Monday 16 June 2014

नव-नाथ-चरित

।।दोहा।।
'आदि-नाथ' आकाश-सम, सूक्ष्म रुप ॐकार ।
तीन लोक में हो रहा, आपनि जय-जय-कार ।।१

।।चौपाई।
जय-जय-जय कैलाश-निवासी, यो-भूमि उतर-खण्ड-वासी ।
शीश जटा सु-भुजंग विराजै, कानन कुण्डल सुन्दर साजे ।।२
डिमक-डिमक-डिम डमरु बाजे, ताल मृदंग मधुर ध्वनि गाजे ।
ताण्डव नृत्य किया शिव जब ही, चौदह सूत्र प्रकट भे तब ही ।।३
शब्द-शास्त्र का किया प्रकाशा, योग-युक्ति राखे निज पासा ।
भेद तुम्हारा सबसे न्यारा, जाने कोई जानन-हारा ।।४
योगी-जन तुमको अति प्यारे, जरा-मरण के कष्ट निवारे ।
योग प्रकट करने के कारण, 'गोरक्ष' स्वरुप किया धारण ।।५
ब्रह्म-विष्णु को योग बताया, नारद ने निज शीश नवाया ।
कहाँ तलक कर वरनूँ गाथा, आदि-अनादि हो आदि-नाथा ।।६

।।दोहा।।
'उदय-नाथ' तुम पार्वती, प्राण-नाथ भी आप ।
धरती-रुप सु-जानिए, मिटे त्रिविध भव-ताप ।।७

।।चौपाई।।
जय-जय-जय 'उदय'-मातृ भवानि, करो कृपा निज बालक जानी ।
पृथ्वी-रुप क्षमा तुम करती, दुर्गा-रुप असुर-भय हरती ।।८
आदि-शक्ति का रुप तुम्हारा, जानत जीव चराचर सारा ।
अन्नपूर्णा बन के जग पाला, धन्यो रुप सुन्दरी बाला ।।९
ब्रह्मा-विष्णु भी शीश नमाएँ, नारद-शारद मिल गुण गाएँ ।
योग-युक्ति में तुम सहकारी, तुझे सदा पूजें नर-नारी ।।१०
योगी-जन पर कृपा तुम्हारी, भक्त-भीड़-भय-भञ्जन-हारी ।
मैं बालक तुम मातृ हमारी, भव-सागर से तुरतहिं तारी ।।११
कृपा करो मो पर महरानी, तुम सम न कोइ दूसर दानी ।
पाठ करै जो ये चित लाई, 'उदय-नाथ' जी होंइ सहाई ।।१२

।।दोहा।।
'सत्य-नाथ' हैं सृष्टि-पति, जिनका है जल-रुप ।
नमन करत हैं आपको, स-चराचर के भूप ।।१३

।।चौपाई।।
जय-जय-जय 'सत्य-नाथ' कृपाला, दया करो हे दीन-दयाला ।
करके कृपा यह सृष्टि रचाई, भाँति-भाँति की वस्तु बनाई ।।१४
चार वेद का किया उचारा, ऋषि-मुनि मिल के किया विचारा ।
सनत् सनन्दन-सनत्कुमारा, नारद-शारद गुण-भण्डारा ।।१५
जग हित सबको प्रकटित कीन्हा, उत्तम ज्ञान योगी-पद दीन्हा ।
पाताले भुवनेश्वर सुन्दर, सत्य-धाम-पथ धाम मनोहर ।।१६
कुरु-क्षेत्रे पृथूदक सुन्दर, 'सत्य-नाथ' योगी कहलाए ।
आपन महिमा अगम अपारा, जानत है त्रिभुवन सारा ।।१७'
आशा-तृष्णा निकट न आए, माया-ममता दूर नसाए ।
'सत्य-नाथ' का जो गुण गाएँ, निश्चय उनका दर्शन पाएँ ।।१८

