Monday 23 June 2014

भगवे का मन्त्र

सत नमो आदेश। गुरूजी को आदेश।
ऊँ गुरूजी। ऊँ सोहं धुन्धुकारा शिव शक्ति ने मिल किया पसारा, नख चीर भग बनाया-रक्त रूप में भगवा आया।
अनष पुरूष ने धारण किया तब पिछे सिध्दों को दिया।
आवों सिध्दों धरो ध्यान, भगवा, मन्त्र भया प्रमाण इतना भगवा मन्त्र सम्पूर्ण भया।
श्री नाथजी गुरूजी को आदेश।

भगवे का मन्त्र

सत नमो आदेश। गुरूजी को आदेश।
ऊँ गुरूजी। ऊँ सोहं धुन्धुकारा शिव शक्ति ने मिल किया पसारा, नख चीर भग बनाया-रक्त रूप में भगवा आया।
अनष पुरूष ने धारण किया तब पिछे सिध्दों को दिया।
आवों सिध्दों धरो ध्यान, भगवा, मन्त्र भया प्रमाण इतना भगवा मन्त्र सम्पूर्ण भया।
श्री नाथजी गुरूजी को आदेश।

ज्योति जगाने का मन्त्र

सत नमो आदेश। गुरूजी को आदेश।
ऊँ गुरूजी। जोत जोत महाजोत, सकल जोत जगाय, तूमको पूजे सकल संसार ज्योत माता ईश्वरी।
तू मेरी धर्म की माता मैं तेरा धर्म का पूत ऊँ ज्योति पुरूषाय विद्येह महाज्योति पुरूषाय धीमहि तन्नो ज्योति निरंजन प्रचोदयात्॥
अत: धूप प्रज्वलित करें।

धूप लगाने का मन्त्र

सत नमो आदेश। गुरूजी को आदेश। ऊँ गुरूजी। धूप कीजे, धूपीया कीजे वासना कीजे।
जहां धूप तहां वास जहां वास तहां देव जहां देव तहां गुरूदेव जहां गुरूदेव तहां पूजा।
अलख निरंजन ओर नही दूजा निरंजन धूप भया प्रकाशा। प्रात: धूप-संध्या धूप त्रिकाल धूप भया संजोग।
गौ घृत गुग्गल वास, तृप्त हो श्री शम्भुजती गुरू गोरक्षनाथ।
इतना धूप मन्त्र सम्पूर्ण भया नाथजी गुरू जी को आदेश।

आसन मन्त्र

सत नमो आदेश। गुरूजी को आदेश। ऊँ गुरूजी।
ऊँ गुरूजी मन मारू मैदा करू, करू चकनाचूर। पांच महेश्वर आज्ञा करे तो बेठू आसन पूर।
श्री नाथजी गुरूजी को आदेश।

हठ योग

ह = सूर्य
ठ = चन्द्र
।। अवधू मन का शुन्य रूप, पवन का निरालंब आकार
दम कि अलेख दशा, सधिबा दसवें का द्वार ।।
                                                                                                                                                                      आदिनाथ सदाशिव गोरक्षनाथजब से ब्रह्माण्ड है, तब से नाद है, जब से नाद है तब से नाथ सम्प्रदाय है। आदि शिव से आरम्भ होकर अनेक सिध्दों के नाथ योगी शिवरूप देकर सत्य मार्ग प्रकाश ही इस धंर्णा पर सिध्दों की इस अखण्ड परम्परा के अन्तर्गत गुरू अपने शिष्य के इस परम्परा की शक्ति व अधिकार सौंपते आये है। गूरूदृष्टि, स्पर्श, शब्द या संकल्प के द्वारा शिष्य की सुप्त कुण्डलिनी शक्ति को जगा दंते है। गोरख बोध वाणी संग्रह में से श्री गुरू-शिष्य शंका समाधान विषयक एक संवाद, जिसमें गोरखनाथजी अपने गुरूदेव श्री मच्छंद्रनाथजी से मन की जिज्ञासाओं का निवारण करने प्रश्न पूछते हैं और गुरू मच्छंद्रनाथजी नाथ ज्ञान का बोध कराते हैं। मच्छंद्र उवाच के रूप में नाथ-शिक्षा बोध को सरल साहित्य में समाविष्ट किया गया है। पाठकों के लाभार्थ प्रस्तुत है प्राचीन भाव-प्रवचन :- 

साधक को चाहिए कि आरंभिक अवस्था में किसी एक जगह जगत प्रपंची में न रहें और मार्ग, धर्मशाला या किसी वृक्ष की छाया में विश्वास करें। संसार कि संसृति, ममता, अहंत कामना, क्रोध, लोभ, मोहवृत्ति की धारण्ााओं को त्याग कर अपने आत्म तत्व का चितंन करें। कम भोजन तथा निद्र आलस्य को जीत कर रहें। अपने आप को देखना, अनंत अगोचर को विचारना और स्वरूप में वास करना, गुरू नाम सोहं शब्द ले मस्तक मुंडावे तथा ब्रह्मज्ञान को लेकर भवसागर पार उतरना चाहिए। मन का शुन्य रूप है। पवन निराकार आकार है, दम की अलेख दशा और दसवें द्वार की साधना करनी चाहिए। वायु बिना पेड़ के डाल (टहनी) है, मन पक्षी बिना पंखों के, धीरज बिना पाल (किनारे) की नार (नदी) बिना काल रूप नींद है। सूर्य स्वर अमावस, चन्द्र स्वर प्रतिपदा, नाभि स्थान का प्राण रस लेकर गगन स्थान चढ़ता है और दसवें मन अंतर्ध्यान रहता है। आदि का गुरू अनादि है। पृथ्वी का पति आकाश है, ज्ञान का चिंतन में निवास है और शून्य का स्थान परचा (ब्रह्म) है। मन के पर्चे (साधे-वश करने) से माया-मोह की निवृति, पवन वश करने से चन्द्र स्वर सिध्दि तथा ज्ञान सिध्दि से योगबन्ध (जीव-ईश्वर एकता), गुरू की प्रसन्नता से अजर बन्ध (जीवनमुक्ति तत्व) सिध्दि प्राप्त होती है। शरीर में स्वरोदय इडा नाड़ी तथा त्रिकूटी स्थाने दो चन्द्र स्थान, पुष्पों में चैतन्य सामान्य गंध पूर्ण रहती है। दूध में घी अन्तरहित व्याप्त तथा इसी प्रकार शरीर के रोमांश में जीवात्मा की अव्यहृत शक्ति रहती है। अन्तरहित साधना में गगन (दसवें) स्थान चन्द्र (ज्ञान-ध्येय) और निम्न नाभि स्थाने अग्नि-नागनि नाड़ी मे सूर्य का निवास हैं। शब्द का निवास हृदय में है, जो बिन्दू का मूल स्त्रोत केन्द्र है। जीवात्मा पवन-कसौटी से दसवें चढ़कर शान्ति बून्द को प्राप्त करता है। अपनी शक्ति को उलटी कर स्थिर की गई। मल, विक्षेप सहित दु:साध्य भूमि हो तो योग में कठिनाई है। नाभि के उडियान बंध से सिध्द मुर्त तथा साक्षी चेतन ही उनमुनि में रहता है। मूलाधार से नाभि-प्रमाण चक्र सिध्दि से स्वर सिध्दि होकर ज्ञान प्रकार करता है। जालन्धर बंध लगाकर अमृत प्राप्त करना और नाभि स्थाने स्वाधिष्ठान सिध्दि से प्राण वायु का निरोध करना, हृदय स्थाने अनाहत चक्र में जीवात्मा ''सोहं'' ध्वनि का ध्यान और ज्ञानचक्र (आज्ञा) में ज्योति दर्शनोपरांत ब्रह्मरंध्र में विश्राम की प्राप्ति होती है। 

शांभवी योग मुद्रा:
आदिनाथ सदाशिव गोरक्षनाथहमारे गुरूदेव की बताई साधना है जो साधक अभ्यास को गुरू के सानिघ्य में करनी चाहिये जो बता रहा हूं, कुण्डलिनी अवश्य जागृत होगी व तुम्हें अपने स्वयं दिव्य प्रकाश का अनुभव होगा यह गुरू कृपा है। सीधे पैर को खूब दबा कर योनि तथा गुदा की सीवन के बीच में ऐड़ी रखो फिर योनि स्थान के ऊपर दूसरे पैर की ऐड़ी रखो फिर काया शिर तथा ग्रीवा को सम करके शरीर को तोल दो। ब्राह्य इन्द्रियो को बन्द करके ठूठ के समान निश्चल हो जाओं स्थिर दृष्टि से अर्धनेत्र खुले निश्चल रहो यह शांभवी मुद्रा सिध्दासन है। अन्तरमुख मन से हृदय में शिव सिध्द शरण सात बार बोले व सात बार मन ही से सुनो, वृति को हृदय में स्फुरण्ा से एक कर सोऽहम का चिन्तन करों और फिर निश्चल संकल्प विकल्प से रहित स्थित अर्ध नेत्र खुले रहे इस तरह से शांभवी मुद्रा में बैठे रहो। इस प्रकार के सतत चिन्तन अभ्यास से मुलाधार में ब्रह्म रन्ध्र तक सातों चक्र रूपी कपाट स्वत: ही खुल जाते है, जिससे प्रथम अपने आप में परिजातक गहरी सुगन्ध प्रकट होती है फिर स्वयं का दिव्या प्रकाश पुंज अपने अन्दर प्रकट होकर सम्पूर्ण दंह में व्याप्त हो जाता है और फिर अन्दर-बाहर एक सा दिव्या प्रकाश ही प्रकाश अनुभूत होता है। यह जीव ब्रह्मलोक रूपी शिव शक्ति समायोग नामक मोक्ष है, इसके प्रभाव से जीवन मुक्ति रूप स्वाभाविक अवस्था स्वत: ही प्राप्त होती है।
 
 
॥ आदेश आदेश ॥

 
   

नेति-धौति

छ: कर्मो को शरीर-शोधन के लिए नामांकित किया गया है। धौति, वस्ति, नेति, नौलि, त्राटक् और कपालभाति।
1. धौति – धौति तीन प्रकार की होति है – वारिधौति, ब्रह्मदातौन और वासधौति।
 
 
वारि-धौति अर्थात् कॄञ्जर कर्म –
खालि पेट लवण-मिश्रित गुनगुना पानी पीकर छाती हिलाकर वमन की तरह निकाल दिया जाता है। इसको गजकरणी भी कहते है, क्योंकि जैसे हाथी सूंड से जल खींचकर फेंकता है उसी प्रकार इसमे जल पीकर निकाला जाता है। आरम्भ मे पानी का निकालना कठिन होता है। तालु से ऊपर छोटी जिह्वा को सीधे हाथ की दो अंगुलियों से दबाने से पानी निकलने लगता है।

 
 
ब्रह्मदातौन –
सुत की बनी हुई बारीक रस्सी के टुकड़े को अथवा रबर की ट्यूब को लवण ‍मिश्रित गुनगुने पानी को खाली पेट पीने के पश्चासत् बिना दांत लगाये गले से दूध के घूंट के सदृश निगला जाता है, फिर छाती हिलाकर उसको निकाल सारे पानी को वमन के सदृश निकाल दिया जाता है।

 
 
वास-धौति (वस्त्र-धौति) –
धौति लगभग चार अंगुल चौड़ी, लगभग पंद्रह हाथ लंबी, बारीक मलमल जैसे कपडे की होति है। खाली पेट पानी अथवा आरम्भ मे दूध मे भीगी हुई धौति के एक सिरे को अंगुली से हलक मे ले जाकर बिना दांत लगाये शनै:-शनै: दूध के घूंट के सदृश निगला जाता है। आरम्भ मे निगलना कठिन होता है और उल्टी अती है, इसलिए उक घूंट गुनगुने पानी के साथ निगली जाती है। प्रथम दिन एक साथ नहीं निगली जा सकती है। शनै:-शनै: अभ्यास बढाया जाता है। सब धौति निगलने के पश्चांत् कुछ अंश मुंह के बाहर रखना पडता है। इसके बाद नौली को चालन करके धौति तथा सब पिये हुए पानी को अमन के सदृश निकाल दिया जाता है। इन क्रियाओं से कफ और पित्त रोग दूर होकर शरीर शुद्ध और हलका हो जाता है, और मन सुगमता से एकाग्र होने लगता है। घेरण्ड-संतिता मे धौतिकर्म के चार निम्न भेद बतलाये है – (क) अन्तधौति (ख) दन्त-धौति (ग) हृद्धौति (घ) मूलशोधन

 
 
(क) अन्तधौति –
इसके भी चार भेद बतलाये है –

वातसार
वारिंसार
वह्निसार
बहिष्कृत
वातासर अन्तधौति –
मुख को कोए ‍की चोंच के समान करके अर्थात् दोनों ‍होठों ‍को सिकोडकर धीरे-धीरे वायु का पान करें। यहां तक कि पेट मे वायु पूर्णतया भर जाये फिर वायु को पेट के अंदर चारों ओर संचलित करके धीरे-धीरे नासिकापुट के द्वारा निकाल दे। इसे काकी-मुद्रा और काक-प्राणायाम भी कहते है।
फल – ह्रदय, पेट और कण्ठ की व्याधियों का दूर होना, शरीर का शुद्ध और निर्मल होना, क्षुधा की वृद्धि, मन्दाग्नि का नाश, फेंफड़ों का विकास कण्ठ मे सुरीलापन होना। वीर्य के लिए भी लाभदायक बताया गया है।
वारिंसार अन्तधौति –
इसमे मुख द्वारा धीरे-धीरे जल पी कर कण्ठ तक भर लिया जाता है। फिर उदर मे चारों ओर संचलित करके गुदामार्ग द्वारा बाहर निकाल दिया जाता है।
फल - देह का ‍निर्मल होना, कोष्ठबद्धता, तथा पेट के आमादि सब रोगों का दूर होना, शरीर का युद्ध होकर कांतिमान होना बतलाया गया है।

इस क्रिया को शंख-प्रक्षालन भी कहते है। क्योंकि शंख के चक्राकारमार्ग मे पानी डालने से घूमता हुआ जल जिस प्रकार बाहर आ जाता है उसी प्रकार से मुख से जल पीने पर कुछ समय पश्चा त् मल को साथ लेकर अंतडियों को शुद्ध करता हुआ गुदा द्वार से बाहर आ जाता है।
बह्निसार अन्तधौति –
नाभि की गांठ को मेरूपृष्ठ में सौ बार लगायें, अर्थात् उदर को इस प्रकार बार-बार फुलावें-सिकोड़े कि नाभि ग्रन्थि पीठ मे लग जाया करे। इससे उदर के समस्त रोग नष्ट होते ‍है और जठराग्नि प्रदीप्त होती है।
बहिष्कृत अन्तधौति –
कौए की चोंच के सदृश मुख बनाकर इतनी मात्रा मे वायु का पान करे कि पेट भर जाय, फिर उस वायु ‍को डेढ़ घंटे तक (अथवा यथाशक्ति) पेट मे धारण किये रहे। तत्पश्चा त् गुदामार्ग द्वारा बाहर निकाल देना बतलाया गया है। जब तक आधे पहर तक वायु को रोकने का अभ्यास न ‍हो जाये, तब तक इस क्रिया को करने का यत्न न करें, अन्यथा वायु के कुपित होने का भय है।
फल – इससे सब ना‍डियां शुद्ध होति है। जैसी यह क्रिया कठिन है वैसे ही इसका लाभ अकथ्य तथा अगम्य बतलाया गया है।

 
 
(ख) दन्त-धौति –
यह भी चार प्रकार ‍की होती है –
दन्तमूल
जिह्वामूल
कर्णरन्ध्र
कपालरन्ध्र
दन्तमूल धौति –
खैर का रस सूखी मिट्टी अथवा अन्य किसी ओषधि-विशेष से दांतों की जड़ों को अच्छी प्रकार साफ करें।
जिह्वामूल-धौति –
तर्जनी, मध्यमा और अनामिका अंगुलियों को गलें के भीतर डालकर जीभ को जड़ तक बार-बार घिसे। इस प्रकार ‍धीरे-धीरे कफ के दोष को बाहर निकाल दें।
कर्णरन्ध्र-धौति –
तर्जनी और अनामिका अंगुलियों के योग से दोनो कानो के छिद्रों को साफ करें, इससे एक प्रकार का नाद प्रकट होना बतलाया गया है।
कपालरन्ध्र-धौति –
निद्रा से उठने पर, भोजन के अन्त में और सूर्य के अस्त होने पर सिर के गढ़े को दाहिने हाथ के अंगूठे द्वारा प्रतिदिन जल से साफ करें। इससे नाडियां स्वच्छ हो जाति है और दृष्टि दिव्य होती है।

 
 
(ग) हृद्धौति –
इसके तीन भेद है –

दण्ड-धौति
वमन-धौति
वास-धौति
दण्ड-धौति –
केलेंडर के दण्ड, हल्दी के दण्ड, चिकने बेंत के दण्ड अथवा वट वृक्ष की जटा-डाढि को धीरे-धीरे ह्रदयस्थल में प्रविष्ट कर दें, फिर ह्रदय के चारों ओर घुमाकर युक्ति पूर्वक बारि निकाल दे। इससे पित्त, कफ, अकुलाहट आदि विकारी मल बाहर निकल जातें हैं और ह्रदय के सारे रोग नष्ट हो जाते है। इसको भोजन के पूर्व करना चाहिये।
वमन-धौति –
भोन करने के पश्चारत् कण्ठ तक पानी पी कर भर लें और थोडी देर तक उपर की ओर लेकर उस पानी को मुख द्वारा बाहर निकाल दें। पानी कण्ठ के अंदर न जाने पावें। इससे कफ-दोष और पित्त-दोष दूर होते है।
वास-धौति (वस्त्र-धौति) –
लबभब छ: अंगुल चौडा और लगभग अठारहा हाथ का बारीक वस्त्र किंचित् उष्ण (गर्म) जल से भिगोकर गुरू के बताये हुए क्रम से पहिले दिन एक हाथ, दूसरे दिन दो ‍हाथ, तीसरे दिन तीन हाथ अथवा इससे न्यूनाधिक युक्ति पूर्वक अंदर ले जाय, फिर धीरे-धीरे ही बाहर निकाल दे। इसको भोजन के पहिले करना चाहिये। इससे गुल्म, ज्वर, पील्हा, कुष्ठ एवं कफ-पित्त आदि अन्य विकार नष्ट होते है।

 
 
(घ) मूलशोधन (गणेश-क्रिया) –
कच्ची मूली की जड़ से अथवा तर्जनी अंगुली से यन्त्रपूर्वक सावधानी से बार-बार जल द्वारा गुदामार्ग को साफ करें। इसके पश्चा त् घृत या मक्खन उस स्थान पर लगाना अधिक लाभदायक है। इससे उदर रोग का काठिन्य दूर ‍होता है। आजनित एवं अजीर्णजनित रोग उत्पन्न नही होते और शरीर की पुष्टि और कान्ति की वृद्धि होती है। यह जठराग्नि को प्रदीप्त करती है। इससे सब प्रकार के अर्श-रोग तथा वीर्यदोष भी दूर होते है।

 
 
2. वस्ति –
वस्ति मूलाधार के समीप है। इसके साफ करने के कर्म को वस्ति कर्म कहते है। एक चिकनी नली ‍को गुदा में ले जाकर नौलि-कर्म की सहायता से गुदामार्ग द्वारा वस्ति मे जल चढाया और निकाला जाता है। साधारण तया इस क्रिया का कठिन है। उसके स्थान पर एनिमा से काम लिया जा सकता है। इससे आंतों का मल जल के साथ मिकर पतला हो जाता है और शीघ्रतापूर्वक बाहर निकल जाता है।

 



 
॥ आदेश आदेश ॥

अष्टांङग-योग

'योग’ शब्द ‘युज समाधौ’ धातु से बनता है। इसका अर्थ है समाधि।


 

