Sunday 6 April 2014

Verses from Goraksh Bani

बस्ती न सुन्यं सुन्यं न बस्ती अगम अगोचर ऐसा।
गगन सिषर मंहि बालक बोलै ताका नांव धरहुगे कैसा॥१॥

हसिबा षेलिवा रहिबा रंग। कांम क्रोध न करिबा संग।
हसिबा षेलिबा गा‍इबा गीत। दिढ़ करि राषि आपनं चीत।७।

हसिबा षेलिवा धरिबा ध्यान। अहनिसि कथिबा ब्रह्म गियांन।
हसै षेलै न करै मन भंग। ते निहचल सदा नाथ के संग।८।

अहनिसि मन लै उनमन रहै गम कि छांड़ि अगम की कहै।
छाड़ै आसा रहै निरास कहै ब्रह्मा हूँ ताका दास।१६।

अजपा जपै सुंनि मन धरै पाँचों इंद्री निग्रह करै
ब्रह्म अगनि मै होमै काया तास महादेव बंदै पाया ।१६।

घन जोवन की करै न आस चित्त न राखै कांमनि पास।
नादबिंद जाकै घटि जरै ताकी सेवा पारबती करै।१९।

बालै जोबनि जे नर जती काल दुकालां ते नर सती ।
फुरतैं भोजन अलप अहारी नाथ कहै सो काया हमारी।२०।

पंथ बिन चलिबा अगनि बिन जलिबा अनिल तृषा जहटिया।
ससंबेद श्रीगोरख कहिया बूझिल्यौ पंडित पढ़िया।२२।

गगन मँडल में ऊंधाकूबा तहां अंमृत का बासा।
सगुरा हो‍इ सु भरि-भरि पीवै निगुरा जा‍इ पियासा॥२३॥

मरौ वे जोगी मरौ मरण है मीठा।
तिस मरणीं मरौ जिस मरणीं गोरष मरि दीठा॥२६॥

हबकि न बोलिबा ठबकि न चालिबा धीरैं धारिबा पावं।
गरब न करिबा सहजैं रहिबा भणत गोरष रावं॥२७॥

नाथ कहै तुम सुनहु रे अवधू दिढ़ करि राषहु चोया।
काम क्रोध अहंकार निबारौ तौ सबै दिसंतर कीया॥२९॥

स्वामी बनषडि जां तो षुध्या व्यापै नग्री जा‍उं त माया।
भरि भरि षा‍उं त बिद बियापै क्यों सीझति जल ब्यंद की काया॥३०॥

धाये न षा‍इबा भूषे न मारबा अहनिसि लेबा ब्रह्म अगनि क भेवं।
हठ न करिबा पड्या न रहिबा यूं बोल्या गोरष देवं॥३१॥

थोड़ा बोलै थोड़ षा‍इ तिस घटि पवनां रहै समा‍इ।
गगन मंडल से अनहद बाजै प्यंड पड़ै तो सतगुर लाजै॥३२॥

अवधू अहार तोड़ौ निद्रा मोड़ौ कबहुँ न हो‍इगा रोगी।
छठै छ मासै काया पलटिबा ज्यूं को को बिरला बिजोगी॥३३॥

देव कला ते संजम रहिबा भूत कला अहारं।
मन पवना लै उनमनि धरिबां ते जोगी तत सारं॥३४॥

अति  अहार यंद्री बल करै नासै ग्यांन मैथुन चित धरै।
व्यापै न्यंद्रा झंपै काल ताके हिरदै सदा जंजाल॥३६॥

घटि घटि गोरख बाही क्यारी। जो निपजै सो हो‍ई हमारी।
घटि घटि गोरष कहै कहांणीं। काचै भांडै रहे न पांणी॥३७॥

घटि घटि गोरष फिरै निरुता। को घट जागे को घट सूता।
घटि घटि गोरष घटि घटि मींन। आपा परचै गुर मुषि चींन्ह॥३८॥

दूधाधारी परघरि चित। नागा लकड़ी चाहै नित।
मौनीं करै म्यंत्र की आस। बिनु गुर गुदड़ी नहीं बेसास॥४०॥

दषिणी जोगी रंगा चंगा पूरबी जोगी बादी।
पछमी जोगी बाला भोला सिध जोगी उतराधी॥४१॥

अवधू पूरब दिसि ब्याधिका रोग पछिम दिसि मिर्तु क सोग।
दक्षिण दिसि माया का भोग उत्यर दिसि सिध का जोग॥४२॥

घरबारी सो घर ली जाणै। बाहारि जाता भीतरि आणै।
सरब निरंतरि काटै माया। सो घरबारी कहि‍ए निरञ्जन की काया॥४४॥

अमरा निरमल पाप न पुंनि। सत रज बिबरजित सुंनि।
सोहं हंसा सुमिरै सबद। तिहिं परमारथ अनंत सिध॥४६॥

यहु मन सकती यहु मन सीव। यहु मन पांचतत्त्व का जीव।
यहु मन लेजै उनमन रहै। तौ तीनि लोक की बातां कहै॥५०॥१

सास उसास बा‍इकौं भषिवा रोकि लेहु नव द्वारं।
छठै छमासि काया पलटिबा तब उनमँनीं जोग अपारं॥५२॥

मन मैं रहिणा भेद न कहिणां बोलिबा अंमृत बाणीं।
आगिला अगनी हो‍इबा अवधू तौ आपण हो‍इबा पांणीं॥६३॥

उनमनि रहिबा भेद न कहिबा पीयबा नींझर पांणीं।
लंका छाड़ि पलंका जा‍इबा तब गुरमुष लेबा बांणीं॥६४॥

बैठ अवधू लोह की षूँति चलता अवधू पवन की मूंठी।
सोवता अवधू जीवता मूवा बोलता अवधू प्यंजरै सूवां॥७१॥

गोरष कहै सुणहुरे अवधू जग मैं ऐसैं रहणां।
आंषैं देषिबा कांनैं सुणिबा मुष थैं कछू न कहणां॥७२॥

अहार न्यंद्रा बैरी काल कैसे कर रखिबा गुरूका भंदार।
अहारतोड़ो निंद्रा मोड़ौ सिव सकती लै करि जोड़ौ॥८४॥

तब जानिबा अनाहद का बंध ना पड़ै त्रिभुवन नहीं पड़ै कंध।
रकत की रेत अंग थैं न छूटै जोगी कहतां हीरा न फूटै॥८५॥

निहचल धरि बैसिवा पवन निरोधिबा कदे न हो‍इगा रोगी।
बरस दिन मैं तौनि बार काया पलटिबा नाग बंग बनासपती जोजी॥९२॥

षोड़स नाड़ी चंद्र प्रकास्या द्वादस नाड़ी भांनं।
सहंस्रनाड़ी प्रांण का मेला जहाँ असंष कला सिव थांनं॥९३॥

जोगी सो जे मन जोगवै बिला‍इत राज भोगवै।
कनक कांमनी त्यागें दो‍इ सो जोगेस्वर निरभै हो‍इ॥१०२॥

बड़े बड़े कूले मोटे मोटे पेट नहीं रे पूता गुरू सौं भेंट।
षड़ षड़ काया निरमलनेत भ‍ई रे पूता गुरू सौं भेंट॥१०९॥

चेता रे चेतिबा आपा न रेतिबा पंच की मेटिबा आसा।
बदत गोरष सतिते सूरिवां उनमनि मन मैं बासा॥११४॥

कहणि सुहेली रहणि दुहेली कहणि रहणि बिन थोथी।
पढ्या गुंण्या सूबा बिला‍इ षाया पंडित के हाथि रह ग‍ई पोथी॥११९॥

कहणि सुहेली रहणि दुहेली बिन षांया गुड़ मींठा।
खा‍इ हींग कपूर बषांणै गोरष कहै सब झूठा॥१२०॥

आसण दिढ़ अहार दिढ़ जे न्यंद्रा दिढ़ हो‍ई।
गोरष कहै सुणौं रे पूता मरै न बूढ़ा हो‍ई॥१२५॥

को‍ई न्यंदै को‍ई ब्यंदै को‍ई करै हमारी आसा।
गोरष कहै सुणौं रे अवधू यहु पंथ षरा उदासा॥१२६॥

तूटी डोरी रस कस बहै। उनमनि लागा अस्थिर रहै।
उनमनि लागा हो‍ई अनंद। तूटी डोरीं बिनसै कंद॥१२८॥

अगम अगोचर रहै नीहकांम। भंवर गुंफा नांही बिसराम।
जुगती न जांणै जागैं राति मन कहू कै न आवै हाथि॥१३२॥

नव नाड़ी बहोतरि कोठां। ए अष्टांग सब झूठा।
कूंची ताली सुषमन करै उलटि जिभ्या ले तालू धरै॥१३३॥

भरि भरि षा‍इ ढरि ढरि जा‍इ। जोग नहीं पूता बड़ी बला‍इ।
संजम हो‍इ बा‍इ संग्रहौ। इस बिधि अकल षुरिस कौ गहौ॥१४५॥

षांये भी मरिये अणषांये भी मरिये। गोरष कहैं पूता संजमि ही तरिये।
मघि निरंतर कीजै बास। निहचल मनुवा थिर हो‍ई सांस॥१४६॥

पवन हीं जोग पवन हीं भोग। पवन हीं हरै छतीसौ रोग।
या पवन को‍ई जांणै भेव। सो आपै करता आपैं देव॥१४७॥

ब्यंद ही जोग ब्यंद ही भोग। ब्यंद हीं हरै चौसठि रोग।
या बिंद का को‍ई जांणै भेव। सो आपै करता आपैं देव॥१४८॥

साच का सबद सोना का रेख। निगुरां कौंचाणक सगुरा कौं उपदेस।
गुर क मुंड्या गुंन मैं रहै। निगुरा भ्रमै औगुण गहै॥१४९॥

गुरु की बाचा षोजैं नाहीं अहंकारी अहंकार करै।
षोजी जीवैं षोजि गुरू कौं अहंकारीं का प्यंड परै॥१५१॥

अवधू मन चंगा तो कठौती ही गंगा। बांध्या मेल्हा तो जगत्र चेला।
बदंत गोरष सति सरूप। तत बिचारैं ते रेष न रूप॥१५३॥

सीषि साषि बिसाह्या बुरा। सुपिनैं मैं धन पाया पड़ा।
परषि परषि लै आगैं धरा। नाथ कहै पूता षोटा न षरा॥१५४॥

स्वामी काची वा‍ई काचा जिंद। काची काया काचा बिंद।
क्यूं करि पाकै क्यूं करि सीझै। काची अगनी नीर न षीजै॥१५६॥

तौ देबी पाकी बा‍ई पाका जिंद। पाकी काया पाका बिंद।
ब्रह्म अगनि अषंडित बलै। पाका अगनी नीर परजलै॥१५७॥

सोवत आडां ऊभां ठाढ़ां। अगनीम ब्यंद न बा‍ई।
निस्चल आसन पवनां ध्यानं। अगनीं ब्यंद न जा‍ई॥१५८॥

अधिक तत्त ते गुरू बोलिये हींण तत्त ते चेला।
मन मांनैं तो संगि रमौ नहीं तौ रमौ अकेला॥१६१॥

पंथि चले चलि पवनां तूटैनाद बिंद अरु बा‍ई।
घट हीं भींतरि अठसठि तीरथ कहां भ्रमै रे भा‍ई॥१६३॥

जोगी हो‍इ परनिंद्या झषै। मद मांस अरु भांगि जो भषै।
इकोतरसै पुरिषा नरकहि जा‍ई। सति सति भषत श्रीगोरष रा‍ई॥१६४॥

अवधू मांसम भषत दया धरम का नास।
मद पीवत तहां प्राण निरास
भांगि भषंत ग्यांन ध्यांन षोवत।
 जम दरबारी ते प्रांणीं रोवत॥१६५॥

चालिबा पथा कै सींबा कंथा। धरिबा ध्यांन कै कथिबा ग्यांनं।
एका‍एकी सिध सग। बदंत गोरषनाथ पूता न होयसि मन भग॥१६६॥

