Wednesday 26 February 2014

बभूत मंत्र

ॐ नमो आदेसा , माता पिता गुरु देवता को आदेसा , बभूत माता , बभूत पिता को नमस्कारा, बभूत तीन लोक निर्वाणी , सर्व दुःख निर्वाणी , कीने आणी ,कीने छाणी, अनंत सिद्धों का मस्तक चढ़ाणी बभूत माता , बभूत पिता , रक्षा करे गुरु गोरख राऊ , चौकी करे राजपाल, आरोग्य रखे बेताल, चौकी नरसिंग तेरी आण , नारी के पुत्र नारसिंग वीर तोही सुमरो , आधी रात के बीच आयो उदागिरी कंठो से लाल घोड़ा , लाल पलाण , लाल सिद्धि, लाल मेखला, फोटकी धुंवां टिमरू का सोंटा , नेपाली पत्र , भसमो कंकण नाद बुद्ध सेली को मुरा बाघवीर छाला फोर मंत्र इश्वरो वाचा:

शिव संजीवनी साधना

अथ ध्यानम् || हस्तांभोज्युगस्थम कुम्भयुग्लादूदधृत्य तोयंशिरः । सिचन्तं करयोर्युगेन दधतं स्वांके संकुभैाकरौ || अक्षस्रगमृगहस्ताम्बुजगतं मूर्द्धस्थचन्द्रस्रवत्पीयूषेात्रतनुभजे सगिरिजं मृत्यून्जयं त्रयंम्बकम् ।। चन्द्रोद्भाषितंमूर्द्धजंसुरपतिपीयूषपात्रंवहद्धस्ताब्जेनदधत्सुदिव्यममलं हास्यास्यपंड़्केरहम्।। सूर्येन्द्वग्निविलोचनं करतले पाशाक्षसूत्रांभोजं विभ्रतमक्षयं पशुपतिं मृत्युंजयं संस्मरेत।। अथ महामृत्युंजय मंत्र || ॐ ह्रों जूं सः त्र्यंबकम यजामहे सुगंधिम पुष्टिम बर्द्धनम उर्वारुक मिव बंधनान मृत्योर्मुक्षीय मामृतात सः जूं ह्रों ॐ महामृत्युंजय मन्त्र से कल्याणकारी शिव प्रसन्न होते हैं | धन सम्मान एवं ख्याति का विस्तार होता है, मृत्युतुल्य कष्ट, लंबी बीमारी एवं घरेलू समस्या से ग्रस्त होने पर महामृत्युंजय मन्त्र रामबाण सिद्ध होता है | जन्म कुंडली मे अगर मारकेश ग्रह बैठा हो या हाथ की आयु रेखा जगह जगह से कट रही हो या मिटी हुई हो तो यह जप अवश्य करें, जप की मात्रा सवा लाख होनी चाहिए | कुण्डली मे मारकेश ग्रह बैठा होने का मुख्य पहचान है आपके मन मे बैचनी का अनुभव होना, किसी कार्य मे मन नहीं लगाना , दुर्घटना होते रहना, बीमारी से त्रस्त रहना, अपनों से मनमुटाव होना, शत्रुओं की संख्या मे निरंतर वृद्धि होना एवं कार्य पूरा होते होते रह जाना और समाज मे मान और सम्मान की कमी होना | यह मारकेश होने का लक्षण हैं जो प्रारम्भ मे दृष्टिगोचर होते हैं | जब मारकेश ग्रह की महादशा व्यतीत होने लगती है तो यह मृत्यु का कारण बन जाता है | इसलिए मारकेश ग्रह का समाधान करना जरूरी है । महामृत्युंजय मन्त्र का जप मारकेश ग्रह के प्रभाव से व्यक्ति को मुक्त करता है | धन बल और किर्ति सम्पन्न बनाता है | अतः जो व्यक्ति इन परेशानियों से पीड़ित है उन्हें महामृत्युंजय मन्त्र का जप अवश्य करना चाहिए | जप नियम: जप निर्धारित मात्रा मे तथा निर्धारित समय पर प्रतिदिन के हिसाब से होना चाहिए | जप के दौरान पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन, सात्विक भोजन, सत्य बचन, अहिंसा का पालन , वाणी नियंत्रण होना जरूरी है | अन्यथा यह जप पूर्ण फलदायी नहीं होता है |जप मे नियम बद्धता का होना ज्यादा जरूरी है नियम से किया हुआ जप ही पूर्ण