योग क्या है ?
आदिनाथ सदाशिव गोरक्षनाथयोगा अंगों का अभ्यास करते हुए चित्तवृत्ति-निरोधपूर्वक असम्प्रज्ञात समाधि भूमिका में पहुंचकर अपने चैतन्य-स्वरूप या ब्रह्मस्वरूप में स्थित हो जाना ही योग है।
अनेको व्यक्ति ध्यान करने और समाधि लगाने की चेष्टा करते है, परंतु उन्हे सफलता नही मिलती। इसका कारण यह है कि समाधि की सिद्धि के लिए यम-नियमों के पालन की विशेष आवश्यकता है। यम-नियमों के पालन किये बिना ध्यान और समाधि सिद्ध होना अत्यन्त कठिन है। झूठ, कपट, चोरी, व्याभिचार आदि दुराचार की वृत्तियों के नष्ट हुए बिना चित्त का एकाग्र होना कठिन है और चित्त एकाग्र हुए बिना ध्यान और समाधि नही हो सकते। यों तो समाधि की इच्छावाले पुरूषों को योग के आठों ही अंङगों का साधन करना चाहिये, किन्तु यम और नियमों का पालन तो अवश्यमेव करना चाहिये।

जैसे नींव के बिना मकान नही ठहर सकता, ऐसे ही यम-नियमों के पालन किए बिना ध्यान और समाधि सिद्ध होना असम्भव सा है। यम-नियमों में भी जो पुरूष यमों का पालन न करके केवल नियमों का पालन करना चाहता है, उससे नियमों का पालन भी अच्छी प्रकार नही हो सकता।

बुहद्धि।मान् पूरूष नित्य-निरन्तर यमों का पालन करता हुआ ही नियमों का पालन करे, केवल नियमों का नही। जो यमों का पालन न करके, केवल नियमों का करता है। वह साधन पथ से गिर जाता है। इनके पालन से चोरी, जारी, झूठ, कपट, आदि दूराचारों का और काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि दुर्गुणों का नाश होकर, अन्त:करण की पवित्रता हो‍ती है और उसमें उत्तम गुणों का समावेश होकर इष्टदेवता के दर्शन एवं आत्मा ‍का साक्षात्कार भी जो साधक चाहता है वही हो सकता है। परंतु यम-नियमों के पालन किये बिना ध्यान और समाधि की बात तो दूर रही अच्छी प्रकार से प्राणायाम होना भी कठिन है।

ध्यान और समाधि की इच्छा करने वाले साधकों को दोषों का नाश करने के लिए प्रथम यम-नियमों कर पालन करके ही योग के अन्य अंङ्गों का अनुष्ठान करना चाहिये। जो पुरूष योग के आठों अंङ्गों का अच्छी प्रकार से साधन कर लेता है, उसका अन्त:करण पवित्र होने पर ज्ञान की अपार दीप्ति हो जाती है। जिससे उसको इच्छानुसार सिद्धियां प्राप्त हो सकती है और सिद्धियां न चाहने वाला पुरूष तो क्लेश और कर्मों से छूटकर आत्मसाक्षात्कार प्राप्त कर सकता है।



योग के अंङ्ग
योग के आठ अंङ्ग है - यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि


यम
नियम
आसन
प्राणायाम
प्रत्याहार
धारणा
ध्यान
समाधि
१ – यम
‘अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह – इन पांचों का नाम यम है।‘

किसी भूत-प्राणी को या अपने को भी मन, वाणी, शरीर द्वारा कभी किसी प्रकार, किञ्चन्मात्र भी कष्ट न पहुंचाने का नाम अहिंसा है।
अन्त:करण और इन्द्रियों द्वारा जैसा निश्चहय किया हो, हित की भावना से, कपटरहित प्रिय शब्दों में वैसा का वैसा ही प्रकट करने का नाम सत्य है।
मन, वाणी, शरीर द्वारा किसी प्रकार के भी किसी के भी स्वत्व (हक) को न चुराना, न लेना और न छीनना अस्तेय है।
मन, इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने वाले काम विकार के सर्वथा अभाव का नाम ब्रह्मचर्य है।
शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध आदि किसी भी भोग सामग्री का संग्रह न करना अपरिग्रह है।
इन पांचों यमों का सब जाति, सब देश, और सब काल मे पालन होने से एवं किसी भी निमित्त से इनके विपरीत हिंसादि दोषों के न घटने से इनकी संज्ञा ‘महाव्रत’ या ‘सार्वभौम’ ‍हो जाती है।

किसी देश अथवा काल में, किसी जीव के साथ, किसी भी निमित्त से, हिंसा, असत्य, चोरी, व्याभिचार आदि का आचरण न करना तथा परिग्रह आदि न रखना ‘सार्वभौम महाव्रत’ है।

 २ - नियम
‘पवित्रता, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वसर-प्राणिधान – ये पांच नियम है।‘

पवित्रता दो प्रकार की होती है – (१) बाहरी और (२) भीतरी। जल-मिट्टी से शरीर की, स्वार्थ त्याग से व्यवहार और आचरण की तथा न्यायोपार्जित द्रवय से प्राप्त सात्त्विक पदार्थों के पवित्रतापूर्वक सेवन से आहार की, यह बाहरी पवित्रता है। अहंता, ममता, राग-द्वेश, ईर्ष्या, भय और काम-क्रोधादि भीतरी दुर्गुणों के त्याग से भीतरी पवित्रता होती है।

सुख-दु:ख, लाभ-हानि, यश-अपयश, सिद्धि-असिद्धि, अनुकूलता-प्रतिकूलता आदि के प्राप्त होने पर सदा-सर्वदा संतुष्ट – प्रसन्नचित्तरहने का नाम संतोष है।
मन और इन्द्रियों के संयमरूप धर्म-पालन करने के लिए कष्ट सहने का और तितिक्षा एवं व्रतादि का नाम तप है।
कल्याण प्रद शास्त्रों का अध्ययन और इष्ट देव के नाम का जप तथा स्तोत्रादि पठन-पाठन एवं गुणानुवाद करने का नाम स्वाध्याय है।
ईश्वार की भक्ति अर्थात् मन-वाणी और शरीर द्वारा ईश्व र के लिए, ईश्वअर के अनुकूल ही चेष्टा करने का नाम ईश्वरर-प्रणिधान है।

 

 ३ - आसन
‘सुखपूर्वक स्थिरता से बहुत काल तक बैठने का नाम आसन है।‘

आसन अनेको प्रकार के होते है। अनमे से आत्मसंयम चा‍हने वाले पुरूष के लिए सिद्धासन, पद्मासन, और स्वास्तिकासन – ये तीन उपयोगी माने गये है। इनमे से कोई सा भी आसन हो, परंतु मेरूदण्ड, मस्तक और ग्रीवा को सीधा अवश्ये रखना चाहिये और दृष्टि नासिकाग्र पर अथवा भृकुटी में रखनी चाहिये। आलस्य न सतावे तो आंखे मुंद कर भी बैठ सकते ‍है। जिस आसन से जो पुरूष सुखपूर्वक दीर्घकाल तक बैठ सके, वही उसके लिए उत्तम आसन है।

शरीर की स्वाभाविक चेष्टा के शिथिल करने पर अर्थात् इनसे उपराम होने पर अथवा अनन्त परमात्मा में मन के तन्मय होने पर आसन की सिद्धि होती है। कम से कम एक पहर यानी तीन घंटे तक एक आसन से सुखपूर्वक स्थिर और अचल भाव से बैठने को आसनासिद्धि कहते है।
४ - प्राणायाम
आसन सि‍द्ध हो जाने पर श्वास और प्रश्वास की गति के अवरोध हो जाने का नाम प्राणायाम है। बाहरी वायु का भीतर प्रवेश करना श्वास है और भीतर की वायु का बाहर निकलना प्रश्वास है, इन दोनो के रूकने का नाम प्रणायाम है।

देश काल और संख्या (मात्रा) के सम्बन्ध से बाह्य, आभ्यन्तर, और स्तम्भवृत्ति वाले – ये तीनो प्राणायाम दीर्घ और सूक्ष्म होते है।

भीतर के श्वास को बाहर निकाल कर बाहर ही रोक रखना ‘बाह्यकुम्भक’ कहलाता है। इसकी विधि यह है कि आठ प्रणव (ॐ) से रेचक करके, सोलह से बाह्य कुम्भक करना और फिर चार से पूरक करना – इस पफकार से रेचक-पूरक के सहित बाहर कुम्भक करने का नाम बाह्यवृत्ति-प्राणायाम है।

बाहर के श्वास को भीतर खींचकर भीतर रोकने को ‘आभ्यन्तर कुम्भक कहते है। इसकी विधि यह है कि चार प्रणव से पूरक करके सोलह से आभ्यान्तर कुम्भक करें, फिर आठ से रेचक करे। इस प्रकार पूरक-रेचक के सहित भीतर कुम्भक करने का नाम आभ्यन्तरवृत्ति-प्रणायाम है।

बाहर या भीतर जहां कहीं भी सुखपूर्वक प्रणों के रोकन का नाम स्तम्भवृत्ति-प्रणायाम है। अथवा चार प्रणव से पूरका करके आठ से रेचक करे, इस प्रकार पूरक-रेचक करते-करते सुखपूर्वक़ जहां कहीं प्रणों को रोकने का नाम स्तम्भवृत्ति-प्रणायाम है।


५ – प्रत्याहार और उसका फल
अपने-अपने विषयों के संग से रहित होने पर, इन्द्रियों का चित्त के-से रूप मे अवस्थित हो जाना ‘प्रत्याहार’ है।

प्रत्याहार के सिद्ध होने पर प्रत्याहार के समय साधक को बाह्यज्ञान नही रहता। व्यवहार के समय बाह्यज्ञान होता है। क्योंकि व्यवहार के समय साधक शरीर यात्रा के हेतु से प्रत्याहार को काम में नही लाता।

प्रत्याहार से इन्द्रियां अत्यन्त वश मे हो जाती है, अर्थात् इन्द्रियों पर पूर्ण अधिकार प्राप्त हो जाता है।

६ – धारणा
अधारणा से ध्यान और समाधि होती है। यह योग का छठा अंग है।

चित्त को किसी एक देश विशेष में स्थिर करने का नाम धारणा है। अर्थात् स्थूल-सूक्ष्म या बाह्य-आभ्यन्तर, किसी एक ध्येय को स्थान मे चित्त को बांध देना, स्थिर कर देना अर्थात् लगा देना ‘धारणा’ कहलाता है।

 ७ – ध्यान
उस पूर्वोत्त्क ध्येय वस्तु में चित्तवृत्ति की एकतानता का नाम ध्यान है।

अर्थात् चित्तवृत्ति का गंगा के प्रवाह की भांति या तैलधारावत् अविच्छिन्न रूप से निरन्तर ध्येय वस्तु मे ही अनवरत लगा रहना
‘ध्यान’ कहलाता है।

 ८ – समाधि
वह ध्यान ही ‘समाधि’ हो जाता है, जिस समय केवल ध्येय रूप ‍का (ही) भान होता है और अपने स्वरूप के भान का अभाव-सा रहता है। ध्यान करते-करते जब योगी का चित्त ध्येयाकार को प्राप्त ‍हो जाता है और वह स्वयं भी ध्येय में तन्मय सा बन जाता है, ध्येय से भिन्न अपने आप का ज्ञान उसे नही सा रह जाता है, उस स्थिति का नाम समाधि है। ध्यान मे ध्याता, ध्यान, ध्येय या त्रिपुटी रहती है। समाधि मे केवल अर्थमात्र वस्तु यानी ध्येय वस्तु ही रहती है, अर्थात् ध्याता, ध्यान, ध्येय – इन तीनों की एकता सी हो जाती है।

ऐसी समाधि जब स्थूल पदार्थ मे हाती है, तब उसे ‘निर्वितर्क’ कहते है और सूक्ष्म पदार्थ मे होती है तब उसे निर्विचार कहते है।

 योग के आठ अंङ्ग है - यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि

इन आठों अंङ्गों की दो भूमिकाएं है – (१) बहिरंग (२) अंतरंग
(१) बहिरंग ऊपर बतलाये हुए आठ अंगों मे से पहले पांच को बहिरंग कहते है, क्योंकि उनका विशेषतया बाहर की क्रियाओं से ‍ही सम्बन्ध ‍है।
(२) अंतरंग ऊपर बतलाये हुए आठ अंगों मे से धारण, ध्यान और समाधि अंतरंग है। इनका सम्बन्ध केवल अन्त:करण से होने के कारण इनको अंतरंग कहते है।  
 
॥ आदेश आदेश ॥

सतगुरू यन्त्र (अनहद चक्र)

सहृदय नाता होता है, गुरू-शिष्य का भक्ति प्रेम श्रद्धा आद्रता होता है हृदय में। हृदय-प्राण-ज्योत से योग में चेतनता आती है। यह है हृदय का मन्त्र अर्थात अनहद चक्र अर्थात् सतगुरू यन्त्र। येगेश्वर योगावृढ ‍होता है। प्राण-अपान प्राणायाम से चित्त मे एकाग्रता लाता है और अपनी एकाग्रता हृदय स्थान मध्ये केंद्रित करता है जिसे अनाहद चक्र कहते हैं। इस चक्र का मुख नीचे है। बारह दल का कमल पुष्प पर विष्णु जी का चक्र विराजमान है। बीज शब्द कँ खँ गँ घँ ङँ चँ छँ जँ झँ टँ ठँ इन दलों पर होता है । तत्व वायु अर्थात प्राण अपाण है। तत्व का बीज यँ शब्द है। यन्त्र मध्ये मे सतगुरू यन्त्र जो मृगावाहन पर आरूढ़ है। खड़े त्रिकोण के ऊपर सतगुरू जी तथा देवता रूद्रनाथ जी (श्री) तथा शक्ति उमा देवी विराजमान है। अर्थात सतगुरू शब्द (मन्त्र) से रूद्र-उमा शक्ति ‍का मिलाकर योगी मह: लोक जाकर महानन्द कैवल्यानन्द प्राप्त करता है। धयान योग मे योगी षटकोण यन्त्र को खडदर्शन स्वरूप मे पार करना पडता है। अर्थात सतगुरू प्राप्ति दीक्षा शबद, (गुरू मन्त्र)-प्राप्ति के पश्चात कृपा आशीर्वाद से पूर्ण योग (दृढ़ता) में आता है। तब सतगुरू सपर्श गुण से शक्तिपात जहां पश्विम द्वार से निकली हुई ब्रह्मनाडी पर ब्रह्मा आरूढ़ है। जिससे ब्रह्मज्ञान प्राप्त होता है तथा उत्तर द्वार मे वज्रा और दक्षिण द्वार से निकली हुई चित्रिणी जाग्रत से योगी, ईशत्व सिद्धि को प्राप्त होता है तथा पीला-नीला-वृन्दा-शारदा जाग्रति से काव्य शक्ति बाला को प्राप्त करता है।
इस प्रकार योगेश्वर अपने योग में हृदय के ऊपर ध्यान केन्द्रित कराके पूर्ण समाधि में आनन्द उपभोगते हैं।

 
 
।। सतगुरू यन्त्र का मन्त्र ।।
सत नमो आदेश। गुरू जी को आदेश। ॐगुरू जी। ॐआदि अनादि अखण्ड ज्योति। जोत जागे बिन बाती। सतगुरू शिव शक्ति मिल थापना थापी। ब्रह्माजी बैठे ब्रह्मनाडी, रूद्रनाथ जी संग उमा बैठी विषण चक्र, कमल के छत्र। मृगासन दिय बिछाय सतगुरू बैठे हृदय निवास । ॐ रूद्र नाथ जी का शंख बजे। अनहद नाद का डंका बाजे। ईश्वर गुरू देव ने मन्त्र फूंका। जपो मन्त्र काटो पाप सतगुरू सम्भालो अपना आप। गुरू शबद दीक्षा दीन्ही। इडा पिंगला जोगन भेटी। सुषम्ना मिल्या शिव घर शक्ति बैठी। ज्ञान गुरू मिलीया ज्ञान सिद्ध। पूरब पश्चिम दक्षिण उत्तर महालोक मे ईश सिद्ध। सतगुरू मन्त्र शक्ति बाला। रक्षा करे गुरू गोरखनाथ बाला। इतना मन्त्र जपे तपे सुमिरन करे। सो पर काया प्रवेश सिद्धि को पावे। जो ना करे सो भव सागर डूबे। इतना सतगुरू मन्त्र सम्पूर्ण भया। श्री नाक़ जी गुरू जी को आदेश।

 
 
॥ आदेश आदेश ॥

धरत्री गायत्री

धरत्री गायत्री पूजन
विधि:
प्रथम गौ-गोबर से धरती पर धरत्री विक्र के आकार का लेपन करें। वह सुखने के पश्चानत अष्ठगंध से चक्र मे दिखाया शेष नाग जैसा शोष केतकी डंठल से अष्ठगंध स्याही से या अक्षदा से बनावे अब भोज पत्र ऊपर या पाटला के ऊपर या शुभ्र वस्त्र के ऊपर चक्र बनावे अर्शित २७ नक्षत्र १२ राशि ९ ग्रह इत्यादि नाम देकर यह यन्त्र चक्र शेष ऊपर स्थापन करे, यंत्र चक्र के पूर्व दिशा मे दीप गौघृत धूप, दक्षिण दिशा में शस्त्र त्रिशूल, चिमटा, खडांग ‍इत्यादि रखें तथा पश्चिम दिशा मे कलश जल त्रिवेणी संगम या समुद्र जल रखे उत्तर दिशा में खनिज सुवर्ण, चांदी, कोयला तथा वनस्नति वटवृक्ष, पीपल, नीम इत्यरदि मे एक स्थापन करे।
विवरण:-
शेष नाग ऊपर धरत्रि‍ विराजमान ‍है तथा नक्षत्र राशी मे भ्रमण कराते है। जब सिंह कन्या तुला राशी के सूर्य मे शेषनाग का मुख इशान मे अग्नि दिशा मे खो देवें, तथा वृश्चि क, धनु मकर के सूर्य मे शेषनाग का मुख नैवृत्य वायत्य दिशा मे होता है वूषभ मिथुन कर्क के सूर्य के सूर्य में शेषनाग का मुख अग्नि मे नैॠत्य मे दिशा मे होता है ।
अब १२ मास में अश्वि न, भाद्रपद कार्तिक मास में शेषनाग का सिर पूर्व दिशा मे मार्गशीष, पौष माघ में उक्षिण में तथा फाल्गुन चैत्र वैशाख पश्चिशम में और जेष्ठ आषाढ़ श्रवण मे मुख उत्तर दिशा मे रहता है। फल:- यउद शेषनाब के सिर पर खुदवायें तो मातृपितृ गुरू की हानी होती है। पीठ पर खुदवायें तो भय रोग और पूंछ पर खुदवायें तो तीन गौत्र की हानी ‍होती है। खाली जगह पर खुदवायें तो शुभ लाभ ‍होता है।
शयन:-
सूर्य के नक्षत्र में पांचवे, २० वे ९ वे १२ वे २६ वे इन पर पृथ्वी धरत्रि शयन करती है। सोयी हुई पॄथ्वी पर तालाब, बावडी, कुंआ, हवेली, मठ मन्दिर कभी नही खोदना चाहिये। अत: धरत्री गायत्री पूजन जेष्ठ, आषाढ़ श्रावण में करें पूजन के लिए सोभाग्य सूचक कुंकुम, हल्दी अक्षदा कमल का फूल गंगा जल कलश, धुप दिश घृत इत्यादि साहित्य से धारत्री का द्वादश मन्त्र पढकर चक्र मे दिखाये हुये यन्त्र के ऊपर अक्षदा छोडें।


 
 