पढ़ि देखि पंडिता ब्रह्म गियांनं। मूवां मुकति बेकुंठा थांनं।
गाड्या जाल्या चौरासी मैं जा‍इ। सतिसति भाषंत गोरषरा‍ई॥१६७॥

आकास तत सदासिव जांण। तसि अभि‍अंतरि पद निरबांण।
प्यंडे परचांनैं गुरमुषि जो‍इ। बाहुडि आबा गवन न हो‍इ॥१६८॥

ऊरम धूरम ज्वाला जोति। सुरजि कला न छीपै छोति।
कंचन कवल किरणि परसा‍इ। जल मल दुरगंध सर्ब सुषा‍इ॥१६९॥

घटि घटि सूण्यां ग्यांन न हो‍इ। बनि बनि चंदन रूष न को‍इ।
रतन रिधि कवन कै हो‍इ। ये तत बूझै बिरला को‍ई॥१७०॥

कै मन रहै आसा पास। कै मन रहै परम उदास।
कै मन रहै गुरू के ओलै। कै मन रहै कांमनि कै षोलै॥१७२॥

बाहरि न भीतरि नड़ा न दूर। षोजत रहे द्रह्मा अरु सूर।
सेत फटक मनि हीरैं बीघा। इहि परमारथ श्री गोरश सीधा॥१७४॥

आवति पंचतत कूं मो है जाती छैल जगावै।
गोरष पूछै बाबा मछिंद्र या न्यंद्रा कहां थैं आवै॥१७५॥
गगन मंडल मैं सुंनि द्वार। बिजली चंमकै घोर अंधर।
ता महि न्यंद्रा आवै जा‍इ। पंच तत मैं रहै समा‍इ॥१७६॥

ऊभां बैठां सूतां लीजै। कबहूँ चित्त भंग न कींजै।
अनहद सबद गगन मैं गाजै। प्यंड पड़ै तो सतगुर लाजै॥१७७॥

एकलौ बीर दुसरौ धीर तीसरौ षटपट चोथौ उपाध।
दस पंच तहाँ बाद बिबाद॥१७८॥

एका‍एकी सिध नांउं दो‍इ रमति ते साधवा।
चारि पंच कुटुम्ब नांउं दस बीस ते लसकरा॥१७९॥

दरवेस सोइ जो दरकी जांणै। पंचे पवन अपूठां आंणै।
सदा सुचेत रहै दिन राति। सो दरवेस अलह कि जाति॥१८२॥

रूसता रूठ गोला-रोगी। भोला भछिक भूषा भोगी।
गोरष कहै सरबटा जोगी। यतनां मैं नहीं निपजै जोगी॥२१४॥

अवधू अहार कूं तोड़िबा पवन कूं मोड़िब ज्यं कबहु न हियबा रोगी।
छठै छमासि काया पलटंत नाग बंग बनासपतो जोगी॥२१५॥

जिभ्या इन्द्री एकैं नाल। जो राषै सो बंचै काल।
पंडित ग्यांनी न करसि गरब। जिभ्या जीती जिन जीत्या सरब॥२१९॥
गोरख कहै हमारा षरतर पंथ। जिभ्या इन्द्री दीजै बन्ध।
जोग जुगति मैं रहै समाय। ता जोगी कूं काल न खाय॥२२०॥

जीव सीव संगे बासा। बधि न षा‍इबा रुध्र मासा।
हंस घात न करिबा गोतं। कथंत गोरष निहारि पोतं॥२२७॥
जीव क्या हतिये रे प्यंड धारी। मारि लै पंचभू म्रगला।
चरै थारी बुधि बाड़ी। जोग का मूल है दया दाण॥
कथंत गोरष मुकति लै मानवा मारि लै रै मन द्रोही।
जाकै बप बरण मास नहीं लोही॥२२८॥

जोगी सो जो राषैं जोग। जिभ्या यंद्री न करै भोग।
अंजन छोड़ि निरंजन रहै। ताकू गोरष जोगी कहै॥२३०॥

सुंनि ज मा‍ई सुंनि ज बाप। सुंनि निरंजन आपै आप।
सुंनि कै परचै भया सथीर। निहचल जोगी गहर गंभीर॥२३१॥

अवधू यो मन जात है याही तै सब जांणि।
मन मकड़ी का ताग ज्यूं उलटि अपूठौ आंणि॥२३४॥

ऊजल मीन सदा रहै जल मैं सुकर सदा मलीना।
आतम ग्यांन दया बिणि कछू नाहीं कहा भयौ तन षीणा॥२४०॥

धोतरा न पीवो रे अवधू भांगि न षावौ रे भा‍ई।
गोरष कहै सुणौ रे अवधू या काया होयगी पराई॥२४१॥

रांड मुवा जती धाये भोजन सती धन त्यागी।
नाथ कहै ये तीन्यौ अभागी॥२४७॥

पढ़ि पढ़ि पढ़ि केता मुवा कथिकथिकथि कहा कीन्ह।
बढ़ि बढ़ि बढ़ि बहु धट गया पारब्रह्म नहीं चीन्ह॥ २४८॥

जप तप जोगी संजम सार। बाले कंद्रप कीया छार।
येहा जोगी जग मैं जोय। दूजा पेट भरै सब कोय॥२५३॥

सत्यो सीलं दोय असनांन त्रितीये गुर बाधक।
चत्रथे षीषा असनान पंचमे दया असनान।
ये पंच असनान नीरमला निति प्रति करत गोरख बला॥२५८॥

कथणी कथै सों सिष बोलिये वेद पढ़ै सो नाती।
रहणी रहै सो गुरू हमारा हम रहता का साथी॥२७०॥

रहता हमारै गुरू बोलिये हम रहता का चेला।
मन मानै तौ संगि फिरै नहितर फिरै अकेला॥२७१॥

दरसण मा‍ई दरसण बाप। दरसण माहीं आपै आप।
या दरसण का को‍ई जाणै भेव। सो आपै करता आपै देव॥२७२॥

नासिका अग्रे भ्रू मंडले अहनिस रहिबा थीरं।
माता गरभि जनम न आयबा बहुरि न पीयबा षीरं॥२७५॥

॥विज्ञान भैरव॥



श्री देव्युवाच।

श्रुतं देव मया सर्वं रुद्रयामलसम्भवम्।
त्रिकभेदमशेषेण सारात्सारविभागशः॥ १॥

अद्यापि न निवृत्तो मे संशयः परमेश्वर।
किं रूपं तत्त्वतो देव शब्दराशिकलामयम्॥ २॥

किं वा नवात्मभेदेन भैरवे भैरवाकृतौ।
त्रिशिरोभेदभिन्नं वा किं वा शक्तित्रयात्मकम्॥ ३॥

नादबिन्दुमयं वापि किं चन्द्रार्धनिरोधिकाः।
चक्रारूढमनच्कं वा किं वा शक्तिस्वरूपकम्॥ ४॥

परापरायाः सकलमपरायाश्च वा पुनः।
पराया यदि तद्वत्स्यात्परत्वं तद् विरुध्यते॥ ५॥

न हि वर्णविभेदेन देहभेदेन वा भवेत्।
परत्वं निष्कलत्वेन सकलत्वे न तद् भवेत्॥ ६॥

प्रसादं कुरु मे नाथ निःशेषं चिन्द्धि संशयम्।

भैरव उवाच।

साधु साधु त्वया पृष्टं तन्त्रसारम् इदम् प्रिये॥ ७॥

गूहनीयतमम् भद्रे तथापि कथयामि ते।
यत्किञ्चित्सकलं रूपं भैरवस्य प्रकीर्तितम्॥ ८॥

तद् असारतया देवि विज्ञेयं शक्रजालवत्।
मायास्वप्नोपमं चैव गन्धर्वनगरभ्रमम्॥ ९॥

ध्यानार्थम् भ्रान्तबुद्धीनां क्रियाडम्बरवर्तिनाम्।
केवलं वर्णितम् पुंसां विकल्पनिहतात्मनाम्॥ १०॥

तत्त्वतो न नवात्मासौ शब्दराशिर् न भैरवः।
न चासौ त्रिशिरा देवो न च शक्तित्रयात्मकः॥ ११॥

नादबिन्दुमयो वापि न चन्द्रार्धनिरोधिकाः।
न चक्रक्रमसम्भिन्नो न च शक्तिस्वरूपकः॥ १२॥

अप्रबुद्धमतीनां हि एता बलविभीषिकाः।
मातृमोदकवत्सर्वं प्रवृत्त्यर्थम् उदाहृतम्॥ १३॥

दिक्कालकलनोन्मुक्ता देशोद्देशाविशेषिनी।
व्यपदेष्टुमशक्यासाव् अकथ्या परमार्थतः॥ १४॥

अन्तःस्वानुभवानन्दा विकल्पोन्मुक्तगोचरा।
यावस्था भरिताकारा भैरवी भैरवात्मनः॥ १५॥

तद् वपुस् तत्त्वतो ज्ञेयं विमलं विश्वपूरणम्।
एवंविधे परे तत्त्वे कः पूज्यः कश्च तृप्यति॥ १६॥

एवंविधा भैरवस्य यावस्था परिगीयते।
सा परा पररूपेण परा देवी प्रकीर्तिता॥ १७॥

शक्तिशक्तिमतोर् यद्वद् अभेदः सर्वदा स्थितः।
अतस् तद्धर्मधर्मित्वात्परा शक्तिः परात्मनः॥ १८॥

न वह्नेर् दाहिका शक्तिर् व्यतिरिक्ता विभाव्यते।
केवलं ज्ञानसत्तायाम् प्रारम्भोऽयम् प्रवेशने॥ १९॥

शक्त्यवस्थाप्रविष्टस्य निर्विभागेन भावना।
तदासौ शिवरूपी स्यात्शैवी मुखम् इहोच्यते॥ २०॥

यथालोकेन दीपस्य किरणैर् भास्करस्य च।
ज्ञायते दिग्विभागादि तद्वच् चक्त्या शिवः प्रिये॥ २१॥

श्री देव्युवाच।

देवदेव त्रिशूलाङ्क कपालकृतभूषण।
दिग्देशकालशून्या च व्यपदेशविवर्जिता॥ २२॥

यावस्था भरिताकारा भैरवस्योपलभ्यते।
कैर् उपायैर् मुखं तस्य परा देवि कथम् भवेत्।
यथा सम्यग् अहं वेद्मि तथा मे ब्रूहि भैरव॥ २३॥

भैरव उवाच।

ऊर्ध्वे प्राणो ह्यधो जीवो विसर्गात्मा परोच्चरेत्।
उत्पत्तिद्वितयस्थाने भरणाद् भरिता स्थितिः॥ २४॥

मरुतोऽन्तर् बहिर् वापि वियद्युग्मानिवर्तनात्।
भैरव्या भैरवस्येत्थम् भैरवि व्यज्यते वपुः॥ २५॥

न व्रजेन् न विशेच् चक्तिर् मरुद्रूपा विकासिते।
निर्विकल्पतया मध्ये तया भैरवरूपता॥ २६॥

कुम्भिता रेचिता वापि पूरिता वा यदा भवेत्।
तदन्ते शान्तनामासौ शक्त्या शान्तः प्रकाशते॥ २७॥

आमूलात्किरणाभासां सूक्ष्मात्सूक्ष्मतरात्मिकम्।
चिन्तयेत्तां द्विषट्कान्ते श्याम्यन्तीम् भैरवोदयः॥ २८॥

उद्गच्चन्तीं तडित्रूपाम् प्रतिचक्रं क्रमात्क्रमम्।
ऊर्ध्वं मुष्टित्रयं यावत्तावद् अन्ते महोदयः॥ २९॥

क्रमद्वादशकं सम्यग् द्वादशाक्षरभेदितम्।
स्थूलसूक्ष्मपरस्थित्या मुक्त्वा मुक्त्वान्ततः शिवः॥ ३०॥