फलदायी होता है | यह जप आप अपने घर व शिवालय में करें | शिवालय में यह जप विशेष फलदायी होता है क्योंकि वहाँ प्राण प्रतिष्ठित शिवलिंग होता है | जप के समय ध्यान मे रखने वाली बातें : जप उसी समय प्रारम्भ करना चाहिए जब शिव का निवास कैलाश पर्वत पर, गौरी के सान्निध्य हों या शिव बसहा पर आरूढ़ हों शिव का वास जब शमशान मे हो तो जप की शुरुआत नहीं करनी चाहिए। सही मुहूर्त के लिए आप हमसे अवश्य संपर्क करें यह आपको हमारे तरफ से बिना किसी लागत के उपलब्ध करवा दिया जायगा। जप करते समय तर्जनी एवं कनिष्ठ अंगुली का स्पर्श माला के साथ नहीं होना चाहिए। जप करते समय मुंह से आवाज नहीं निकालना चाहिए । जप के दौरान जम्हाई आने से वाये हाथ की उंगली से चुटकी बजाना चाहिए जिससे आपके अन्दर जमा हो रहे सात्विक प्रभाव जमा रहे अपना पूर्ण ध्यान जप पर लगा होना चाहिए । जप के समय शिव का स्मरण सदैव करते रहना चाहिए । जप के पूर्ण होने पर हवन, दान एवं ब्राह्मण भोजन करवाना चाहिए। कहा गया है " दुख मे सुमिरन सब करे दुख मे करे न कोई, जो सुख मे सुमिरन करे दुख कहे को होय । । " इस लिय अगर आप कोई समस्या से ग्रस्त नहीं हैं आप साधारण तौर से अपनी ज़िंदगी व्यतीत कर रहे हैं तब भी आप शिव के इस चमत्कारी मन्त्र का जप अवश्य करें। जिंदगी रूपी नदी सुख और दुख रूपी दो किनारों के बीच प्रवाहित होती है, अगर आप समय रहते शिव मन्त्र का जप करते रहेंगे तो आप सदैव प्रसन्न रहेंगे आपके घर वाले प्रसन्न चित्त रहेंगे, शत्रु से मुक्त रहेंगे, शिव कल्याण कारी हैं आपका भी कल्याण करेंगे। शिव की प्रसन्नता प्राप्ति हेतु कुछ अन्य सुगम मन्त्र ॐ ह्रों जूं सः । । इस शिव मन्त्र के नियमित 108 बार जप करने से शिव की कृपा वर्षा निरंतर होते रहती है। ॐ नमः शिवाय । । यह शिव मन्त्र सर्व विदित है 108 बार का प्रतिदिन जप आपको निरंतर प्रगति की ओर ले जाएगा।

गोरखनाथ जी की जानकारी


नाथ सम्प्रदाय के प्रवर्तक गोरक्षनाथ जी के बारे में लिखित उल्लेख हमारे पुराणों में भी मिलते है। विभिन्न पुराणों में इससे संबंधित कथाएँ मिलती हैं। इसके साथ ही साथ बहुत सी पारंपरिक कथाएँ और किंवदंतियाँ भी समाज में प्रसारित है। उत्तरप्रदेश, उत्तरांचल, बंगाल, पश्चिमी भारत, सिंध तथा पंजाब में और भारत के बाहर नेपाल में भी ये कथाएँ प्रचलित हैं। ऐसे ही कुछ आख्यानों का वर्णन यहाँ किया जा रहा हैं। 1. गोरक्षनाथ जी के आध्यात्मिक जीवन की शुरूआत से संबंधित कथाएँ विभिन्न स्थानों में पाई जाती हैं। इनके गुरू के संबंध में विभिन्न मान्यताएँ हैं। परंतु सभी मान्यताएँ उनके दो गुरूऑ के होने के बारे में एकमत हैं। ये थे-आदिनाथ और मत्स्येंद्रनाथ। चूंकि गोरक्षनाथ जी के अनुयायी इन्हें एक दैवी पुरूष मानते थे, इसीलिये उन्होनें इनके जन्म स्थान तथा समय के बारे में जानकारी देने से हमेशा इन्कार किया। किंतु गोरक्षनाथ जी के भ्रमण से संबंधित बहुत से कथन उपलब्ध हैं। नेपालवासियों का मानना हैं कि काठमांडु में गोरक्षनाथ का आगमन पंजाब से या कम से कम नेपाल की सीमा के बाहर से ही हुआ था। ऐसी भी मान्यता है कि काठमांडु में पशुपतिनाथ के मंदिर के पास ही उनका निवास था। कहीं-कहीं इन्हें अवध का संत भी माना गया है। 