य मे जुड़ जाते है। अन्य महात्मा योगेश्वर भण्डारी, कोठारी, पीर जी, महन्त जी, पंख, कोटवाल, क्षेत्रपाल अपना प्रात: विधि करके आते हैं। धूनी पर तथा देवता ‍को आदेश करके भस्मी स्नान मे जुड़ जाते हैं। धूनी के महन्त पीर जी के लिए पूजारी जी ने डाले हुये आसनों पर बैठने की, आसन ग्रहण करने की निम्न मन्त्रों द्वारा विनती करते हैं। पीर जी भस्मी स्नान करके आसन ग्रहण करते है। जब सभी योगेश्वर भस्मी स्नान उपरोक्त देवता को तथा महन्त पीर जी को नादि आदेश करते हैं।

 
 
॥ आदेश आदेश ॥

योगी गुरू गोरक्षनाथ

।। अहमेवास्मि गोरक्षो, भद़ूपं तन्निबोधत।
योग मार्ग प़चाराय मया रूपमिदं घृतम् ।।
( महाकाल योगशास्त्रकल्पद़ुम )

 
 
इस सम्पूर्ण सृष्टि का जो रक्षक, स्वामी और प़भु है, वही ‘नाथ’ है। गोरखनाथ भारतीय मानस में देवाधिदेव शिव रुप में प़तिष्ठित है। वे अनादि है। जब से ब्रह्माण्ड है, तब से नाद है, जब से नाद है तब से नाथ सम्प्रदाय है।

वस्तुत: नाथ शब्द (नाथ्+अच्) से बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ प़भु, स्वामी, रक्षक होता है। ‘नाथ’ इस भुवनत्रय की स्थिति का कारण है। वह आदि, मध्य, अवसान रहित है। वह ‘शिव’ से अभिन्न है। गोरक्षनाथ ‍को पुराणों में शिव का अवतार माना गया ‍है। शिवपुराण में ब़ह्मा जी शिव के अवतारों का वर्णन करते हुए कहतें हैं -:

।। शिवो गोरक्षरूपेण, योग शास्त्रं जुगोपह
मद्यङैर्यथा स्थाने, स्थापिता योगिनोऽपि च ।।
गोरखनाथ का प्रदुर्भाव:
गोरखनाथ दो रूपों में देखे जाते हैं—व्यक्तित्व के रूप में और व्यक्ति के रूप में। व्यक्तित्व के रूप मे आदिनाथ शिव और गोरखनाथ तत्वत: एक ही है। सर्वनिरपेक्ष, कालातीत, नित्य, सर्वव्यापी, परमचैतन्य रूप होने के कारण वे सभी युगों और सभी कालों में विद्यमान रहते है। नाथ योगी सर्वनिरपेक्ष अलक्ष्य सत्ता को ही अपने अन्तस् में लक्षित करता है।

योगी गुरू गोरक्षनाथ-अवतार कथा:
नारदपुराण तथा स्कन्दपुराण से प्रमाणित है, किसी ब्राह्मण ने ज्योर्तिवित के आदेश से गण्डान्तनक्षत्र में उत्पन्न निज पुत्र को ‍अनिष्ट जानकर उसका समुद्र मे परित्याग किया। वह बालक अतुल महिशाली परमेश्वयर की गतिविधि से किसी महा्मत्स्य का भोजन बना।

वह ‍द्विजपुत्र दयामय की अघटित घटना का अचिन्त्य रचना-चातुरी चमत्कार से काल के पाश मे नवेष्टित हो जीवित ही रहा। एक बार श्री पार्वती अमरकथा विषयक प्रगाढ़ प्रर्थना के वशीभूत हो भूतनाथ भगवान महेश्वकर कैलाश शैल को त्याग कर पार्वती को अमरकथा सुनाने के लिए महा पर्वत लोकालोक पर पहुंचे। वह महाशैल मणियों से भूषित था अतएव उसकी शोभा अनूठी थी।

जिस प्रकार महावायु मेघमण्डल को दिगन्तरों मे अपने वेग से प्रस्थानित करता है, वैसे ही अमर कथा सुनाने को एकान्त स्थान चाहने वाले श्री मूलनाथ ने तीन ताल द्वारा सकल पशु पक्षी वर्ग को उस स्थान से हटाया। सर्वपूज्य भगवान श्री महादेवी को अमर कथा सुनाने को अवहित हो गए। परमकारूणिक भक्तवत्सल श्री आदिनाथ आशुतोष ने भवानी सपर्या से से संतुष्ट ‍हो मृत्यं को जीतने मे समर्थ उस अमर कथा का उपदेश किया। बहुत काल कथा सुनते बिता, श्री पार्वती योगनिद्रा मे अवस्थित ‍हो गई। इसी अवसर पर तेजोभार से प्रपीडित वही महामत्स्य जिसने अग्रजन्मा सुत को ग्रसित किया, उसी सागर तट पर आ पहुंची एवं कथा हुंकृति को प्रकट किया, आदिदेव कथा सुनाते ही रहे।

भगवान आदिनाथ ने ‍द्विजशिशु पर अनुग्रह किया, जिससे कोई कष्ट न पाकर सुख से निकलकर भगवान के निकट आ विराजा और चरणों मे प्रणाम किया। भगवान महेश्वअर पूछने लगे हे वत्स ! महामत्स्य के उदर में तुम्हारा निवास किस असाधारण कारण हुआ, सत्य कहो। बालक बोला है सर्वज्ञ ! हे सर्वशाक्तिमान !! हे दयामय !!! आप स्वयं जानते है मै क्या कहूं। इस प्रकार बालभाषित माधुर्य से निरतिशय संतुष्ट होकर आदिशक्ति जगदम्बा से भगवान मूल नाथ इस प्रकार बोले। हे शैलराजपुत्री ! यह बालक आपका पुत्र है, यह दिनमणि के सदृश्य संसार का प्रधान नेता होगा एवं सर्वदा प्रसन्नचित रहेगा, इसको पराजित करने वाला कोई नही होगा। भगवान आदिनाथ द्विजपुत्र को आशीर्वाद देकर बोले हे वत्स तुम मत्स्य के उदर सन्निधान से प्रगट हुए हो अत: तुम्हारा नाम संसार में मत्स्यनाथ या मत्स्येन्द्र नाथ होगा,क्यांके तुम मत्स्यावतार मत्स्यों के इन्द्र हो। अब जाओ समस्त लोको में भ्रमण करो। योग विद्या का विस्तार करो, यही हम दोनो का आदेश है।