तयापूर्याशु मूर्धान्तं भङ्क्त्वा भ्रूक्षेपसेतुना।
निर्विकल्पं मनः कृत्वा सर्वोर्ध्वे सर्वगोद्गमः॥ ३१॥

शिखिपक्षैश् चित्ररूपैर् मण्डलैः शून्यपञ्चकम्।
ध्यायतोऽनुत्तरे शून्ये प्रवेशो हृदये भवेत्॥ ३२॥

ईदृशेन क्रमेणैव यत्र कुत्रापि चिन्तना।
शून्ये कुड्ये परे पात्रे स्वयं लीना वरप्रदा॥ ३३॥

कपालान्तर् मनो न्यस्य तिष्ठन् मीलितलोचनः।
क्रमेण मनसो दार्ढ्यात्लक्षयेत्लष्यम् उत्तमम्॥ ३४॥

मध्यनाडी मध्यसंस्था बिससूत्राभरूपया।
ध्यातान्तर्व्योमया देव्या तया देवः प्रकाशते॥ ३५॥

कररुद्धदृगस्त्रेण भ्रूभेदाद् द्वाररोधनात्।
दृष्टे बिन्दौ क्रमाल् लीने तन्मध्ये परमा स्थितिः॥ ३६॥

धामान्तःक्षोभसम्भूतसूक्ष्माग्नितिलकाकृतिम्।
बिन्दुं शिखान्ते हृदये लयान्ते ध्यायतो लयः॥ ३७॥

अनाहते पात्रकर्णेऽभग्नशब्दे सरिद्द्रुते।
शब्दब्रह्मणि निष्णातः परम् ब्रह्माधिगच्चति॥ ३८॥

प्रणवादिसमुच्चारात्प्लुतान्ते शून्यभावानात्।
शून्यया परया शक्त्या शून्यताम् एति भैरवि॥ ३९॥

यस्य कस्यापि वर्णस्य पूर्वान्ताव् अनुभावयेत्।
शून्यया शून्यभूतोऽसौ शून्याकारः पुमान् भवेत्॥ ४०॥

तन्त्र्यादिवाद्यशब्देषु दीर्घेषु क्रमसंस्थितेः।
अनन्यचेताः प्रत्यन्ते परव्योमवपुर् भवेत्॥ ४१॥

पिण्डमन्त्रस्य सर्वस्य स्थूलवर्णक्रमेण तु।
अर्धेन्दुबिन्दुनादान्तः शून्योच्चाराद् भवेच् चिवः॥ ४२॥

निजदेहे सर्वदिक्कं युगपद् भावयेद् वियत्।
निर्विकल्पमनास् तस्य वियत्सर्वम् प्रवर्तते॥ ४३॥

पृष्टशून्यं मूलशून्यं युगपद् भावयेच् च यः।
शरीरनिरपेक्षिण्या शक्त्या शून्यमना भवेत्॥ ४४॥

पृष्टशून्यं मूलशून्यं हृच्चून्यम् भावयेत्स्थिरम्।
युगपन् निर्विकल्पत्वान् निर्विकल्पोदयस् ततः॥ ४५॥

तनूदेशे शून्यतैव क्षणमात्रं विभावयेत्।
निर्विकल्पं निर्विकल्पो निर्विकल्पस्वरूपभाक्॥ ४६॥

सर्वं देहगतं द्रव्यं वियद्व्याप्तं मृगेक्षणे।
विभावयेत्ततस् तस्य भावना सा स्थिरा भवेत्॥ ४७॥

देहान्तरे त्वग्विभागम् भित्तिभूतं विचिन्तयेत्।
न किञ्चिद् अन्तरे तस्य ध्यायन्न् अध्येयभाग् भवेत्॥ ४८॥

हृद्याकाशे निलीनाक्षः पद्मसम्पुटमध्यगः।
अनन्यचेताः सुभगे परं सौभाग्यमाप्नुयात्॥ ४९॥

सर्वतः स्वशरीरस्य द्वादशान्ते मनोलयात्।
दृढबुद्धेर् दृढीभूतं तत्त्वलक्ष्यम् प्रवर्तते॥ ५०॥

यथा तथा यत्र तत्र द्वादशान्ते मनः क्षिपेत्॥
प्रतिक्षणं क्षीणवृत्तेर् वैलक्षण्यं दिनैर् भवेत्॥ ५१॥

कालाग्निना कालपदाद् उत्थितेन स्वकम् पुरम्।
प्लुष्टम् विचिन्तयेद् अन्ते शान्ताभासस् तदा भवेत्॥ ५२॥

एवम् एव जगत्सर्वं दग्धं ध्यात्वा विकल्पतः।
अनन्यचेतसः पुंसः पुम्भावः परमो भवेत्॥ ५३॥

स्वदेहे जगतो वापि सूक्ष्मसूक्ष्मतराणि च।
तत्त्वानि यानि निलयं ध्यात्वान्ते व्यज्यते परा॥ ५४॥

पिनां च दुर्बलां शक्तिं ध्यात्वा द्वादशगोचरे।
प्रविश्य हृदये ध्यायन् मुक्तः स्वातन्त्र्यमाप्नुयात्॥ ५५॥

भुवनाध्वादिरूपेण चिन्तयेत्क्रमशोऽखिलम्।
स्थूलसूक्ष्मपरस्थित्या यावद् अन्ते मनोलयः॥ ५६॥

अस्य सर्वस्य विश्वस्य पर्यन्तेषु समन्ततः।
अध्वप्रक्रियया तत्त्वं शैवं ध्यत्वा महोदयः॥ ५७॥

विश्वम् एतन् महादेवि शून्यभूतं विचिन्तयेत्।
तत्रैव च मनो लीनं ततस् तल्लयभाजनम्॥ ५८॥

घतादिभाजने दृष्टिम् भित्तिस् त्यक्त्वा विनिक्षिपेत्।
तल्लयं तत्क्षणाद् गत्वा तल्लयात्तन्मयो भवेत्॥ ५९॥

निर्वृक्षगिरिभित्त्यादिदेशे दृष्टिं विनिक्षिपेत्।
विलीने मानसे भावे वृत्तिक्षिणः प्रजायते॥ ६०॥

उभयोर् भावयोर् ज्ञाने ध्यात्वा मध्यं समाश्रयेत्।
युगपच् च द्वयं त्यक्त्वा मध्ये तत्त्वम् प्रकाशते॥ ६१॥

भावे त्यक्ते निरुद्धा चिन् नैव भावान्तरं व्रजेत्।
तदा तन्मध्यभावेन विकसत्यति भावना॥ ६२॥

सर्वं देहं चिन्मयं हि जगद् वा परिभावयेत्।
युगपन् निर्विकल्पेन मनसा परमोदयः॥ ६३॥

वायुद्वयस्य सङ्घट्टाद् अन्तर् वा बहिर् अन्ततः।
योगी समत्वविज्ञानसमुद्गमनभाजनम्॥ ६४॥

सर्वं जगत्स्वदेहं वा स्वानन्दभरितं स्मरेत्।
युगपत्स्वामृतेनैव परानन्दमयो भवेत्॥ ६५॥

कुहनेन प्रयोगेण सद्य एव मृगेक्षणे।
समुदेति महानन्दो येन तत्त्वं प्रकाशते॥ ६६॥

सर्वस्रोतोनिबन्धेन प्राणशक्त्योर्ध्वया शनैः।
पिपीलस्पर्शवेलायाम् प्रथते परमं सुखम्॥ ६७॥

वह्नेर् विषस्य मध्ये तु चित्तं सुखमयं क्षिपेत्।
केवलं वायुपूर्णं वा स्मरानन्देन युज्यते॥ ६८॥

शक्तिसङ्गमसङ्क्षुब्धशक्त्यावेशावसानिकम्।
यत्सुखम् ब्रह्मतत्त्वस्य तत्सुखं स्वाक्यम् उच्यते॥ ६९॥

लेहनामन्थनाकोटैः स्त्रीसुखस्य भरात्स्मृतेः।
शक्त्यभावेऽपि देवेशि भवेद् आनन्दसम्प्लवः॥ ७०॥

आनन्दे महति प्राप्ते दृष्टे वा बान्धवे चिरात्।
आनन्दम् उद्गतं ध्यात्वा तल्लयस् तन्मना भवेत्॥ ७१॥

जग्धिपानकृतोल्लासरसानन्दविजृम्भणात्।
भावयेद् भरितावस्थां महानन्दस् ततो भवेत्॥ ७२॥

गितादिविषयास्वादासमसौख्यैकतात्मनः।
योगिनस् तन्मयत्वेन मनोरूढेस् तदात्मता॥ ७३॥

यत्र यत्र मनस् तुष्टिर् मनस् तत्रैव धारयेत्।
तत्र तत्र परानन्दस्वारूपं सम्प्रवर्तते॥ ७४॥

अनागतायां निद्रायाम् प्रणष्टे बाह्यगोचरे।
सावस्था मनसा गम्या परा देवी प्रकाशते॥ ७५॥

तेजसा सूर्यदीपादेर् आकाशे शबलीकृते।
दृष्टिर् निवेश्या तत्रैव स्वात्मरूपम् प्रकाशते॥ ७६॥

करङ्किण्या क्रोधनया भैरव्या लेलिहानया।
खेचर्या दृष्टिकाले च परावाप्तिः प्रकाशते॥ ७७॥

मृद्वासने स्फिजैकेन हस्तपादौ निराश्रयम्।
निधाय तत्प्रसङ्गेन परा पूर्णा मतिर् भवेत्॥ ७८॥

उपविश्यासने सम्यग् बाहू कृत्वार्धकुञ्चितौ।
कक्षव्योम्नि मनः कुर्वन् शममायाति तल्लयात्॥ ७९॥

स्थूलरूपस्य भावस्य स्तब्धां दृष्टिं निपात्य च।
अचिरेण निराधारं मनः कृत्वा शिवं व्रजेत्॥ ८०॥

मध्यजिह्वे स्फारितास्ये मध्ये निक्षिप्य चेतनाम्।
होच्चारं मनसा कुर्वंस् ततः शान्ते प्रलीयते॥ ८१॥

आसने शयने स्थित्वा निराधारं विभावयन्।
स्वदेहं मनसि क्षिणे क्षणात्क्षीणाशयो भवेत्॥ ८२॥

चलासने स्थितस्याथ शनैर् वा देहचालनात्।
प्रशान्ते मानसे भावे देवि दिव्यौघमाप्नुयात्॥ ८३॥

आकाशं विमलम् पश्यन् कृत्वा दृष्टिं निरन्तराम्।
स्तब्धात्मा तत्क्षणाद् देवि भैरवं वपुर् आप्नुयात्॥ ८४॥

लीनं मूर्ध्नि वियत्सर्वम् भैरवत्वेन भावयेत्।
तत्सर्वम् भैरवाकारतेजस्तत्त्वं समाविशेत्॥ ८५॥

किञ्चिज् ज्ञातं द्वैतदायि बाह्यालोकस् तमः पुनः।
विश्वादि भैरवं रूपं ज्ञात्वानन्तप्रकाशभृत्॥ ८६॥

एवम् एव दुर्निशायां कृष्णपक्षागमे चिरम्।
तैमिरम् भावयन् रूपम् भैरवं रूपम् एष्यति॥ ८७॥

एवम् एव निमील्यादौ नेत्रे कृष्णाभमग्रतः।
प्रसार्य भैरवं रूपम् भावयंस् तन्मयो भवेत्॥ ८८॥

यस्य कस्येन्द्रियस्यापि व्याघाताच् च निरोधतः।
प्रविष्टस्याद्वये शून्ये तत्रैवात्मा प्रकाशते॥ ८९॥

अबिन्दुमविसर्गं च अकारं जपतो महान्।
उदेति देवि सहसा ज्ञानौघः परमेश्वरः॥ ९०॥

वर्णस्य सविसर्गस्य विसर्गान्तं चितिं कुरु।
निराधारेण चित्तेन स्पृशेद् ब्रह्म सनातनम्॥ ९१॥

