Monday 16 June 2014

महायोगी गोरक्षनाथ, रैदास (रविदास), गोस्वामी तुलसीदास और मीरा

महायोगी गोरक्षनाथ, रैदास (रविदास), गोस्वामी तुलसीदास और मीरा।
महायोगी गोरक्षनाथ के सन्दर्भ में गुरू नानकदेव, सन्त कबीरदास की कथा और किंवदनितयों का परीक्षण हमने अब तक किया। अब जरा भक्त मीराबार्इ के साथ सन्त कबीरदास व सन्त रविदास से सम्पर्क, सन्त रविदास को भक्त मीराबार्इ के गुरू होने के तथ्यों का भी परीक्षण कर लिया जावे तो इन तीनों विभूतियों के साथ महायोगी गोरक्षनाथ की काषी में भेंट होना और सन्त रविदास की कठौती का पानी नहीं पीने पर ”वो पानी मुलतान गया की कथा का आधार हिलता हुआ प्रतीत होता है। सन्त रविदास के जन्म के संबंध में हमें तीन तिथियां क्रमष: 1376 या 1399 या 1450 प्राप्त होती हैं किन्तु उनके देहावसान की केवल एक तिथि वर्ष 1520 है और इस प्रकार उनकी आयु 144 या 127 या 70 वर्ष प्रकट होती है। भक्त मीराबार्इ का जन्म 1498 अथवा 1506 में होकर वर्ष 1513 या 1516 में राणा कुम्भा से विवाह और राणा कुम्भा का वर्ष 1526-27 में युद्ध में मारे जाने के बाद राजपूती परंपरा अनुसार उन्हें सती किये जाने के प्रयास के तथ्य निर्विवाद हैं। मीरा की जीवनी पर अधिक चर्चा नही करते हुए प्रासंगिक और निर्विवाद तथ्य यह है कि राणा कुम्भा की युद्ध में मृत्यु (1526 या 1527) के बाद ही मीरा चित्तौड के महलों से निकलकर श्रीकृष्ण से अपनी प्रेम यात्रा के क्रम में वृन्दावन और द्वारिका गयी जबकि सन्त रविदास का देहावसान तो वर्ष 1520 में ही हो गया था।
प्रष्न यह है कि भक्त मीरा ने क्या महलों में रहते हुए ही सन्त रविदास से सम्पर्क किया होगा? अथवा मीरा के गुरू कोर्इ अन्य सन्त रविदास थे?
हमारी शोधयात्रा में हमें कोर्इ ऐसा प्रमाण नहीं मिला कि सन्त रविदास नाम से कोर्इ अन्य सन्त रहा होगा और ज्ञात सन्त रविदास के राजपूताने (तत्समय जो भी संज्ञा रही हो) में आने के कोर्इ प्रमाण नहीं हैं। अपितु तार्किक रूप से भक्त मीरा के विरोधाभाषी पद अवष्य मिले जो निष्चय ही एक अलग ही तथ्य को इंगित करते हैं। बाबा बेणीमाधव रचित ‘गुसार्इं चरित अनुसार भक्त मीराबार्इ ने अपने परिजनों के व्यवहार से परेषान होकर किसी सुखपाल नामक ब्राहमण के साथ भक्त तुलसीदासजी को पत्रिका भिजवार्इ तदनुसार-
स्वसित श्री तुलसी कुलभूषण दूषन हरन गोसार्इं। बारहीं बार प्रनाम करहूं अब हरहूं सोक समुदार्इ।।
घर के स्वजन हमारे जेते सबन्ह उपाधि बढार्इ। साधु संग अरू भजन करत माहिं देत कलेस महार्इ।।
मेरे माता-पिता के समहौ हरिभक्तन सुखदार्इ। हमको कहा उचित करिबो है सो लिखिये समझार्इ।।
इसके प्रत्युत्तर में भक्त तुलसीदास ने लिखा-
जाके प्रिय न राम वैदेही। तजिए ताहि कोटि बैरी सम, जदयपि परम सनेही।।
सो छोडिये, तज्यो पिता प्रहलाद, विभीषन बंधु, भरत महतारी।
बलिगुरू तज्यो कंत ब्रतबनितनित, भये मुद मंगलकारी।।
नाते नेह सबै राम के मनियत सुह्रद सुसेव्य जहां लौं।
अंजन कहां आंखि जेहि फूटै, बहुतक कहांै कहां लौं।।
तुलसी सो सब भांति परमहित पूज्य प्रान ते प्यारो।