मत्स्येन्द्रनाथ बोले हे ! नटराज करूणामय !! यहद सर्वर आपका ही अनुपमानुग्रह है, मै कृतकृत्य हूं। महामप्रकाश मत्स्येन्द्रनाथ ने भगवान एवं भागवती से आदेश प्राप्त कर योग विद्या बु‍द्धि के लिए वहां से प्रयाण किया। कुछ काल तक योग विद्या के प्रचार करने के अनन्तर लोकनाथ महाप्रकाश सिद्धनाथ जी के मन मे भगवान आदिनाथ की तपश्च र्या करने का विचार प्रकट हुआ, भगवान के सात्विक ध्यान में स्थित हो गए एवं मनों रूपी कुसुमों से आदिनाथ परमेश्वकर की आराधना करने लगे। लोकनाथ मत्स्येन्द्रनाथ जी के चिरकाल पवित्र तप से भगवान अत्यन्त प्रसन्न हो गए एवं प्रकट होकर बोले हे नित्यनाथ ! मै तुम्हारे तप से निरतिशय प्रसन्न हूं, स्वेच्छानुकूल वर मांगो ! सिद्धनाथ बोले हे प्रभो यदि आप मेरे ऊपर प्रसन्न हैवर देना वाहते है तो मै इसी को उत्तम समझता हूं और याचना करता हूं कि आप मेरे सहायक होकर अवतार को धारण करें। मैं स्वयं आकैर तुम्हारी सहायता करूंगा, तब तक योग विद्या ‍विकास करो। ऐसा कहकर श्री महादेव कैलाश अद्रि को चले गये, करूणामय उस समय आर्य्यावलोकितेश्वऔर महाप्रकाश सिद्धनाथ के योग प्रचार से यहम योगविद्या, राजयोग, लययोग, हटयोग, मन्त्रयोग, ध्यान योग, विज्ञानयोग, प्रभृति विभिन्न नामों से प्रसिद्ध हुई। कुछ समय के चले जाने के पर अमिताभ करूणामय के वर का स्मरण भगवान मूलनाथ ने किया, उसी समय भगवान ने श्री महादेवी के पूर्वव्रत्त से प्रेरित होकर हृइय को उसी दिशा मे पतिणत किया। उमा का अन्तरस्थल अहंकार सागर में वीचि लेने लगा, अभिमान की मात्रा आच्छादित अचिन्त्य शक्ति के आवेश मे आकर श्री पार्वती भगवान महेश्वनर से बोली- हे आदिदेव आदिनाथ ! जहाँ-जहाँ आप हैं वहाँ-वहाँ मै आपसे पृथक् नही, मेरे बिना आपकी कोई सत्ता नही, मदविशिष्ट ही आप है। हे महादेव आदिनाथ आप विष्णु है तो मै लक्ष्मी हूं, आप महेश्वार है तो मै महेश्वथरी हूं, आपशिव है तो मै शक्ति हूं, आप ब्रह्मा है तो मै सावित्री हूं, आप इन्द्र है तो मै इन्द्राणी हूं, आप अरूण है तो मै बरूणानी हूं, आप पुरूष है तो मै प्रकृति, आप ब्रह्म है तो मै माया,मेरे से पृथक आप नही है।

जगदम्बा ‍के वचनो का स्मरण कर मूलनाथ बोले हे महेश्व री ! जहाँ -जहाँ तुम हो वहाँो-वहाँ मै अवश्यृ हूं, यह कथन सत्य है, और जहाँ- जहाँ मै हूं वहाँ- वहाँ आप विराजमान है, यह कथन सत्य नही क्योंकि जहाँ-जहाँ घट है, वहाँ-वहाँ मृत्तिका अवश्यव है, किन्तु जहाँ मृत्तिका है वहाँ घट नही आकाश सर्व पदार्थौ मे व्यापक है, सर्व पदार्थ आकाश मे व्यापक नही महादेव जी ने विचार किया जगदम्बा के कथन का समाधान और महाप्रकाश को वर प्रदान इन दोनो का पालन समयापेक्षी अवश्यह है, बस क्या था? भगवान आदि नाथ मूलनाथ ने अपने आत्मबल समुदाय ‍को दो भागों मे विभाजित किया। एक समुदाय से पूर्व रूप मे ही अवस्थित रहे दूसरे समुदाय को गोरक्षना‍थ रूप मे परिणत किया। वे गोरक्षनाथ एकान्त निर्जन किसी विशेष पर्वत मध्य शुद्ध स्थान मे विराजमान होकरसमाधिस्थ हो गये। महेश्वकरानन्द भगवान गोरक्षनाथ के प्रबल तपोबल प्रताप से वह पर्वतराज अनुपम रूप से सुशोभित हुआ। कुछ ही समय के पश्चावत योग सम्प्रदाय प्रवर्तक श्री गोरक्षनाथ जिस पर्वत पर ज्ञान मय तप मे ‍विराजमान थे, वहाँ जगदम्बा को साथ लेकर भगवान आदिनाथ शिव ने गमन किया। मार्ग मे ही कुछ विश्राम कर भगवान श्री भवानी से बोले हे गौरि जो यह पर्वत समक्ष दिखता है, इसमे एक महान परमपुरूष योगीराज चिरकाल से समाधिस्थ है आप जा कर उनके दर्शन करें। आदिनाथ भगवान मूलनाथ की आज्ञा पाकर महादेवी ने वहाँ से प्रस्थान किया। भगवान गोरक्षनाथ को समाधि मे बैठे ऐसे देखा मानों बुत से सूर्य मिलकर ही प्रकाश कर रहे हैं। श्री शिव का रूप पूज्य जानकर हाथ मे पुष्प लेकर श्री देवी ने गोरक्षनाथ को हृदय से आदेश किया महादेवी ने विभिन्न विचारों के पश्चारत श्री महादेव जी के कथन का स्मरण किया, ऐसा न हो मेरे ‍ही कथन का उत्तर देने के लिए यह कोई अचिन्त्य सामग्री रचाई गई ‍हो? योगी की परीक्षा का यही समय है। सत्यासत्य का निश्चाय परीक्षा के बिना नही होता, माया के कार्यो को ही जीतना कठिन है, माया तो दूर रही उसे केसे जिता जा सकता है। मेरानाम माया है मै सबसे बडी शक्ति हूं, मैने ब्रह्मा आदि को भी बिना वश किये नही छोड़ा। उमा देवी महेश्वेरानन्द गोरक्षनाथ भगवान की परीक्षा लेने को तत्पर हो गई, चतुर्था अपनी योग माया से उत्तम जगन्मात्र पदार्थो को रच कर प्रत्यक्ष रूप मे उपस्थित कर दिखाया और कोई पदार्थ शेष नही रहा, अवस्थित भगवान गोरक्षनाथ के समक्ष महामाया के सहस्त्रों प्रयत्न इस प्रकार अस्त हो गये, जैसे मध्यान्हकालिक मार्त्तण्ड के समक्ष तारागण विजीन हो जाते हैं। भगवती ने महादेव के वचनों को सत्य समझा, यह मैरे लिये ही अद्भुत चमत्कार का आकार खड़ा किया है।ऐसे विचार करती हुई पार्वती देवी को गोरक्षनाथ बाले हे देवी ! जाओ भगवान आदिनाथ आपका स्मरण करते है। योगाचार्य के अनुपम उपदेशामृत को पीकर वहाँ से भवानी ने भगवान के पास प्रस्थान किया, पहुंचकर मूलनाथ आदिनाथ भगवान को आदेश किया और कहा हे ईश्वकर आपका कथित संकल्प यर्थात है। मेरे बिना भी आप विद्यमान है, अत: आपकी सत्ता ही प्रधान है, यह मैने अनुभव किया, शक्ति का लय शक्तिमान के ही अभ्यन्तर से होता है। हे ईश्वमर ! ऐसा यह कोन वस्थित योगीश्वहर है, जिसने मेरी शक्ति ‍को कुछ नही समझा। वह अपनी समाधि मे ही अचल रहात महादेव बोले हे महेश्व!री ! जिस योगी का तुमने दर्शन किया है उस यागीश्व र का नाम गोरक्षनाथ है। सर्व देव मनुष्यों का इष्ट देव है, माया से परे एवं काल का भी काल है समयापेक्षित अनेको रूप से प्रकृति चक्रका संचालक है। हे महादेवी मै ह गोरक्षनाथ हूं, मेरा स्वरूप ही गोरक्षनाथ है। हम दोनो मे किञ्चित भी अन्तर नहीं, प्रकश से भिन्न प्रकाश नहीं रहता। हे महादेवी ! संसार का कल्याण ‍हो वेद गौ पृथ्वी आदि की रक्षा हो इस हेतु से मेने गोरक्ष स्वरूप को धारण किया है।