2. नाथ संप्रदाय के कुछ संतो का ये भी मानना है कि संसार के अस्तित्व में आने से पहले उनका संप्रदाय अस्तित्व में था।इस मान्यता के अनुसार संसार की उत्पत्ति होते समय जब विष्णु कमल से प्रकट हुए थे, तब गोरक्षनाथ जी पटल में थे। भगवान विष्णु जम के विनाश से भयभीत हुए और पटल पर गये और गोरक्षनाथ जी से सहायता मांगी। गोरक्षनाथ जी ने कृपा की और अपनी धूनी में से मुट्ठी भर भभूत देते हुए कहा कि जल के ऊपर इस भभूति का छिड़काव करें, इससे वह संसार की रचना करने में समर्थ होंगे। गोरक्षनाथ जी ने जैसा कहा, वैस ही हुआ और इसके बाद ब्रह्मा, विष्णु और महेश श्री गोर-नाथ जी के प्रथम शिष्य बने। 3. एक मानव-उपदेशक से भी ज्यादा श्री गोरक्षनाथ जी को काल के साधारण नियमों से परे एक ऐसे अवतार के रूप में देखा गया जो विभिन्न कालों में धरती के विभिन्न स्थानों पर प्रकट हुए। सतयुग में वो लाहौर पार पंजाब के पेशावर में रहे, त्रेतायुग में गोरखपुर में निवास किया, द्वापरयुग में द्वारिका के पार हरभुज में और कलियुग में गोरखपुर के पश्चिमी काठियावाड़ के गोरखमढ़ी(गोरखमंडी) में तीन महीने तक यात्रा की। 4.वर्तमान मान्यता के अनुसार मत्स्येंद्रनाथ को श्री गोरक्षनाथ जी का गुरू कहा जाता है। कबीर गोरक्षनाथ की 'गोरक्षनाथ जी की गोष्ठी ' में उन्होनें अपने आपको मत्स्येंद्रनाथ से पूर्ववर्ती योगी थे, किन्तु अब उन्हें और शिव को एक ही माना जाता है और इस नाम का प्रयोग भगवान शिव अर्थात् सर्वश्रेष्ठ योगी के संप्रदाय को उद्गम के संधान की कोशिश के अंतर्गत किया जाता है। 5. गोरक्षनाथ के करीबी माने जाने वाले मत्स्येंद्रनाथ में मनुष्यों की दिलचस्पी ज्यादा रही हैं। उन्हें नेपाल के शासकों का अधिष्ठाता कुल गुरू माना जाता हैं। उन्हें बौद्ध संत (भिक्षु) भी माना गया है,जिन्होनें आर्यावलिकिटेश्वर के नाम से पदमपवाणि का अवतार लिया। उनके कुछ लीला स्थल नेपाल राज्य से बाहर के भी है और कहा जाता है लि भगवान बुद्ध के निर्देश पर वो नेपाल आये थे। ऐसा माना जाता है कि आर्यावलिकिटेश्वर पद्मपाणि बोधिसत्व ने शिव को योग की शिक्षा दी थी। उनकी आज्ञानुसार घर वापस लौटते समय समुद्र के तट पर शिव पार्वती को इसका ज्ञान दिया था। शिव के कथन के बीच पार्वती को नींद आ गयी, परन्तु मछली (मत्स्य) रूप धारण किये हुये लोकेश्वर ने इसे सुना। बाद में वहीं मत्स्येंद्रनाथ के नाम से जाने गये। 6. एक अन्य मान्यता के अनुसार श्री गोरक्षनाथ के द्वारा आरोपित बारह वर्ष से चले आ रहे सूखे से नेपाल की रक्षा करने के लिये मत्स्येंद्रनाथ को असम के कपोतल पर्वत से बुलाया गया था। 7.