व्योमाकारं स्वमात्मानं ध्यायेद् दिग्भिर् अनावृतम्।
निराश्रया चितिः शक्तिः स्वरूपं दर्शयेत्तदा॥ ९२॥

किञ्चिद् अङ्गं विभिद्यादौ तीक्ष्णसूच्यादिना ततः।
तत्रैव चेतनां युक्त्वा भैरवे निर्मला गतिः॥ ९३॥

चित्ताद्यन्तःकृतिर् नास्ति ममान्तर् भावयेद् इति।
विकल्पानामभावेन विकल्पैर् उज्झितो भवेत्॥ ९४॥

माया विमोहिनी नाम कलायाः कलनं स्थितम्।
इत्यादिधर्मं तत्त्वानां कलयन् न पृथग् भवेत्॥ ९५॥

झगितीच्चां समुत्पन्नामवलोक्य शमं नयेत्।
यत एव समुद्भूता ततस् तत्रैव लीयते॥ ९६॥

यदा ममेच्चा नोत्पन्ना ज्ञानं वा कस् तदास्मि वै।
तत्त्वतोऽहं तथाभूतस् तल्लीनस् तन्मना भवेत्॥ ९७॥

इच्चायामथवा ज्ञाने जाते चित्तं निवेशयेत्।
आत्मबुद्ध्यानन्यचेतास् ततस् तत्त्वार्थदर्शनम्॥ ९८॥

निर्निमित्तम् भवेज् ज्ञानं निराधारम् भ्रमात्मकम्।
तत्त्वतः कस्यचिन् नैतद् एवम्भावी शिवः प्रिये॥ ९९॥

चिद्धर्मा सर्वदेहेषु विशेषो नास्ति कुत्रचित्।
अतश्च तन्मयं सर्वम् भावयन् भवजिज् जनः॥ १००॥

कामक्रोधलोभमोहमदमात्सर्यगोचरे।
बुद्धिं निस्तिमितां कृत्वा तत्तत्त्वमवशिष्यते॥ १०१॥

इन्द्रजालमयं विश्वं व्यस्तं वा चित्रकर्मवत्।
भ्रमद् वा ध्यायतः सर्वम् पश्यतश्च सुखोद्गमः॥ १०२॥

न चित्तं निक्षिपेद् दुःखे न सुखे वा परिक्षिपेत्।
भैरवि ज्ञायतां मध्ये किं तत्त्वमवशिष्यते॥ १०३॥

विहाय निजदेहस्थं सर्वत्रास्मीति भावयन्।
दृढेन मनसा दृष्ट्या नान्येक्षिण्या सुखी भवेत्॥ १०४॥

घटादौ यच् च विज्ञानम् इच्चाद्यं वा ममान्तरे।
नैव सर्वगतं जातम् भावयन् इति सर्वगः॥ १०५॥

ग्राह्यग्राहकसंवित्तिः सामान्या सर्वदेहिनाम्।
योगिनां तु विशेषोऽस्ति सम्बन्धे सावधानता॥ १०६॥

स्ववद् अन्यशरीरेऽपि संवित्तिमनुभावयेत्।
अपेक्षां स्वशरीरस्य त्यक्त्वा व्यापी दिनैर् भवेत्॥ १०७॥

निराधारं मनः कृत्वा विकल्पान् न विकल्पयेत्।
तदात्मपरमात्मत्वे भैरवो मृगलोचने॥ १०८॥

सर्वज्ञः सर्वकर्ता च व्यापकः परमेश्वरः।
स एवाहं शैवधर्मा इति दार्ढ्याच् चिवो भवेत्॥ १०९॥

जलस्येवोर्मयो वह्नेर् ज्वालाभङ्ग्यः प्रभा रवेः।
ममैव भैरवस्यैता विश्वभङ्ग्यो विभेदिताः॥ ११०॥

भ्रान्त्वा भ्रान्त्वा शरीरेण त्वरितम् भुवि पातनात्।
क्षोभशक्तिविरामेण परा सञ्जायते दशा॥ १११॥

आधारेष्व् अथवाऽशक्त्याऽज्ञानाच् चित्तलयेन वा।
जातशक्तिसमावेशक्षोभान्ते भैरवं वपुः॥ ११२॥

सम्प्रदायम् इमम् देवि शृणु सम्यग् वदाम्यहम्।
कैवल्यं जायते सद्यो नेत्रयोः स्तब्धमात्रयोः॥ ११३॥

सङ्कोचं कर्णयोः कृत्वा ह्यधोद्वारे तथैव च।
अनच्कमहलं ध्यायन् विशेद् ब्रह्म सनातनम्॥ ११४॥

कूपादिके महागर्ते स्थित्वोपरि निरीक्षणात्।
अविकल्पमतेः सम्यक् सद्यस् चित्तलयः स्फुटम्॥ ११५॥

यत्र यत्र मनो याति बाह्ये वाभ्यन्तरेऽपि वा।
तत्र तत्र शिवावास्था व्यापकत्वात्क्व यास्यति॥ ११६॥

यत्र यत्राक्षमार्गेण चैतन्यं व्यज्यते विभोः।
तस्य तन्मात्रधर्मित्वाच् चिल्लयाद् भरितात्मता॥ ११७॥

क्षुताद्यन्ते भये शोके गह्वरे वा रणाद् द्रुते।
कुतूहलेक्षुधाद्यन्ते ब्रह्मसत्तामयी दशा॥ ११८॥

वस्तुषु स्मर्यमाणेषु दृष्टे देशे मनस् त्यजेत्।
स्वशरीरं निराधारं कृत्वा प्रसरति प्रभुः॥ ११९॥

क्वचिद् वस्तुनि विन्यस्य शनैर् दृष्टिं निवर्तयेत्।
तज् ज्ञानं चित्तसहितं देवि शून्यालायो भवेत्॥१२०॥

भक्त्युद्रेकाद् विरक्तस्य यादृशी जायते मतिः।
सा शक्तिः शाङ्करी नित्यम् भवयेत्तां ततः शिवः॥ १२१॥

वस्त्वन्तरे वेद्यमाने सर्ववस्तुषु शून्यता।
ताम् एव मनसा ध्यात्वा विदितोऽपि प्रशाम्यति॥ १२२॥

किञ्चिज्ज्ञैर् या स्मृता शुद्धिः सा शुद्धिः शम्भुदर्शने।
न शुचिर् ह्यशुचिस् तस्मान् निर्विकल्पः सुखी भवेत्॥ १२३॥
सर्वत्र भैरवो भावः सामान्येष्व् अपि गोचरः।
न च तद्व्यतिरेक्तेण परोऽस्तीत्यद्वया गतिः॥ १२४॥
समः शत्रौ च मित्रे च समो मानावमानयोः॥
ब्रह्मणः परिपूर्णत्वातिति ज्ञात्वा सुखी भवेत्॥ १२५॥

न द्वेषम् भावयेत्क्वापि न रागम् भावयेत्क्वचित्।
रागद्वेषविनिर्मुक्तौ मध्ये ब्रह्म प्रसर्पति॥ १२६॥

यद् अवेद्यं यद् अग्राह्यं यच् चून्यं यद् अभावगम्।
तत्सर्वम् भैरवम् भाव्यं तदन्ते बोधसम्भवः॥ १२७॥

नित्ये निराश्रये शून्ये व्यापके कलनोज्झिते।
बाह्याकाशे मनः कृत्वा निराकाशं समाविशेत्॥ १२८॥

यत्र यत्र मनो याति तत्तत्तेनैव तत्क्षणम्।
परित्यज्यानवस्थित्या निस्तरङ्गस् ततो भवेत्॥ १२९॥

भया सर्वं रवयति सर्वदो व्यापकोऽखिले।
इति भैरवशब्दस्य सन्ततोच्चारणाच् चिवः॥ १३०॥

अहं ममेदम् इत्यादि प्रतिपत्तिप्रसङ्गतः।
निराधारे मनो याति तद्ध्यानप्रेरणाच् चमी॥ १३१॥

नित्यो विभुर् निराधारो व्यापकश्चाखिलाधिपः।
शब्दान् प्रतिक्षणं ध्यायन् कृतार्थोऽर्थानुरूपतः॥ १३२॥

अतत्त्वम् इन्द्रजालाभम् इदं सर्वमवस्थितम्।
किं तत्त्वम् इन्द्रजालस्य इति दार्ढ्याच् चमं व्रजेत्॥ १३३॥

आत्मनो निर्विकारस्य क्व ज्ञानं क्व च वा क्रिया।
ज्ञानायत्ता बहिर्भावा अतः शून्यम् इदं जगत्॥ १३४॥

न मे बन्धो न मोक्षो मे भीतस्यैता विभीषिकाः।
प्रतिबिम्बम् इदम् बुद्धेर् जलेष्व् इव विवस्वतः॥ १३५॥

इन्द्रियद्वारकं सर्वं सुखदुःखादिसङ्गमम्।
इतीन्द्रियाणि सन्त्यज्य स्वस्थः स्वात्मनि वर्तते॥ १३६॥

ज्ञानप्रकाशकं सर्वं सर्वेणात्मा प्रकाशकः।
एकम् एकस्वभावत्वात्ज्ञानं ज्ञेयं विभाव्यते॥ १३७॥

मानसं चेतना शक्तिर् आत्मा चेति चतुष्टयम्।
यदा प्रिये परिक्षीणं तदा तद् भैरवं वपुः॥ १३८॥

निस्तरङ्गोपदेशानां शतम् उक्तं समासतः।
द्वादशाभ्यधिकं देवि यज् ज्ञात्वा ज्ञानविज् जनः॥ १३९॥

अत्र चैकतमे युक्तो जायते भैरवः स्वयम्।
वाचा करोति कर्माणि शापानुग्रहकारकः॥ १४०॥

अजरामरताम् एति सोऽणिमादिगुणान्वितः।
योगिनीनाम् प्रियो देवि सर्वमेलापकाधिपः॥ १४१॥

जीवन्न् अपि विमुक्तोऽसौ कुर्वन्न् अपि न लिप्यते।

श्री देवी उवाच।

इदं यदि वपुर् देव परायाश्च महेश्वर॥ १४२॥

एवमुक्तव्यवस्थायां जप्यते को जपश्च कः।
ध्यायते को महानाथ पूज्यते कश्च तृप्यति॥ १४३॥

हूयते कस्य वा होमो यागः कस्य च किं कथम्।

श्री भैरव उवाच।

एषात्र प्रक्रिया बाह्या स्थूलेष्व् एव मृगेक्षणे॥ १४४॥

भूयो भूयः परे भावे भावना भाव्यते हि या।
जपः सोऽत्र स्वयं नादो मन्त्रात्मा जप्य ईदृशः॥ १४५॥

ध्यानं हि निश्चला बुद्धिर् निराकारा निराश्रया।
न तु ध्यानं शरीराक्षिमुखहस्तादिकल्पना॥ १४६॥

पूजा नाम न पुष्पाद्यैर् या मतिः क्रियते दृढा।
निर्विकल्पे महाव्योम्नि सा पूजा ह्यादराल् लयः॥ १४७॥

अत्रैकतमयुक्तिस्थे योत्पद्येत दिनाद् दिनम्।
भरिताकारता सात्र तृप्तिर् अत्यन्तपूर्णता॥ १४८॥

महाशून्यालये वह्नौ भूताक्षविषयादिकम्।
हूयते मनसा सार्धं स होमश् चेतनास्रुचा॥ १४९॥

यागोऽत्र परमेशानि तुष्टिर् आनन्दलक्षणा।
क्षपणात्सर्वपापानां त्राणात्सर्वस्य पार्वति॥ १५०॥

रुद्रशक्तिसमावेशस् तत्क्षेत्रम् भावना परा।
अन्यथा तस्य तत्त्वस्य का पूजा काश्च तृप्यति॥ १५१॥

स्वतन्त्रानन्दचिन्मात्रसारः स्वात्मा हि सर्वतः।
आवेशनं तत्स्वरूपे स्वात्मनः स्नानम् ईरितम्॥ १५२॥