जब जब योग मार्ग की रक्षा मे अवस्थित होता हूं यह गोरक्षनाथ नाम मेरे नामा में उत्कृष्ट है। भगवान मूलनाथ बाले हे महेश्वबरी ! जो पुरूष योग विद्या को सेवन करता है वही मृत्यु को जीतता है, और उपायों मे मृत्यु नही जीती जाती। अन्य उपायों से थोड़ी बहुत आयु कढ़ सकती है। योगबल महाबल है, योगी महाबली है, चाहे एक रहे अनेक होकर विचरे चाहे भूमि मे रहे चाहे आश्रम में भ्रमण करे चाहे सो युग तक रहे, चाहे सदा अमर रहे, स्थूल शरीर से रहे, सूक्ष्म शरीर से, चाहे श्रोता से सुने, चाहे बिना श्रोता से, चाहे राजिका होकर रहे, चाहे पर्वत होकर, वह योगी ब्रह्मा विष्णु के कार्यो को भी करने मे समथ् है। भवानी बोली हे प्रभों ! आपको कोटिश: नमस्कार आपकी माया अनन्त है। जगत् आपका उद्यान है,आप उसके माली है। इस प्रकार श्री महादेवी पार्वती से पूज्यमान महादेव जी कैलाश को पधारे। इधर कमलासन पर विराजमान श्री ब्रह्मा जी को योगी नारद बोले हे प्रभों ! पहले मेनेजर आपसे यह कथा सुनी है, हादेव जी ने सिद्घनाथ मत्स्येन्द्रनाथ जी को वर दिया था कि आप नाथवंश के तथा योग मार्ग के प्रर्वतक होवेंगे तो फिर संसार मे उन्होने किस प्रकार योग का प्रचार किया और फिर मत्स्येन्द्रनाथ जी ने किस महामहिमशाली शिष्य को इस योग का उपदेश किया, नाथ नाम पूर्वक योगियों का सम्प्रदाय केसे प्रवृद्घ हुआ। ब्रह्मा जी बाले हे नारद ! उसके पश्चाकत महेश्वनर मूलनाथावतार भगवान गोरक्षनाथ जहाँ महा प्रकाश मत्स्येन्द्रनाथ जी समुद्र तट पर तप कर रहे थे वहाँ को पधारे वहाँ गोरक्षनाथ जी ने जाकर मत्स्येन्द्रनाथ जी को समाधि द्वारा मनोयोग को प्रबोधित कर योगपद्धति को पूछा और विनीत भाव से स्तुति की एवं नाथपदयोग वंश को प्रवर्त्तकता ‍को प्राप्त किया इसी भगवान आदिनाथ मत्स्येन्द्रनाथ परम्परागत योग से गोरक्षनाथ ने योग को शक्तिपात, करूणावलोकन, आपदेशिक इन ‍तीन शिक्षाओं के द्वारा अनेक राजा महाराजा ॠषि-मुनियों को कृतार्थ किया और उनको दिव्य देकर अमर पद का भागी बनाया।


 
 
॥ आदेश आदेश ॥

नाथ इतिहास

बारह पंथों के नाम
(सिद्धमार्ग व नाथ सम्प्रदाय) के प्रारम्भक आदिनाथ सदाशिव गोरक्षनाथ हैं।बारह पंथ भी नाथ सम्प्रदाय सम्बन्धित होने से शिव गोरक्षनाथ ही इनके मूल आचार्य हैं लेकिन फिर भी जब जब जो पंथ जिस समय जिस सिद्ध योगी द्वारा अधिक प्रतिष्ठित एंव प्रभावित हुआ उसके प्रभाव के सम्बन्ध से भी कुत्रचित् उसकी प्रासि‍‍द्धि के नाम से भी वह पंथ बोला जाता है।


 
१. आई पंथ २. सत्यनाथी पंथ ३. रामनाथी
४. नटेश्व्री ५. धर्मनाथी ६. वैराग्यपंथी
७. कपलानी ८. पागल (पालक) पंथी ९. गंगनाथी
१०. मनोनाथी ११. रावल (रावण) पंथी १२. ध्वज पंथी

 
यथा-वैराग्य, पागल, मनोनाथी का सम्बन्ध शिव गोरक्ष मत्स्येन्द्रनाथादि से है व उनके उत्तरवर्ती उनके शिष्य प्रशिष्यों सनक सनन्दन सनतकुमारादिकों से उत्तोत्तर उनकी प्रणाली से सम्बन्धित प्रसिेद्ध सिद्ध जब कोई हुआ है तो उसके नाम से ही उसका पंथ बोला जाने लगा। उसको ही उस शाखा का प्रारम्भक साधारण व्यवहार में व साधारण जन समुदाय में समझा व बोला जाने लगा। इस आशय से ही पूर्व वैराग्य, पागल, मनोनाथी आदि पन्थों के प्रवर्तक क्रमश: विचारनाथ, चौरंगीनाथ श्रृंग्डे.रिपानाथों को कहा गया है। क्योंकि द्वादश पन्थ तो उनसे पूर्व भी विद्यमान थे। उस समय की इनकी प्रसि‍‍द्धि को लेकर इनकों उनके प्रवर्तक कहा गया जिस समय मे ये हुए। बारह पंथों मे से इनके आचार्य और सिद्धों का आशय यह प्रतीत होता है कि द्वादश राशि गर्भ में समस्त संसार है और इस द्वादशराश्यात्मक संसार सागर से पार होने के लिये ही ये द्वादश पन्थ (मार्ग) इस सम्प्रदायिक आचार्यों ने निर्धा‍रित कियें है अथवा द्वादशमासिक वर्षात्मक काल सिमाओं के पार के (परमेश्वयर तत्व के) दर्शाने वाले द्वादश पंथ-मार्ग हैं अथवा द्वादश प्रचण्डमार्तण्डात्मक मूल ज्योर्तिमय सच्चिदानन्द स्वरूप परम सदाशिव हैं उसकी प्राप्ति के ये द्वादश पंथ हैं एवं द्वादश ज्योतिर्लिंग संख्या से सम्बन्ध होने से भी द्वादश पंथ (पथ) संख्या को मंगलवार सूचक कह सकते है। रूपान्तर से-नाथ सम्प्रदाय कल्पवृक्ष रूप मूल है, आदिनाथ श्री गोरक्ष उसके अमृतमय फल है उनके भोक्ता सिद्धयोग तहासिद्धयोगी है।


   
 
बारह पंथों का सार्थक्य—


 
१. सत्यनाथ पंथ
यह ब्रह्माण्ड जनक हैं। अत: उसकी सादर उपासना आवश्यहक है एवं उसका द्योतक सत्यनाथ पंथ भी भवितव्य है स्वयं पर कृपा के लिये।

   
 
२. आई पंथ
यह नाम उस सर्वाध्यक्ष परमेश्वुर की शक्ति का है जो सब वस्तु पदार्थों को अदृश्य् हुई सुनियमन कर रही है जिस बिना कोई भी कुछ करने को समर्थ नही है। यथा-
शक्तिरस्त्त्यैश्वकरी काचित्सर्ववस्तुनियामिका।
आनन्दमयमारम्य गुढा सर्वेषु वस्तुषु।।

जिसके बिना कोई भी क्रिया सम्भव नही हो सकती, वही ‘आई’ शक्ति परमेश्व र शक्ति की बोधिका है जो सदाशिव से अभिन्न है चन्द्रचन्द्रिकयोरेव एवं उसकी उपासना हृदयोत्कट भावना से होना आवश्यिक है उसकी दत्तशक्ति से सब साध्य सिद्ध हाते है।

   
 
३. धर्मनाथ पंथ
यह सूचित करता है कि आखिर धर्म की ही जय होगी, यथा धर्मराज धर्म का पालन करता हुआ धर्म की रक्षा करता है वैसे ही सबका न्याय का आवरण करते हुए धर्म की रक्षा पालन करना आवश्यरक है। धर्मावरण से ही शिवयोग सिद्ध होता है। अत: इसकी याद के लिये धर्मपंथ आवश्यक है।

   
 
४. कपिल पंथ
कपिल सांख्य के प्रकृति विकृतियों के ज्ञान से पिण्ड ब्रह्मामण्डका ज्ञान सहज ‍होता है प्रकृति पुरूष के पार्थक्य का पुरूष बद्ध-अबद्ध का ज्ञान होकर शिवयोग मे सुकरता सुलभता अरती है अत: यह भी आवश्यकक है।

   
 