धरत्री गायत्री द्वादश मन्त्र
सत नमो आदेश। गुरूजी को आदेश। ॐ गुरूजी। जो समान धर्ती तिल समान काया, फाटक खोल धर्ती माता तेरे मे योगीश्वआर आया। हिन्दू को जलाया, मुसलमान को दबाया-तिसरा सिक्का श्री नाथ जी ने चलाया। सातवें पाताल एक निरंजन निराकार ज्यो‍ति स्वरूप उनकी चरण पादुका पूजिये जो ! चरण कमल पर जल, जल पर थल, थल पर मच्छ, मच्छ पर कच्छ, कच्छ पर कमल का फूल, कमल के फूल पर शोषनाग, शेषनाग पर धौल बैल धौल बैल के सींग पर राई का दाना। राई के दाने पर श्री नाथ जी ने नवखण्ड पृथ्वी ठहरायी। प्रथम नाम धर्ती (यन्त्र के ऊपर ‘’ॐ धर्ती माता को आदेश’’ कहकर अक्षद छोडें)‍ द्वितिये नाम विश्वलम्भरा (यन्त्र के ऊपर ‘’ॐ विश्वंम्भरा माता को आदेश’’ कहकर अक्षद छोडें) तृतीय नाम मेद मेदिनी (यन्त्र के ऊपर ‘’ॐ मेद मेदिनी माता को आदेश’’ कहकर अक्षद छोडें) चतुर्थ मनसा (यन्त्र के ऊपर ‘’ॐ माता मनसा को आदेश’’ कहकर अक्षद छोडें) पांचवे नाम कृतिका (यन्त्र के ऊपर ‘’ॐ कृतिका माता को आदेश’’ कहकर अक्षद छोडें) छटे नाम ब्रह्मचण्डी (यन्त्र के ऊपर ‘’ॐ माता ब्रह्मचण्डी को आदेश’’ कहकर अक्षद छोडें) सातवें कन्या कुमारी (यन्त्र के ऊपर ‘’ॐ माता कन्या कुमारी को आदेश’’ कहकर अक्षद छोडें) अष्ठ मे वज्रबाला भव योगनी (यन्त्र के ऊपर ‘’ॐ वज्रबाला माता को आदेश’’ कहकर अक्षद छोडें) नवमे नौ करोड दुर्गा (यन्त्र के ऊपर ‘’ॐ नो करोड दुर्गा माता को आदेश’’ कहकर अक्षद छोडें) दशमे सिंह भवानी (यन्त्र के ऊपर ‘’ॐ भवानी माता को आदेश’’ कहकर अक्षद छोडें) ग्यारहवें चन्द्रघण्टा मृतका (यन्त्र के ऊपर ‘’ॐ माता चन्द्रघण्टा को आदेश’’ कहकर अक्षद छोडें) बारहवें बरदायनी। (यन्त्र के ऊपर ‘’ॐ माता बरदायनी को आदेश’’ कहकर अक्षद छोडें) आदि सत्य, नाद सत्य, मुद्रा सत्य, सत्य धर्ती माई धर्ती ध्यान सदा से लायी, अरणी-अरणी सूर्य चान्द को धाई। धर्ती माता तुम बडी तुमसे बडा न कोय। जो धर्ती पर पग धरे तो कन्चन काया होय। आदि की धर्ती अन्त की काया। अमर हो धरती वज्र हो काया। धर्ती माता के पिण्ड प्राण सदा बालक स्वरूपी हो रहे। कसटया न काटे, जाल्या न जले, डुबाया न डुबे, ब्रह्म तेज ‍हो रहे धर्ती द्वादश पढ़न्ते सुन्नते मोक्ष मुक्ति फल पावन्ते। गर्भ योनी कभी न आवन्ते। श्री नाथजी गुरूजी को आदेश।आदेश।आदेश। इसी तरह मन्त्र पढकर सामुपचारे पंचोपचारे या षोडशोपचारे या यथालब्धोपचार धर्ती माँ की पूजा करें।
सुचना सि‍द्धि:-
गुफा मे या जमीन खोद कर धर्ती के अन्दर बाघांबर आसन लगा कर जेष्ठ, आषाढ़, श्रावण मास मे या शरद ॠतु मे सूर्य उत्तरायण में यह मन्त्र ४१ दिन तक जाप करे तो भूमि के अन्दर, द्रव्य दर्शन, जल दर्शन, खनिज दर्शन इत्यादि सिद्धियां प्राप्त होती हैं। साधक अनुष्ठान करके तथा गुरू की आज्ञा से यह साधना करे।
विशेष:-
कर्मकाण्ड (अभिषेक् यज्ञ-हवन-जप अनुष्ठान इत्यादि धार्मिक विधि) करते समय तथा नया घर (मकान, दुकान) जमीन खरीदने तथा नये घर मे गृह प्रवेश करने के समय उपरोक्त मन्त्र विधि से धरत्री पूजन करे और धरत्री माता की प्रार्थना करे कि ‘’हमे हमारे कार्य के लिए (जगह) स्थान प्रदान करने की कृपा करें’’ (ऐसा करने से शुभ-अशुभ, मुहूर्त या काल इत्यादि देखने की आवश्येकता नही पड़ती)।


 
 
॥ आदेश आदेश ॥

श्री नाथ सिद्ध-धूना (यज्ञ)

धूनी-पानी-सिद्धों की बानी
श्री नाथ सि‍द्धों का धूना आदि अना‍दि काल से चलती आई परम्परा है। विशेषत: नाथ सिद्ध योगेश्वर धूना को सर्वथा प्रधान मानते है। त्यागी, तपस्वी सिद्ध महासिद्ध इत्यादि योगेश्वर स्थान मकान में तथा रमत में और जंगलों में धूना को चेतन कराके अपनी साधना को युग-युग से सिद्ध करते आये हैं। धूना तथा धूना की भभूत संकट, भूत, प्रेत तथा काम क्रोध, मद मत्सर, मोह इन सभी को भस्म करती है। ऐसा महात्माओं का‍ विश्वास है। काया भस्मी स्नान से शरीर का सुरक्षा कवच बनता है।

नाथ योगी ध्यान योगी, ज्ञान योगी, पीर-महन्त नागे पीर, सन्यासी बैरागी जती-सती स्थानी मकानी त्यागी, तपस्वी सिद्ध महासिद्ध इत्यादि योगेश्व,र स्थान मकान में तथा रमत में और जंगलों में धूना को चेतन कराके अपनी साधना को युग-युग से सिद्ध करते आये हैं। अग्नि जंगलों मे सुरक्षा हेतु भी उपयोग होता है।जंगली प्राणी अग्नि से दूर रहतें ‍है। वातावरण के जीव जन्तु दूर रहते है। अर्थात साधु-सन्तों के लिए यह रक्षपाल तथा शस्त्र देवता ही प्रमाणित ‍होती है।

सन्त महात्मा धमनी की भभूति काया मे रमाते है जिसे भस्मी स्नान कहते है और भस्मी युक्त रहतें है। पूर्व आख्यायिका है कि भगवान शंकर जी ने माया स्वरूपी दादा मत्स्येन्द्रनाथ जी के ऊपर भस्मी डालकर भस्मी स्नान कराया था। ‘’उलटन्त बिभूत पलटन्त काया’’ यह भभूत काया को शुद्ध तथा तेजस्वी बनाती है। ‘’चढ़ी बभूत घट हुआ निर्मल’’ अर्थात् भभूत मन की मलिनता को हटाकर मन को निर्मल तथा पवित्र करती है। इसलिये धूना भस्मी अतिषय पवित्र मानी जाती है। धमना तथा धूना की भभूत संकट, भूत, प्रेत तथा काम क्रोध, मद मत्सर, मोह इन सभी को भस्म करती है। ऐसा महात्माओं का‍ विश्वालस है। काया भस्मी स्नान से शरीर का सुरक्षा कवच अनता है। वैज्ञानिक दृष्टि से जीव-जन्तु, कीड़े-मकोड़े तथाथ गर्मी के मोसम मे इनका कोई भी प्रभाव नहीस ‍होता। इस प्रकार धूनी-भभूति वरदायिनी है।

महात्माओं मे शैव पंथी धूना या धूनी कहते है। नाथ सिद्धों मे यह धूना नाम से प्रचलित है। वैष्णवी पंथ के महात्मा इसे यज्ञ या (होम) प्रकार से स्वीकारते है और यज्ञों मे पूजन स्थापन-हवन इत्यादि कर्मकाण्ड करते है। यज्ञ हवन-पूजन बहुत ही पुण्यप्रद तथा मोक्ष दायक और मुक्ति दायक होता है। यह यज्ञ नाथ सिद्धों मे धूना (धूनी) शैवपंथ मे रूद्रयज्ञ महारूद्र यज्ञ, शक्ति चण्डी यज्ञ, महाचण्डी, सतचण्डी, सहस्त्रचण्डी तथा राजा महराजाओं का अश्वमेघ यज्ञ (पुत्र) सन्तती प्राप्ति के लिए पुत्र कामेष्टी यज्ञ सत्कर्मी यज्ञ किये जातें है। यह सात्विक यज्ञ होते है। इस प्रकार अघोर कर्म मे अघोर यज्ञ भी किये जाते है।

यज्ञ अलग-अलग प्रकार से किये जाते हैं। वैदिक मन्त्र-तन्त्र विधि से तथा नाथ सिद्धों मे शाबर मन्त्र विधि से यज्ञ (धूनी) का पूजा पाठ तथा हवन किया जाता है।

 
 
।। श्री नाथ सिद्धों का प्रात: धूनी का कर्म ।।
यहां हमने शाबर मन्त्र विधि से धूना का नित्यकर्म पर प्रकाश डाल कर यज्ञ विधिवत करने का प्रयास किया है।

सिद्ध योगेश्वर तथा पुजारी प्रात:३ बजे उठकर प्रात: नित्य विधि के उपरान्त सब धूना पर आते है। पुजारी जी सब साफ सफाई करके प्रथम देवता के यहां दीपक लगाते है। धूनी के महन्त जी तथा पीर जी के आसन तैयार करते है और योगेश्वर भी अपने-अपने आसन बना लेते हैं। पुजारी जी अपने देवता के पूजन मे जुड़ जाते है। देवता की पूजा के पश्चात दबी हुई धूनी का पूजन यापन करने के पश्चात धूनी चेतन करते है और पूजा आरती के कार्य मे जुड़ जाते है। अन्य महात्मा योगेश्वर भण्डारी, कोठारी, पीर जी, महन्त जी, पंख, कोटवाल, क्षेत्रपाल अपना प्रात: विधि करके आते हैं। धूनी पर तथा देवता ‍को आदेश करके भस्मी स्नान मे जुड़ जाते हैं। धूनी के महन्त पीर जी के लिए पूजारी जी ने डाले हुये आसनों पर बैठने की, आसन ग्रहण करने की निम्न मन्त्रों द्वारा विनती करते हैं। पीर जी भस्मी स्नान करके आसन ग्रहण करते है। जब सभी योगेश्वर भस्मी स्नान उपरोक्त देवता को तथा महन्त पीर जी को नादि आदेश करते हैं।

 
 
॥ आदेश आदेश ॥

योगी गुरू गोरक्षनाथ

।। अहमेवास्मि गोरक्षो, भद़ूपं तन्निबोधत।
योग मार्ग प़चाराय मया रूपमिदं घृतम् ।।
( महाकाल योगशास्त्रकल्पद़ुम )

 
 
इस सम्पूर्ण सृष्टि का जो रक्षक, स्वामी और प़भु है, वही ‘नाथ’ है। गोरखनाथ भारतीय मानस में देवाधिदेव शिव रुप में प़तिष्ठित है। वे अनादि है। जब से ब्रह्माण्ड है, तब से नाद है, जब से नाद है तब से नाथ सम्प्रदाय है।

वस्तुत: नाथ शब्द (नाथ्+अच्) से बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ प़भु, स्वामी, रक्षक होता है। ‘नाथ’ इस भुवनत्रय की स्थिति का कारण है। वह आदि, मध्य, अवसान रहित है। वह ‘शिव’ से अभिन्न है। गोरक्षनाथ ‍को पुराणों में शिव का अवतार माना गया ‍है। शिवपुराण में ब़ह्मा जी शिव के अवतारों का वर्णन करते हुए कहतें हैं -:

।। शिवो गोरक्षरूपेण, योग शास्त्रं जुगोपह
मद्यङैर्यथा स्थाने, स्थापिता योगिनोऽपि च ।।
गोरखनाथ का प्रदुर्भाव:
गोरखनाथ दो रूपों में देखे जाते हैं—व्यक्तित्व के रूप में और व्यक्ति के रूप में। व्यक्तित्व के रूप मे आदिनाथ शिव और गोरखनाथ तत्वत: एक ही है। सर्वनिरपेक्ष, कालातीत, नित्य, सर्वव्यापी, परमचैतन्य रूप होने के कारण वे सभी युगों और सभी कालों में विद्यमान रहते है। नाथ योगी सर्वनिरपेक्ष अलक्ष्य सत्ता को ही अपने अन्तस् में लक्षित करता है।

योगी गुरू गोरक्षनाथ-अवतार कथा:
नारदपुराण तथा स्कन्दपुराण से प्रमाणित है, किसी ब्राह्मण ने ज्योर्तिवित के आदेश से गण्डान्तनक्षत्र में उत्पन्न निज पुत्र को ‍अनिष्ट जानकर उसका समुद्र मे परित्याग किया। वह बालक अतुल महिशाली परमेश्वयर की गतिविधि से किसी महा्मत्स्य का भोजन बना।

वह ‍द्विजपुत्र दयामय की अघटित घटना का अचिन्त्य रचना-चातुरी चमत्कार से काल के पाश मे नवेष्टित हो जीवित ही रहा। एक बार श्री पार्वती अमरकथा विषयक प्रगाढ़ प्रर्थना के वशीभूत हो भूतनाथ भगवान महेश्वकर कैलाश शैल को त्याग कर पार्वती को अमरकथा सुनाने के लिए महा पर्वत लोकालोक पर पहुंचे। वह महाशैल मणियों से भूषित था अतएव उसकी शोभा अनूठी थी।

जिस प्रकार महावायु मेघमण्डल को दिगन्तरों मे अपने वेग से प्रस्थानित करता है, वैसे ही अमर कथा सुनाने को एकान्त स्थान चाहने वाले श्री मूलनाथ ने तीन ताल द्वारा सकल पशु पक्षी वर्ग को उस स्थान से हटाया। सर्वपूज्य भगवान श्री महादेवी को अमर कथा सुनाने को अवहित हो गए। परमकारूणिक भक्तवत्सल श्री आदिनाथ आशुतोष ने भवानी सपर्या से से संतुष्ट ‍हो मृत्यं को जीतने मे समर्थ उस अमर कथा का उपदेश किया। बहुत काल कथा सुनते बिता, श्री पार्वती योगनिद्रा मे अवस्थित ‍हो गई। इसी अवसर पर तेजोभार से प्रपीडित वही महामत्स्य जिसने अग्रजन्मा सुत को ग्रसित किया, उसी सागर तट पर आ पहुंची एवं कथा हुंकृति को प्रकट किया, आदिदेव कथा सुनाते ही रहे।

भगवान आदिनाथ ने ‍द्विजशिशु पर अनुग्रह किया, जिससे कोई कष्ट न पाकर सुख से निकलकर भगवान के निकट आ विराजा और चरणों मे प्रणाम किया। भगवान महेश्वअर पूछने लगे हे वत्स ! महामत्स्य के उदर में तुम्हारा निवास किस असाधारण कारण हुआ, सत्य कहो। बालक बोला है सर्वज्ञ ! हे सर्वशाक्तिमान !! हे दयामय !!! आप स्वयं जानते है मै क्या कहूं। इस प्रकार बालभाषित माधुर्य से निरतिशय संतुष्ट होकर आदिशक्ति जगदम्बा से भगवान मूल नाथ इस प्रकार बोले। हे शैलराजपुत्री ! यह बालक आपका पुत्र है, यह दिनमणि के सदृश्य संसार का प्रधान नेता होगा एवं सर्वदा प्रसन्नचित रहेगा, इसको पराजित करने वाला कोई नही होगा। भगवान आदिनाथ द्विजपुत्र को आशीर्वाद देकर बोले हे वत्स तुम मत्स्य के उदर सन्निधान से प्रगट हुए हो अत: तुम्हारा नाम संसार में मत्स्यनाथ या मत्स्येन्द्र नाथ होगा,क्यांके तुम मत्स्यावतार मत्स्यों के इन्द्र हो। अब जाओ समस्त लोको में भ्रमण करो। योग विद्या का विस्तार करो, यही हम दोनो का आदेश है।

मत्स्येन्द्रनाथ बोले हे ! नटराज करूणामय !! यहद सर्वर आपका ही अनुपमानुग्रह है, मै कृतकृत्य हूं। महामप्रकाश मत्स्येन्द्रनाथ ने भगवान एवं भागवती से आदेश प्राप्त कर योग विद्या बु‍द्धि के लिए वहां से प्रयाण किया। कुछ काल तक योग विद्या के प्रचार करने के अनन्तर लोकनाथ महाप्रकाश सिद्धनाथ जी के मन मे भगवान आदिनाथ की तपश्च र्या करने का विचार प्रकट हुआ, भगवान के सात्विक ध्यान में स्थित हो गए एवं मनों रूपी कुसुमों से आदिनाथ परमेश्वकर की आराधना करने लगे। लोकनाथ मत्स्येन्द्रनाथ जी के चिरकाल पवित्र तप से भगवान अत्यन्त प्रसन्न हो गए एवं प्रकट होकर बोले हे नित्यनाथ ! मै तुम्हारे तप से निरतिशय प्रसन्न हूं, स्वेच्छानुकूल वर मांगो ! सिद्धनाथ बोले हे प्रभो यदि आप मेरे ऊपर प्रसन्न हैवर देना वाहते है तो मै इसी को उत्तम समझता हूं और याचना करता हूं कि आप मेरे सहायक होकर अवतार को धारण करें। मैं स्वयं आकैर तुम्हारी सहायता करूंगा, तब तक योग विद्या ‍विकास करो। ऐसा कहकर श्री महादेव कैलाश अद्रि को चले गये, करूणामय उस समय आर्य्यावलोकितेश्वऔर महाप्रकाश सिद्धनाथ के योग प्रचार से यहम योगविद्या, राजयोग, लययोग, हटयोग, मन्त्रयोग, ध्यान योग, विज्ञानयोग, प्रभृति विभिन्न नामों से प्रसिद्ध हुई। कुछ समय के चले जाने के पर अमिताभ करूणामय के वर का स्मरण भगवान मूलनाथ ने किया, उसी समय भगवान ने श्री महादेवी के पूर्वव्रत्त से प्रेरित होकर हृइय को उसी दिशा मे पतिणत किया। उमा का अन्तरस्थल अहंकार सागर में वीचि लेने लगा, अभिमान की मात्रा आच्छादित अचिन्त्य शक्ति के आवेश मे आकर श्री पार्वती भगवान महेश्वनर से बोली- हे आदिदेव आदिनाथ ! जहाँ-जहाँ आप हैं वहाँ-वहाँ मै आपसे पृथक् नही, मेरे बिना आपकी कोई सत्ता नही, मदविशिष्ट ही आप है। हे महादेव आदिनाथ आप विष्णु है तो मै लक्ष्मी हूं, आप महेश्वार है तो मै महेश्वथरी हूं, आपशिव है तो मै शक्ति हूं, आप ब्रह्मा है तो मै सावित्री हूं, आप इन्द्र है तो मै इन्द्राणी हूं, आप अरूण है तो मै बरूणानी हूं, आप पुरूष है तो मै प्रकृति, आप ब्रह्म है तो मै माया,मेरे से पृथक आप नही है।