जासों हाय सनेह राम-पद, एतोमतो हमारो।।
सर्वोपरि रूप से भकित आन्दोलन की इन महान विभूतियों के जन्म और देहावसान की तालिका ही यह स्पष्ट कर देती है कि सन्त कवि मीराबार्इ और भक्त तुलसीदास के मध्य सम्पर्क होना असंभव है। मीराबार्इ आयु और भक्ती आन्दोलन की विभुतियों में पद सोपान के प्रतिषिठत क्रम में तुलसीदास से इतनी वरिष्ठ हैं कि मीराबार्इ का उक्त पद उनके नाम से कूट रचित होकर किसी विषेष उददेष्य के निमित्त किसी छदम सन्देह को इंगित करता है। फिर यदि श्रीकृष्ण भक्त मीराबार्इ को किसी भी दुविधा के निवारणार्थ मार्गदर्षन ही चाहिये था तो अपने कथित (हम स्पष्ट कर चुके हैं और आगे पुन: चर्चा करेंगे कि मीराबार्इ और सन्त रविदास के परस्पर सम्पर्क की संभावनाएं नगण्य है) गुरू भक्त रविदास से पत्राचार करती। श्रीकृष्ण भकित में समर्पित मीराबार्इ को श्रीराम भक्त तुलसीदास से पत्राचार या अन्य प्रकार से सम्पर्क का ना तो औचित्य ही था ना संभावना और ना कोर्इ प्रमाण।
बाबा बेणीमाधव ने सन्त तुलसीदास को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने वाली अनेक कहानियां लिखी हैं जिनमें कवि केषवदास द्वारा एक ही रात में ‘रामचनिद्रका नामक वृहद काव्य की रचना कर उसके अनुमोदन के लिये तुलसीदास के पास अस्सीघाट पर जाना, भक्त सूरदास को अपनी रचना ‘सूरसागर के अनुमोदन के लिये तुलसीदास के पास काषी जाना और कवि रसखान द्वारा निरन्तर तीन वर्ष तक ‘रामचरित मानस का श्रवण करना प्रमुख हैं। बाबा बेणीमाधव ने मीरा पर बडी कृपा की जो उन्हें अपनी दुविधा के निवारण के लिये मार्गदर्षन प्राप्त करने हेतु तुलसीदास के पास काषी जाना नहीं बताया और मात्र पत्राचार को ही माध्यम बनाया।
इसी प्रकार भक्त रविदास और मीराबार्इ का सम्पर्क होना भी संदिग्ध ही है। मीराबार्इ द्वारा रैदास को अपना गुरू मानने की जनश्रुतियों का मूल आधार मीराबार्इ के नाम से प्रचारित निम्नांकित पद है।
1. मेरो मन लाग्यो हरिजी सूं अब न रहूंगी अटकी। गुरू मिलिया रैदास जी दीन्ही ज्ञान की गुटकी।।
2. गुरू रैदास मिले मोहि पूरे धुर से कलम भिडी। सतगुरू सैन दर्इ जब आके जोत में जोत जली।।
3. रैदास सन्त मिले मोहि सतगुरू दीन्हा सुरति सहदानी।
4. झांझ पखावज वेणू बाजिया झालरनो झनकार। काषी नगर के चौक मां मने गुरू मिलिया रोहिदास।
देश (स्थान), काल (समय), और परिसिथतियों की कसौटी पर परीक्षण करें तो काषी के चौक में मीराबार्इ का रैदास से मिल पाना संभव ही नहीं था। यह निर्विवाद है कि रैदास के स्वर्गवास के समय मीराबार्इ की आयु 18-20 वर्ष थी और राणा कुंभा (भोजराज का यही नाम विख्यात होने के कारण इसी नाम को उल्लेख करने की विवषता है) तत्समय जीवित था अत: मीराबार्इ मेवाड में ही थी। आवागमन के साधनों व सुविधा की कमी और मार्ग की कठिनार्इयां इतनी विकट थी कि 120 वर्षीय वृद्ध रैदास का मारवाड आ सकना भी संभव नहीं था और ऐसा कोर्इ तथ्य अब तक प्रकट भी नहीं हुआ है। वैसे भी रैदास अपने पारिवारिक दायित्वों को पूर्ण करने और