।।दोहा।।
विष्णु तो 'सन्तोष-नाथ', खाँड़ा खड्ग-स्वरुप ।
राज-सम दिव्य तेज है, तीन लोक का भूप ।।१९

।।चौपाई।।
जय-जय-जय श्री स्वर्ग-निवासी, करो कृपा मिटे काम फाँसी ।
सुन्दर रुपे विष्णु-तन धारे, स-चराचर के पालन हारे ।।२०
सब देवन में नाम तुम्हारा, जग-कल्याण-हित लेत अवतारा ।
जग-पालन का काम तुम्हारा, भीड़ पड़े सब देव उबारा ।।२१
योग-युक्ति 'गोरक्ष' से लीन्ही, शिव प्रसन्न हो दीक्षा दीन्ही ।
शंख-चक्र-गदा-पद्म-धारी, कान में कुण्डल शुभ-कारी ।।२२
शेषनाग की सेज बिछाई, निज भक्तन के होत सहाई ।
ऋषि-मुनि-जन के काज सँचारे, अधम दुष्ट पापी भी तारे ।।२३
देवासुर-संग्राम छिड़ाए, मार असुर-दल मार भगाए ।
'सन्तोष-नाथ' की कृपा पाएँ, जो चित लाय पाठ यह गाएँ ।।२४

।।दोहा।।
शेष रुप है आपका, अचल 'अचम्भेनाथ' ।
आदि-नाथ के आप प्रिय, सदा रहें उन साथ ।।२५

।।चौपाई।।
जय-जय-जय योगी अचलेश्वर, सकल सृष्टि धारे शिव ऊपर ।
अकथ अथाह आपकी शक्ति, जानो पावन योग की युक्ति ।।२६
शब्द-शास्त्र के आप नियन्ता, शेषनाग तुम हो भगवन्ता ।
बाल यती है रुप तुम्हारा, निद्रा जीत क्षुधा को मारा ।।२७
नाम तुम्हारा बाल गुन्हाई, टिल्ला शिवपुरी धाम सुहाई ।
सागर मथन की हुइ तैयारी, देव दैत्यकी सेना भारी ।।२८
पर-दुख-भञ्जन पर-हित काजा, नेति आप भये सिद्ध राजा ।
सागर मथा अमृत प्रकटाया, सब देवन को अमर बनाया ।।२९
यतियों में भी नाम तुम्हारा, योगियों में सिद्ध-पद धारा ।
नित ही बाल-स्वरुप सुहाए, अचल अचम्भेनाथ कहाए ।।३०

।।दोहा।।
'गज-बलि' गज के रुप हैं, गण-पति 'कन्थभ-नाथ' ।
वों में हैं अग्र-तम, सब ही जोड़ें हाथ ।।३१

।।चौपाई।।
जय-जय-जय श्रीकन्थभ देवा, हो कृपा मैं करूँ नित सेवा ।
मोदक हैं अति तुमको प्यारे, मूषक-वाहन परम सुखारे ।।३२
पहले पूजा करे तुम्हारी, काज होंय शुभ मंगल-कारी ।
कीन्हि परीक्षा जब त्रिपुरारी, देखि चतुरता भये सुखारी ।।३३
ऋद्धि-सिद्धि चरणों की दासी, आप सदा रहते वन-वासी ।
जग हित योगी-भेष बनाये, कन्थभ नाथ सु-नाम धराये ।।३४
कन्थ कोट में आसन कीन्हा, चमत्कार राजा को दीन्हा ।
सात बार तो कोट गिराए, बड़े-बड़े भूपनहिं नमाये ।।३५
वसुनाथ पर कृपा तुम्हारी, करी तपस्या कूप में भारी ।
भैक कापड़ी शिष्य तुम्हारे, करो कृपा हर विघ्न हमारे ।।३६

।।दोहा।।
ज्ञान-पारखी सिद्ध हैं, चन्द्र चौरंगि नाथ ।
जिनका वन-पति रुप है, उन्हें नमाऊँ माथ ।।३७