जगदम्बा ‍के वचनो का स्मरण कर मूलनाथ बोले हे महेश्व री ! जहाँ -जहाँ तुम हो वहाँो-वहाँ मै अवश्यृ हूं, यह कथन सत्य है, और जहाँ- जहाँ मै हूं वहाँ- वहाँ आप विराजमान है, यह कथन सत्य नही क्योंकि जहाँ-जहाँ घट है, वहाँ-वहाँ मृत्तिका अवश्यव है, किन्तु जहाँ मृत्तिका है वहाँ घट नही आकाश सर्व पदार्थौ मे व्यापक है, सर्व पदार्थ आकाश मे व्यापक नही महादेव जी ने विचार किया जगदम्बा के कथन का समाधान और महाप्रकाश को वर प्रदान इन दोनो का पालन समयापेक्षी अवश्यह है, बस क्या था? भगवान आदि नाथ मूलनाथ ने अपने आत्मबल समुदाय ‍को दो भागों मे विभाजित किया। एक समुदाय से पूर्व रूप मे ही अवस्थित रहे दूसरे समुदाय को गोरक्षना‍थ रूप मे परिणत किया। वे गोरक्षनाथ एकान्त निर्जन किसी विशेष पर्वत मध्य शुद्ध स्थान मे विराजमान होकरसमाधिस्थ हो गये। महेश्वकरानन्द भगवान गोरक्षनाथ के प्रबल तपोबल प्रताप से वह पर्वतराज अनुपम रूप से सुशोभित हुआ। कुछ ही समय के पश्चावत योग सम्प्रदाय प्रवर्तक श्री गोरक्षनाथ जिस पर्वत पर ज्ञान मय तप मे ‍विराजमान थे, वहाँ जगदम्बा को साथ लेकर भगवान आदिनाथ शिव ने गमन किया। मार्ग मे ही कुछ विश्राम कर भगवान श्री भवानी से बोले हे गौरि जो यह पर्वत समक्ष दिखता है, इसमे एक महान परमपुरूष योगीराज चिरकाल से समाधिस्थ है आप जा कर उनके दर्शन करें। आदिनाथ भगवान मूलनाथ की आज्ञा पाकर महादेवी ने वहाँ से प्रस्थान किया। भगवान गोरक्षनाथ को समाधि मे बैठे ऐसे देखा मानों बुत से सूर्य मिलकर ही प्रकाश कर रहे हैं। श्री शिव का रूप पूज्य जानकर हाथ मे पुष्प लेकर श्री देवी ने गोरक्षनाथ को हृदय से आदेश किया महादेवी ने विभिन्न विचारों के पश्चारत श्री महादेव जी के कथन का स्मरण किया, ऐसा न हो मेरे ‍ही कथन का उत्तर देने के लिए यह कोई अचिन्त्य सामग्री रचाई गई ‍हो? योगी की परीक्षा का यही समय है। सत्यासत्य का निश्चाय परीक्षा के बिना नही होता, माया के कार्यो को ही जीतना कठिन है, माया तो दूर रही उसे केसे जिता जा सकता है। मेरानाम माया है मै सबसे बडी शक्ति हूं, मैने ब्रह्मा आदि को भी बिना वश किये नही छोड़ा। उमा देवी महेश्वेरानन्द गोरक्षनाथ भगवान की परीक्षा लेने को तत्पर हो गई, चतुर्था अपनी योग माया से उत्तम जगन्मात्र पदार्थो को रच कर प्रत्यक्ष रूप मे उपस्थित कर दिखाया और कोई पदार्थ शेष नही रहा, अवस्थित भगवान गोरक्षनाथ के समक्ष महामाया के सहस्त्रों प्रयत्न इस प्रकार अस्त हो गये, जैसे मध्यान्हकालिक मार्त्तण्ड के समक्ष तारागण विजीन हो जाते हैं। भगवती ने महादेव के वचनों को सत्य समझा, यह मैरे लिये ही अद्भुत चमत्कार का आकार खड़ा किया है।ऐसे विचार करती हुई पार्वती देवी को गोरक्षनाथ बाले हे देवी ! जाओ भगवान आदिनाथ आपका स्मरण करते है। योगाचार्य के अनुपम उपदेशामृत को पीकर वहाँ से भवानी ने भगवान के पास प्रस्थान किया, पहुंचकर मूलनाथ आदिनाथ भगवान को आदेश किया और कहा हे ईश्वकर आपका कथित संकल्प यर्थात है। मेरे बिना भी आप विद्यमान है, अत: आपकी सत्ता ही प्रधान है, यह मैने अनुभव किया, शक्ति का लय शक्तिमान के ही अभ्यन्तर से होता है। हे ईश्वमर ! ऐसा यह कोन वस्थित योगीश्वहर है, जिसने मेरी शक्ति ‍को कुछ नही समझा। वह अपनी समाधि मे ही अचल रहात महादेव बोले हे महेश्व!री ! जिस योगी का तुमने दर्शन किया है उस यागीश्व र का नाम गोरक्षनाथ है। सर्व देव मनुष्यों का इष्ट देव है, माया से परे एवं काल का भी काल है समयापेक्षित अनेको रूप से प्रकृति चक्रका संचालक है। हे महादेवी मै ह गोरक्षनाथ हूं, मेरा स्वरूप ही गोरक्षनाथ है। हम दोनो मे किञ्चित भी अन्तर नहीं, प्रकश से भिन्न प्रकाश नहीं रहता। हे महादेवी ! संसार का कल्याण ‍हो वेद गौ पृथ्वी आदि की रक्षा हो इस हेतु से मेने गोरक्ष स्वरूप को धारण किया है।

जब जब योग मार्ग की रक्षा मे अवस्थित होता हूं यह गोरक्षनाथ नाम मेरे नामा में उत्कृष्ट है। भगवान मूलनाथ बाले हे महेश्वबरी ! जो पुरूष योग विद्या को सेवन करता है वही मृत्यु को जीतता है, और उपायों मे मृत्यु नही जीती जाती। अन्य उपायों से थोड़ी बहुत आयु कढ़ सकती है। योगबल महाबल है, योगी महाबली है, चाहे एक रहे अनेक होकर विचरे चाहे भूमि मे रहे चाहे आश्रम में भ्रमण करे चाहे सो युग तक रहे, चाहे सदा अमर रहे, स्थूल शरीर से रहे, सूक्ष्म शरीर से, चाहे श्रोता से सुने, चाहे बिना श्रोता से, चाहे राजिका होकर रहे, चाहे पर्वत होकर, वह योगी ब्रह्मा विष्णु के कार्यो को भी करने मे समथ् है। भवानी बोली हे प्रभों ! आपको कोटिश: नमस्कार आपकी माया अनन्त है। जगत् आपका उद्यान है,आप उसके माली है। इस प्रकार श्री महादेवी पार्वती से पूज्यमान महादेव जी कैलाश को पधारे। इधर कमलासन पर विराजमान श्री ब्रह्मा जी को योगी नारद बोले हे प्रभों ! पहले मेनेजर आपसे यह कथा सुनी है, हादेव जी ने सिद्घनाथ मत्स्येन्द्रनाथ जी को वर दिया था कि आप नाथवंश के तथा योग मार्ग के प्रर्वतक होवेंगे तो फिर संसार मे उन्होने किस प्रकार योग का प्रचार किया और फिर मत्स्येन्द्रनाथ जी ने किस महामहिमशाली शिष्य को इस योग का उपदेश किया, नाथ नाम पूर्वक योगियों का सम्प्रदाय केसे प्रवृद्घ हुआ। ब्रह्मा जी बाले हे नारद ! उसके पश्चाकत महेश्वनर मूलनाथावतार भगवान गोरक्षनाथ जहाँ महा प्रकाश मत्स्येन्द्रनाथ जी समुद्र तट पर तप कर रहे थे वहाँ को पधारे वहाँ गोरक्षनाथ जी ने जाकर मत्स्येन्द्रनाथ जी को समाधि द्वारा मनोयोग को प्रबोधित कर योगपद्धति को पूछा और विनीत भाव से स्तुति की एवं नाथपदयोग वंश को प्रवर्त्तकता ‍को प्राप्त किया इसी भगवान आदिनाथ मत्स्येन्द्रनाथ परम्परागत योग से गोरक्षनाथ ने योग को शक्तिपात, करूणावलोकन, आपदेशिक इन ‍तीन शिक्षाओं के द्वारा अनेक राजा महाराजा ॠषि-मुनियों को कृतार्थ किया और उनको दिव्य देकर अमर पद का भागी बनाया।


 
 
॥ आदेश आदेश ॥

नाथ इतिहास

बारह पंथों के नाम
(सिद्धमार्ग व नाथ सम्प्रदाय) के प्रारम्भक आदिनाथ सदाशिव गोरक्षनाथ हैं।बारह पंथ भी नाथ सम्प्रदाय सम्बन्धित होने से शिव गोरक्षनाथ ही इनके मूल आचार्य हैं लेकिन फिर भी जब जब जो पंथ जिस समय जिस सिद्ध योगी द्वारा अधिक प्रतिष्ठित एंव प्रभावित हुआ उसके प्रभाव के सम्बन्ध से भी कुत्रचित् उसकी प्रासि‍‍द्धि के नाम से भी वह पंथ बोला जाता है।


 
१. आई पंथ २. सत्यनाथी पंथ ३. रामनाथी
४. नटेश्व्री ५. धर्मनाथी ६. वैराग्यपंथी
७. कपलानी ८. पागल (पालक) पंथी ९. गंगनाथी
१०. मनोनाथी ११. रावल (रावण) पंथी १२. ध्वज पंथी

 
यथा-वैराग्य, पागल, मनोनाथी का सम्बन्ध शिव गोरक्ष मत्स्येन्द्रनाथादि से है व उनके उत्तरवर्ती उनके शिष्य प्रशिष्यों सनक सनन्दन सनतकुमारादिकों से उत्तोत्तर उनकी प्रणाली से सम्बन्धित प्रसिेद्ध सिद्ध जब कोई हुआ है तो उसके नाम से ही उसका पंथ बोला जाने लगा। उसको ही उस शाखा का प्रारम्भक साधारण व्यवहार में व साधारण जन समुदाय में समझा व बोला जाने लगा। इस आशय से ही पूर्व वैराग्य, पागल, मनोनाथी आदि पन्थों के प्रवर्तक क्रमश: विचारनाथ, चौरंगीनाथ श्रृंग्डे.रिपानाथों को कहा गया है। क्योंकि द्वादश पन्थ तो उनसे पूर्व भी विद्यमान थे। उस समय की इनकी प्रसि‍‍द्धि को लेकर इनकों उनके प्रवर्तक कहा गया जिस समय मे ये हुए। बारह पंथों मे से इनके आचार्य और सिद्धों का आशय यह प्रतीत होता है कि द्वादश राशि गर्भ में समस्त संसार है और इस द्वादशराश्यात्मक संसार सागर से पार होने के लिये ही ये द्वादश पन्थ (मार्ग) इस सम्प्रदायिक आचार्यों ने निर्धा‍रित कियें है अथवा द्वादशमासिक वर्षात्मक काल सिमाओं के पार के (परमेश्वयर तत्व के) दर्शाने वाले द्वादश पंथ-मार्ग हैं अथवा द्वादश प्रचण्डमार्तण्डात्मक मूल ज्योर्तिमय सच्चिदानन्द स्वरूप परम सदाशिव हैं उसकी प्राप्ति के ये द्वादश पंथ हैं एवं द्वादश ज्योतिर्लिंग संख्या से सम्बन्ध होने से भी द्वादश पंथ (पथ) संख्या को मंगलवार सूचक कह सकते है। रूपान्तर से-नाथ सम्प्रदाय कल्पवृक्ष रूप मूल है, आदिनाथ श्री गोरक्ष उसके अमृतमय फल है उनके भोक्ता सिद्धयोग तहासिद्धयोगी है।


   
 
बारह पंथों का सार्थक्य—


 
१. सत्यनाथ पंथ
यह ब्रह्माण्ड जनक हैं। अत: उसकी सादर उपासना आवश्यहक है एवं उसका द्योतक सत्यनाथ पंथ भी भवितव्य है स्वयं पर कृपा के लिये।

   
 
२. आई पंथ
यह नाम उस सर्वाध्यक्ष परमेश्वुर की शक्ति का है जो सब वस्तु पदार्थों को अदृश्य् हुई सुनियमन कर रही है जिस बिना कोई भी कुछ करने को समर्थ नही है। यथा-
शक्तिरस्त्त्यैश्वकरी काचित्सर्ववस्तुनियामिका।
आनन्दमयमारम्य गुढा सर्वेषु वस्तुषु।।

जिसके बिना कोई भी क्रिया सम्भव नही हो सकती, वही ‘आई’ शक्ति परमेश्व र शक्ति की बोधिका है जो सदाशिव से अभिन्न है चन्द्रचन्द्रिकयोरेव एवं उसकी उपासना हृदयोत्कट भावना से होना आवश्यिक है उसकी दत्तशक्ति से सब साध्य सिद्ध हाते है।

   
 
३. धर्मनाथ पंथ
यह सूचित करता है कि आखिर धर्म की ही जय होगी, यथा धर्मराज धर्म का पालन करता हुआ धर्म की रक्षा करता है वैसे ही सबका न्याय का आवरण करते हुए धर्म की रक्षा पालन करना आवश्यरक है। धर्मावरण से ही शिवयोग सिद्ध होता है। अत: इसकी याद के लिये धर्मपंथ आवश्यक है।

   
 
४. कपिल पंथ
कपिल सांख्य के प्रकृति विकृतियों के ज्ञान से पिण्ड ब्रह्मामण्डका ज्ञान सहज ‍होता है प्रकृति पुरूष के पार्थक्य का पुरूष बद्ध-अबद्ध का ज्ञान होकर शिवयोग मे सुकरता सुलभता अरती है अत: यह भी आवश्यकक है।

   
 
५. पावक (पाव) पंथ
यह प्रकाशित करता है कि पावक (अग्नि) वत् शक्ति प्राप्त कर देदीप्यमान हो त्रिविध पावनता से पूर्ण गुरू की आज्ञा में ‍हो कर उक्त योगानल शक्ति को उपलब्ध करे जिससे समस्त पापताप दग्ध होकर पावन होवे। अत: पावक पंथ भी आवश्यशक है।

   
 
६. मनोनाथी पंथ
यह प्रकाश करता है कि जिस किसी प्रकार से मन का शमन करने से एवं सत्त्व बुद्धि का मन पर स्वामित्व होने पर मनोविजयी को सर्वजयोपलब्ध होती है और उस शिवयोब से ही परमशिवत्व की प्राप्ति होती है अत: मनोनाथी पंथ (पथ) आवश्यशक भवितव्य है। उक्त पावक मन दोनों शाखा एक शाखा है अत: दोनो की संख्या में ५-५ का एक ही अंक है।

   
 
७. वैराग्य पंथ
यहृ सूचित करता है कि ‍बिना वैराग्य के ज्ञानाभाव होने से स्वात्मोपलब्धि सम्भव नहीं अत: वैराग्य पंथ जो वैराग्य होना परम आवश्यगक कल्याणार्थ समझाता है वह वैराग्य क्या है? वह है इस मृत्यु लोक के समस्त भोंगों से लेकर ब्रह्मलोक पर्यन्त अर्थात् ब्रह्मलोक के अशेष भोगों मे भी मनोवृत्ति का सघृणा सर्वदा निर्मूलन ही वैराग्य है। अत: वैराग्य का सूचक जो वैराग्य पंथ वह नितान्त सार्थक है।

   
 
८. पागल पंथ
यह सिखाता है ‍कि समस्त संसारियों से तथा सांसारिक विषय वासनाओं मे अनासक्त मनोभावो का होना व माया मोहान्धकार भंवर मे पडे सांसारिक पागलों का बोद्धा उद्धारक होने से पुण्यात्मक पंथ आवश्यवक है।

   
 
९. गंगानाथ पंथ
यह बोधित करता है कि भगीरथ वत् अनन्त तपोयोग से एवं अथकश्रम से लक्ष्य की प्राप्ति होती है अर्थात परम पावन लक्ष्य सिद्ध होता है।

   
 
१०. नटेश्वोरी पंथ
यह शिक्षण करता है कि यति और सत्य मे पूर्ण प्रयत्नवान होने से नटेश्वकर वत् हो जाता है अर्थात् शिव समान हो जाता है। यथा-बालकनाथ=लक्ष्मण ने गुरू कृपा से यत सत मे पूर्ण हो नटेश्वथर (नटराज शिव) का सिंहासन प्राप्त किया वैसे ही अन्य योगियों को यति और सत्य में सम्यक प्रतिष्ठित हो कर स्वलक्ष्य शिव को प्राप्त करना आवश्यकक है। नटेश्वयर शिव है उससे सम्बन्धित टिल्ला स्थान स्वरूप मट नटेश्वषरी (शिव की गद्दी=सिंहासन) का नाम है। यह सिंहासन सर्वप्रथम आदिनाथ शिव का तथा तद्रूप गोरक्षनाथ का है। आदिनाथोत्तर मत्स्येन्द्रादि महासिद्धेश्व‍रों का तथैव श्री गोरक्षनाथ दत्त बालकनाथ (लक्ष्मण) का है अतएव नटेश्वारी पंथ के उत्तर मे आचार्य बालकनाथ है। यहाँ से अनेको राजा-महाराजा महायोगेश्वणर गुरू गोरक्षनाथ जी से महाज्ञान योगरूपोपदेशामृत ग्रहण कर अजरामर काया सम्पन्न हुए ईश ब्रह्माण्ड में भ्रमण करते हुए सर्वोत्तमानन्द को प्राप्त हुए। यह नटेश्व री पंथ आदिनाथ से सम्बद्ध है बाद में लक्ष्मणनाथ के नाम से भी बोला जाने लगा। नटेश्वोर शिव का नाम होने में प्रमाण-
नृत्तावसाने नटराजराजो, ननाद ढक्कां नवपञ्चवारम्।
उद्धर्त्तुकाम: सनकादिसिद्धान्नैतद्विमर्शे शिवसूत्रजालम्।।

इसमे जो नटराज शिव को कहा है नटराज और नटेश्वणर समानार्थक है। इसमें ‘विमर्शे’ यह छान्दस प्रयोग है जिसका अर्थ ‘विचार कर स्फुटकर्ता हूँ’ है एवं यह नटेश्व’र पंथ भी आवश्यगक है।

   
 
११. सन्तोषनाथ तदुत्तर रामनाथी पन्थ
यह पंथ सन्तोषनाथ-विष्णु की तरह परम बलिष्ट सौम्य सौन्दर्य सम्पन्न शान्तदान्त स्वभाव वाला होना शिक्षित करता है और एकात्मभावुक होना करता है तथा राम की तरह सत्यप्रतिज्ञ वाला होने से अखिल असाध्य कार्यों को भी करने की शक्ति सम्पन्न ‍हो जाता है। ऐसा होने से उपदेष्टा होने के नाते यह पन्थ भी आवश्ययक है।

   
 
१२. रावण या रावल पन्थ
कहता है कि शिवकृपा और शिव योगसिद्ध होने से रावण वत्, अतुल्य तपयोग सिद्ध श्रद्धा विश्वा स से योगी पराक्रम युक्त ‍हो जाता है अत: बलार्थ यह पन्थ भी आवश्यतक है।

   
 
१३. ध्वज पन्थ
यह कहता है कि सर्वोपरि ध्वज की तरह लहराने के लिये हनुमान ही तरह यत सत्य (जत-सत) युक्त तथा भक्ति-श्रद्धा सम्पन्न होने पर योगी, वीर बंकनाथवत् बलिष्ट होता है। यह पन्थ सर्वप्रथम शंकर आदिनाथ की ध्वजा के नाम से तटुत्तर हनुमान (वीर बंकनाथ) नाम से प्रसिद्ध है। सर्वोपरि सूचक होने से यह भी पन्थ आवश्यनक है। इस प्रकार ये द्वादश पन्थ सार्थक है साधक अपनी अपनी सुगमता को देखता हुआ कोई एक पन्थ की काई दो पन्थ की, कोई तीन पन्थ की, कोई कितने पन्थों की साधना को साधता हुआ योगी स्वात्मात्मक स्वसंवेद्य लक्ष्य मे विलय हो जाता है इति संक्षेप।

   
 