आजीविका के लिये अपना नित्यकर्म करते हुए ही भकित करने वाले सन्त थे। ना तो वे धुम्मकड साधू थ, ना अपने मत के प्रचार के लिये उन्होंने कोर्इ मिषन चलाया और ना ही स्वयं को ज्ञानी या भक्त श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिये ज्ञान गोषिठयों में जाने के तथ्य मिलते हैं, फिर रैदास को गुरू मानने संबंधी ये पद कब और कैसे असितत्व आये? बहुत क्षीण संभावना यह है कि राणा सांगा की मां रानी रत्नकुंवरी झाली का रैदास की षिष्या होने का उल्लेख प्रियादास लिखित भक्तमाल में है। भक्तमाल की विषय सामग्री कितनी विष्वसनीय है इस संबंध में विस्तृत चर्चा पृथक अध्याय में की गयी है। यहां यह पुन: शोध का विषय है कि राणा सांगा की मां रैदास की षिष्या किस प्रकार थी और मीराबार्इ रैदास की षिष्या थी तों प्रियादास रचित भक्तमाल में मीरा का नाम क्यों नहीं आया? मीरा जैसे सर्वाधिक यषस्वी नाम को प्रियादास अपने मत के सम्मान व गुरू की कीर्ति बढाने में सहायक हो सकने वाले इस अवसर को कैसे विस्मृत कर सकता था? फिलहाल, प्रस्तुत प्रसंग में ससुराल में अपनी दादी सास के पास आने वाले रैदास के षिष्यों से मीराबार्इ की आध्यातिमक और प्रभु चर्चाएं हुर्इ होगी और रैदास के इन्हीं अथवा ऐसे ही षिष्यों ने कालान्तर में मीराबार्इ के नाम से उक्त पदों की रचना की गयी होगी।
वस्तुत: मीराबार्इ भकित काल के अन्तरिक्ष में टिमटिमा रहे संप्रदाय रूपी असंख्य छुटपुट ग्रहों के मध्य ऐसा देदिप्यमान प्रकाषपुंज है जिससे परावर्तित प्रकाष से अनेक शूद्र ग्रहों को पहचान मिली और कतिपय अवसरवादी समूहों ने स्वयं को प्रभासित करने के प्रयास के अतिरेक में अपने अंधकारयुक्त भाग को मीरा की परछाार्इ बनाने में भी संकोच नहीं किया। श्रीकृष्ण के प्रेम व भकित की शकित और अलौकिक चमत्कारों की श्रंखला ने मीरा की यष पताका को इतना विषाल कर दिया था कि उस समय के भक्त समूहों ने उस पताका में अपना नाम लिखने के कुतिसत प्रयास के क्रम में विरोधाभासी कथाओं और उन्हें प्रमाणित करने के लिये उनके नाम से साहित्य का सृजन तक कर लिया। अपने आध्यातिमक मत का समर्थन जुटाने व गुरू की ख्याति बढाने के प्रयास में ऐसी अनेक कथा और किंवदनितयां असितत्व में आयी और संभवत: आती रहेगी किन्तु मीरा ना तो किसी सम्प्रदाय में दीक्षित हुर्इ ना किसी को गुरू बनाया। मीरा का गुरू, सखा, रक्षक, पति, भजन, भकित, अध्यात्म अर्थात सबकुछ केवल और केवल श्रीकृष्ण थे यह सर्वकालिक ध्रुव सत्य है। देखा जाये तो मीरा स्वयं एकल सेना होकर एक संपूर्ण संप्रदाय है जिसका अनुयायी प्रत्येक वो जीव है जो श्रीकृष्ण से प्रेम (केवल भकित नहीं) करता है। इन दासपंथी भक्तों ने प्रेमपंथी मीरा जैसे अन्तरिक्ष, जिसकी किसी से कोर्इ प्रतिस्पर्धा ही नहीं है, को भी अपने जीर्ण-षीर्ण शामियाने में छांव तलाषने वाला बताने में संकोच नहीं किया तो अन्य प्रतिद्वन्दी संप्रदायों से संबद्ध साधुओं की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाने वाली कथाओं की असत्यता का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।