५. पावक (पाव) पंथ
यह प्रकाशित करता है कि पावक (अग्नि) वत् शक्ति प्राप्त कर देदीप्यमान हो त्रिविध पावनता से पूर्ण गुरू की आज्ञा में ‍हो कर उक्त योगानल शक्ति को उपलब्ध करे जिससे समस्त पापताप दग्ध होकर पावन होवे। अत: पावक पंथ भी आवश्यशक है।

   
 
६. मनोनाथी पंथ
यह प्रकाश करता है कि जिस किसी प्रकार से मन का शमन करने से एवं सत्त्व बुद्धि का मन पर स्वामित्व होने पर मनोविजयी को सर्वजयोपलब्ध होती है और उस शिवयोब से ही परमशिवत्व की प्राप्ति होती है अत: मनोनाथी पंथ (पथ) आवश्यशक भवितव्य है। उक्त पावक मन दोनों शाखा एक शाखा है अत: दोनो की संख्या में ५-५ का एक ही अंक है।

   
 
७. वैराग्य पंथ
यहृ सूचित करता है कि ‍बिना वैराग्य के ज्ञानाभाव होने से स्वात्मोपलब्धि सम्भव नहीं अत: वैराग्य पंथ जो वैराग्य होना परम आवश्यगक कल्याणार्थ समझाता है वह वैराग्य क्या है? वह है इस मृत्यु लोक के समस्त भोंगों से लेकर ब्रह्मलोक पर्यन्त अर्थात् ब्रह्मलोक के अशेष भोगों मे भी मनोवृत्ति का सघृणा सर्वदा निर्मूलन ही वैराग्य है। अत: वैराग्य का सूचक जो वैराग्य पंथ वह नितान्त सार्थक है।

   
 
८. पागल पंथ
यह सिखाता है ‍कि समस्त संसारियों से तथा सांसारिक विषय वासनाओं मे अनासक्त मनोभावो का होना व माया मोहान्धकार भंवर मे पडे सांसारिक पागलों का बोद्धा उद्धारक होने से पुण्यात्मक पंथ आवश्यवक है।

   
 
९. गंगानाथ पंथ
यह बोधित करता है कि भगीरथ वत् अनन्त तपोयोग से एवं अथकश्रम से लक्ष्य की प्राप्ति होती है अर्थात परम पावन लक्ष्य सिद्ध होता है।

   
 
१०. नटेश्वोरी पंथ
यह शिक्षण करता है कि यति और सत्य मे पूर्ण प्रयत्नवान होने से नटेश्वकर वत् हो जाता है अर्थात् शिव समान हो जाता है। यथा-बालकनाथ=लक्ष्मण ने गुरू कृपा से यत सत मे पूर्ण हो नटेश्वथर (नटराज शिव) का सिंहासन प्राप्त किया वैसे ही अन्य योगियों को यति और सत्य में सम्यक प्रतिष्ठित हो कर स्वलक्ष्य शिव को प्राप्त करना आवश्यकक है। नटेश्वयर शिव है उससे सम्बन्धित टिल्ला स्थान स्वरूप मट नटेश्वषरी (शिव की गद्दी=सिंहासन) का नाम है। यह सिंहासन सर्वप्रथम आदिनाथ शिव का तथा तद्रूप गोरक्षनाथ का है। आदिनाथोत्तर मत्स्येन्द्रादि महासिद्धेश्व‍रों का तथैव श्री गोरक्षनाथ दत्त बालकनाथ (लक्ष्मण) का है अतएव नटेश्वारी पंथ के उत्तर मे आचार्य बालकनाथ है। यहाँ से अनेको राजा-महाराजा महायोगेश्वणर गुरू गोरक्षनाथ जी से महाज्ञान योगरूपोपदेशामृत ग्रहण कर अजरामर काया सम्पन्न हुए ईश ब्रह्माण्ड में भ्रमण करते हुए सर्वोत्तमानन्द को प्राप्त हुए। यह नटेश्व री पंथ आदिनाथ से सम्बद्ध है बाद में लक्ष्मणनाथ के नाम से भी बोला जाने लगा। नटेश्वोर शिव का नाम होने में प्रमाण-
नृत्तावसाने नटराजराजो, ननाद ढक्कां नवपञ्चवारम्।
उद्धर्त्तुकाम: सनकादिसिद्धान्नैतद्विमर्शे शिवसूत्रजालम्।।

इसमे जो नटराज शिव को कहा है नटराज और नटेश्वणर समानार्थक है। इसमें ‘विमर्शे’ यह छान्दस प्रयोग है जिसका अर्थ ‘विचार कर स्फुटकर्ता हूँ’ है एवं यह नटेश्व’र पंथ भी आवश्यगक है।

   
 
११. सन्तोषनाथ तदुत्तर रामनाथी पन्थ
यह पंथ सन्तोषनाथ-विष्णु की तरह परम बलिष्ट सौम्य सौन्दर्य सम्पन्न शान्तदान्त स्वभाव वाला होना शिक्षित करता है और एकात्मभावुक होना करता है तथा राम की तरह सत्यप्रतिज्ञ वाला होने से अखिल असाध्य कार्यों को भी करने की शक्ति सम्पन्न ‍हो जाता है। ऐसा होने से उपदेष्टा होने के नाते यह पन्थ भी आवश्ययक है।

   
 
१२. रावण या रावल पन्थ
कहता है कि शिवकृपा और शिव योगसिद्ध होने से रावण वत्, अतुल्य तपयोग सिद्ध श्रद्धा विश्वा स से योगी पराक्रम युक्त ‍हो जाता है अत: बलार्थ यह पन्थ भी आवश्यतक है।

   
 
१३. ध्वज पन्थ
यह कहता है कि सर्वोपरि ध्वज की तरह लहराने के लिये हनुमान ही तरह यत सत्य (जत-सत) युक्त तथा भक्ति-श्रद्धा सम्पन्न होने पर योगी, वीर बंकनाथवत् बलिष्ट होता है। यह पन्थ सर्वप्रथम शंकर आदिनाथ की ध्वजा के नाम से तटुत्तर हनुमान (वीर बंकनाथ) नाम से प्रसिद्ध है। सर्वोपरि सूचक होने से यह भी पन्थ आवश्यनक है। इस प्रकार ये द्वादश पन्थ सार्थक है साधक अपनी अपनी सुगमता को देखता हुआ कोई एक पन्थ की काई दो पन्थ की, कोई तीन पन्थ की, कोई कितने पन्थों की साधना को साधता हुआ योगी स्वात्मात्मक स्वसंवेद्य लक्ष्य मे विलय हो जाता है इति संक्षेप।

   
 