यैर् एव पूज्यते द्रव्यैस् तर्प्यते वा परापरः।
यश्चैव पूजकः सर्वः स एवैकः क्व पूजनम्॥ १५३॥

व्रजेत्प्राणो विशेज् जीव इच्चया कुटिलाकृतिः।
दीर्घात्मा सा महादेवी परक्षेत्रम् परापरा॥ १५४॥

अस्यामनुचरन् तिष्ठन् महानन्दमयेऽध्वरे।
तया देव्या समाविष्टः परम् भैरवमाप्नुयात्॥ १५५॥

षट्शतानि दिवा रात्रौ सहस्राण्येकविंशतिः।
जपो देव्याः समुद्दिष्टः सुलभो दुर्लभो जडैः॥ १५६॥
वरितिन्
सकारेण बहिर्याति हकारेण विषेत् पुनः।
हंसहंसेत्यमुं मन्त्रं जीवो जपति नित्यशः॥१५६॥

इत्येतत्कथितं देवि परमामृतम् उत्तमम्।
एतच् च नैव कस्यापि प्रकाश्यं तु कदाचन॥ १५७॥

परशिष्ये खले क्रूरे अभक्ते गुरुपादयोः।
निर्विकल्पमतीनां तु वीराणाम् उन्नतात्मनाम्॥ १५८॥

भक्तानां गुरुवर्गस्य दातव्यं निर्विशङ्कया।
ग्रामो राज्यम् पुरं देशः पुत्रदारकुटुम्बकम्॥ १५९॥

सर्वम् एतत्परित्यज्य ग्राह्यम् एतन् मृगेक्षणे।
किम् एभिर् अस्थिरैर् देवि स्थिरम् परम् इदं धनम्।
प्राणा अपि प्रदातव्या न देयं परमामृतम्॥ १६०॥

श्री देवी उवाच।

देवदेव माहदेव परितृप्तास्मि शङ्कर।
रुद्रयामलतन्त्रस्य सारमद्यावधारितम्॥ १६१॥

सर्वशक्तिप्रभेदानां हृदयं ज्ञातमद्य च।
इत्युक्त्वानन्दिता देवि कण्ठे लग्ना शिवस्य तु॥ १६२॥

विवेक मार्तण्ड


श्री गुरुं परमानन्दं वन्दे स्वानन्द विग्रहम्।
यस्य संनिध्य मात्रेण चिदानन्दायते तनुः॥१॥

अन्तर् निश्चलितात्म दीप कलिका स्वाधार बन्धादिभिः
यो योगी युग कल्प काल कलनात् त्वं जजेगीयते।
ज्ञानामोद महोदधिः समभवद् यत्रादिनाथः स्वयं
व्यक्ताव्यक्त गुणाधिकं तम् अनिशं श्री मीननाथं भजे॥२॥

नमस्कृत्य गुरुं भक्त्या गोरक्षो ज्ञानम् उत्तमम्।
अभीष्टं योगिनां ब्रूते परमानन्द कारकम्॥३॥


एतद् विमुक्ति सोपानम् एतत् कालस्य वञ्चनम्।
यद् व्यावृत्तं मनो भोगादासक्तं परमात्मनि॥४॥

द्विजसेवितशाखस्य श्रुतिकल्पतरोः फलम्।
शमनं भव तापस्य योगं भजति सत्तमाः॥५॥

आसनं प्राणसंरोधः प्रत्याहारश्च धारणा।
ध्यानं समाधिरेतानि योगाङ्गानि भवन्ति षट्॥६॥

अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यं क्षमा धृतिः।
दयार्जवं मिताहारः शौचं चैव यमा दश॥ ७॥

तपः सन्तोषास्तिक्यं दानमीश्वरपूजनम्।
सिद्धान्तश्रवणं चैव ह्रीमती च जपो हुतम् ॥ ८॥

नियम अथ वक्ष्यामि योगमष्टाङ्गसंयुतम्।
सयोगं योगमित्याहुर्जीवात्मपरमात्मनोः॥ ९॥

आसनानि तु तावन्ति यावत्यो जीवजातयः।
एतेषामखिलान् भेदान् विजानाति महेश्वरः॥१०॥

चतुराशीति लक्षाणां एकम् एकम् उदाहृतम्।
ततः शिवेन पीठानां षोडेशानं शतं कृतम्॥११॥

आसनेभ्यः समस्तेभ्यो द्वयम् एव प्रशस्यते।
एकं सिद्धासनं प्रोक्तं द्वितीयं कमलासनम्॥१२॥

योनि स्थानकम् अङ्घ्रि मूल घटितं कृत्वा दृढं विन्यसेन्
मेढ्रे पादम् अथैकम् एव नियतं कृत्वा समं विग्रहम्।
स्थाणुः संयमितेन्द्रियोचल दृशा पश्यन् भ्रुवोर् अन्तरम्
एतन् मोक्ष कवाट भेद जनकं सिद्धासनं प्रोच्यते॥१३॥

वामोरूपरि दक्षिणं हि चरणं संस्थाप्य वामं तथा
दक्षोरूपरि पश्चिमेन विधिना धृत्वा कराभ्यां दृढम्।
अङ्गुष्ठौ हृदये निधाय चिबुकं नासाग्रम् आलोकयेद्
एतद् व्याधि विकार हारि यमिनां पद्मासनं प्रोच्यते॥१४॥

आधारः प्रथमं चक्रं स्वाधिष्ठानं द्वितीयकम्।
तृतीयम् मणिपूराक्यं चतुर्थं स्यदनाहतम्॥१५॥

पञ्चमं तु विशुद्धाख्यमाज्ञाचक्रं तु षष्ठकम्।
सप्तमं तु महाचक्रं ब्रह्मरन्ध्रे महापथे॥१६॥

चतुर्दलं स्यादाधारः स्वाधिष्ठानं च षड्दलम्।
नाभौ दशदलं पद्मं सूर्यसङ्ख्यदलं हृदि॥ १७॥

कण्ठे स्यात् षोडशदलं भ्रूमध्ये द्विदलं तथा।
सहस्रदलमाख्यातं ब्रह्मरन्ध्रे महापथे॥ १८॥

आधारः प्रथमं चक्रं स्वाधिष्ठानं द्वितीयकम्।
योनिस्थानं तयोर्मध्ये कामरूपं निगद्यते॥१९॥

आधाराख्यं गुदस्थाने पङ्कजं च चतुर्दलम्।
तन्मध्ये प्रोच्यते योनिः कामाख्या सिद्धवन्दिता॥२०॥

योनि मध्ये महा लिङ्गं पश्चिमाभिमुखं स्थितम्।
मस्तके मणिवद् बिम्बं यो जानाति स योगवित्॥२१॥

तप्तचामीकराभासं तडिल्लेखेव विस्फुरत्।
त्रिकोणं तत्पुरंवह्नेरधो मेढ्रात्प्रतिष्ठितम्॥२२॥

यत्समाधौ परं ज्योतिरनन्तं विश्वतो मुखम्।
तस्मिन् दृष्टे महा योगे यातायातं न विद्यते॥२३॥

दृष्टिः स्थिरा यस्य विनापि दृश्या
द्वायुः स्थिरो यस्य विनापि यत्नात्।
मनः स्थिरं यस्य विनाबलम्बवात्
स एव योगी स गुरूः स सेव्यः॥ २४॥

स्वशब्देन भवेत्प्राणः स्वाधिष्ठानं तदाश्रयः।
स्वाधिष्ठानाश्रयस्तस्मान्मेढ्रमेवाभिधीयते॥२५॥

तन्तुना मणिवत्प्रोतो यत्र कन्दः सुषुम्णया।
तन्नाभिमण्डले चक्रं प्रोच्यते मणिपूरकम्॥२६॥

द्वादशारे महाचक्रे पुण्यपापविवर्जिते।
तावज्जीवो भ्रमत्येव यावत्तत्त्वं न विन्दति॥२७॥

ऊर्ध्वं मेढ्रादधो नाभेः कन्दयोनिः खगाण्डवत्।
तत्र नाड्यः समुत्पन्नाः सहस्राणि द्विसप्ततिः॥२८॥

तेषु नाडि सहस्रेषु द्विसप्ततिरुदाहृताः।
प्रधानः प्राणवाहिन्यो भूयस्तासु दशस्मृताः॥२९॥

इडा च पिङ्गला चैव सुषुम्णा च तृतीयका।
गान्धारी हस्ति जिह्वा च पूषा चैव यशस्विनी॥३०॥

अलम्बुषा कुहूश्चैवशङ्खिनी दशमी स्मृता।
एतन्नाडिमयं चक्रं ज्ञातव्यं योगिभिः सदा॥३१॥

इडा वामे स्थिता भागे  दक्षिणे पिङ्गला स्मृता।
सुषुम्णा मध्यदेशे तु गान्धारी वामचक्षुषि॥३२॥

दक्षिणे हस्तिजिह्वा च पूषा कर्णे च दक्षिणे।
यशस्विनी वाम कर्णं आनने चाप्यलम्बुषा॥३३॥

कुहूश्च लिङ्ग देशे तु मूलस्थाने च शङ्खिनी।
एवं द्वारम् समश्रित्य तिष्ठन्ति दशनाडयः॥३४॥

इडा च पिङ्गला चैव सुषुम्णा प्राणसंश्रिताः।
सततं प्राणवाहिन्यः सोमसूर्याग्निदेवताः॥३५॥

प्राणोपानः समानश्चोदानो तथैव च।
नागः कूर्मोथ कृकरो देवदत्तो धनञ्जयः॥३६॥

प्राणाद्याः पञ्चविख्याता नागाद्याः पञ्च वायवः।
हृदि प्राणो वसेन्नित्यमपानो गुदमण्डले॥३७॥

समानो नाभिदेशे स्यादुदानः कण्ठदेशगः।
व्यानो व्यापी शरीरे तु प्रधानाः पञ्चवायवः॥३८॥

उद्गारे नाग आख्यातः कूर्म उन्मीलने स्मृतः।
कृकरः क्षुतके ज्ञेयो देवदत्तो विजृम्भणे॥३९॥

न जहाति मृतं चापि सर्वव्यापि धनञ्जयः।
एते नाडीषुसहस्रेषु वर्तन्ते जीवरूपिणः॥४०॥

आक्षिप्तो भुज दण्डेन यथोच्चलति कन्दुकः।
प्राणापानसमाक्षिप्तस्तथा जीवो न तिष्ठति॥४१॥

प्राणापानवशो जीवो ह्यश्चोर्ध्वं च धावति।
वामदक्षिणमार्गेण चञ्चलत्वान्न दृश्यते॥४२॥

रज्जुबद्धो यथा श्येनो गतोऽप्याकृष्यते पुनः।
गुणबद्धस्तथा जीवः प्राणापानेन कृष्यते॥४३॥

अपानः कर्षति प्राणः प्राणोपानं च कर्षति।
ऊर्ध्वाधः संस्थिताव् एतौ संयोजयति योगवित्॥४४॥

हकारेण बहिर्याति सकारेण विशेत् पुनः।
हंसहंसेत्य्ं मन्त्रं जीवो जपति सर्वदा॥४५॥

षट्शतानि दिवारात्रौ सहस्राण्येक विंशतिः।
एतत्सङ्ख्यान्वितं मन्त्र जीवो जपति सर्वदा॥४६॥

अजपा नाम गायत्री योगिनां मोक्ष दायिनी।
अस्याः सङ्कल्प मात्रेण नरः पापैर्विमुच्यते॥४७॥

अनया सदृशो विद्या अनया सदृशो जपः।
अनया सदृशं ज्ञानं न भूतं न भविष्यति॥४८॥

अनया सदृशं तीर्थमनया सदृशः क्रतुः।
अनया सदृशं पुण्यं न भूतं न भविष्यति॥४९॥

अनया सदृशो स्वर्गो अनया सदृशो तपः।
अनया सदृशं वेद्यम् न भूतं न भविष्यति॥५०॥

कुन्दलिन्याः समुद्भूता गायत्री प्राणधारिणी।
प्राणविद्या महाविद्या यस्तां वेत्ति स योगवित्॥५१॥