आचार्य रामचन्æ शुक्ल का कथन योगी गोरक्षनाथ के संस्कृत ग्रन्थों मेंं निहित योग सम्बन्धी पक्ष को नहींं समझने के कारण ही इस प्रकार उपालम्भ दिया गया है। फिर स्वयं योगी गोरक्षनाथ के प्रारंभिक संस्कृत साहित्य को छोड़़ भी दें, तो योगी याज्ञवल्क्य, कपिल और पतंजलि के पुरातन साहित्य के अतिरिä पष्चातय विद्वान डब्ल्यू. जे. बि्रग्स ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘गोरक्षनाथ एण्ड दर्षनी योगीज, में अनेक नाथयोगियों के नाम दिये हैं जो न केवल शास्त्रज्ञ थे अपितु विद्वत्ता मेंं उनका कोर्इ सानी नहींं था। यहां तक कि इस काल मेंं भी कतिपय को छोड़़कर नाथ सम्प्रदाय के समस्त नाथयोगी शास्त्रज्ञ के साथ व्यावहारिक विषयों के पंडित भी हैं।
इसी भांति नाथ सम्प्रदाय मेंं केवल निम्न जातियों के लोगों के आकर्षित होने का दीनदयाल जी ओझा का कथन भी भावना विषेष को तो इंगित करता ही है साथ ही आलोच्य लेख मेंं ही मारवाड़ के राजाओं का नाथ मत मेंं दीक्षित होना बताना उनके कथन को विरोधाभासी भी सिद्ध करता है। नाथ सम्प्रदाय मेंं दीक्षित समस्त वणोर्ं के कुल गौत्रों के नामों पर दृषिट नहींं जाने की बात छोड़़ भी दें, तो भी अन्य बड़े-बड़े राजा रजवाडों और राजपुरुषों की ओर भी सम्भवत: उन्होनें न तो दृषिटपात किया है और न ही ब्राह्राणवाद व सामन्तवाद मेंं बराबरी के गोरक्षनाथ के सिद्धान्त को समझा है।
वास्तविकता यह है कि, वेद विमुखता और ब्राह्राण विरोधिता के कारण जो लोग समाज मेंं अगृहीत रह गये उन्हें महायोगी गोरक्षनाथ ने योग की शäयिें से योग्यता प्रदान कर उन शास्त्रज्ञों के आगे ला खड़ा किया, जिन्हेंं अपने शास्त्रज्ञान पर गर्व था। इसका सबसे अधिक उल्लेखनीय उदाहरण ज्ञानेष्वरी के रचयिता और महाराष्ट्र के सुप्रसिद्ध संत ज्ञानेष्वर द्वारा भैंसे जैसे शूæ पषु के मुंह से वेदों का उच्चारण करवाने का चमत्कार बहुत अधिक पुराना नहींं है। कुत्ते के पीछे घी की रोटी लेकर भागने वाले नामदेव का ब्रह्राज्ञान, रविदास की कठौति में से प्रकट होने वाली गंगा, निम्न जाति की कर्मा की खिचड़ी खाने वाले कृष्ण, शबरी के झूठे बेर खाने वाले राम, दलित और अछूतों के देवता (मलिन मानसिकता वाले लोगों के शब्दों में कहें तो ढेढों के देवता) कहलाने वाले युगपुरूष बाबा रामदेव, पराजय को विजय में बदल देने वाले दैत्य माता के पुत्र बर्बरीक (खाटूष्याम), लोक देवता गोगादेव, पाबूदेव व देवनारायण और ऐसे अनेक पतितों के उद्धारक स्वरूपों की पूजा ब्राह्राण समाज में स्वीकृत नहीं हो सकी। ऐसा ही पतित पावन स्वरूप योगी गोरक्षनाथ कर्मकाण्डी ब्राह्राणत्व पर एक करारी चोट था।