॥ आदेश आदेश ॥

श्री नाथ सिद्ध यंत्र

श्री नाथ सिद्ध यंत्र का कार्य
श्री नाथ सिद्ध यन्त्र के प्रति पूर्ण विश्वा्स, श्रद्धा एवं भक्ति होना अनिवार्य है।
स्थान मे स्थापित यन्त्र का पूजन पंचोपचारे या शोडोषचारे पूजन करके यन्त्र सन्मुख अपने गुरू मन्त्र या ‘’ॐ शिव गोरक्ष योगी’’ इस बीज मन्त्र का या अपने इष्ट देवी-देवताओं का या इच्छित कार्यानुसार लिए हुए मन्त्र का कम से कम १०८ बार या इच्छानुसार ज्यादा समय करें। ऐसा नित्य तनयम करने से यन्त्र महाचेतन होकर शीघ्र फल देगा।
इस यन्त्र में सभी देवी-देवता एवं नाथ सिद्ध इधिष्ठित है। इसलिये यह यन्त्र किसी भी देवी देवता, सिद्ध महात्माओं के पूजन हवन या उत्सव मे स्थापना कर पूजन कर सकते है। उदाहरण-नाथ सिद्ध नवनाथ पाठ-पूजन, नवदुर्गा (दश महाविद्या) नवरात्री तथा गुरू गोरक्षनाथ पूजन (गोरक्ष जयन्ती) तथा अन्य समाधि पूजन, गणेश पूजन (उत्सव) होली, दशहरा, दीपावली (लक्ष्मी पूजन) सोमवती अमावस्या, पूर्णिमा, गुरू पूर्णिमा, श्रावण मास, चार्तुमासादि सब व्रत विधि में तथा भैरव (भैरवाष्टमी), काली, तन्त्र पूजन, सिद्धि विधि में, रामायण पाठ, श्रीमद् भगवत पाठ, गीता-ज्ञानेश्वीरी पाठ, शिव पुराण नाथ पुराणादि सभी पुराण पाठों में तथा किसी भी हवन विधि मे स्थापन करने से योग्य फल प्राप्त कर देगा।
इसमे अस्त्र, शस्त्र, क्षेत्रपाल, रक्षपाल, कोटवाल, दस महाविद्या, नाथ सिद्ध जोगन इत्यादि महाशक्तियों का अनुष्ठान होने से तन्त्र मन्त्र साधना एवं सिद्धयां,शक्ति साधना को पूर्ण सुरक्षा एवं शुभ फल तथा पुर्ण सुयश ‍होता है।
खास अनुष्ठान, तपस्या, सिद्ध प्राप्ति देवी देवता, सिद्ध महात्माओं के दर्शन अनुभूति इत्यादि के लिए भी यह यन्त्र सुयश देगा।
इस यन्त्र मे सर्व सिद्धयां एवं कुण्डलिनी चक्रों के अधिष्ठित देवी देवताओं का अनुष्ठान ‍होने से साधे यन्त्र स्थानप सन्मुख योग साधना, ‍हठ योग, चक्र जागृति, कुण्डलिनी योग, ध्यान धारना समाधि सिद्ध प्राप्ति जन-भजन इत्यादि कर्म साधना में शीघ्र लाभ एवं अनुभूति देता है तथा साधक ज्योति दर्शन ज्योति स्वरूप ब्रह्माण्ड भ्रमण इत्यादि का भी अनुभव आता है।
साधना मे या शूभ कार्यों मे, काम, क्रोध, मत्सर सताते होगे तो ९ मुठ्ठी भस्म से यन्त्र का अभिषेक करें और वह भस्मी सर्वांग लेपन करें या माथे पर बाहु वक्षस्थल, नाभि स्थान, हाथ-कलाई इत्यादि पर भस्म त्रिपुण्ड लगकर कर्म करें शुभ ‍कार्य सफल होगा आध्यात्मिक अनुभूति होगी तथा भूत प्रेतादि अनिष्ट विद्या सताती ‍हो तो यही भस्मी जल में प्राशन करें और उपरोक्त शुभ दिन उपयुक्त मन्त्र विधि ‍कर ७ मिस्री मिठाई सवा किलो कच्चा या पक्का रोट का भोग लगावें उद, गुग्गल धूप दीप से पूजन एवं गुरू मन्त्र से जप करें बाहरी बाधा अनिष्ट संकट टल जायेगा। विशेषत: यन्त्र के मन्त्रों से हवन करें तो शीघ्र प्रभाव पड़ेगा।
यह यन्त्र मठ मन्दिर आश्रमों दुर्गा-दरबार में तथा घर के पूजा स्थान में, दुकान, गाड़ी-वाहनों में, चलते-फिरते व्यवसाय में शुद्ध स्थान, शुद्ध स्वरूप में रखे अवश्यब लाभ होगा।
कोर्ट-कचहरी कार्य, किसी से महत्वपूर्ण कार्य बातचीत, चर्चा हो, सम्मेलन, स्पर्धा, सत्संग, लेन-देन व्यवहार तथा सम्बन्धी संवाद तथा स्कूल-कोलेज के विद्या अभ्यास में यह यंत्र अपने जेब में या बैग में रख सकते है। अवश्य कार्य फल-लाभ देगा।
अगर कोई जटिल समस्या या प्रश्न हो जिसका कोई हल नही है रात्री सोने से पूर्व इस यन्त्र को वह समस्या का (हल) जवाब पूछ कर एवं प्रार्थना कर अपने सिरहाने मे रख कर सोये रात्री मे स्वप्न या दृष्टांत में वह जरूर जवाब देगा। इसमें कम से कम ७ या ९ दिन रात्री का अवकाश होगा।
अगर कोई बिमार ‍हो तो इस यन्त्र के अभिषेक का जल या पंचामृत उन्हें पीने को दो बीमारी ७ से ९ दिनों मे ठीक ‍हो जायेगी।
घर मे कलह अशान्ति हो तो यन्त्र मन्त्रों से (विशेषत: शनिवार को) अभिषेक कर शान्ति हवन करें तो शान्ति अवश्य होगी।
समृद्धि के ‍लिए घी या पायस (खीर) से अभिषेक, हवन करके सबको प्रसाद रूप मे खाने मे दो समृद्धि आयेगी।
शुभ मंगल कार्यो मे अत्तर या गुला‍ब जल का उपयोग करें।
यन्त्र ‍हमेशा सुरक्षित एवं पवित्र स्थान पर रखें।
मांस-मछली मीट, शराब पूर्ण निषेध है तथा यन्त्र उपलक्ष मे कोई भी अनुचित कार्य या अनुचित संकल्प ना करें।कूटनीति, कपट, संशय नहीं करें अन्यथा यन्त्र अनुचित कार्य करेगा।

 
 
॥ आदेश आदेश ॥

Monday 16 June 2014

तान्त्रोक्त गोरखक्षनाथ प्रत्यक्षीकरण मंत्र-

 । । ॐ ह्रीं श्रीं गों हुं फट स्वाहा । ।        

नव-नाथ-चरित

।।दोहा।।
'आदि-नाथ' आकाश-सम, सूक्ष्म रुप ॐकार ।
तीन लोक में हो रहा, आपनि जय-जय-कार ।।१

।।चौपाई।
जय-जय-जय कैलाश-निवासी, यो-भूमि उतर-खण्ड-वासी ।
शीश जटा सु-भुजंग विराजै, कानन कुण्डल सुन्दर साजे ।।२
डिमक-डिमक-डिम डमरु बाजे, ताल मृदंग मधुर ध्वनि गाजे ।
ताण्डव नृत्य किया शिव जब ही, चौदह सूत्र प्रकट भे तब ही ।।३
शब्द-शास्त्र का किया प्रकाशा, योग-युक्ति राखे निज पासा ।
भेद तुम्हारा सबसे न्यारा, जाने कोई जानन-हारा ।।४
योगी-जन तुमको अति प्यारे, जरा-मरण के कष्ट निवारे ।
योग प्रकट करने के कारण, 'गोरक्ष' स्वरुप किया धारण ।।५
ब्रह्म-विष्णु को योग बताया, नारद ने निज शीश नवाया ।
कहाँ तलक कर वरनूँ गाथा, आदि-अनादि हो आदि-नाथा ।।६

।।दोहा।।
'उदय-नाथ' तुम पार्वती, प्राण-नाथ भी आप ।
धरती-रुप सु-जानिए, मिटे त्रिविध भव-ताप ।।७

।।चौपाई।।
जय-जय-जय 'उदय'-मातृ भवानि, करो कृपा निज बालक जानी ।
पृथ्वी-रुप क्षमा तुम करती, दुर्गा-रुप असुर-भय हरती ।।८
आदि-शक्ति का रुप तुम्हारा, जानत जीव चराचर सारा ।
अन्नपूर्णा बन के जग पाला, धन्यो रुप सुन्दरी बाला ।।९
ब्रह्मा-विष्णु भी शीश नमाएँ, नारद-शारद मिल गुण गाएँ ।
योग-युक्ति में तुम सहकारी, तुझे सदा पूजें नर-नारी ।।१०
योगी-जन पर कृपा तुम्हारी, भक्त-भीड़-भय-भञ्जन-हारी ।
मैं बालक तुम मातृ हमारी, भव-सागर से तुरतहिं तारी ।।११
कृपा करो मो पर महरानी, तुम सम न कोइ दूसर दानी ।
पाठ करै जो ये चित लाई, 'उदय-नाथ' जी होंइ सहाई ।।१२

।।दोहा।।
'सत्य-नाथ' हैं सृष्टि-पति, जिनका है जल-रुप ।
नमन करत हैं आपको, स-चराचर के भूप ।।१३

।।चौपाई।।
जय-जय-जय 'सत्य-नाथ' कृपाला, दया करो हे दीन-दयाला ।
करके कृपा यह सृष्टि रचाई, भाँति-भाँति की वस्तु बनाई ।।१४
चार वेद का किया उचारा, ऋषि-मुनि मिल के किया विचारा ।
सनत् सनन्दन-सनत्कुमारा, नारद-शारद गुण-भण्डारा ।।१५
जग हित सबको प्रकटित कीन्हा, उत्तम ज्ञान योगी-पद दीन्हा ।
पाताले भुवनेश्वर सुन्दर, सत्य-धाम-पथ धाम मनोहर ।।१६
कुरु-क्षेत्रे पृथूदक सुन्दर, 'सत्य-नाथ' योगी कहलाए ।
आपन महिमा अगम अपारा, जानत है त्रिभुवन सारा ।।१७'
आशा-तृष्णा निकट न आए, माया-ममता दूर नसाए ।
'सत्य-नाथ' का जो गुण गाएँ, निश्चय उनका दर्शन पाएँ ।।१८

।।दोहा।।
विष्णु तो 'सन्तोष-नाथ', खाँड़ा खड्ग-स्वरुप ।
राज-सम दिव्य तेज है, तीन लोक का भूप ।।१९

।।चौपाई।।
जय-जय-जय श्री स्वर्ग-निवासी, करो कृपा मिटे काम फाँसी ।
सुन्दर रुपे विष्णु-तन धारे, स-चराचर के पालन हारे ।।२०
सब देवन में नाम तुम्हारा, जग-कल्याण-हित लेत अवतारा ।
जग-पालन का काम तुम्हारा, भीड़ पड़े सब देव उबारा ।।२१
योग-युक्ति 'गोरक्ष' से लीन्ही, शिव प्रसन्न हो दीक्षा दीन्ही ।
शंख-चक्र-गदा-पद्म-धारी, कान में कुण्डल शुभ-कारी ।।२२
शेषनाग की सेज बिछाई, निज भक्तन के होत सहाई ।
ऋषि-मुनि-जन के काज सँचारे, अधम दुष्ट पापी भी तारे ।।२३
देवासुर-संग्राम छिड़ाए, मार असुर-दल मार भगाए ।
'सन्तोष-नाथ' की कृपा पाएँ, जो चित लाय पाठ यह गाएँ ।।२४

।।दोहा।।
शेष रुप है आपका, अचल 'अचम्भेनाथ' ।
आदि-नाथ के आप प्रिय, सदा रहें उन साथ ।।२५

।।चौपाई।।
जय-जय-जय योगी अचलेश्वर, सकल सृष्टि धारे शिव ऊपर ।
अकथ अथाह आपकी शक्ति, जानो पावन योग की युक्ति ।।२६
शब्द-शास्त्र के आप नियन्ता, शेषनाग तुम हो भगवन्ता ।
बाल यती है रुप तुम्हारा, निद्रा जीत क्षुधा को मारा ।।२७
नाम तुम्हारा बाल गुन्हाई, टिल्ला शिवपुरी धाम सुहाई ।
सागर मथन की हुइ तैयारी, देव दैत्यकी सेना भारी ।।२८
पर-दुख-भञ्जन पर-हित काजा, नेति आप भये सिद्ध राजा ।
सागर मथा अमृत प्रकटाया, सब देवन को अमर बनाया ।।२९
यतियों में भी नाम तुम्हारा, योगियों में सिद्ध-पद धारा ।
नित ही बाल-स्वरुप सुहाए, अचल अचम्भेनाथ कहाए ।।३०

।।दोहा।।
'गज-बलि' गज के रुप हैं, गण-पति 'कन्थभ-नाथ' ।
वों में हैं अग्र-तम, सब ही जोड़ें हाथ ।।३१

।।चौपाई।।
जय-जय-जय श्रीकन्थभ देवा, हो कृपा मैं करूँ नित सेवा ।
मोदक हैं अति तुमको प्यारे, मूषक-वाहन परम सुखारे ।।३२
पहले पूजा करे तुम्हारी, काज होंय शुभ मंगल-कारी ।
कीन्हि परीक्षा जब त्रिपुरारी, देखि चतुरता भये सुखारी ।।३३
ऋद्धि-सिद्धि चरणों की दासी, आप सदा रहते वन-वासी ।
जग हित योगी-भेष बनाये, कन्थभ नाथ सु-नाम धराये ।।३४
कन्थ कोट में आसन कीन्हा, चमत्कार राजा को दीन्हा ।
सात बार तो कोट गिराए, बड़े-बड़े भूपनहिं नमाये ।।३५
वसुनाथ पर कृपा तुम्हारी, करी तपस्या कूप में भारी ।
भैक कापड़ी शिष्य तुम्हारे, करो कृपा हर विघ्न हमारे ।।३६

।।दोहा।।
ज्ञान-पारखी सिद्ध हैं, चन्द्र चौरंगि नाथ ।
जिनका वन-पति रुप है, उन्हें नमाऊँ माथ ।।३७

।।चौपाई।।
जय-जय-जय श्री सिद्ध चौरंगी, योगिन के तुम नित हो संगी ।
शीतल रुप चन्द्र अवतारा, सदा बरसो अमृत की धारा ।।३८
वनस्पति में अंश तुम्हारे, औषधि के सुख भये सुखारे ।
शालिवान है वंश तुम्हारा, बालपने योगी तन धारा ।।३९
अति सुन्दर तव सुन्दरताई, सुन्दरि रानी देख सुभाई ।
गुरु-शरण में रानी आई, हाथ जोड़ यह विनय सुनाई ।।४०
शिष्य आपका मुझे चाहिए, नहीं तो प्राण तन में बहिए ।
सुनकर गुरु जी करुणा कीन्हीं, जब तुझे यही आज्ञा दीन्हीं ।।४१
रानी संग चले मति पाई, जाय महल में ध्यान लगाई ।
रानी ने तब शीश नमाया, हुए अदृश्य भेद नहीं पाया ।।४२

।।दोहा।।
माया-रुपी आप हैं, दादा मछन्द्रनाथ ।
रखूँ चरण में आपके, करो कृपा मम नाथ ।।४३

।।चौपाई।।
जय-जय-जय अलख दया-सागर, मत्स्य में प्रकट जय करुणाकर ।
अमर कथा श्री शिवहिं सुनाई, गौरी के जो मन को भाई ।।४४
सूक्ष्म वेद जो शिवहि सुनाया, गर्भ में आपने वह पाया ।
जाकर अपना शीश नवाया, उमा महेश सु-वचन सुनाया ।।४५
जीव जगत का कर कल्याणा, ले आशीष चले भगवाना ।
सिंहल द्वीप सु-राज चलाया, सारे जग में यश फैलाया ।।४६
कदली-वन में किया निवासा, योग-मार्ग का किया प्रकाशा ।
माया-रुपहि आप सुहाएँ, जग को अन-धन-वस्त्र पुराएँ ।।४७
दादा पद है आपन सुन्दर, करें कृपा निज भक्त जानकर ।
महिमा आपकी महा भारी, कहि न सके मति मन्द हमारी ।।४८

।।दोहा।।
शिव गोरक्ष शिव-रुप हैं, घट-घट जिनका वास ।
ज्योति-रुप में आपने, किया योग प्रकाश ।।४९

।।चौपाई।।
जय-जय-जय गोरक्ष गुरुज्ञानी, तोग-क्रिया के तुम हो स्वामी ।
बालरुप लघु जटा विराजै, भाल चन्द्रमा भस्म तन साजै ।।५०
शिवयोगी अवधूत निरञ्जन, सुर-नर-मुनि सब करते वन्दन ।
चारों युग के आपहि योगी, अजर अमर सुधा-रस भोगी ।।५१
योग-मार्ग का किया प्रचारा, जीव असंख्य अभय कर जारा ।
राजा कोटि निभाने आए, देकर योग सब शिष्य बनाए ।।५२
तुम शिव गोरख राज अविनाशी, गोरक्षक उत्तरापथ-वासी ।
विश्व-व्यापक योग तुम्हारा, 'नाथ-पन्थ' शिव-मार्ग उदारा ।।५३
शिव गोरक्ष के शरण जो आएँ, होय अभय अमर-पद पाएँ ।
जो गोरख का ध्यान लगाएँ, जरा-मरण नहिं उसे सताएँ ।।५४

।।दोहा।।
माला यह नव-नाथ की, कण्ठ करे जो कोइ ।
कृपा होय नव-नाथ की, आवागमन न होइ ।।५५
नव-नाथ-माला सु-रची, तुच्छ मती अनुसार ।
त्रुटि क्षमा करें योगि-जन, कर लेना स्वीकार ।।५६
नहिं विद्या में निपुण हूँ, नहिं है ज्ञान विशेष ।
योगी-जन गुरु-पूजा को, करता हूँ आदेश ।।५७

नव-नाथ-स्वरुप

'आदि-नाथ' सदा-शिव हैं, जिनका आकाश-रुप,
'उदय-नाथ' पार्वती पृथ्वी-रुप जानिए ।
'सत्य-नाथ' ब्रह्मा जी जल-रुप मानिए ,
विष्णु 'सन्तोष-नाथ' तिनका है तेज-रुप ।
अचल हैं 'अचम्भे-नाथ' जिनका है शेष-रुप,
गज-बली 'कन्थभ-नाथ' हस्ति-रुप जानिए ।
ज्ञान-पारखी जो सिद्ध हैं वह 'चौरंगीनाथ' ,
अठार भार वनस्पति चन्द्र-रुप जानिए ।
दादा-गुरु 'श्रीमत्स्येन्द्र-नाथ' जिनका है माया-रुप ,
गुरु 'श्रीगोरक्ष-नाथ' ज्योति-रुप जानिए ।
बाल हैं त्रिलोक, 'नव-नाथ' को नमन करुँ,
नाथ जी ये बाल को अपना ही जानिए ।।

नव-नाथ-माला

'आदि-नाथ' महेश आकाश-रुप छाय रहे ।
'उदय-नाथ' पार्वती पृथ्वी-रुप भाए हैं ।
'सत्य-नाथ' ब्रह्मा जी जिनका है जल-रुप ।
वही तो कृपा कर सृष्टि को रचाए हैं ।
विष्णु 'सन्तोष-नाथ' तेज खाँडा खड्ग-स्वरुप ।
राज्पाट-अधिकारी वही तो कहाए हैं ।
अचल 'अचम्भेनाथ' जिनका है शेष-रुप ।
पृथ्वी का भार सब शीश पर उठाए हैं ।
गज-बली 'कन्थभ-नाथ' सिद्धि देता हार ।
हस्ति-रुपी घाड़ गण-पति कहलाए हैं ।
ज्ञान-पारखी चन्द्रमा-सिद्ध हैं 'चौरंगी-नाथ' ।
अठार भार वनस्पति में वही समाए हैं ।
माया-पति दादा-गुरु कृपालु 'मत्स्येन्द्र-नाथ' ।
सब ही को अन्न-धन-कपड़ा पुराए हैं ।
गुरु तो 'गोरक्ष-नाथ' स्वयं ज्योति-स्वरुप जो ।
विश्व भर योग-शक्ति उदार फैलाए हैं ।
बड़े हैं जो भाग्य-वन्त जिन योग प्राप्त किया ।
नव-नाथ 'नव-नाथ' गुरु-गण गाए हैं ।
नाथ ये त्रिलोक 'नव-नाथ' को नमन कर ।
नव-नाथ-नाम शुभ मेरे मन भाए हैं ।

।।दोहा।।
श्री 'नव-नाथ' को चुनऊँ, दीजिए शुभ आशीष ।
आप ही मम सर्वस्व हैं, आपहि हैं मम ईश ।।
करें कृपा मुझ दीन पर, करूँ सुयश गुण-गान ।
'नव-नाथ-माला' शुभ गुनूँ, कीजिए बुद्धि प्रदान ।।
जिसके पठन-श्रवण से, मिटे त्रिविध भव-ताप ।
अचल मोक्ष-पद-पावहीं, जपिहैं जो चित लाय ।।

.. श्री नवनाथ मंगलाष्टक ..