।।चौपाई।।
जय-जय-जय श्री सिद्ध चौरंगी, योगिन के तुम नित हो संगी ।
शीतल रुप चन्द्र अवतारा, सदा बरसो अमृत की धारा ।।३८
वनस्पति में अंश तुम्हारे, औषधि के सुख भये सुखारे ।
शालिवान है वंश तुम्हारा, बालपने योगी तन धारा ।।३९
अति सुन्दर तव सुन्दरताई, सुन्दरि रानी देख सुभाई ।
गुरु-शरण में रानी आई, हाथ जोड़ यह विनय सुनाई ।।४०
शिष्य आपका मुझे चाहिए, नहीं तो प्राण तन में बहिए ।
सुनकर गुरु जी करुणा कीन्हीं, जब तुझे यही आज्ञा दीन्हीं ।।४१
रानी संग चले मति पाई, जाय महल में ध्यान लगाई ।
रानी ने तब शीश नमाया, हुए अदृश्य भेद नहीं पाया ।।४२

।।दोहा।।
माया-रुपी आप हैं, दादा मछन्द्रनाथ ।
रखूँ चरण में आपके, करो कृपा मम नाथ ।।४३

।।चौपाई।।
जय-जय-जय अलख दया-सागर, मत्स्य में प्रकट जय करुणाकर ।
अमर कथा श्री शिवहिं सुनाई, गौरी के जो मन को भाई ।।४४
सूक्ष्म वेद जो शिवहि सुनाया, गर्भ में आपने वह पाया ।
जाकर अपना शीश नवाया, उमा महेश सु-वचन सुनाया ।।४५
जीव जगत का कर कल्याणा, ले आशीष चले भगवाना ।
सिंहल द्वीप सु-राज चलाया, सारे जग में यश फैलाया ।।४६
कदली-वन में किया निवासा, योग-मार्ग का किया प्रकाशा ।
माया-रुपहि आप सुहाएँ, जग को अन-धन-वस्त्र पुराएँ ।।४७
दादा पद है आपन सुन्दर, करें कृपा निज भक्त जानकर ।
महिमा आपकी महा भारी, कहि न सके मति मन्द हमारी ।।४८

।।दोहा।।
शिव गोरक्ष शिव-रुप हैं, घट-घट जिनका वास ।
ज्योति-रुप में आपने, किया योग प्रकाश ।।४९

।।चौपाई।।
जय-जय-जय गोरक्ष गुरुज्ञानी, तोग-क्रिया के तुम हो स्वामी ।
बालरुप लघु जटा विराजै, भाल चन्द्रमा भस्म तन साजै ।।५०
शिवयोगी अवधूत निरञ्जन, सुर-नर-मुनि सब करते वन्दन ।
चारों युग के आपहि योगी, अजर अमर सुधा-रस भोगी ।।५१
योग-मार्ग का किया प्रचारा, जीव असंख्य अभय कर जारा ।
राजा कोटि निभाने आए, देकर योग सब शिष्य बनाए ।।५२
तुम शिव गोरख राज अविनाशी, गोरक्षक उत्तरापथ-वासी ।
विश्व-व्यापक योग तुम्हारा, 'नाथ-पन्थ' शिव-मार्ग उदारा ।।५३
शिव गोरक्ष के शरण जो आएँ, होय अभय अमर-पद पाएँ ।
जो गोरख का ध्यान लगाएँ, जरा-मरण नहिं उसे सताएँ ।।५४

।।दोहा।।
माला यह नव-नाथ की, कण्ठ करे जो कोइ ।
कृपा होय नव-नाथ की, आवागमन न होइ ।।५५
नव-नाथ-माला सु-रची, तुच्छ मती अनुसार ।
त्रुटि क्षमा करें योगि-जन, कर लेना स्वीकार ।।५६
नहिं विद्या में निपुण हूँ, नहिं है ज्ञान विशेष ।
योगी-जन गुरु-पूजा को, करता हूँ आदेश ।।५७

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