॥ आदेश आदेश ॥

श्री नाथ सिद्ध यंत्र

श्री नाथ सिद्ध यंत्र का कार्य
श्री नाथ सिद्ध यन्त्र के प्रति पूर्ण विश्वा्स, श्रद्धा एवं भक्ति होना अनिवार्य है।
स्थान मे स्थापित यन्त्र का पूजन पंचोपचारे या शोडोषचारे पूजन करके यन्त्र सन्मुख अपने गुरू मन्त्र या ‘’ॐ शिव गोरक्ष योगी’’ इस बीज मन्त्र का या अपने इष्ट देवी-देवताओं का या इच्छित कार्यानुसार लिए हुए मन्त्र का कम से कम १०८ बार या इच्छानुसार ज्यादा समय करें। ऐसा नित्य तनयम करने से यन्त्र महाचेतन होकर शीघ्र फल देगा।
इस यन्त्र में सभी देवी-देवता एवं नाथ सिद्ध इधिष्ठित है। इसलिये यह यन्त्र किसी भी देवी देवता, सिद्ध महात्माओं के पूजन हवन या उत्सव मे स्थापना कर पूजन कर सकते है। उदाहरण-नाथ सिद्ध नवनाथ पाठ-पूजन, नवदुर्गा (दश महाविद्या) नवरात्री तथा गुरू गोरक्षनाथ पूजन (गोरक्ष जयन्ती) तथा अन्य समाधि पूजन, गणेश पूजन (उत्सव) होली, दशहरा, दीपावली (लक्ष्मी पूजन) सोमवती अमावस्या, पूर्णिमा, गुरू पूर्णिमा, श्रावण मास, चार्तुमासादि सब व्रत विधि में तथा भैरव (भैरवाष्टमी), काली, तन्त्र पूजन, सिद्धि विधि में, रामायण पाठ, श्रीमद् भगवत पाठ, गीता-ज्ञानेश्वीरी पाठ, शिव पुराण नाथ पुराणादि सभी पुराण पाठों में तथा किसी भी हवन विधि मे स्थापन करने से योग्य फल प्राप्त कर देगा।
इसमे अस्त्र, शस्त्र, क्षेत्रपाल, रक्षपाल, कोटवाल, दस महाविद्या, नाथ सिद्ध जोगन इत्यादि महाशक्तियों का अनुष्ठान होने से तन्त्र मन्त्र साधना एवं सिद्धयां,शक्ति साधना को पूर्ण सुरक्षा एवं शुभ फल तथा पुर्ण सुयश ‍होता है।
खास अनुष्ठान, तपस्या, सिद्ध प्राप्ति देवी देवता, सिद्ध महात्माओं के दर्शन अनुभूति इत्यादि के लिए भी यह यन्त्र सुयश देगा।
इस यन्त्र मे सर्व सिद्धयां एवं कुण्डलिनी चक्रों के अधिष्ठित देवी देवताओं का अनुष्ठान ‍होने से साधे यन्त्र स्थानप सन्मुख योग साधना, ‍हठ योग, चक्र जागृति, कुण्डलिनी योग, ध्यान धारना समाधि सिद्ध प्राप्ति जन-भजन इत्यादि कर्म साधना में शीघ्र लाभ एवं अनुभूति देता है तथा साधक ज्योति दर्शन ज्योति स्वरूप ब्रह्माण्ड भ्रमण इत्यादि का भी अनुभव आता है।
साधना मे या शूभ कार्यों मे, काम, क्रोध, मत्सर सताते होगे तो ९ मुठ्ठी भस्म से यन्त्र का अभिषेक करें और वह भस्मी सर्वांग लेपन करें या माथे पर बाहु वक्षस्थल, नाभि स्थान, हाथ-कलाई इत्यादि पर भस्म त्रिपुण्ड लगकर कर्म करें शुभ ‍कार्य सफल होगा आध्यात्मिक अनुभूति होगी तथा भूत प्रेतादि अनिष्ट विद्या सताती ‍हो तो यही भस्मी जल में प्राशन करें और उपरोक्त शुभ दिन उपयुक्त मन्त्र विधि ‍कर ७ मिस्री मिठाई सवा किलो कच्चा या पक्का रोट का भोग लगावें उद, गुग्गल धूप दीप से पूजन एवं गुरू मन्त्र से जप करें बाहरी बाधा अनिष्ट संकट टल जायेगा। विशेषत: यन्त्र के मन्त्रों से हवन करें तो शीघ्र प्रभाव पड़ेगा।
यह यन्त्र मठ मन्दिर आश्रमों दुर्गा-दरबार में तथा घर के पूजा स्थान में, दुकान, गाड़ी-वाहनों में, चलते-फिरते व्यवसाय में शुद्ध स्थान, शुद्ध स्वरूप में रखे अवश्यब लाभ होगा।
कोर्ट-कचहरी कार्य, किसी से महत्वपूर्ण कार्य बातचीत, चर्चा हो, सम्मेलन, स्पर्धा, सत्संग, लेन-देन व्यवहार तथा सम्बन्धी संवाद तथा स्कूल-कोलेज के विद्या अभ्यास में यह यंत्र अपने जेब में या बैग में रख सकते है। अवश्य कार्य फल-लाभ देगा।
अगर कोई जटिल समस्या या प्रश्न हो जिसका कोई हल नही है रात्री सोने से पूर्व इस यन्त्र को वह समस्या का (हल) जवाब पूछ कर एवं प्रार्थना कर अपने सिरहाने मे रख कर सोये रात्री मे स्वप्न या दृष्टांत में वह जरूर जवाब देगा। इसमें कम से कम ७ या ९ दिन रात्री का अवकाश होगा।
अगर कोई बिमार ‍हो तो इस यन्त्र के अभिषेक का जल या पंचामृत उन्हें पीने को दो बीमारी ७ से ९ दिनों मे ठीक ‍हो जायेगी।
घर मे कलह अशान्ति हो तो यन्त्र मन्त्रों से (विशेषत: शनिवार को) अभिषेक कर शान्ति हवन करें तो शान्ति अवश्य होगी।
समृद्धि के ‍लिए घी या पायस (खीर) से अभिषेक, हवन करके सबको प्रसाद रूप मे खाने मे दो समृद्धि आयेगी।
शुभ मंगल कार्यो मे अत्तर या गुला‍ब जल का उपयोग करें।
यन्त्र ‍हमेशा सुरक्षित एवं पवित्र स्थान पर रखें।
मांस-मछली मीट, शराब पूर्ण निषेध है तथा यन्त्र उपलक्ष मे कोई भी अनुचित कार्य या अनुचित संकल्प ना करें।कूटनीति, कपट, संशय नहीं करें अन्यथा यन्त्र अनुचित कार्य करेगा।

 
 
॥ आदेश आदेश ॥

Monday 16 June 2014

तान्त्रोक्त गोरखक्षनाथ प्रत्यक्षीकरण मंत्र-

 । । ॐ ह्रीं श्रीं गों हुं फट स्वाहा । ।        

नव-नाथ-चरित

।।दोहा।।
'आदि-नाथ' आकाश-सम, सूक्ष्म रुप ॐकार ।
तीन लोक में हो रहा, आपनि जय-जय-कार ।।१

।।चौपाई।
जय-जय-जय कैलाश-निवासी, यो-भूमि उतर-खण्ड-वासी ।
शीश जटा सु-भुजंग विराजै, कानन कुण्डल सुन्दर साजे ।।२
डिमक-डिमक-डिम डमरु बाजे, ताल मृदंग मधुर ध्वनि गाजे ।
ताण्डव नृत्य किया शिव जब ही, चौदह सूत्र प्रकट भे तब ही ।।३
शब्द-शास्त्र का किया प्रकाशा, योग-युक्ति राखे निज पासा ।
भेद तुम्हारा सबसे न्यारा, जाने कोई जानन-हारा ।।४
योगी-जन तुमको अति प्यारे, जरा-मरण के कष्ट निवारे ।
योग प्रकट करने के कारण, 'गोरक्ष' स्वरुप किया धारण ।।५
ब्रह्म-विष्णु को योग बताया, नारद ने निज शीश नवाया ।
कहाँ तलक कर वरनूँ गाथा, आदि-अनादि हो आदि-नाथा ।।६

।।दोहा।।
'उदय-नाथ' तुम पार्वती, प्राण-नाथ भी आप ।
धरती-रुप सु-जानिए, मिटे त्रिविध भव-ताप ।।७

।।चौपाई।।
जय-जय-जय 'उदय'-मातृ भवानि, करो कृपा निज बालक जानी ।
पृथ्वी-रुप क्षमा तुम करती, दुर्गा-रुप असुर-भय हरती ।।८
आदि-शक्ति का रुप तुम्हारा, जानत जीव चराचर सारा ।
अन्नपूर्णा बन के जग पाला, धन्यो रुप सुन्दरी बाला ।।९
ब्रह्मा-विष्णु भी शीश नमाएँ, नारद-शारद मिल गुण गाएँ ।
योग-युक्ति में तुम सहकारी, तुझे सदा पूजें नर-नारी ।।१०
योगी-जन पर कृपा तुम्हारी, भक्त-भीड़-भय-भञ्जन-हारी ।
मैं बालक तुम मातृ हमारी, भव-सागर से तुरतहिं तारी ।।११
कृपा करो मो पर महरानी, तुम सम न कोइ दूसर दानी ।
पाठ करै जो ये चित लाई, 'उदय-नाथ' जी होंइ सहाई ।।१२