द्वितीयत: नाथ सम्प्रदाय के लिखित (विषेषत: हिन्दी मेंं) इतिहास और साहित्य की हस्त्लिखित प्रतियां बहुत प्राचीन नहींं मिलतीं। जो प्रतियां मिलती हैं उनमेंं योगी गोरक्षनाथ की रचनाएं सबसे प्राचीन हैं जो विक्रम संवत 1715 की होना बतायी जाती हैं। निष्चय ही ये योगी गोरक्षनाथ की कृतियों का रचनाकाल नहीं हो सकता। हां प्रकाषनकाल हो सकता है। क्योंकि यदि सन्त कवि तुलसीदासजी से तुलना करें तो उनका जन्म श्रावण शुक्ल सप्तमी विक्रम संवत 1554 अंगे्रजी तिथि में सन 1532 है। तुलसीदास जी ने रामचरित मानस के बालकाण्ड में स्वयं लिखा है कि उन्होंने रामचरित मानस की रचना का आरंभ अयोध्यापुरी में विक्रम संवत 1631 (1574 र्इस्वी) के रामनवमी मंगलवार को किया था। रामचरित मानस को लिखने में उन्हें दो वर्ष सात माह और छब्बीस दिन का समय लगा था। रामचरित मानस संवत 1633 (1576 र्इस्वी) के मार्गषीर्ष के शुक्लपक्ष में रामविवाह के दिन पूर्ण हुआ था।
अब यदि योगी गोरक्षनाथजी की रचनाओं के बताये गये समय और तुलसीदास के रामचरितमानस की रचना के मध्य समय का अन्तर निकाला जाये तो योगी गोरक्षनाथ की रचनाएं रामचरित मानस से 84 वर्ष बाद की होनी चाहिये। तो क्या तुलसीदास ने 84 वर्ष पूर्व रामचरितमानस के प्रारम्भ में ही ‘गोरख जगायो जोग, भकित भगायो लोग’ लिख दिया था? इसका आगे अर्थ यह हुआ कि न केवल योगी गोरक्षनाथ के जन्म एवं काल वरन उनकी रचनाओं के समय के साथ भी षड़यन्त्र किया गया जो उनका हिन्दी का पहला कवि होने के श्रेय को हथियाने के संबंध में था। यह तो महायोगी गोरक्षनाथ जैसे पूर्ण प्रतिषिठत व्यकितत्व की महिमा को जनसामान्य में क्षति पहुुचाने का बहुत शूद्र उदाहरण मात्र है किन्तु अन्य रमते योगियों की वाणियों का हस्तलिखित रूप मेंं नहींं मिलना कोर्इ आष्चर्य की बात नहींं है। जैसा कि इनकी संज्ञा से ही सिद्ध है कि, ये वाणियां हैं, क्योंकि ये षिष्य परम्परा और अनुयायियों के माध्यम से श्रुति द्वारा आयी हैं। इतना अवष्य कहा जा सकता है कि, यधपि श्रुति परम्परा से आने वाले साहित्य मेंं, षिष्यों की प्रगाढ़ श्रद्धा और विष्वास के कारण उसकी मौलिकता पर सन्देह नहींं किया जा सकता किन्तु स्मृति मेंं त्रुटि की सम्भावना के कारण उनमेंं कुछ परिवर्तन अथवा विस्मृति हो सकती है। फिलहाल, उपरोक्त गवेषणा इस तथ्य को सिद्ध करती हैं कि, योगी गोरक्षनाथ हिन्दी के सबसे पहले कवि हैं।
वास्तविकता यह भी है कि, जिस प्रकार महर्षि वाल्मीकि द्वारा संस्Ñत मेंं रचित रामायण महाकवि तुलसीदास द्वारा लोकभाषा मेंं रामचरितमानस में रूपान्तरित होकर ही लोकप्रिय हो सकी, उसी प्रकार योगी गोरक्षनाथ द्वारा रचित संंस्Ñत ग्रन्थों ने पहले तो शास्त्रज्ञों की कुण्ठाओं पर चोट की, जिससे समाज का संभ्रांत और उच्च समझे जाने वाले वर्ग के लोग नाथपंथ से जुडे़ और इसके पष्चात लोकभाषा मेंं रचित उनकी वाणियों ने समाज के निम्न और अषिक्षित लोगों के लियेे योगमार्ग प्रषस्त किया। उनकी वाणियों मेंं आत्मानुभूति एवं सामाजिक सन्दर्भ के पक्ष को भी दार्षनिक चिन्तन के समान ही महत्त्व दिया गया है। नाथपंथ की इसी विषेषता ने इस मत को समाज के सभी वर्ण और वगोर्ं मेंं लोकप्रिय बना दिया कि महाकवि तुलसीदास को रामचरितमानस के आरम्भ मेंं ही ”गोरक्ष जगायो जोग, भä भिगायो लोग लिखना पड़ा।

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