आदिनाथ गुरुदेव नाथपंथी चालका।

वंदितो मी भक्तिभाव नित्यानाथा तव पादुका.

विश्व कर्ता उमाकांत नाथ शक्ति तुझी सकल

भक्त तुझा रक्षा नाथ कुर्यात सदा मंगलम . शिवमंगलम, गुरुमंगलम॥

 दीननाथा दत्तात्रेय नाथपंथी गुरुदेव

मंत्रसिद्धा, तंत्र सिद्ध योगीनाथ तुझी सेवा

अलख निरंजन वदता नाथ आदेश हा द्यावा

भक्त तुझा रक्षा नाथ कुर्यात सदा मंगलम . शिवमंगलम, गुरुमंगलम॥

 मत्स्येन्द्र नाथ माया देवा नाथपंथी योगिराज

कॉल ज्ञानी सिद्ध नाथ तापोधानी महाराजा

योग माया तुझी सेवा मंत्र सिद्ध ज्ञान राजा

भक्त तुझा रक्षा नाथ कुर्यात सदा मंगलम . शिवमंगलम, गुरुमंगलम॥

 गोरक्षनाथा योगी राजा नाथपंथी सुधारक

ज्ञान सिद्धि तापोधानी ध्यान समनी अवधूत चिन्तिका

साधकांचा गुरु होई योगी ठेवा साधका

भक्त तुझा रक्षा नाथ कुर्यात सदा मंगलम . शिवमंगलम, गुरुमंगलम॥

जालिंदर नाथ सत्यानाथा नाथपंथी तपोधनी

कापालिका ब्रह्म रूपा नित्य प्रिया योग समाधी

गुरुकृपा तुझी सेवा मोक्ष सधे तव साधनी

भक्त तुझा रक्षा नाथ कुर्यात सदा मंगलम . शिवमंगलम, गुरुमंगलम॥

 कानिफा प्रबुद्ध नारायणा नाथपंथी कापालिका

ब्रह्मचर्य तुझा ठेवा सिद्ध नाथ कान्हुपा

ग्रन्थ करता योगिराज मंत्रसिद्धा गुरु सेवक

भक्त तुझा रक्षा नाथ कुर्यात सदा मंगलम . शिवमंगलम, गुरुमंगलम॥

 गहिनिनाथा अचल्नाथा नाथपंथी सिद्धानाथा

तपयोगी मंत्रदेशी ज्ञान तुझे ज्ञान नाथ

भक्त सरे पन्ध्रिला योगी तू पंढरी नाथा

भक्त तुझा रक्षा नाथ कुर्यात सदा मंगलम . शिवमंगलम, गुरुमंगलम॥

 रेवन नाथ दंड नाथा नाथपंथी दैवी माया

चर्पटी कुर्मनाथा रामपंथी योगमाया

नागनाथा नटेश-वरा योगसिद्धि गुरु छाया

भक्त तुझा रक्षा नाथ कुर्यात सदा मंगलम . शिवमंगलम, गुरुमंगलम॥

 भरतरी नाथ सत्यानाथा नाथपंथी हा बैरागी

नितिधर्मा राजयोग सिद्धामंत्र मंत्रयोगी

नाथपंथी सर्वव्यापी कलियुगी सिद्धयोगी

भक्त तुझा रक्षा नाथ कुर्यात सदा मंगलम . शिवमंगलम, गुरुमंगलम॥

गुरु मच्छिन्द्रनाथ चालीसा...

दोहा

गणपति गिरिजा पुत्र को सुमरूं बारम्बार
हाथ जोड़ विनती करूं शारदा नाम आधार

सत्य श्री आकाम ॐ नमः आदेश
माता पिता कुलगुरु देवता सत्संग को आदेश
आकाश चन्द्र सूरज पावन पानी को आदेश
नव नाथ चौरासी सिद्ध अनंत कोटि सिद्दों को आदेश
सकल लोक के सर्व संतों को सत् सत् आदेश
सतगुरु मच्छिन्द्र-नाथ को हर्दय पुष्प अर्पित कर आदेश

|| ॐ नमः शिवाये ||

चौपाई
जय-जय गुरु मच्छिन्द्रनाथ अविनाशी कृपा करो गुरुदेव प्रकाशी
जय-जय गुरु मच्छिन्द्रनाथ गुण ज्ञानी इच्छा रूप योगी वरदानी
अलख निरंजन तुम्हारो नामा सदा करो भक्तन हित कामा
नाम तुम्हारा जो कोई गावे जन्म-जन्म के दुःख मिट जावे
जो कोई गुरु मच्छिन्द्र नाम सुनावे भूत पिशाच निकट नहीं आवे

ज्ञान तुम्हारा योग से पावे रूप तुम्हारा वर्णत न जावे
निराकार तुम हो निर्वाणी महिमा तुम्हारी वेद् ना जानी
घट-घट के तुम अन्तर्यामी सिद्ध चौरासी करे प्रणामी
भस्म अंग गल नाद विराजे जटा सीस अति सुन्दर साजे
तुम बिन देव और नहीं दूजा देव मुनि जन करते पूजा

चिदानंद संतन हितकारी मंगल करण अमंगल हारी
पूर्ण ब्रह्मा सकल घटवासी गुरु मच्छिन्द्र सकल प्रकाशी
गुरु मच्छिन्द्र-गुरु मच्छिन्द्र जो कोई ध्यावे ब्रह्मा रूप के दर्शन पावे
शंकर रूप धर डमरू बाजे कानन कुण्डल सुंदर साजे
नित्यानंद है नाम तुम्हारा असुर मार भक्तन रखवारा

अति विशाल है रूप तुम्हारा सुर नर मुनि जन पावे न पारा
दीन बन्धु दीन हितकारी हरो पाप हम शरण तुम्हारी
योग मुक्ति में हो प्रकाशा सदा करो सन्तन तन वासा
प्रातः काल ले नाम तुम्हारा सिद्धी बड़े अरु योग प्रचारा
हठ-हठ-हठ गुरु मच्छिन्द्र हठीले मार-मार बैरी के कीले

चल-चल-चल गुरु मच्छिन्द्र विकराला दुश्मन मार करो बेहाला
जय-जय-जय गुरु मच्छिन्द्र अविनाशी अपने जन की हरो चौरासी
अचल अगम है गुरु मच्छिन्द्र योगी सिद्धी देवो हरो रसभोगी
काटो मार्ग यम् को तुम आई तुम बिन मेरा कौन साहाई
अजर अमर है तुम्हारी देहा सनका दिक् सब जो रही नेहा

कोटिन रवि सम तेज तुम्हारा हे प्रसिद्ध जगत उजिआरा
योगी लिखे तुम्हारी माया पार ब्रह्मा से ध्यान लगाया
ध्यान तुम्हारा जो कोई लावे अष्ट सिद्धी नव निधि धर पावे
शिव मच्छिन्द्र है नाम तुम्हारा पापी ईष्ट अधम को तारा
अगम अगोचर निर्भय नाथा सदा रहो सन्तन के साथा

शंकर रूप अवतार तुम्हारा गौरव गोपीचंद्र भर्तहरी को तारा
सुन लीजो प्रभु अरज हमारी कृपा सिन्धु योगी चमत्कारी
पूर्ण आस दास की कीजे सेवक जान ज्ञान को दीजे
पतित पावन अधम अधारा तिनके हेतु तुम लेत अवतारा
अलख निरंजन नाम तुम्हारा अगम पथ जिन योग प्रचारा

जय-जय-जय गुरु मच्छिन्द्र भगवाना सदा करो भक्तन कल्याना
जय-जय-जय गुरु मच्छिन्द्र अविनाशी सेवा करे सिद्धी चौरासी
जो ये पढ़हि गुरु मच्छिन्द्र चालीसा होए सिद्ध साक्षी जगदीशा
हाथ जोड़कर ध्यान लगावे और श्रद्धा से भेंट चडावे
बारहा पाठ पड़े नित जोई मनोकामना पूर्ण होई

दोहा

सुने सुनावे प्रेम वश पूजे अपने हाथ, मन इच्छा सब कामना पुरे गुरु मच्छिन्द्रनाथ
अगम अगोचर नाथ तुम पारब्रह्मा अवतार, कानन कुण्डल सिर जटा अंग विभूति अपार
सिद्ध पुरुष योगेश्वरी दो मुझको उपदेश, हर समय सेवा करूँ सुबह शाम आदेश

शिव आदेश

ॐ अलख निरंजन शिव को आदेश।
अविगत महापुरुष मूल पुरुष पुरुषोत्तम आद पुरुष शिव को आदेश। ज्योति-परमज्योति-अयोनि रूद्र शिव को आदेश। विशूनी विश्वमूर्ति पाताल ग्रहणी शिव को आदेश। मुखेवेद पुराण नासिका गंगा - जमना - सरस्वती शिव को आदेश। ललाटी चंद मस्तके त्रिकुटा देवता धारी शिव को आदेश। नक्षत्री माला  अठारह भार वनस्पती  हृदय के तैतीस करोड़ देवता धारी शिव को आदेश। सेली सिंगी मीन मेखला बाघाम्बरधारी  रोम - रोम सप्त सागरा शिव को आदेश। शिव के बायीं ओर निर्गुण ब्रहम् दाहिनी ओर शक्ति महामाया बीच में स्वयं पूर्ण अखण्ड ज्योति स्वरूप शिव को आदेश। विभूति धारी  बीज मंत्र  घोर मंत्र अघोर मंत्र  क्षीर मंत्र  गायत्री मंत्र  अभय जाप  तंत्र - मंत्र स्वरूप शिव को आदेश। नर - नारी  भूत - प्रेत  यक्ष किन्नर इन्द्रादि देवता ब्रह्माण्ड व्यापक शिव को आदेश। साधु - संत  योगी - ज्ञानी  तपस्वी  त्यागी  अवधूत हर भक्त के ईष्ट शिव को आदेश। जीवों का आराध्या शिव को आदेश। सूक्ष्म में सूक्ष्म विराटों में व्यापक महातत्त्व शिव को आदेश। सृष्टि उत्पत्ति संहार पालन पंच महातत्त्व शिव को आदेश। चार खानी  चार बानी चन्द सूर पवन पानी शिव को आदेश। चराचर सृष्टि का बिज शिव को आदेश। करोड़ों सूर्य प्रकाशनाथ योग आदर्श शिव को आदेश। परमात्मपूर्ण आनंद सर्व शक्तिमान चैतन्य रूप जितेन्द्र मोक्ष कैवल्य मुक्तिदाता भिन्न - अभिन्न शिव को आदेश। महाज्ञानी कृपा साक्षात्कार शिव को आदेश। सर्वनाथ सिद्धों का सतगुरु आदिनाथजि ॐकार शिव को आदेश। इतना शिव सबद निरूपा सम्पूर्ण भया। श्रीनाथजी गुरुजी को आदेश।
श्रीशंभुजती गुरु गोरखनाथ बाल स्वरूप बोलिए। इतना नौ नाथ स्वंरूप मंत्र सम्पूर्ण भया  अनन्त कोट सिद्धों में बैठकर गुरु गोरखनाथजि ने कहाया नाथजी गुरुजी आदेश।

नवनाथ-शाबर-मन्त्र

“ॐ नमो आदेश गुरु की। ॐकारे आदि-नाथ, उदय-नाथ पार्वती। सत्य-नाथ ब्रह्मा। सन्तोष-नाथ विष्णुः, अचल अचम्भे-नाथ। गज-बेली गज-कन्थडि-नाथ, ज्ञान-पारखी चौरङ्गी-नाथ। माया-रुपी मच्छेन्द्र-नाथ, जति-गुरु है गोरख-नाथ। घट-घट पिण्डे व्यापी, नाथ सदा रहें सहाई। नवनाथ चौरासी सिद्धों की दुहाई। ॐ नमो आदेश गुरु की।।”

विधिः- पूर्णमासी से जप प्रारम्भ करे। जप के पूर्व चावल की नौ ढेरियाँ बनाकर उन पर ९ सुपारियाँ मौली बाँधकर नवनाथों के प्रतीक-रुप में रखकर उनका षोडशोपचार-पूजन करे। तब गुरु, गणेश और इष्ट का स्मरण कर आह्वान करे। फिर मन्त्र-जप करे। प्रतिदिन नियत समय और निश्चित संख्या में जप करे। ब्रह्मचर्य से रहे, अन्य के हाथों का भोजन या अन्य खाद्य-वस्तुएँ ग्रहण न करे। स्वपाकी रहे। इस साधना से नवनाथों की कृपा से साधक धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष को प्राप्त करने में समर्थ हो जाता है। उनकी कृपा से ऐहिक और पारलौकिक-सभी कार्य सिद्ध होते हैं।
विशेषः-’शाबर-पद्धति’ से इस मन्त्र को यदि ‘उज्जैन’ की ‘भर्तृहरि-गुफा’ में बैठकर ९ हजार या ९ लाख की संख्या में जप लें, तो परम-सिद्धि मिलती है और नौ-नाथ प्रत्यक्ष दर्शन देकर अभीष्ट वरदान देते हैं।

नव-नाथ-स्मरण

“आदि-नाथ ओ स्वरुप, उदय-नाथ उमा-महि-रुप। जल-रुपी ब्रह्मा सत-नाथ, रवि-रुप विष्णु सन्तोष-नाथ। हस्ती-रुप गनेश भतीजै, ताकु कन्थड-नाथ कही जै। माया-रुपी मछिन्दर-नाथ, चन्द-रुप चौरङ्गी-नाथ। शेष-रुप अचम्भे-नाथ, वायु-रुपी गुरु गोरख-नाथ। घट-घट-व्यापक घट का राव, अमी महा-रस स्त्रवती खाव। ॐ नमो नव-नाथ-गण, चौरासी गोमेश। आदि-नाथ आदि-पुरुष, शिव गोरख आदेश। ॐ श्री नव-नाथाय नमः।।”

विधिः- उक्त स्मरण का पाठ प्रतिदिन करे। इससे पापों का क्षय होता है, मोक्ष की प्राप्ति होती है। सुख-सम्पत्ति-वैभव से साधक परिपूर्ण हो जाता है। २१ दिनों तक २१ पाठ करने से इसकी सिद्धि होती है।

नवनाथ-स्तुति

“आदि-नाथ कैलाश-निवासी, उदय-नाथ काटै जम-फाँसी। सत्य-नाथ सारनी सन्त भाखै, सन्तोष-नाथ सदा सन्तन की राखै। कन्थडी-नाथ सदा सुख-दाई, अञ्चति अचम्भे-नाथ सहाई। ज्ञान-पारखी सिद्ध चौरङ्गी, मत्स्येन्द्र-नाथ दादा बहुरङ्गी। गोरख-नाथ सकल घट-व्यापी, काटै कलि-मल, तारै भव-पीरा। नव-नाथों के नाम सुमिरिए, तनिक भस्मी ले मस्तक धरिए। रोग-शोक-दारिद नशावै, निर्मल देह परम सुख पावै। भूत-प्रेत-भय-भञ्जना, नव-नाथों का नाम। सेवक सुमरे चन्द्र-नाथ, पूर्ण होंय सब काम।।”

विधिः- प्रतिदिन नव-नाथों का पूजन कर उक्त स्तुति का २१ बार पाठ कर मस्तक पर भस्म लगाए। इससे नवनाथों की कृपा मिलती है। साथ ही सब प्रकार के भय-पीड़ा, रोग-दोष, भूत-प्रेत-बाधा दूर होकर मनोकामना, सुख-सम्पत्ति आदि अभीष्ट कार्य सिद्ध होते हैं। २१ दिनों तक, २१ बार पाठ करने से सिद्धि होती है।