।।दोहा।।
'सत्य-नाथ' हैं सृष्टि-पति, जिनका है जल-रुप ।
नमन करत हैं आपको, स-चराचर के भूप ।।१३

।।चौपाई।।
जय-जय-जय 'सत्य-नाथ' कृपाला, दया करो हे दीन-दयाला ।
करके कृपा यह सृष्टि रचाई, भाँति-भाँति की वस्तु बनाई ।।१४
चार वेद का किया उचारा, ऋषि-मुनि मिल के किया विचारा ।
सनत् सनन्दन-सनत्कुमारा, नारद-शारद गुण-भण्डारा ।।१५
जग हित सबको प्रकटित कीन्हा, उत्तम ज्ञान योगी-पद दीन्हा ।
पाताले भुवनेश्वर सुन्दर, सत्य-धाम-पथ धाम मनोहर ।।१६
कुरु-क्षेत्रे पृथूदक सुन्दर, 'सत्य-नाथ' योगी कहलाए ।
आपन महिमा अगम अपारा, जानत है त्रिभुवन सारा ।।१७'
आशा-तृष्णा निकट न आए, माया-ममता दूर नसाए ।
'सत्य-नाथ' का जो गुण गाएँ, निश्चय उनका दर्शन पाएँ ।।१८

।।दोहा।।
विष्णु तो 'सन्तोष-नाथ', खाँड़ा खड्ग-स्वरुप ।
राज-सम दिव्य तेज है, तीन लोक का भूप ।।१९

।।चौपाई।।
जय-जय-जय श्री स्वर्ग-निवासी, करो कृपा मिटे काम फाँसी ।
सुन्दर रुपे विष्णु-तन धारे, स-चराचर के पालन हारे ।।२०
सब देवन में नाम तुम्हारा, जग-कल्याण-हित लेत अवतारा ।
जग-पालन का काम तुम्हारा, भीड़ पड़े सब देव उबारा ।।२१
योग-युक्ति 'गोरक्ष' से लीन्ही, शिव प्रसन्न हो दीक्षा दीन्ही ।
शंख-चक्र-गदा-पद्म-धारी, कान में कुण्डल शुभ-कारी ।।२२
शेषनाग की सेज बिछाई, निज भक्तन के होत सहाई ।
ऋषि-मुनि-जन के काज सँचारे, अधम दुष्ट पापी भी तारे ।।२३
देवासुर-संग्राम छिड़ाए, मार असुर-दल मार भगाए ।
'सन्तोष-नाथ' की कृपा पाएँ, जो चित लाय पाठ यह गाएँ ।।२४

।।दोहा।।
शेष रुप है आपका, अचल 'अचम्भेनाथ' ।
आदि-नाथ के आप प्रिय, सदा रहें उन साथ ।।२५

।।चौपाई।।
जय-जय-जय योगी अचलेश्वर, सकल सृष्टि धारे शिव ऊपर ।
अकथ अथाह आपकी शक्ति, जानो पावन योग की युक्ति ।।२६
शब्द-शास्त्र के आप नियन्ता, शेषनाग तुम हो भगवन्ता ।
बाल यती है रुप तुम्हारा, निद्रा जीत क्षुधा को मारा ।।२७
नाम तुम्हारा बाल गुन्हाई, टिल्ला शिवपुरी धाम सुहाई ।
सागर मथन की हुइ तैयारी, देव दैत्यकी सेना भारी ।।२८
पर-दुख-भञ्जन पर-हित काजा, नेति आप भये सिद्ध राजा ।
सागर मथा अमृत प्रकटाया, सब देवन को अमर बनाया ।।२९
यतियों में भी नाम तुम्हारा, योगियों में सिद्ध-पद धारा ।
नित ही बाल-स्वरुप सुहाए, अचल अचम्भेनाथ कहाए ।।३०

।।दोहा।।
'गज-बलि' गज के रुप हैं, गण-पति 'कन्थभ-नाथ' ।
वों में हैं अग्र-तम, सब ही जोड़ें हाथ ।।३१

।।चौपाई।।
जय-जय-जय श्रीकन्थभ देवा, हो कृपा मैं करूँ नित सेवा ।
मोदक हैं अति तुमको प्यारे, मूषक-वाहन परम सुखारे ।।३२
पहले पूजा करे तुम्हारी, काज होंय शुभ मंगल-कारी ।
कीन्हि परीक्षा जब त्रिपुरारी, देखि चतुरता भये सुखारी ।।३३
ऋद्धि-सिद्धि चरणों की दासी, आप सदा रहते वन-वासी ।
जग हित योगी-भेष बनाये, कन्थभ नाथ सु-नाम धराये ।।३४
कन्थ कोट में आसन कीन्हा, चमत्कार राजा को दीन्हा ।
सात बार तो कोट गिराए, बड़े-बड़े भूपनहिं नमाये ।।३५
वसुनाथ पर कृपा तुम्हारी, करी तपस्या कूप में भारी ।
भैक कापड़ी शिष्य तुम्हारे, करो कृपा हर विघ्न हमारे ।।३६

।।दोहा।।
ज्ञान-पारखी सिद्ध हैं, चन्द्र चौरंगि नाथ ।
जिनका वन-पति रुप है, उन्हें नमाऊँ माथ ।।३७

।।चौपाई।।
जय-जय-जय श्री सिद्ध चौरंगी, योगिन के तुम नित हो संगी ।
शीतल रुप चन्द्र अवतारा, सदा बरसो अमृत की धारा ।।३८
वनस्पति में अंश तुम्हारे, औषधि के सुख भये सुखारे ।
शालिवान है वंश तुम्हारा, बालपने योगी तन धारा ।।३९
अति सुन्दर तव सुन्दरताई, सुन्दरि रानी देख सुभाई ।
गुरु-शरण में रानी आई, हाथ जोड़ यह विनय सुनाई ।।४०
शिष्य आपका मुझे चाहिए, नहीं तो प्राण तन में बहिए ।
सुनकर गुरु जी करुणा कीन्हीं, जब तुझे यही आज्ञा दीन्हीं ।।४१
रानी संग चले मति पाई, जाय महल में ध्यान लगाई ।
रानी ने तब शीश नमाया, हुए अदृश्य भेद नहीं पाया ।।४२

।।दोहा।।
माया-रुपी आप हैं, दादा मछन्द्रनाथ ।
रखूँ चरण में आपके, करो कृपा मम नाथ ।।४३

।।चौपाई।।
जय-जय-जय अलख दया-सागर, मत्स्य में प्रकट जय करुणाकर ।
अमर कथा श्री शिवहिं सुनाई, गौरी के जो मन को भाई ।।४४
सूक्ष्म वेद जो शिवहि सुनाया, गर्भ में आपने वह पाया ।
जाकर अपना शीश नवाया, उमा महेश सु-वचन सुनाया ।।४५
जीव जगत का कर कल्याणा, ले आशीष चले भगवाना ।
सिंहल द्वीप सु-राज चलाया, सारे जग में यश फैलाया ।।४६
कदली-वन में किया निवासा, योग-मार्ग का किया प्रकाशा ।
माया-रुपहि आप सुहाएँ, जग को अन-धन-वस्त्र पुराएँ ।।४७
दादा पद है आपन सुन्दर, करें कृपा निज भक्त जानकर ।
महिमा आपकी महा भारी, कहि न सके मति मन्द हमारी ।।४८

।।दोहा।।
शिव गोरक्ष शिव-रुप हैं, घट-घट जिनका वास ।
ज्योति-रुप में आपने, किया योग प्रकाश ।।४९