प्रस्फुरद् भुजगाकारा पद्मतन्तुनिभा शुभा।
मूढ़ानां बन्धिनि सास्ति योगिनां मोक्षदायिनो॥ ५२॥

कन्दोर्ध्वं कुण्डली शक्तिरष्टधा कुटिलाकृति।
ब्रह्मद्वारमुखं नित्यं मुखेनाच्छाद्य तिष्ठति॥५३॥

येन मार्गेण गन्तव्यं ब्रह्मस्थानमनामयम्।
मुखेनाच्छाद्य तद्द्वारं प्रसुप्ता परमेश्वरी॥५४॥

प्रबुद्धा वह्नियोगेन मनसा मारुतै सहः।
सूचीव गुणमादाय व्रजत्यूर्ध्वं सुषुम्णया॥५५॥

उद्घटयेत् कपातं तु यथा कुञ्चिकया हठात्।
कुण्डलिन्या तथा योगी मोक्षद्वारं प्रभेदयेत्॥५६॥

कृत्वा सम्पुटितौ करौ दृढतरं बद्ध्वा तु पद्मासनं
गाढं वक्षसि सन्निधाय चिबुकं ध्यात्वा च  तच्चेतसा।
वारं वारमपानमूर्ध्वमनिलंप्रोच्चारयेत् पूरयन्
मुञ्चन् प्राणमुपैतिबोधमतुलं शक्तिप्रबोधान्नरः॥५७॥

अङ्गानां मर्दनं कृत्वा श्रमसञ्जातवारिणा।
कट्वम्ललवणत्यागीक्षीरभोजनमादिशेत्॥५८॥

ब्रह्मचारी मिताहारी त्यागी योगपरायणः।
अब्दादूर्ध्वं भवेत्सिद्धो नात्र कार्या विचारणा॥५९॥

सुस्निग्धमधुराहारं चतुर्थांशविवर्जितम्।
भुङ्क्त् य इश्वरप्रीत्यै मिताहारि स उच्यते॥६०॥

महामुद्रां नभोमुद्रामुड्डियानं जलन्धरम्।
मूलबन्धं च यो वेत्ति स योगी सिद्धिभाजनम्॥६१॥

अपानप्राणयोरैक्ये क्षयोमूत्रपुरीषयोः।
युवा भवति वृद्धोऽपि सततं मूलबन्धनात्॥ ६२॥

पार्ष्णिभागेनसंपीड्य योनिमाकुञ्चयेद् गुदम्।
अपानमूर्ध्वमाकृष्य मूलबन्धो निगद्यते॥ ६३॥

उड्डीनं कुरुते यस्मादविश्रान्तो महाखगः।
उड्डीयानं तदेव स्यान्मृत्युमातङ्गकेसरी॥ ६४॥

उदरात्पश्चिमे भागे ह्यधो नाभेर्निगद्यते।
उड्डीयानाह्वयो बन्धस्तत्र बन्धो विधीयते॥ ६५॥

बध्नाति हि सिरोजालं नाधो याति नभोजलम्।
ततो जालन्धरो बन्धः कण्ठे दुःखौघनाशकः॥ ६६॥

जालन्धरे कृते बन्धे कण्ठसंकोचलक्षणे।
पीयूषं न पतत्यग्नौ न च वायुः प्रकुप्यति॥ ६७॥

कपालकुहरे जिह्वा प्रविष्टा विपरीतगा।
भ्रुवोरन्तर्गता दृष्टिर् मुद्रा भवति खेचरी॥ ६८॥

चित्तं चलति खे यस्माज्जिह्वा चरति खे गता।
तेनैव खेचरी मुद्रा सर्वसिद्धैर्नमस्कृता॥ ६९॥

न रोगो मरणं तस्य न निद्रा न क्षुधा तृषा।
न च मूर्च्छा भवेत्तस्य यो मुद्रां वेत्ति खेचरीम्॥ ७०॥

पीड्यते न च शिकेन लिप्यते न च कर्मणा।
बाध्यते न स केनापि यो मुद्रां वेत्ति खेचरीम्॥ ७१॥

बिन्दुमूल शरीरणां शिरास्तत्र प्रतिष्ठिताः।
भावयन्ति शरीराणि चापादतलमस्तकम्॥ ७२॥

खेचर्या मुद्रितं येन विवरं लम्बिकोर्ध्वतः।
न तस्य क्षरते बिन्दुः कामिन्यालिङ्गितस्य च॥ ७३॥

यावद् बिन्दुः स्थितो देहे तावन्मृतोर्भयं कुतः।
यावद् बद्धा नभोमुद्रा तावद् बिन्दुर्न गच्छति॥ ७४॥

चलितोऽपि यदा बिन्दुः सम्प्राप्तश् च हुताशनम्।
व्रजत्यूर्ध्वं हृतः शक्त्या निरुद्धो योनिमुद्रया॥ ७५॥

स पुनर्द्विविधो बिन्दुः पण्डुरो लोहितस्तथा।
पाण्डुरः शुक्रमित्याहुर्लोहितां च महाराजः॥ ७६॥

सिन्दूरद्रवसङ्काशं राविस्थाने स्थितं रजः।
शशिस्थाने स्थितो बिन्दुस्तयोरैक्यं सुदुर्लभम्॥ ७७॥

बिन्दुः शिवो रजः शक्तिर्बिन्दुरिन्दू रजो रविः।
उभयोः सङ्गमादेव प्राप्यते परमं पदम्॥ ७८॥

वायुना शक्तिचारेण प्रेरितं तु यदा रजः।
याति बिन्दोः सहैकत्वं भवेद्दिव्यं वपुस्तदा॥ ७९॥

शुक्रं चन्द्रेण संयुक्तं रजः सूर्येण संगतम्।
तयोः समरसैकत्वं यो जानाति स योगवित्॥ ८०॥

शोधनं नाडिजालस्य चालनं चन्द्रसूर्ययोः।
रसानाशोषणं कुर्यान्महामुद्राभिधीयते॥ ८१॥

वक्षोन्यस्तहनुः प्रोपिड्यसुचिरं योनिं च वमाङ्घ्रणा
हस्ताभामनुधारयेत्प्रसरितं पादं तथ दक्षिणम्।
आपूर्य श्वसनेन कुक्षियुगलं बध्वा शनैः रेचये
देषा व्याधिविनाशिनी च महतो मुद्रा नृणां प्रोच्यते॥ ८२॥

चन्द्राङ्गेन समभ्यस्य सूर्याङ्गेनाभ्यसेत्पुनः।
यावत्तुल्या भवेत्संख्या ततो मुद्रां विसर्जयेत्॥ ८३॥

न हि पथ्यमपथयं वा रसाः सर्वेऽपि नीरसाः।
अपि भुक्तं विषं घोरं पियूषमिवजिर्यति॥ ८४॥

क्षयकुष्ठगुदावर्तगुल्माजीर्णप्रिगमाः।
तस्य रोगाः क्षयं यान्ति महामुद्रांतु योऽभ्यसेत्॥ ८५॥

कथितेयं महामुद्रा महासिद्धिकरी नृणाम्।
गोप्नीया प्रयत्नेन न देया यस्य कस्य्चित्॥ ८६॥

पद्मासनं समारुह्य समकायशिरोधरः।
नासाग्रदृष्टिरेकान्ते जपेदोङ्कारमव्ययम्॥ ८७॥

भूर्भुवः स्वरिमे लोकाः सोमसूर्याग्निदेवताः।
प्रतिष्ठिता यत्र सदा तत्परं ज्योतिरोमिति॥ ८८॥

त्रयः कालास्त्रयो वेदास्त्रयो लोकास्त्रयः स्वराः।
त्रयो देवाः स्थिता यत्र तत्परं ज्योतिरोमिति॥ ८९॥

सत्त्वं रजस्तमश्चाव ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः।
त्रयो देवाः स्थिता यत्र तत्परं ज्योतिरोमिति॥ ९०॥

कृतिरिच्छा तथा ज्ञानां ब्राह्मी रौद्री च वैष्णवी।
त्रिधा शक्तिः स्थिता यत्र तत्परं ज्योतिरोमिति॥ ९१॥

शुचिर्वाप्यशुचिर्वापि यो जपेत् प्रणवं सदा।
 न स लिप्यति पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा॥ ९२॥

चले वाते चलं चित्तं निश्चले निश्चल भवेत्।
योगी स्थाणुत्वमाप्नोति ततो वायुं निरोधयेत्॥ ९३॥

यावद् बद्धो मरुद्देहे तावच्चित्तं निरामयम्।
यावद् दृष्टिर्भ्रुवोर्मध्ये तावन्मृत्युभयं कुतः॥ ९४॥

यावद् वायुः स्थितो देहे तावज्जीवो न मुच्यते।
मरणं तस्य निष्क्रान्तिस्ततो वायुं निरोधयेत्॥ ९५॥

अतः कालभयाद् ब्रह्मा प्राणायामपरायणः।
योगिनो मुनयः सर्वें ततो वायुं निरोधयेत्॥ ९६॥

शुद्धिमेति यदा सर्वं नाडीचक्रं मलाकुलम्।
तदैव जायते योगी क्षमः प्राणनियन्त्रणे ॥ ९७॥

बद्धपद्मासनो योगी प्राणं चन्द्रेण पूरयेत्।
धारयित्वा यथाशक्ति पुनः सूर्येण रेचयेत्॥ ९८॥

अमृतंदधिसङ्काशं गोक्षीरधवलोपमम्।
ध्यात्वा चन्द्रमसो बिम्बं प्राणायामी सुखी भवेत्॥ ९९॥

प्राणं सूर्येण चाकृष्य पुरयेदुदरं शनैः।
कुम्भयित्वा विधानेन पुनश्चन्द्रेण रेचयेत्॥ १००॥

प्रज्वलज्ज्वलनज्वालापुञ्जमादित्यमण्डलम्।
ध्यात्वा नाभिस्थितं योगी प्राणायामे सुखी भवेत्॥ १०१॥

प्राणंश्चेदिडयापिबेत्परिमितं भूयोऽन्यया रेचयेत्
पीत्वा पिङ्गलया समीरणमथो बद्ध्वा त्यजेद् वामया।
सूर्यचन्द्रमसोरनेन विधिना बिम्बद्वयं ध्यायतां
शुद्धा नाडिगणा भवन्ति यमिनां मासत्रयादूर्ध्वतः॥ १०२॥

यथेष्टं धारणं वायोरनलस्य प्रदीपनम्।
नादाभिव्यक्तिरारोग्यं जायते नाडिशोधने॥ १०३॥

प्राणो देहे स्थितो वायुरपानस्य निरोधनात्।
एकश्वसनमात्रेणोद्घाटयेत् गगने गतिम्॥ १०४॥

पूरकः  कुम्भकश्चैव रेचकः प्रणवात्मकः।
प्राणायामो भवेत् त्रेधा मत्रद्वादशसंयुतः॥ १०५॥

मात्राद्वादशसंयुक्तौ दिवाकरनिशाकरौ।
दोषजालमपध्नन्तौ ज्ञातव्यौ योगिभिः सदा॥ १०६॥

पूरके द्वादश प्रोक्ताः कुम्भके षोडशैव तु।
रेचके दश चोम्कराः प्राणायामः स उच्यते॥ १०७॥

अधमे द्वादश प्रोक्ता मध्यमे द्विगुणा मता।
उत्तमे त्रिगुणा ख्याताः प्राणायामस्य निर्णयः॥ १०८॥

अधमे च धनो धर्मः कम्पो भवति मधयमे।
उत्तमे स्थानमाप्नोति ततो वायुं निरोधयेत्॥ १०९॥

बद्धपद्नासनो योगी नमस्कृत्य गुरुं शिवम्।
भ्रूमध्ये दृष्टिरेकाकी प्राणायामं समभ्य्सेत्॥ ११०॥