योगी गुरू गोरक्षनाथ-अवतार कथा

नारदपुराण तथा स्कन्दपुराण से प्रमाणित है, किसी ब्राह्मण नेज्योर्तिवित के आदेश से गण्डान्तनक्षत्र में उत्पन्न निज पुत्र को ‍अनिष्ट जानकर उसका समुद्र मे परित्याग किया। वह बालक अतुल महिशाली परमेश्वयर की गतिविधि से किसी महा्मत्स्य का भोजन बना। वह ‍द्विजपुत्र दयामय की अघटित घटना का अचिन्त्य रचना-चातुरी चमत्कार से काल के पाश मे नवेष्टित हो जीवित ही रहा। एक बार श्री पार्वती अमरकथा विषयक प्रगाढ़ प्रर्थना के वशीभूत हो भूतनाथ भगवान महेश्वकर कैलाश शैल को त्याग कर पार्वती को अमरकथा सुनाने के लिए महा पर्वत लोकालोक पर पहुंचे। वह महाशैल मणियों से भूषित था अतएव उसकी शोभा अनूठी थी।  जिस प्रकार महावायु मेघमण्डल को दिगन्तरों मे अपने वेग से प्रस्थानित करता है, वैसे ही अमर कथा सुनाने को एकान्त स्थान चाहने वाले श्री मूलनाथ ने तीन ताल द्वारा सकल पशु पक्षी वर्ग को उस स्थान से हटाया। सर्वपूज्य भगवान श्री महादेवी को अमर कथा सुनाने को अवहित हो गए। परमकारूणिक भक्तवत्सल श्री आदिनाथ आशुतोष ने भवानी सपर्या से से संतुष्ट ‍हो मृत्यं को जीतने मे समर्थ उस अमर कथा का उपदेश किया। बहुत काल कथा सुनते बिता, श्री पार्वती योगनिद्रा मे अवस्थित ‍हो गई। इसी अवसर पर तेजोभार से प्रपीडित वही महामत्स्य जिसने अग्रजन्मा सुत को ग्रसित किया, उसी सागर तट पर आ पहुंची एवं कथा हुंकृति को प्रकट किया, आदिदेव कथा सुनाते ही रहे।  भगवान आदिनाथ ने ‍द्विजशिशु पर अनुग्रह किया, जिससे कोई कष्ट न पाकर सुख से निकलकर भगवान के निकट आ विराजा और चरणों मे प्रणाम किया। भगवान महेश्वअर पूछने लगे हे वत्स ! महामत्स्य के उदर में तुम्हारा निवास किस असाधारण कारण हुआ, सत्य कहो। बालक बोला है सर्वज्ञ ! हे सर्वशाक्तिमान !! हे दयामय !!! आप स्वयं जानते है मै क्या कहूं। इस प्रकार बालभाषित माधुर्य से निरतिशय संतुष्ट होकर आदिशक्ति जगदम्बा से भगवान मूल नाथ इस प्रकार बोले। हे शैलराजपुत्री ! यह बालक आपका पुत्र है, यह दिनमणि के सदृश्य संसार का प्रधान नेता होगा एवं सर्वदा प्रसन्नचित रहेगा, इसको पराजित करने वाला कोई नही होगा। भगवान आदिनाथ द्विजपुत्र को आशीर्वाद देकर बोले हे वत्स तुम मत्स्य के उदर सन्निधान से प्रगट हुए हो अत: तुम्हारा नाम संसार में मत्स्यनाथ या मत्स्येन्द्र नाथ होगा,क्यांके तुम मत्स्यावतार मत्स्यों के इन्द्र हो। अब जाओ समस्त लोको में भ्रमण करो। योग विद्या का विस्तार करो, यही हम दोनो का आदेश है। मत्स्येन्द्रनाथ बोले हे ! नटराज करूणामय !! यहद सर्वर आपका ही अनुपमानुग्रह है, मै कृतकृत्य हूं। महामप्रकाश मत्स्येन्द्रनाथ ने भगवान एवं भागवती से आदेश प्राप्त कर योग विद्या बु‍द्धि के लिए वहां से प्रयाण किया। कुछ काल तक योग विद्या के प्रचार करने के अनन्तर लोकनाथ महाप्रकाश सिद्धनाथ जी के मन मे भगवान आदिनाथ की तपश्च र्या करने का विचार प्रकट हुआ, भगवान के सात्विक ध्यान में स्थित हो गए एवं मनों रूपी कुसुमों से आदिनाथ परमेश्वकर की आराधना करने लगे। लोकनाथ मत्स्येन्द्रनाथ जी के चिरकाल पवित्र तप से भगवान अत्यन्त प्रसन्न हो गए एवं प्रकट होकर बोले हे नित्यनाथ ! मै तुम्हारे तप से निरतिशय प्रसन्न हूं, स्वेच्छानुकूल वर मांगो ! सिद्धनाथ बोले हे प्रभो यदि आप मेरे ऊपर प्रसन्न हैवर देना वाहते है तो मै इसी को उत्तम समझता हूं और याचना करता हूं कि आप मेरे सहायक होकर अवतार को धारण करें। मैं स्वयं आकैर तुम्हारी सहायता करूंगा, तब तक योग विद्या ‍विकास करो। ऐसा कहकर श्री महादेव कैलाश अद्रि को चले गये, करूणामय उस समय आर्य्यावलोकितेश्वऔर महाप्रकाश सिद्धनाथ के योग प्रचार से यहम योगविद्या, राजयोग, लययोग, हटयोग, मन्त्रयोग, ध्यान योग, विज्ञानयोग, प्रभृति विभिन्न नामों से प्रसिद्ध हुई। कुछ समय के चले जाने के पर अमिताभ करूणामय के वर का स्मरण भगवान मूलनाथ ने किया, उसी समय भगवान ने श्री महादेवी के पूर्वव्रत्त से प्रेरित होकर हृइय को उसी दिशा मे पतिणत किया। उमा का अन्तरस्थल अहंकार सागर में वीचि लेने लगा, अभिमान की मात्रा आच्छादित अचिन्त्य शक्ति के आवेश मे आकर श्री पार्वती भगवान महेश्वनर से बोली- हे आदिदेव आदिनाथ ! जहाँ-जहाँ आप हैं वहाँ-वहाँ मै आपसे पृथक् नही, मेरे बिना आपकी कोई सत्ता नही, मदविशिष्ट ही आप है।
हे महादेव आदिनाथ आप विष्णु है तो मै लक्ष्मी हूं, आप महेश्वार है तो मै महेश्वथरी हूं, आपशिव है तो मै शक्ति हूं, आप ब्रह्मा है तो मै सावित्री हूं, आप इन्द्र है तो मै इन्द्राणी हूं, आप अरूण है तो मै बरूणानी हूं, आप पुरूष है तो मै प्रकृति, आप ब्रह्म है तो मै माया,मेरे से पृथक आप नही है।  जगदम्बा ‍के वचनो का स्मरण कर मूलनाथ बोले हे महेश्व री ! जहाँ -जहाँ तुम हो वहाँो-वहाँ मै अवश्यृ हूं, यह कथन सत्य है, और जहाँ- जहाँ मै हूं वहाँ- वहाँ आप विराजमान है, यह कथन सत्य नही क्योंकि जहाँ-जहाँ घट है, वहाँ-वहाँ मृत्तिका अवश्यव है, किन्तु जहाँ मृत्तिका है वहाँ घट नही आकाश सर्व पदार्थौ मे व्यापक है, सर्व पदार्थ आकाश मे व्यापक नही महादेव जी ने विचार किया जगदम्बा के कथन का समाधान और महाप्रकाश को वर प्रदान इन दोनो का पालन समयापेक्षी अवश्यह है, बस क्या था? भगवान आदि नाथ मूलनाथ ने अपने आत्मबल समुदाय ‍को दो भागों मे विभाजित किया। एक समुदाय से पूर्व रूप मे ही अवस्थित रहे दूसरे समुदाय को गोरक्षना‍थ रूप मे परिणत किया। वे गोरक्षनाथ एकान्त निर्जन किसी विशेष पर्वत मध्य शुद्ध स्थान मे विराजमान होकरसमाधिस्थ हो गये। महेश्वकरानन्द भगवान गोरक्षनाथ के प्रबल तपोबल प्रताप से वह पर्वतराज अनुपम रूप से सुशोभित हुआ। कुछ ही समय के पश्चावत योग सम्प्रदाय प्रवर्तक श्री गोरक्षनाथ जिस पर्वत पर ज्ञान मय तप मे ‍विराजमान थे, वहाँ जगदम्बा को साथ लेकर भगवान आदिनाथ शिव ने गमन किया। मार्ग मे ही कुछ विश्राम कर भगवान श्री भवानी से बोले हे गौरि जो यह पर्वत समक्ष दिखता है, इसमे एक महान परमपुरूष योगीराज चिरकाल से समाधिस्थ है आप जा कर उनके दर्शन करें। आदिनाथ भगवान मूलनाथ की आज्ञा पाकर महादेवी ने वहाँ से प्रस्थान किया। भगवान गोरक्षनाथ को समाधि मे बैठे ऐसे देखा मानों बुत से सूर्य मिलकर ही प्रकाश कर रहे हैं। श्री शिव का रूप पूज्य जानकर हाथ मे पुष्प लेकर श्री देवी ने गोरक्षनाथ को हृदय से आदेश किया महादेवी ने विभिन्न विचारों के पश्चारत श्री महादेव जी के कथन का स्मरण किया, ऐसा न हो मेरे ‍ही कथन का उत्तर देने के लिए यह कोई अचिन्त्य सामग्री रचाई गई ‍हो? योगी की परीक्षा का यही समय है। सत्यासत्य का निश्चाय परीक्षा के बिना नही होता, माया के कार्यो को ही जीतना कठिन है, माया तो दूर रही उसे केसे जिता जा सकता है। मेरानाम माया है मै सबसे बडी शक्ति हूं, मैने ब्रह्मा आदि को भी बिना वश किये नही छोड़ा। उमा देवी महेश्वेरानन्द गोरक्षनाथ भगवान की परीक्षा लेने को तत्पर हो गई, चतुर्था अपनी योग माया से उत्तम जगन्मात्र पदार्थो को रच कर प्रत्यक्ष रूप मे उपस्थित कर दिखाया और कोई पदार्थ शेष नही रहा, अवस्थित भगवान गोरक्षनाथ के समक्ष महामाया के सहस्त्रों प्रयत्न इस प्रकार अस्त हो गये, जैसे मध्यान्हकालिक मार्त्तण्ड के समक्ष तारागण विजीन हो जाते हैं। भगवती ने महादेव के वचनों को सत्य समझा, यह मैरे लिये ही अद्भुत चमत्कार का आकार खड़ा किया है।ऐसे विचार करती हुई पार्वती देवी को गोरक्षनाथ बाले हे देवी ! जाओ भगवान आदिनाथ आपका स्मरण करते है। योगाचार्य के अनुपम उपदेशामृत को पीकर वहाँ से भवानी ने भगवान के पास प्रस्थान किया, पहुंचकर मूलनाथ आदिनाथ भगवान को आदेश किया और कहा हे ईश्वकर आपका कथित संकल्प यर्थात है। मेरे बिना भी आप विद्यमान है, अत: आपकी सत्ता ही प्रधान है, यह मैने अनुभव किया, शक्ति का लय शक्तिमान के ही अभ्यन्तर से होता है। हे ईश्वमर ! ऐसा यह कोन वस्थित योगीश्वहर है, जिसने मेरी शक्ति ‍को कुछ नही समझा। वह अपनी समाधि मे ही अचल रहात महादेव बोले हे महेश्व!री ! जिस योगी का तुमने दर्शन किया है उस यागीश्व र का नाम गोरक्षनाथ है। सर्व देव मनुष्यों का इष्ट देव है, माया से परे एवं काल का भी काल है समयापेक्षित अनेको रूप से प्रकृति चक्रका संचालक है। हे महादेवी मै ह गोरक्षनाथ हूं, मेरा स्वरूप ही गोरक्षनाथ है। हम दोनो मे किञ्चित भी अन्तर नहीं, प्रकश से भिन्न प्रकाश नहीं रहता। हे महादेवी ! संसार का कल्याण ‍हो वेद गौ पृथ्वी आदि की रक्षा हो इस हेतु से मेने गोरक्ष स्वरूप को धारण किया है।   जब जब योग मार्ग की रक्षा मे अवस्थित होता हूं यह गोरक्षनाथ नाम मेरे नामा में उत्कृष्ट है। भगवान मूलनाथ बाले हे महेश्वबरी ! जो पुरूष योग विद्या को सेवन करता है वही मृत्यु को जीतता है, और उपायों मे मृत्यु नही जीती जाती। अन्य उपायों से थोड़ी बहुत आयु कढ़ सकती है। योगबल महाबल है, योगी महाबली है, चाहे एक रहे अनेक होकर विचरे चाहे भूमि मे रहे चाहे आश्रम में भ्रमण करे चाहे सो युग तक रहे, चाहे सदा अमर रहे, स्थूल शरीर से रहे, सूक्ष्म शरीर से, चाहे श्रोता से सुने, चाहे बिना श्रोता से, चाहे राजिका होकर रहे, चाहे पर्वत होकर, वह योगी ब्रह्मा विष्णु के कार्यो को भी करने मे समथ् है। भवानी बोली हे प्रभों ! आपको कोटिश: नमस्कार आपकी माया अनन्त है। जगत् आपका उद्यान है,आप उसके माली है। इस प्रकार श्री महादेवी पार्वती से पूज्यमान महादेव जी कैलाश को पधारे। इधर कमलासन पर विराजमान श्री ब्रह्मा जी को योगी नारद बोले हे प्रभों ! पहले मेनेजर आपसे यह कथा सुनी है, हादेव जी ने सिद्घनाथ मत्स्येन्द्रनाथ जी को वर दिया था कि आप नाथवंश के तथा योग मार्ग के प्रर्वतक होवेंगे तो फिर संसार मे उन्होने किस प्रकार योग का प्रचार किया और फिर मत्स्येन्द्रनाथ जी ने किस महामहिमशाली शिष्य को इस योग का उपदेश किया, नाथ नाम पूर्वक योगियों का सम्प्रदाय केसे प्रवृद्घ हुआ। ब्रह्मा जी बाले हे नारद ! उसके पश्चाकत महेश्वनर मूलनाथावतार भगवान गोरक्षनाथ जहाँ महा प्रकाश मत्स्येन्द्रनाथ जी समुद्र तट पर तप कर रहे थे वहाँ को पधारे वहाँ गोरक्षनाथ जी ने जाकर मत्स्येन्द्रनाथ जी को समाधि द्वारा मनोयोग को प्रबोधित कर योगपद्धति को पूछा और विनीत भाव से स्तुति की एवं नाथपदयोग वंश को प्रवर्त्तकता ‍को प्राप्त किया इस भगवान आदिनाथ मत्स्येन्द्रनाथ परम्परागत योग से गोरक्षनाथ ने योग को शक्तिपात, करूणावलोकन, आपदेशिक इन ‍तीन शिक्षाओं के द्वारा अनेक राजा महाराजा ॠषि-मुनियों को कृतार्थ किया और उनको दिव्य देकर अमर पद का भागी बनाया।`

गोरखनाथ का प्रिय मंत्र 'जंजीरा'

ऊँ गुरुजी मैं सरभंगी सबका संगी, दूध-माँस का इकरंगी, अमर में एक तमर दरसे, तमर में एक झाँई, झाँई में पड़झाँई, दर से वहाँ दर से मेरा साईं, मूल चक्र सरभंग का आसन, कुण सरभंग से न्यारा है, वाहि मेरा श्याम विराजे ब्रह्म तंत्र ते न्यारा है, औघड़ का चेला, फिरू अकेला, कभी न शीश नवाऊँगा, पत्र पूर पत्रंतर पूरूँ, ना कोई भ्राँत ‍लाऊँगा, अजर अमर का गोला गेरूँ पर्वत पहाड़ उठाऊँगा, नाभी डंका करो सनेवा, राखो पूर्ण वरसता मेवा, जोगी जुण से है न्यारा, जुंग से कुदरत है न्यारी, सिद्धाँ की मूँछयाँ पकड़ो, गाड़ देवो धरणी माँही बावन भैरूँ, चौसठ जोगन, उल्टा चक्र चलावे वाणी, पेडू में अटकें नाड़ा, न कोई माँगे हजरता भाड़ा मैं ‍भटियारी आग लगा दूँ, चोरी-चकारी बीज बारी सात रांड दासी म्हाँरी बाना, धरी कर उपकारी कर उपकार चलावूँगा, सीवो, दावो, ताप तेजरो, तोडू तीजी ताली खड चक्र जड़धूँ ताला कदई न निकसे गोरखवाला, डा‍किणी, शाकिनी, भूलां, जांका, करस्यूं जूता, राजा, पकडूँ, डाकम करदूँ मुँह काला, नौ गज पाछा ढेलूँगा, कुँए पर चादर डालूँ, आसन घालूँ गहरा, मड़, मसाणा, धूणो धुकाऊँ नगर बुलाऊँ डेरा, ये सरभंग का देह, आप ही कर्ता, आप ही देह, सरभंग का जप संपूर्ण सही संत की गद्‍दी बैठ के गुरु गोरखनाथ जी कही। सिद्ध करने की विधि एवं प्रयोग : किसी भी एकांत स्थान पर धुनी जलाएँ। उसमें एक लोहे का चिमटा गाड़ दें। नित्य प्रति धुनी में एक रोटी पकाएँ और वह रोटी किसी काले कुत्ते को खिला दें। (रोटी कुत्ते को देने के ‍पहले चिमटे पर चढ़ाएँ।) प्रतिदिन आसन पर बैठकर 21 बार जंजीरा (मंत्र) का विधिपूर्वक पाठ करें। 21 दिन में सिद्ध हो जाएगा।

श्री गोरक्ष अंतर्ध्वनि

गोरख बोली सुनहु रे अवधू, पंचों पसर निवारी अपनी आत्मा एपी विचारो, सोवो पाँव पसरी “ऐसा जप जपो मन ली | सोऽहं सोऽहं अजपा गई असं द्रिधा करी धरो ध्यान | अहिनिसी सुमिरौ ब्रह्म गियान नासा आगरा निज ज्यों बाई | इडा पिंगला मध्य समाई || छः साईं सहंस इकिसु जप | अनहद उपजी अपि एपी || बैंक नाली में उगे सुर | रोम-रोम धुनी बजाई तुर || उल्टी कमल सहस्रदल बस | भ्रमर गुफा में ज्योति प्रकाश || गगन मंडल में औंधा कुवां, जहाँ अमृत का वसा | सगुरा होई सो भर-भर पिया, निगुरा जे प्यासा । । अलख निरंजन ॐ शिव गोरक्ष ॐ नमो सिद्ध नवं अनगुष्ठाभ्य नमः पर ब्रह्मा धुन धू कर शिर से ब्रह्म तनन तनन नमो नमः नवनाथ में नाथ हे आदिनाथ अवतार , जाती गुरु गोरक्षनाथ जो पूर्ण ब्रह्म करतार संकट मोचन नाथ का जो सुमारे चित विचार ,जाती गुरु गोरक्षनाथ ,मेरा करो विस्तार , संसार सर्व दुख क्षय कराय , सत्व गुण आत्मा गुण दाय काय ,मनो वंचित फल प्रदयकय ॐ नमो सिद्ध सिद्धेश श्वाराया ,ॐ सिद्ध शिव गोरक्ष नाथाय नमः । मृग स्थली स्थली पुण्यः भालं नेपाल मंडले यत्र गोरक्ष नाथेन मेघ माला सनी कृता श्री ॐ गो गोरक्ष नाथाय विधमाहे शुन्य पुत्राय धी माहि तन्नो गोरक्ष निरंजन प्रचोदयात ||

गोरक्षनाथ संकट मोचन स्तोत्र

बाल योगी भये रूप लिए तब, आदिनाथ लियो अवतारों।
ताहि समे सुख सिद्धन को भयो, नाती शिव गोरख नाम उचारो॥
भेष भगवन के करी विनती तब अनुपन शिला पे ज्ञान विचारो।
को नही जानत है जग मे जती गोरखनाथ है नाम तुम्हारो ॥

सत्य युग मे भये कामधेनु गौ तब जती गोरखनाथ को भयो प्रचारों।
आदिनाथ वरदान दियो तब , गौतम ऋषि से शब्द उचारो॥
त्रिम्बक क्षेत्र मे स्थान कियो तब गोरक्ष गुफा का नाम उचारो ।
को नही जानत है जग मे जती गोरखनाथ है नाम तुम्हारो ॥

सत्य वादी भये हरिश्चंद्र शिष्य तब, शुन्य शिखर से भयो जयकारों।
गोदावरी का क्षेत्र पे प्रभु ने , हर हर गंगा शब्द उचारो।
यदि शिव गोरक्ष जाप जपे , शिवयोगी भये परम सुखारो।
को नही जानत है जग मे जती गोरखनाथ है नाम तुम्हारो ॥

अदि शक्ति से संवाद भयो जब , माया मत्सेंद्र नाथ भयो अवतारों।
ताहि समय प्रभु नाथ मत्सेंद्र, सिंहल द्वीप को जाय सुधारो ।
राज्य योग मे ब्रह्म लगायो तब, नाद बंद को भयो प्रचारों।
को नही जानत है जग मे जती गोरखनाथ है नाम तुम्हारो ॥

आन ज्वाला जी किन तपस्या , तब ज्वाला देवी ने शब्द उचारो।
ले जती गोरक्षनाथ को नाम तब, गोरख डिब्बी को नाम पुकारो॥
शिष्य भय जब मोरध्वज राजा ,तब गोरक्षापुर मे जाय सिधारो।
को नही जानत है जग मे जती गोरखनाथ है नाम तुम्हारो ॥

ज्ञान दियो जब नव नाथों को , त्रेता युग को भयो प्रचारों।
योग लियो रामचंद्र जी ने जब, शिव शिव गोरक्ष नाम उचारो ॥
नाथ जी ने वरदान दिया तब, बद्रीनाथ जी नाम पुकारो।
को नही जानत है जग मे जती गोरखनाथ है नाम तुम्हारो ॥

गोरक्ष मढ़ी पे तपस्चर्या किन्ही तब, द्वापर युग को भयो प्रचारों।
कृष्ण जी को उपदेश दियो तब, ऋषि मुनि भये परम सुखारो॥
पाल भूपाल के पालनते शिव , मोल हिमाल भयो उजियारो।
को नही जानत है जग मे जती गोरखनाथ है नाम तुम्हारो ॥


ऋषि मुनि से संवाद भयो जब , युग कलियुग को भयो प्रचारों।
कार्य मे सही किया जब जब राजा भरतुहारी को दुःख निवारो,
ले योग शिष्य भय जब राजा, रानी पिंगला को संकट तारो।
को नही जानत है जग मे जती गोरखनाथ है नाम तुम्हारो ॥

मैनावती रानी ने स्तुति की जब कुवा पे जाके शब्द उचारो।
राजा गोपीचंद शिष्य भयो तब, नाथ जालंधर के संकट तारो। ।
नवनाथ चौरासी सिद्धो मे , भगत पूरण भयो परम सुखारो।
को नही जानत है जग मे जती गोरखनाथ है नाम तुम्हारो ॥

दोहा :- नव नाथो मे नाथ है , आदिनाथ अवतार ।
जती गुरु गोरक्षनाथ जो , पूर्ण ब्रह्म करतार॥
संकट -मोचन नाथ का , सुमरे चित्त विचार ।
जती गुरु गोरक्षनाथ जी मेरा करो निस्तार ॥