।।चौपाई।।
जय-जय-जय गोरक्ष गुरुज्ञानी, तोग-क्रिया के तुम हो स्वामी ।
बालरुप लघु जटा विराजै, भाल चन्द्रमा भस्म तन साजै ।।५०
शिवयोगी अवधूत निरञ्जन, सुर-नर-मुनि सब करते वन्दन ।
चारों युग के आपहि योगी, अजर अमर सुधा-रस भोगी ।।५१
योग-मार्ग का किया प्रचारा, जीव असंख्य अभय कर जारा ।
राजा कोटि निभाने आए, देकर योग सब शिष्य बनाए ।।५२
तुम शिव गोरख राज अविनाशी, गोरक्षक उत्तरापथ-वासी ।
विश्व-व्यापक योग तुम्हारा, 'नाथ-पन्थ' शिव-मार्ग उदारा ।।५३
शिव गोरक्ष के शरण जो आएँ, होय अभय अमर-पद पाएँ ।
जो गोरख का ध्यान लगाएँ, जरा-मरण नहिं उसे सताएँ ।।५४

।।दोहा।।
माला यह नव-नाथ की, कण्ठ करे जो कोइ ।
कृपा होय नव-नाथ की, आवागमन न होइ ।।५५
नव-नाथ-माला सु-रची, तुच्छ मती अनुसार ।
त्रुटि क्षमा करें योगि-जन, कर लेना स्वीकार ।।५६
नहिं विद्या में निपुण हूँ, नहिं है ज्ञान विशेष ।
योगी-जन गुरु-पूजा को, करता हूँ आदेश ।।५७

नव-नाथ-स्वरुप

'आदि-नाथ' सदा-शिव हैं, जिनका आकाश-रुप,
'उदय-नाथ' पार्वती पृथ्वी-रुप जानिए ।
'सत्य-नाथ' ब्रह्मा जी जल-रुप मानिए ,
विष्णु 'सन्तोष-नाथ' तिनका है तेज-रुप ।
अचल हैं 'अचम्भे-नाथ' जिनका है शेष-रुप,
गज-बली 'कन्थभ-नाथ' हस्ति-रुप जानिए ।
ज्ञान-पारखी जो सिद्ध हैं वह 'चौरंगीनाथ' ,
अठार भार वनस्पति चन्द्र-रुप जानिए ।
दादा-गुरु 'श्रीमत्स्येन्द्र-नाथ' जिनका है माया-रुप ,
गुरु 'श्रीगोरक्ष-नाथ' ज्योति-रुप जानिए ।
बाल हैं त्रिलोक, 'नव-नाथ' को नमन करुँ,
नाथ जी ये बाल को अपना ही जानिए ।।

नव-नाथ-माला

'आदि-नाथ' महेश आकाश-रुप छाय रहे ।
'उदय-नाथ' पार्वती पृथ्वी-रुप भाए हैं ।
'सत्य-नाथ' ब्रह्मा जी जिनका है जल-रुप ।
वही तो कृपा कर सृष्टि को रचाए हैं ।
विष्णु 'सन्तोष-नाथ' तेज खाँडा खड्ग-स्वरुप ।
राज्पाट-अधिकारी वही तो कहाए हैं ।
अचल 'अचम्भेनाथ' जिनका है शेष-रुप ।
पृथ्वी का भार सब शीश पर उठाए हैं ।
गज-बली 'कन्थभ-नाथ' सिद्धि देता हार ।
हस्ति-रुपी घाड़ गण-पति कहलाए हैं ।
ज्ञान-पारखी चन्द्रमा-सिद्ध हैं 'चौरंगी-नाथ' ।
अठार भार वनस्पति में वही समाए हैं ।
माया-पति दादा-गुरु कृपालु 'मत्स्येन्द्र-नाथ' ।
सब ही को अन्न-धन-कपड़ा पुराए हैं ।
गुरु तो 'गोरक्ष-नाथ' स्वयं ज्योति-स्वरुप जो ।
विश्व भर योग-शक्ति उदार फैलाए हैं ।
बड़े हैं जो भाग्य-वन्त जिन योग प्राप्त किया ।
नव-नाथ 'नव-नाथ' गुरु-गण गाए हैं ।
नाथ ये त्रिलोक 'नव-नाथ' को नमन कर ।
नव-नाथ-नाम शुभ मेरे मन भाए हैं ।

।।दोहा।।
श्री 'नव-नाथ' को चुनऊँ, दीजिए शुभ आशीष ।
आप ही मम सर्वस्व हैं, आपहि हैं मम ईश ।।
करें कृपा मुझ दीन पर, करूँ सुयश गुण-गान ।
'नव-नाथ-माला' शुभ गुनूँ, कीजिए बुद्धि प्रदान ।।
जिसके पठन-श्रवण से, मिटे त्रिविध भव-ताप ।
अचल मोक्ष-पद-पावहीं, जपिहैं जो चित लाय ।।

.. श्री नवनाथ मंगलाष्टक ..

आदिनाथ गुरुदेव नाथपंथी चालका।

वंदितो मी भक्तिभाव नित्यानाथा तव पादुका.

विश्व कर्ता उमाकांत नाथ शक्ति तुझी सकल

भक्त तुझा रक्षा नाथ कुर्यात सदा मंगलम . शिवमंगलम, गुरुमंगलम॥

 दीननाथा दत्तात्रेय नाथपंथी गुरुदेव

मंत्रसिद्धा, तंत्र सिद्ध योगीनाथ तुझी सेवा

अलख निरंजन वदता नाथ आदेश हा द्यावा

भक्त तुझा रक्षा नाथ कुर्यात सदा मंगलम . शिवमंगलम, गुरुमंगलम॥

 मत्स्येन्द्र नाथ माया देवा नाथपंथी योगिराज

कॉल ज्ञानी सिद्ध नाथ तापोधानी महाराजा

योग माया तुझी सेवा मंत्र सिद्ध ज्ञान राजा

भक्त तुझा रक्षा नाथ कुर्यात सदा मंगलम . शिवमंगलम, गुरुमंगलम॥

 गोरक्षनाथा योगी राजा नाथपंथी सुधारक

ज्ञान सिद्धि तापोधानी ध्यान समनी अवधूत चिन्तिका

साधकांचा गुरु होई योगी ठेवा साधका

भक्त तुझा रक्षा नाथ कुर्यात सदा मंगलम . शिवमंगलम, गुरुमंगलम॥

जालिंदर नाथ सत्यानाथा नाथपंथी तपोधनी

कापालिका ब्रह्म रूपा नित्य प्रिया योग समाधी

गुरुकृपा तुझी सेवा मोक्ष सधे तव साधनी

भक्त तुझा रक्षा नाथ कुर्यात सदा मंगलम . शिवमंगलम, गुरुमंगलम॥

 कानिफा प्रबुद्ध नारायणा नाथपंथी कापालिका

ब्रह्मचर्य तुझा ठेवा सिद्ध नाथ कान्हुपा

ग्रन्थ करता योगिराज मंत्रसिद्धा गुरु सेवक

भक्त तुझा रक्षा नाथ कुर्यात सदा मंगलम . शिवमंगलम, गुरुमंगलम॥

 गहिनिनाथा अचल्नाथा नाथपंथी सिद्धानाथा

तपयोगी मंत्रदेशी ज्ञान तुझे ज्ञान नाथ

भक्त सरे पन्ध्रिला योगी तू पंढरी नाथा

भक्त तुझा रक्षा नाथ कुर्यात सदा मंगलम . शिवमंगलम, गुरुमंगलम॥

 रेवन नाथ दंड नाथा नाथपंथी दैवी माया

चर्पटी कुर्मनाथा रामपंथी योगमाया

नागनाथा नटेश-वरा योगसिद्धि गुरु छाया

भक्त तुझा रक्षा नाथ कुर्यात सदा मंगलम . शिवमंगलम, गुरुमंगलम॥

 भरतरी नाथ सत्यानाथा नाथपंथी हा बैरागी

नितिधर्मा राजयोग सिद्धामंत्र मंत्रयोगी

नाथपंथी सर्वव्यापी कलियुगी सिद्धयोगी

भक्त तुझा रक्षा नाथ कुर्यात सदा मंगलम . शिवमंगलम, गुरुमंगलम॥

गुरु मच्छिन्द्रनाथ चालीसा...