ऊर्ध्वमाकृष्य चापानवायुं प्राणे नियुज्य च।
उर्ध्वमानीय तं शक्त्या सर्वपापैः प्रमुच्यते॥ १११॥

द्वाराणां नवकं निरुद्ध्य मरुत पीत्वा दृढं धारयेत्
नीत्वाकाशमपानवह्निसहितं शक्त्या समुद्धटितम्।
आत्मस्थानयुतस्त्वनेन विधिना विन्यस्य मूर्घ्न ध्रुवं
यावत्तिष्ठति तावदेन महतां संघेन संस्तूयते॥ ११२॥

प्राणायामो भवत्येवं पातकेन्धनपावकः।
भवोदधिमहासेतुः प्रोच्यते योगिभिः सदा॥ ११३॥

प्राणायामे महान् धर्मों योगिनो मोक्षदयकः।
प्राणायामे दिवारात्रौ दोषजालं परित्यजेत्॥ ११४॥

आसनेन रुजो हन्ति प्राणायामेन पातकम्।
विकारं मानसं योगी प्रत्याहारेण मुण्चति॥ ११५॥

मनोधैर्यं धारणया ध्यानाच्चैतन्यमद्भुतम्।
समाधौ मोक्षमानोति त्यक्त्व कर्म शुभाशुभम्॥ ११६॥

प्राणायामद्विषटकेन प्रत्याहारः प्रकीर्तितः।
प्रत्याहारद्विषट्केन ज्ञायते धारणा शुभा॥ ११७॥

धारणा द्वादश प्रोक्तां ध्यानं धानविशारदैः।
ध्यानद्वादशकेनैव समाधिरभिधीयते॥ ११८॥

सम्बद्धासनमेढ्रमंध्रियुगलं कर्णाक्षिनासापुटा
द्वाराण्यगुलिभिर्नियम्य पवनं वक्त्रेण चापूरितम्।
ध्यात्वा वक्षसि तत्त्वपानसहितं मूर्ध्नि स्थितं धारये
देवं याति नरः शिवेन समतां योगीश्वरस्तन्मयः॥ ११९॥

पवने गगनं प्राप्ते ध्वनिरुत्पद्यते महान्।
घण्टादीनां प्रवाद्यानां तदा सिद्धिरदूरतः॥१२०॥

प्राणायामेन युक्तेन सर्वरोक्षयो भवेत्।
आयुक्ताभ्यासयोगेन सर्वरोगस्य संभवह्॥ १२१ ॥

हिक्का श्वासश्च कासक्ष शिरः कर्णाक्षिवेदनाः।
भवन्ति विविधा रोगाः पवनस्य व्यतिक्रमात्॥ १२२॥

यथा सिंहो गजो व्याघ्रो भवेद् वश्यः शनैः शनैः।
तथैव सेवितो वायुरन्यथा हन्ति साधकम्॥ १२३॥

युक्तं युक्तं त्यजेद् वायुं युक्तं युक्तं च पूरयेत्।
युक्तं युक्तं च बनीयादेवं सिद्धिमाप्नुयात्॥ १२४॥

चरतां चक्षुरादीनां विषयेषु यथाक्रमम्।
यत्प्रत्याहरणं तेषां प्रत्याहारः स उच्यते॥ १२५॥

यथा तृतीयकालस्थो रविः प्रत्याहरेत् प्रभाम्।
तृतौयाङ्गस्थितो योगी विकारं मानसं तथा॥ १२६॥

अङ्गमध्ये यथाङ्गन् कूर्मः संकोचयेद् ध्रुवम्।
योगी प्रत्याहरेदेवमिन्द्रियाणि तथात्मनि॥ १२७॥

अमेध्यमथवा मेध्यं यं यं पश्यति चक्षुषा।
तत्तमात्मेति विज्ञाय प्रत्याहरति योगवित॥ १२८॥

यद्यच्छृणोति कर्णभ्यामप्रियं चाथवाप्रियम्।
तत्तदात्मेति विज्ञाय प्रत्याहरति योगवित्॥ १२९॥

अमिष्टमथवा मिष्टं यद्यत्स्पृशति जिह्वया।
तत्तदात्मेति विज्ञाय प्रत्याहरति योगवित्॥ १३०॥

सुगन्धमयं दुर्गन्धं यद्यज्जिध्रति नासया।
तत्तदात्मेति विज्ञाय प्रत्याहरति योगवित्॥ १३१॥

कर्कंशं कोमलं वापि यद्यत् स्पृशति च त्वचा।
तत्तदात्मेति विज्ञाय प्रत्याहरति योगवित्॥ १३२॥

चन्द्रामृत्मयीं धारां प्रत्याहरति भास्करः।
यत्प्रत्यहरणं तस्याः प्रत्याहारः स उच्यते॥ १३३॥

एका स्त्री भुज्यते द्वाभ्यामागता चन्द्रमण्डलात्।
तृतीयोऽपि पुनस्ताभ्यां स भवेदजरामरः॥ १३४॥

नाभिदेशे वसत्येको भास्करो दहनात्मनः।
अमृतात्मा स्थितो नित्यं तालुमूले च चन्द्रमाः॥ १३५॥

वर्षत्यधोमुखश्चन्द्रो ग्रस्त्यूर्ध्वमुखो रविः।
ज्ञातव्या करणं तत्र येन पीयूषमाप्यते॥ १३६॥

ऊर्ध्वं नाभिरधस्तालु चोर्ध्वं भानुरधः शशी।
करणं विपरीताख्यं गुरुवाक्येन लभ्यते॥ १३७॥

त्रिधा बद्धो वृषो यत्र रोखिति महास्वनः।
अनाहतं तु तच्चक्रं योगिनो हृदयेविदुः॥ १३८॥

अनाहतमतिक्रम्य चाक्रम्य मणिपूरकम्।
प्राप्ते प्राणे महापद्मं योगीतमृतायते॥ १३९॥

ऊर्धवं षोडशपत्रपद्मगलितं प्राणाद्वाप्तं हठा
दूर्ध्वस्यो रसनां नियम्य विवरे शान्ति परां चिन्तयन्।
उत्कल्लोलकलाजलं सुविमलं जिह्वाकुलम् यः पिबे
न्निर्दोषः स मृणालकोपुर्योगी चिरं जीवति॥ १४०॥

काकचञ्चुवदास्येन शीतलं सलिलं पिबेत्।
प्राणापानविधानेन योगी भवति निर्जरः॥ १४१॥

रसनातालुयोगेन योऽमृतं सततं पिबेत्।
अब्दार्द्धेन भवेत्तस्य सर्वरोगपरिक्षयः॥ १४२॥

विशुद्धे परमे चक्रे धृत्वा सोमकलाजलम्।
उन्मार्गेण कृतं याति वञ्चयित्वा खेर्मुखं ॥ १४३॥

वि शब्देन स्मृतो हंसो निर्मलं शुद्धमुच्यते।
अतः कण्ठे विशुद्धाख्ये चक्रं चक्रविदो विदुः॥ १४४॥

अमृतं कन्दरे कृत्वा नासान्तसुषिरे क्रमात्।
स्वयमुच्चालितं याति वर्जयित्वा खेर्मुखं ॥ १४५॥

बद्धं सोमकलाजलं सुविमलं कण्ठस्थलादूर्ध्वतो
नासान्ते सुषिरे याति गगनद्वारं ततः सर्वतः।
ऊर्ध्वास्यो भुवि सन्निपत्य नितरामुत्तानगात्रः पिब
त्येवं यो विबुद्धो जितेन्द्रियगणो नैवास्ति तस्य क्षयः॥ १४६॥

उर्ध्वजिह्वः स्थिर भूत्वा सोमपनां करोति यः।
अब्दार्धेन न सन्देहो मृत्युं जयति योगवित्॥ १४७॥

बद्धम् मूलबिल येन तेन विघ्नो विदारितः।
अजरामरमाप्नोति यथा पञ्चमुखो हरः॥ १४८॥

संपीड्य रसनाग्रेण राजदन्तबिलं महत्।
ध्यात्वामृतमयीं देवीं षण्मासेन सुकविर्भवेत्॥ १४९॥

सर्वद्वाराणि बध्नाति यदूर्ध्वं च बिलं स्थितम्।
न मुञ्चत्यमृतं क्वापि स य्था यत्र धारणात्॥ १५०॥

चुम्बन्ती यदि लम्बिकाग्रमनिशं जिह्वा रसस्यन्दिनी
स्वीकारादुदकस्य दुग्धसदृशो मिष्टाज्यतुल्यस्य च।
व्याधीनां जरणं जरापहरणं शास्त्रागमोदगीरणं
तस्य स्यादमरत्वमष्टगुणितं दिव्यांगनाकर्षणम्॥ १५१॥

अणिमा महिमा चैव गरिमा लघिमा तथा।
ईशित्व च वशित्वं च प्राप्तिः प्राकाम्यमेवा च॥ १५२॥

अमृतापूर्णदेहस्य योगिनो द्वित्रिवत्सरैः।
ऊर्ध्वं प्रवर्तते रेतो ह्यणिमादि गुणोदयम्॥ १५३॥

नित्यं सोमकलपूर्णं शरीरं यस्य योगिनः।
तक्षकेणापि सदष्टं त विषं न च पीडयेत्॥ १५४॥

ईन्धनानि यथा वह्निस्तैलवर्तिं च दीपकः।
तथा सोमकलापूर्णं देहं देही न मुञ्चति॥ १५५॥

आसनेन समायुक्तः प्राणायामेन संयुतः।
प्रत्याहारेण सम्पन्नो धारणां च समभ्यसेत्॥ १५६॥

हृदये पञ्चभूतानां धारणा च पृथक् पृथक्।
मनसो निश्चलत्वेन धारणा साभिधीयते॥ १५७॥

य पृथ्वी हरितालहेमरुचिरा पीता लकारान्विता
संयुक्ता कमलासनेन हि चतुष्कोणा हृदि स्थायिनी।
प्राणां तत्र विलीय पञ्चघटिकाश्चित्तान्वितात् धारये
देषा स्तम्भकरी सदाक्षितिजयं कुर्यद् भुवो धारणा॥ १५८॥

आर्द्धेन्दुप्रतिमं च कुन्दधवलं कण्ठेऽम्बुतत्त्वं स्थितं
तत्पीयूषवकारबीजसहितं युक्तं सदा विष्णुना।
प्राण तत्र विलीय पञ्चघटिकाष्चित्तानिवितं धारये
देषा दुःसहकालकूटदहनी स्याद्वारुणी धारणा॥ १५९॥

यत्तालुस्थितमिन्द्रगोपसदृशं तत्त्वं त्रिकोणं ज्वलम्
तेजोरेफ़युक्तं प्रवालरुचिरं रुद्रेण यत्सङ्गतम्।
प्राणं तत्र विलीय पञ्चघटिकाश्चित्तान्वितं धारये
देषा वह्निजयं सदाविदधती वैश्वानरी धारणा॥ १६०॥

यद् भिन्नाञ्जनपुञ्जसन्निभमिदं वृतं भ्रुवोरन्तरे
तत्त्वं वायुमयं यकारसहितं तत्रेश्वरो देवता।
प्राणं तत्रविलीय पञ्चघटिकं चित्तान्वितं धारये
देषा रवे गमनं करोति यमिनां वै वायवी धारणा॥ १६१॥

आकाशं सुविशुद्धवारिसदृशं यद् ब्रह्मरन्ध्रे स्थितं
यन्नाथेन सदाशिवेन सहितं शान्तं हकाराक्षरम्।
प्राणं तत्र विलीया पञ्चघटीकं चित्तन्वितं धारये
देषा मोक्षकपाटपाटनपतुः प्रोक्ता नभोधारणा॥ १६२॥

स्तम्भिनी द्राविणी चैव दाहिनी भ्रामिणी तथा।
शोषिणी च भवात्येषा भूतानां पञ्च धारणाः॥ १६३॥

कर्मणा मनसा वाचा धारणाः पञ्च दुर्लभाः।
विज्ञान सततं योगी सर्वदुःखैः प्रमुच्यते॥ १६४॥