एक मान्यता के अनुसार मत्स्येंद्रनाथ को हिंदू परंपरा का अंग माना गया है। सतयुग में उधोधर नामक एक परम सात्विक राजा थे। उनकी मृत्यु के पश्चात् उनका दाह संस्कार किया गया परंतु उनकी नाभि अक्षत रही। उनके शरीर के उस अनजले अंग को नदी में प्रवाहित कर दिया गया, जिसे एक मछली ने अपना आहार बना लिया। तदोपरांत उसी मछ्ली के उदर से मत्स्येंद्रनाथ का जन्म हुआ। अपने पूर्व जन्म के पुण्य के फल के अनुसार वो इस जन्म में एक महान संत बने। 8.एक और मान्यता के अनुसार एक बार मत्स्येंद्रनाथ लंका गये और वहां की महारानी के प्रति आसक्त हो गये। जब गोरक्षनाथ जी ने अपने गुरु के इस अधोपतन के बारे में सुना तो वह उसकी तलाश मे लंका पहुँचे। उन्होंने मत्स्येंद्रनाथ को राज दरबार में पाया और उनसे जवाब मांगा । मत्स्येंद्रनाथ ने रानी को त्याग दिया,परंतु रानी से उत्पन्न अपने दोनों पुत्रों को साथ ले लिया। वही पुत्र आगे चलकर पारसनाथ और नीमनाथ के नाम से जाने गये,जिन्होंने जैन धर्म की स्थापना की। 9.एक नेपाली मान्यता के अनुसार, मत्स्येंद्रनाथ ने अपनी योग शक्ति के बल पर अपने शरीर का त्याग कर उसे अपने शिष्य गोरक्षनाथ की देखरेख में छोड़ दिया और तुरंत ही मृत्यु को प्राप्त हुए और एक राजा के शरीर में प्रवेश किया। इस अवस्था में मत्स्येंद्रनाथ को लोभ हो आया। भाग्यवश अपने गुरु के शरीर को देखरेख कर रहे गोरक्षनाथ जी उन्हें चेतन अवस्था में वापस लाये और उनके गुरु अपने शरीर में वापस लौट आयें। 10. संत कबीर पंद्रहवीं शताब्दी के भक्त कवि थे। इनके उपदेशों से गुरुनानक भी लाभान्वित हुए थे। संत कबीर को भी गोरक्षनाथ जी का समकालीन माना जाता हैं। "गोरक्षनाथ जी की गोष्ठी " में कबीर और गोरक्षनाथ के शास्त्रार्थ का भी वर्णन है। इस आधार पर इतिहासकर विल्सन गोरक्षनाथ जी को पंद्रहवीं शताब्दी का मानते हैं। 11. पंजाब में चली आ रही एक मान्यता के अनुसार राजा रसालु और उनके सौतेले भाई पुरान भगत भी गोरक्षनाथ से संबंधित थे। रसालु का यश अफगानिस्तान से लेकर बंगाल तक फैला हुआ था और पुरान पंजाब के एक प्रसिद्ध संत थे। ये दोनों ही गोरक्षनाथ जी के शिष्य बने और पुरान तो एक प्रसिद्ध योगी बने। जिस कुँए के पास पुरान वर्षो तक रहे, वह आज भी सियालकोट में विराजमान है। रसालु सियालकोट के प्रसिद्ध सालवाहन के पुत्र थे। 12. बंगाल से लेकर पश्चिमी भारत तक और सिंध से पंजाब में गोपीचंद, रानी पिंगला और भर्तृहरि से जुड़ी एक और मान्यता भी है। इसके अनुसार गोपीचंद की माता मानवती को भर्तृहरि की बहन माना जाता है। भर्तृहरि ने अपनी पत्नी रानी पिंगला की मृत्यु के पश्चात् अपनी राजगद्दी अपने भाई उज्जैन के विक्रमादित्य (चंन्द्रगुप्त द्वितीय) के नाम कर दी थी। भर्तृहरि बाद में गोरक्षनाथी बन गये थे। विभिन्न मान्यताओं को तथा तथ्यों को ध्यान में रखते हुये ये निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि गोरक्षनाथ जी का जीवन काल तेरहवीं शताब्दी से पहले का नहीं था। जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है, और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है