दोहा

गणपति गिरिजा पुत्र को सुमरूं बारम्बार
हाथ जोड़ विनती करूं शारदा नाम आधार

सत्य श्री आकाम ॐ नमः आदेश
माता पिता कुलगुरु देवता सत्संग को आदेश
आकाश चन्द्र सूरज पावन पानी को आदेश
नव नाथ चौरासी सिद्ध अनंत कोटि सिद्दों को आदेश
सकल लोक के सर्व संतों को सत् सत् आदेश
सतगुरु मच्छिन्द्र-नाथ को हर्दय पुष्प अर्पित कर आदेश

|| ॐ नमः शिवाये ||

चौपाई
जय-जय गुरु मच्छिन्द्रनाथ अविनाशी कृपा करो गुरुदेव प्रकाशी
जय-जय गुरु मच्छिन्द्रनाथ गुण ज्ञानी इच्छा रूप योगी वरदानी
अलख निरंजन तुम्हारो नामा सदा करो भक्तन हित कामा
नाम तुम्हारा जो कोई गावे जन्म-जन्म के दुःख मिट जावे
जो कोई गुरु मच्छिन्द्र नाम सुनावे भूत पिशाच निकट नहीं आवे

ज्ञान तुम्हारा योग से पावे रूप तुम्हारा वर्णत न जावे
निराकार तुम हो निर्वाणी महिमा तुम्हारी वेद् ना जानी
घट-घट के तुम अन्तर्यामी सिद्ध चौरासी करे प्रणामी
भस्म अंग गल नाद विराजे जटा सीस अति सुन्दर साजे
तुम बिन देव और नहीं दूजा देव मुनि जन करते पूजा

चिदानंद संतन हितकारी मंगल करण अमंगल हारी
पूर्ण ब्रह्मा सकल घटवासी गुरु मच्छिन्द्र सकल प्रकाशी
गुरु मच्छिन्द्र-गुरु मच्छिन्द्र जो कोई ध्यावे ब्रह्मा रूप के दर्शन पावे
शंकर रूप धर डमरू बाजे कानन कुण्डल सुंदर साजे
नित्यानंद है नाम तुम्हारा असुर मार भक्तन रखवारा

अति विशाल है रूप तुम्हारा सुर नर मुनि जन पावे न पारा
दीन बन्धु दीन हितकारी हरो पाप हम शरण तुम्हारी
योग मुक्ति में हो प्रकाशा सदा करो सन्तन तन वासा
प्रातः काल ले नाम तुम्हारा सिद्धी बड़े अरु योग प्रचारा
हठ-हठ-हठ गुरु मच्छिन्द्र हठीले मार-मार बैरी के कीले

चल-चल-चल गुरु मच्छिन्द्र विकराला दुश्मन मार करो बेहाला
जय-जय-जय गुरु मच्छिन्द्र अविनाशी अपने जन की हरो चौरासी
अचल अगम है गुरु मच्छिन्द्र योगी सिद्धी देवो हरो रसभोगी
काटो मार्ग यम् को तुम आई तुम बिन मेरा कौन साहाई
अजर अमर है तुम्हारी देहा सनका दिक् सब जो रही नेहा

कोटिन रवि सम तेज तुम्हारा हे प्रसिद्ध जगत उजिआरा
योगी लिखे तुम्हारी माया पार ब्रह्मा से ध्यान लगाया
ध्यान तुम्हारा जो कोई लावे अष्ट सिद्धी नव निधि धर पावे
शिव मच्छिन्द्र है नाम तुम्हारा पापी ईष्ट अधम को तारा
अगम अगोचर निर्भय नाथा सदा रहो सन्तन के साथा

शंकर रूप अवतार तुम्हारा गौरव गोपीचंद्र भर्तहरी को तारा
सुन लीजो प्रभु अरज हमारी कृपा सिन्धु योगी चमत्कारी
पूर्ण आस दास की कीजे सेवक जान ज्ञान को दीजे
पतित पावन अधम अधारा तिनके हेतु तुम लेत अवतारा
अलख निरंजन नाम तुम्हारा अगम पथ जिन योग प्रचारा

जय-जय-जय गुरु मच्छिन्द्र भगवाना सदा करो भक्तन कल्याना
जय-जय-जय गुरु मच्छिन्द्र अविनाशी सेवा करे सिद्धी चौरासी
जो ये पढ़हि गुरु मच्छिन्द्र चालीसा होए सिद्ध साक्षी जगदीशा
हाथ जोड़कर ध्यान लगावे और श्रद्धा से भेंट चडावे
बारहा पाठ पड़े नित जोई मनोकामना पूर्ण होई

दोहा

सुने सुनावे प्रेम वश पूजे अपने हाथ, मन इच्छा सब कामना पुरे गुरु मच्छिन्द्रनाथ
अगम अगोचर नाथ तुम पारब्रह्मा अवतार, कानन कुण्डल सिर जटा अंग विभूति अपार
सिद्ध पुरुष योगेश्वरी दो मुझको उपदेश, हर समय सेवा करूँ सुबह शाम आदेश

शिव आदेश

ॐ अलख निरंजन शिव को आदेश।
अविगत महापुरुष मूल पुरुष पुरुषोत्तम आद पुरुष शिव को आदेश। ज्योति-परमज्योति-अयोनि रूद्र शिव को आदेश। विशूनी विश्वमूर्ति पाताल ग्रहणी शिव को आदेश। मुखेवेद पुराण नासिका गंगा - जमना - सरस्वती शिव को आदेश। ललाटी चंद मस्तके त्रिकुटा देवता धारी शिव को आदेश। नक्षत्री माला  अठारह भार वनस्पती  हृदय के तैतीस करोड़ देवता धारी शिव को आदेश। सेली सिंगी मीन मेखला बाघाम्बरधारी  रोम - रोम सप्त सागरा शिव को आदेश। शिव के बायीं ओर निर्गुण ब्रहम् दाहिनी ओर शक्ति महामाया बीच में स्वयं पूर्ण अखण्ड ज्योति स्वरूप शिव को आदेश। विभूति धारी  बीज मंत्र  घोर मंत्र अघोर मंत्र  क्षीर मंत्र  गायत्री मंत्र  अभय जाप  तंत्र - मंत्र स्वरूप शिव को आदेश। नर - नारी  भूत - प्रेत  यक्ष किन्नर इन्द्रादि देवता ब्रह्माण्ड व्यापक शिव को आदेश। साधु - संत  योगी - ज्ञानी  तपस्वी  त्यागी  अवधूत हर भक्त के ईष्ट शिव को आदेश। जीवों का आराध्या शिव को आदेश। सूक्ष्म में सूक्ष्म विराटों में व्यापक महातत्त्व शिव को आदेश। सृष्टि उत्पत्ति संहार पालन पंच महातत्त्व शिव को आदेश। चार खानी  चार बानी चन्द सूर पवन पानी शिव को आदेश। चराचर सृष्टि का बिज शिव को आदेश। करोड़ों सूर्य प्रकाशनाथ योग आदर्श शिव को आदेश। परमात्मपूर्ण आनंद सर्व शक्तिमान चैतन्य रूप जितेन्द्र मोक्ष कैवल्य मुक्तिदाता भिन्न - अभिन्न शिव को आदेश। महाज्ञानी कृपा साक्षात्कार शिव को आदेश। सर्वनाथ सिद्धों का सतगुरु आदिनाथजि ॐकार शिव को आदेश। इतना शिव सबद निरूपा सम्पूर्ण भया। श्रीनाथजी गुरुजी को आदेश।
श्रीशंभुजती गुरु गोरखनाथ बाल स्वरूप बोलिए। इतना नौ नाथ स्वंरूप मंत्र सम्पूर्ण भया  अनन्त कोट सिद्धों में बैठकर गुरु गोरखनाथजि ने कहाया नाथजी गुरुजी आदेश।