सर्वं चिन्तासमावर्ति योगिनो हृदि वर्तते।
या तत्वे निश्चला चिन्ता तद्धि ध्यानं प्रचक्षते॥ १६५॥

द्विधा भवति तद् ध्यानं सगुणं निर्गुणं तथा।
सगुणं वर्णंभेदेन निर्गुणं केवल विदुः॥ १६६॥

अश्वमेध्सहस्राणि वाजपेयशतानि च।
एकस्य ध्यानयोगस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्॥ १६७॥

आधारे प्रथमे चक्रे स्वर्णाभे च चतुरङ्गुले।
नासाग्रदृष्टिरात्मानां ध्यात्वा योगी सुखी भवेत्॥ १६८॥

स्वाधिष्ठाने शुभे चक्रे सन्माणिक्यसमप्रभे।
नासाग्रदृष्टिरात्मानं ध्यात्वा ब्रह्मसमो भवेत्॥ १६९॥

तरुणादित्यसंकाशे चक्रे तु मणिपूरके।
नासाग्रदृष्टिरात्मानं ध्यात्वा संक्षोभयेज्जगत्॥ १७०॥

अनाहते महाचक्र द्वादशारे च पन्कजे।
नासाग्रे दृष्टिमाधाय ध्यात्वा ध्यातामरो भवेत्॥ १७१॥

सततं घणिटकामध्ये विशुद्धे दीपकप्रभे।
नासाग्रदृष्टिरात्मानं ध्यात्वा दुःखं विमुञ्चति॥ १७२॥

स्रवत्पीयूषसम्पूर्णे लम्बिकाचन्द्रमण्ङ्दले।
नासाग्रदृष्टिरात्मानं ध्यात्वा मृत्युं विमुञ्चति॥ १७३॥

ध्यायन्नीलनिभं नित्यं भूरमध्ये परमेश्वरम्।
आत्मानं विजितप्राणो योगी योगमवाप्नुयात्॥ १७४॥

ब्रह्मरन्ध्रे महाचक्रे सहस्रारे च पन्कजे।
नासाग्रदृष्टिरात्मानं ध्यात्वा सिद्धो भवेत्स्वयम्॥ १७५॥

निर्मलं गगनाकारं मरीचिजलसन्निभम्।
आत्मानं सर्वगंध्यात्वा योगी मुक्तिमवाप्नुयात्॥ १७६॥

गुदं मेढ्रश्च नाभिश्च हृदयं कण्ठ  ऊर्ध्वगः।
घण्टिका लंबिकास्थानं भ्रूमध्यं च नभोबिलम्॥ १७७॥

कथितानि नवैतानि ध्यानस्थानानि योगिनाम्।
उपाधितत्वमुक्तानां कुर्वन्त्यष्टगुणोदयम्॥ १७८॥

उपाधिश्च तथा तत्त्वं द्वयमेतदुदाहृतम्।
उपाधिः प्रोच्यते वर्णस्तत्वमात्माभिधीयते॥ १७९॥

उपाधेरन्यथा ज्ञान तत्वसंस्थितिरन्यथा।
अन्यथ वर्णयोगेन दृश्यते स्फटिकपमम्॥ १८०॥

समस्तोपधिविध्वंसात्सदाभ्यासेन योगिनः।
मुक्तिकृच्छक्तिभेदेन स्वयमात्मा प्रकाशते॥ १८१॥

विरजाः परमाकशादात्माकाशो महत्तरः।
सर्वंदेत्थ भावनया तत्वं योगिजना विदुः॥ १८२॥

एतद् ब्रह्मात्मकं तेजः शिवं ज्योतिरनुत्तमम्॥
ध्वात्वा ज्ञात्वा विमुक्तः स्यादिति गोरक्षभाषितम्॥ १८३॥

शब्दादीनां च तन्मात्रा यावत्कर्णादिषु स्थिताः।
तावदेव स्मृतं ध्यानं समाधिः प्राणसंयमात्॥ १८४॥

धारण पञ्चनाडीभिर्ध्यानं स्यत् षष्टिनाडीभिः।
दिनद्वादशकेनैव समाधिः प्राणसंयमात्॥ १८५॥

यत्समत्वं द्वयोरत्र जीवात्मपरमात्मनोः
समस्तनष्टसंकल्पः समाधि सोऽभिधीयते॥ १८६॥

अंबुसैंधवयोरैक्यं यथा भवति योगतः।
तथात्ममनसोरैक्यं समाधिरभिधीयते॥ १८७॥

यदा संलीयते जीवो मानसं च विलीयते।
तदा समरसत्वं हि समाधिरभिधीयते॥ १८८॥

इन्द्रियेषु मनोवृत्तिरपरा प्रक्रिया हि सा।
ऊर्ध्वमेव गते जीवे न मनो नेन्द्रियाणि च १८९॥

नाभिजानाति शीतोष्ण न दुःखं न सुखं तथा।
न मानं नापमानं च योगी युक्तः समाधिना॥ १९०॥

न गन्धं न रसं रूपं न च स्पर्शं न निःस्वनम्।
नात्मानं न परं वेत्ति योगी युक्तः समधिना॥ १९१॥

अभेद्यः सर्वशस्त्राणाग्वध्यः सर्वदेहिनाम्।
अग्राह्यो मंत्रयंत्राणां योगी युक्तः समाधिना॥ १९२॥

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुखहा॥ १९३॥

निराद्यन्तं निरालम्बं निष्प्रपञ्चं निराश्रयम्।
निरामयं निराकारमचलं निर्गुणं महत्॥ १९४॥

हेतुदृष्टान्तनिर्मुक्तः मनोबुद्ध्याद्यगोचरम्।
योगविज्ञानमानन्दं ब्रह्म ब्रह्मविदो विदुः॥ १९५॥

निरालम्बे निराधारे निराकारे निरामये।
योगी योगविधानेन परब्रह्मणि लीयते॥ १९६॥

यथा घृते घृतं क्षिप्तं घृतमेव हि जायते।
क्षीरे क्षीरं तथा योगी तत्त्वमेव हि जायते॥  १९७॥

दुग्धे क्षीरं धृते सर्पिरग्नौ वह्निरिवार्पितः।
तन्मयत्वं व्रजत्येवं योगी लीनः परे पदे॥ १९८॥

भवभयदवमुक्तिं नाकसोपानमार्गं
प्रकटितपरमार्थं ग्रन्थमेनं सुगुह्यम्।
सकृदपि पठतीत्थं यः प्रशस्तप्रबोधं
स भवति भुवि मान्यो भाजनं मोक्षलक्षम्याः॥ १९९॥

नृणां भवभयहरं  मुक्तिसोपानलक्षणम्।
गुह्याद् गुह्यतरं चेदं गोरक्षेण प्रकाशितम्॥ २००॥

इति गोरक्षसनाथोक्तं योगशास्त्रं जनः पठेत्।
सर्वपापविनिर्मुक्तो योगी सिद्धो भवेद् ध्रुवम्॥ २०१॥

योगशास्त्रं पठेन्नित्यं किमान्यैः शास्त्रविस्तरैः।
यत्स्वयं चादिनाथस्य निर्गतं वदनाम्बुजात्॥ २०२॥

स्नातं तेन समस्ततीर्थसलिले दत्तां महीमण्डलम्
यज्ञानां च कृतं सहस्रमयुतं देवाश्च सम्पूजिताः।
सत्यं तेन सुतर्पिताश्च पितरः स्वर्गं च नीताः पुन
यस्य ब्रह्मविचारणे क्षणमपि प्राप्नोतिधैर्यं मनः॥ २०३॥

॥ इति श्रीमत्सिद्धवर्य श्रीगोरक्षनाथ विरचित विवेक मार्तण्डाभिधानं योगशास्त्रं सम्पूर्णम्॥

॥ अमृतबिन्दु॥


ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः।
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्योऽरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।

हरिः ॐ॥

मनो हि द्विविधं प्रोक्तं शुद्धं चाशुद्धमेव च।
अशुद्धं कामसंकल्पं शुद्धं कामविवर्जितम्‌॥ १॥

मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।
बन्धाय पिष्यासक्तं मुक्तंये निर्विषयं स्मृतम्‌॥ २॥

यतो निर्विष्यस्यास्य मनसो मुक्तिरिष्यते।
अतो निर्विषयं नित्यं मनः कार्यं मुमुक्षुणा॥ ३॥

निरस्तनिषयासङ्गं संनिरुद्धं मनो हृदि।
यदाऽऽयात्यात्मनो भावं तदा तत्परमं पदम्‌॥ ४॥

तावदेव निरोद्धव्यं यावद्‌धृति गतं क्षयम्‌।
एतज्ज्ञानं च ध्यानं च शेषो न्यायश्च विस्तरः॥ ५॥

नैव चिन्त्यं न चाचिन्त्यं न चिन्त्यं चिन्त्यमेव च।
पक्षपातविनिर्मुक्तं ब्रह्म संपद्यते तदा॥ ६॥

स्वरेण संधयेद्योगमस्वरं भावयेत्परम्‌।
अस्वरेणानुभावेन नाभावो भाव इष्यते॥ ७॥

तदेव निष्कलं ब्रह्म निर्विकल्पं निरञ्जनम्‌।
तदब्रह्मामिति ज्ञात्वा ब्रह्म संपद्यते ध्रुवम्‌॥ ८॥

निर्विकल्पमनन्तं च हेतुद्याष्टान्तवर्जितम्‌।
अप्रमेयमनादिं च यज्ञात्वा मुच्यते बुधः॥ ९॥

न निरोधो न चोत्पत्तिर्न बद्धो न च साधकः।
न मुमुक्षुर्न वै मुक्त इत्येषा परमार्थता॥ १०॥

एक एवाऽऽत्मा मन्थव्यो जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिषु।
स्थानत्रयव्यतीतस्य पुनर्जन्म न विद्यते॥ ११॥

एक एव हि भूतात्मा भूते भूते व्यवस्थितः।
एकधा बहुधा चैव दृष्यते जलचन्द्रवत्‌॥ १२॥

घटसंवृतमाकाशं नीयमानो घटे यथा।
घटो नीयेत नाऽकाशः तद्धाज्जीवो नभोपमः॥ १३॥

घटवद्विविधाकारं भिद्यमानं पुनः पुनः।
तद्भेदे न च जानाति स जानाति च नित्यशः॥ १४॥

शब्दमायावृतो नैव तमसा याति पुष्करे।
भिन्नो तमसि चैकत्वमेक एवानुपश्यति॥ १५॥

शब्दाक्षरं परं ब्रह्म तस्मिन्क्षीणे यदक्षरम्‌।
तद्विद्वानक्षरं ध्यायेच्द्यदीच्छेछान्तिमात्मनः॥ १६॥

द्वे विद्ये वेदितव्ये तु शब्दब्रह्म परं च यत्‌।
शब्दब्रह्माणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति॥ १७॥

ग्रन्थमभ्यस्य मेधावी ज्ञानवीज्ञानतत्परः।
पलालमिव धान्यार्यी त्यजेद्ग्रन्थमशेषतः॥ १८॥

गवामनेकवर्णानां क्षीरस्याप्येकवर्णता।
क्षीरवत्पष्यते ज्ञानं लिङ्गिनस्तु गवां यथा॥ १९॥

धृतमिव पयसि निगूढं भूते भूते च वसति विज्ञानम्‌।
सततं मनसि मन्थयितव्यं मनु मन्थानभूतेन॥ २०॥

ज्ञाननेत्रं समाधाय चोद्धरेद्वह्गिवत्परम्‌।
निष्कलं निश्चलं शान्तं तद्ब्रह्माहमिति स्मृतम्‌॥ २१॥

सर्वभूताधिवासं यद्भूतेषु च वसत्यपि।
सर्वानुग्राहकत्वेन तद्स्म्यहं वासुदेवः॥ २२॥

ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः।
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्योऽरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।

॥ इत्यथर्ववेदेऽमृत्बिन्दूपनिषत्समाप्ता॥