अल्लख निरंजन ॥ आदेश ॥
ॐ र्हीम र्हाम रक्ष रक्ष शिव गोरक्ष ॥

महायोगी गोरक्षनाथ

लेखनी इस व्यकितत्व की महानता के समक्ष नतमस्तक, गुणगान करने के विचार मात्र से गर्वित, और अपनी क्षमता की सीमाओं को जानकर भी प्रफुलिलत है। योग दर्षन और इतिहास मेंं महायोगी गोरक्षनाथ को सामान्यत: दर्षनी नाथपंथी सिद्ध योगियों की Üांृखला मेंं हठयोग के षारीरिक आत्मानुषासन और राजयोग का सूत्रधार कहा जाता है। वे योगी मत्स्येन्æनाथ के षिष्य थे और कदलीवन के स्त्री राज्य की रानी से अपने गुरु को मुä कराने के कारण उनकी प्रसिद्धि दिगिदगन्तर मेंं फैल गयी।
प्रसंगवष योगी मत्स्येन्æनाथ के विषय मेंं संक्षिप्त चर्चा करें तो हम पाते हैं कि, मत्स्येन्æनाथ धार्मिक आन्दोलन काल मेंं हिन्दुत्व, कौल संप्रदाय तथा हठयोग के तत्त्वों के यौगिक और भारत मेंं सर्वाधिक लोकप्रिय होने वाले नाथ सम्प्रदाय के पहले आध्यातिमक गुरू थे। बौद्धो द्वारा योगी मत्स्येन्द्रनाथ को किसी न किसी प्रकार अपने मत से संबंद्ध करने का प्रयास दिखायी देता है। हिन्दुओं की भांति योगी मत्स्येन्æनाथ का नाम बौद्ध नहीं होते हुए भी बौद्ध सम्प्रदाय के नवनाथ और चौरासी सिद्धों की सूची मेंं समान रूप से प्रकट होता है। नेपाल में बौद्धमत के अनुयायियों द्वारा उन्हें अवलोकितेष्वर-पùपाणि के नाम से और हिन्दू मतावलमिबयों द्वारा षिव रूप मेंं दिव्य विभूति की प्रासिथति से तो तिब्बत मेंं उन्हें लुर्इ-पा के नाम से पूजा जाता है।
एक आख्यायिका अनुसार उनका मीननाथ नाम इसलियेे पड़ा कि एक मछली के रूप मेंं उन्होंने षिव से आत्मज्ञान का उपदेष लिया था, जबकि एक अन्य आख्यायिका अनुसार एक मछली द्वारा उदरस्थ कर लियेे गये पवित्र ग्रन्थों को बचाने के कारण उन्हें मीननाथ कहा गया। मत्स्येन्द्रनाथ का ऐतिहासिक जीवन वृत्त उनके चारों ओर फैली हुयी अनेकों कहानियों मेंं खो गया है। मोहन-जो-दड़ो (शुद्ध रूप मोअन-मृतक, जो-का, दड़ो-टीला है) की खुदार्इ में कानों में कुण्ड़ल युä एक योगी की मूर्ति प्राप्त हुर्इ है। अनेक प्रमाणों के आधार पर राजमोहन, नाथ तत्त्वभूषण वी.र्इ. शिलांग ने ‘मत्स्येन्द्र तत्त्व नामक अपनी कृति में इस मूर्ति को योगी मत्स्येन्द्रनाथ की मूर्ति सिद्ध किया हैै। एक संन्यासी होते हुए उन्होंने सीलोन (कुछ ग्रन्थों मेंं सिंहल देष, सिंहपुर तथा कदली प्रदेष आदि नाम बताये गये हैंंं) की दो राजकुमारियों के प्रेम के वषीभूत होकर पाष्र्वनाथ और नेमिनाथ नामक दो पुत्र पैदा किये, जो बाद मेंं जैन सम्प्रदाय के आराध्य बने। मत्स्येन्द्रनाथ के प्रमुख षिष्य योगी गोरक्षनाथ को दर्षनी योगियों का प्रमुख प्रवर्तक माना जाता है।
योगी गोरक्षनाथ के जीवन वृत्त के बारे मेंं प्रमाणिक रूप से अधिक कुछ नहींं कहा जा सका है और जो कुछ उनके बारे मेंं अनगिनत कथाएं और किंवदनितयां सुनी व कही जाती है वे उन्हें आष्चर्यजनक षकितयाें का स्वामी सिद्ध करती हुर्इ उनके व्यäत्तिव के चारों और एक जादुर्इ प्रभामण्डल का निर्माण करती है। गोरक्षनाथ ने वामाचारी तांत्रिक साधना का परिष्कार करते हुए एक ऐसी साधना पद्धति को जन्म दिया जो प्रत्येक उस व्यä किे लियेे साधना का मार्ग खोल देती है, जो वास्तव मेंं आत्म कल्याण करना चाहता है। जाति व धर्म के बन्धनों से रहित सर्व समभाव या विष्वजनीन दृषिट को पनपाने वाली यह नाथ साधना पद्धति, गोरक्षनाथ के समय से नाथ सम्प्रदाय की संज्ञा के साथ नये रूप मेंं असितत्व मेंं आयी।
कतिपय विद्वानों का कथन है कि, बौद्ध मत का उच्छेद सर्वप्रथम कुमारिल और शंकराचार्य ने किया। नाथ सम्प्रदाय के सिद्ध योगियों के योगदान को उä विद्वानों ने उतना महत्त्व नहींं दिया। इस प्रसंग मेंं डा0 नागेन्द्रनाथ उपाध्याय का कथन है कि, यह स्वीकृति अधूरी है तथा इस मत का प्रतिपादन एकपक्षीय और प्रयोजन विषेष से प्रेरित है। उन्होंने कहा है कि, शंकराचार्य ने यधपि शास्त्र और तर्क की सहायता से बौद्धों को निरुत्तर कर दिया था, किन्तु भारतीय जन-मानस पर जमें बौद्धों को वे नहींं हटा सके थे। यह कार्य गोरक्षनाथ ने जिस प्रतिष्ठा के साथ किया वैसी प्रतिष्ठा के साथ उनके गुरु मत्स्येन्द्रनाथ भी नहींं कर सके थे। इसी तथ्य को आचार्य पं0 रामचन्द्र शुक्ल भी स्वीकार करते हैंंं।
विद्वानों, इतिहासकारों और विचारकों में उनके स्थान (जन्म अथवा अवतार) और काल के संबंध मेंं मतैक्य नहींं हैं। अधिकांष ने उन्हें या तो पंजाब के एक साधारण परिवार मेंं पैदा अथवा संबद्ध होना अथवा अधिकांष समय पंजाब मेंं हठयोग के प्रचार में व्यतीत करना और पंजाब से ही दूरदराज तक यात्राऐं करते हुए नानक, कबीर और दादू जैसे सन्तों से सम्पर्क कर योगमार्ग का प्रचार करना बताया है। उनके द्वारा रचित गोरक्षषतक कनफटा योगियों का एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। दर्षनी योगियों द्वारा उन्हें भगवान शंकर का अवतार माना जाता है, जो सूक्ष्मरूप से हिमालय मेंं निवास करते हैंंं और युग-युग मेंं प्रकट होकर योग की पुनस्र्थापना करते हैंंं।ऐसा प्रतीत होता है कि सभी प्रसिद्ध हसितयों में योगी गोरक्षनाथ से संबद्ध होनेकरने की प्रतिस्पर्धा लगी हुर्इ है। यदि योगी गोरक्षनाथ अन सभी के समसामयिक हैं तो ये सब भी परस्पर एक दूसरे के समसामयिक होने चाहिये और इनके मध्य परस्पर संवाद भी किन्तु, ऐसा नहीं है। इस संबंध में तथ्यपरक तर्क के प्रकाष में हम आगे विष्लेषण कर रहे हैं।
विद्वानों मेंं उनके काल के संबंध मेंं भी मतैक्य नहींं है। इतिहासकार और विचारकों ने नानक और कबीर से संवाद के आधार पर योगी गोरक्षनाथ का काल उनके समवर्ती और उनको पंजाब के एक साधारण परिवार से सम्बद्ध या अपने जीवन काल का काफी हिस्सा हठयोग का प्रचार करते हुए पंजाब मेंं व्यतीत करना माना है। योगी गोरक्षनाथयोगी मत्स्येन्द्रनाथ (सामान्यत: इन्हें योग परम्परा के प्रथम प्रवर्तक और मानव रूप में योगियों का प्रथम आध्यातिमक गुरू कहा जाता है) के षिष्य थे।योगी गोरक्षनाथयोगी मत्स्येन्द्रनाथ (सामान्यत: इन्हें योग परम्परा के प्रथम प्रवर्तक और मानव रूप में योगियों का प्रथम आध्यातिमक गुरू कहा जाता है) के षिष्य थे। उनके द्वारा रचित गोरक्षषतक दर्षनी योगियों का एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। एक बंगाली आख्यायिका के अनुसार जिन्होंने अपने गुरू योगी मत्स्येन्æनाथ को कदली प्रदेष की कामाख्या रानी के पाष से मुä दिलवायी थी। योगी गोरक्षनाथ की हिन्दी व संस्कृत की रचनाओं की संख्या पर भी विद्वान एकमत नहीं है। डा0 पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल ने गोरक्षनाथ की हिन्दी की चालीस पुस्तकों की सूची दी है। रांगेय राघव जी ने भी योगी गोरक्षनाथ रचित 41 हिन्दी रचनाओं की सूची दी है किन्तु इनमें से हठयोग संस्कृत की रचना है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, ने भिन्न-भिन्न ग्रन्थ सूचियों और आलोचनात्मक अध्ययनों से गोरक्षनाथ रचित 28 संस्कृत पुस्तकों का संक्षिप्त परिचय दिया है। इस प्रकार नाथ सम्प्रदाय से इतर विद्वानों के अध्ययन व संग्रह केा मान्यता दें तो 68 पुस्तकों की सूची प्राप्त होती है।
एक दृषिट नाथ सम्प्रदाय के मनीषियों द्वारा दी गयी सूची पर भी डालें तो नवलनाथ मठ बीकानेर से वि.सं. 2021 तदनुसार वर्ष 1965 में प्रकाशित श्री सिद्धनाथ संहिता विवेक-सागर में निम्नांकित पुस्तकों का रचयिता योगी गोरक्षनाथ को बताया गया है।
1. गोरक्षोपनिषद, 2. गोरक्षपदम, 3. गोरक्षशतकम, 4. गोरक्षबोध:, 5. गोरक्षतत्त्वज्ञानम, 6. गोरक्षकल्प:, 7. गोरक्षछन्द:, 8. गोरक्षशब्दी, 9.गोरक्षवाणी, 10. गोरक्षगोष्ठी, 11. गोरक्षपद्धति:, 12. गोरक्षवचनम, 13. गोरक्षकुण्डली, 14. गोरक्षपंचकम, 15. गोरक्षलक्ष्मणगोष्ठी, 16. गोरक्षगीता, 17. गोरक्षसंहिता, 18. गोरक्षसिद्धान्त:, 19. मत्स्येन्द्रगोरक्षगोष्ठी, 20. योग शतकम, 21. योग मार्तण्ड़, 22. शिवयोगसारावली, 23. शिवयोगसारसंग्रह:, 24.षडक्षरीविधा, 25. सप्तवारा:, 26. अमरौघशासनम, 27. अमरौघ प्रबोध:, 28. अमनस्क योग:, 29. अजपोपनिषद, 30. अभयमात्रा:तत्त्वसार:, 31. अष्टांगमुæाष्टकम, 32. अमृतवाक्यम, 33. अष्टांग योग:, 34.अöुतयोग:, 35. अष्टपरीक्षा, 36.अष्टचक्रम, 37. अष्टमुद्रा:, 38. अभयमात्रा:, 39. आत्मबोध:, 40. आवलिश्लोका:, 41. र्इश्वर प्रत्यभिज्ञा, 42. कोमलास्तव:, 43. कोमलवल्लीस्तव:, 44. योग सारावली, 45. रव रहस्यम, 46. रत्न बोध:, 47. शिवयोग सार:, 48. शिवयोग दर्पण: (तारकयोग:), 49. सिद्धसिद्धान्त पद्धति:, 50. हठ संकेत, 51. कन्थड़ी बोध:, 52. क्षुरिकोपनिषद, 53. क्षुरिकामन्त्र:, 54. खेचरी विधा, 55. गणेशगोष्ठी, 56. चतुविर्ंशति सिद्धय:, 57. चित्तक्रम:, 58. ज्ञानमाला, 59. ज्ञानतिलकम, 60. ज्ञानचतुसित्रशिका, 61. ज्ञानसागर: 62. ज्ञानदीप:, 63. तत्त्वक्रम:, 64. दीक्षा तत्त्वप्रकाश:, 65. द्वात्रिंशल्लक्षणानि, 66. दयाबोध:, 67. नादानुसन्धानम, 68. निरंजन पुराणम, 69. योगबीजम, 70. रोमावली, 71. रामबोध:, 72. शिष्य-दर्शनम, 73. शिष्ठ पुराणम, 74. सिद्ध-सिद्धान्त संग्रह, 75. निर्भय बोध, 76. नृपबोध:, 77. नवरात्रम, 78. नवग्रहा:, 79. परिमल भाष्यम, 80. प्रत्यभिज्ञा दर्शनम, 81. पादुकोदय:, 82. परास्तुति:, 83. पंचाग्नय:, 84. पंचमात्रा:, 85. पंचदशतिथय:, 86. प्राण श्रृंखला, 87. ब्रह्राज्ञानम, 88. भूचर पुराणम, 89. महार्थमंजरी, 90. महाक्रममंजरी, 91. महेष्वर प्रत्यभिज्ञा, 92. महादेव-गोरक्ष गोष्ठी, 93. योगमंजरी, 94. वारविचार:, 95. व्रतम, 96. शिवदृषिट, 97. षटचक्र चिन्तामणि: तथा 98. सूक्ष्मवेद:। 99. विवेक-मार्तण्ड:।
उल्लेखनीय है कि, श्री सिद्धनाथ संहिता विवेक-सागर के पृष्ठ 129 से 150 पर योगी गोरक्षनाथ द्वारा रचित विवेक-मार्तण्ड: नामक एक ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशन किया गया है किन्तु उपरोä सूची में इस ग्रन्थ का नाम नहीं है। हमने इसे क्रमसंख्या 99 पर समिमलित कर लिया है। सम्भवत: सम्पादन की त्रुटिवश इस ग्रन्थ का उल्लेख श्री सिद्धनाथ संहिता विवेक-सागर में नहीं हो सका। गोरक्षनाथ विरचित कहे, जाने वाले ये सभी ग्रन्थ नेपाल लायब्रेरी में संग्रहीत हैं। नेपाल राजगुरू योगी प्रवर नरहरिनाथजी महाराज दिल्ली में प्राचीन भैरव मनिदर कालकाजी में जब अपना जीवनवृत्त योग षिखरिणी यात्रा नामक ग्रन्थ का सम्पादन कर रहे थे, तब उन्होंने  कृपापूर्वक आषीर्वाद स्वरूप जो समय दान दिया था, इन ग्रन्थों में से अनेक का दर्षन कराने का सौभाग्य बख्षा था। बहरहाल यह शोध का विषय है कि, गोरक्षनाथ द्वारा विरचित बताये गये इन ग्रन्थों में से कितने स्वयं गोरक्षनाथ के लिखे हुए हैं और कितने केवल उनके नाम से हैं? बहरहाल, योगी गोरक्षनाथ द्वारा विरचित गोरक्षषतकम नाथ सम्प्रदाय का एक मुख्य ग्रन्थ है और परम्परागत रूप से उन्हें षिव का अवतार कहा जाता है।
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी और पष्चातय विद्वान जार्ज वेस्टन बि्रग्स ने उनके जन्म स्थान और काल के संबन्ध मेंं जानने का भागीरथ प्रयास किया। उनके शोध को यथारूप मेंं प्रस्तुत करना, विषय की गम्भीरता और उन महानुभावों की कीर्ति के साथ कपट ही सिद्ध होगा, किन्तु हम आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की अमूल्य पुस्तक नाथ सम्प्रदाय के निम्नांकित दो अन्तरों को महायोगी गोरक्षनाथ की वन्दना रूप मेंं अंकित करने का लोभ संवरण नहींं कर पा रहे हैं।
विक्रम संवत की दसवीं शताबिद मेंं भारतवर्ष के महान गुरु गोरक्षनाथ का आविर्भाव हुआ। शंकराचार्य के बाद इतना प्रभावषाली और इतना महिमानिवत महापुरुष भारतवर्ष मेंं दूसरा नहींं हुआ। भारतवर्ष के कोने-कोने मेंं उनके अनुयायी आज भी पाये जाते हैंं। भä अिन्दोलन के पूर्व सबसे शäषिली धार्मिक आन्दोलन गोरक्षनाथ का योगमार्ग ही था। भारतवर्ष की ऐसी कोर्इ भाषा नहींं है जिसमेंं गोरक्षनाथ संबन्धी कहानियां न पार्इ जाती हों। इन कहानियों मेंं परस्पर ऐतिहासिक विरोध बहुत अधिक है परन्तु फिर भी इनमेंं एक बात स्पष्ट हो जाती है कि, गोरक्षनाथ अपने युग के सबसे बड़े नेता थे। उन्होंने जिस धातु को छुआ वही सोना हो गया। दुर्भाग्यवष इस महान धर्मगुरु के विषय मेंं ऐतिहासिक कही जाने लायक बातें बहुत कम रह गयी हैं। दन्तकथाएं केवल उनके और उनके द्वारा प्रवर्तित योगमार्ग के महत्त्व-प्रचार के अतिरिä कोर्इ विषेष प्रकाष नहींं देती।
उनके जन्मस्थान का कोर्इ निषिचत पता नहींं चलता। परम्पराएं अनेक प्रकार के अनुमानों को उत्तेजना देती हैं और इसीलियेे भिन्न-भिन्न अन्वेषकों ने अपनी रुचि के अनुसार भिन्न-भिन्न स्थानों को उनका जन्मस्थान मान लिया है। योगी सम्प्रदायाविष्Ñति मेंं उन्हें गोदावरी तीर के किसी चन्æगिरि मेंं उत्पन्न होना बताया है। नेपाल दरबार लायब्रेरी मेंं एक परवर्ती काल का गोरक्ष सहóनामस्तोत्र नामक छोटा सा गं्रथ है, उसमेंं एक श्लोक (असित याम्यां दिषिकषिचíेष: बढ़व संज्ञक:। तत्राजनि महामंत्र प्रसादत:।।) इसका आषय है कि, दक्षिण दिषा मेंं कोर्इ बढ़व नामक देष है वहीं महामंत्र के प्रसाद से महाबुद्धिषाली गोरक्षनाथ प्रादुभर्ूत हुए थे। संभवत: इस श्लोक मेंं उसी परम्परा की ओर संकेत है, जो योगसंप्रदायाविष्Ñति मेंं पायी जाती है। श्लोक मेंं बढ़व पद शायद गोदावरी तीर के प्रदेष का वाचक हो सकता है।
महायोगी गोरक्षनाथ के जन्मस्थान और काल का पता लगाने का प्रयास करने वाले अन्य प्रमुख विद्वानों मेंं पष्चातय विद्वान क्रुक्स, जी. ए. गि्रयर्सन तथा इटली निवासी कवि एल.पी. टेसीटरी का नाम भी विषेष उल्लेखनीय है। इन सभी महानुभावों ने योगी गोरक्षनाथ की रचनाओं और उनके समकालीन सन्तों व योगियों और स्थान विषेष पर महायोगी गोरक्षनाथ के प्रभाव के आधार पर उनका काल व स्थान निर्धारित करने का प्रयास किया है। गोरक्ष टिल्ला के वैभव और प्रधानता के आधार पर जर्मन विद्वान डब्ल्यू. जे. बि्रग्स ने उन्हें पंजाब का होना अनुमानित किया है, तो गि्रयर्सन ने गोरक्षनाथ के षिष्य योगी धर्मनाथ के पेषावर का होने के आधार पर उन्हें पेषावर का होना बताया है साथ ही नेपाल को आर्य अवलोकितेष्वर के प्रभाव से मुä करवाकर नेपाल को शैव मत मेंं लाने के आधार पर गोरक्षनाथ को पषिचमी हिमालय का रहने वाला बताया है। कनिंघम नामक अंग्रेज इतिहासकार का मत है कि, जेहलम (झेलम) जिले मेंं बालनाथजी का टिल्ला सिकन्दर के भारत आने से भी पूर्व का है। यह तथ्य सिद्ध करता है कि, ऐतिहासिक दृषिट से नाथ सम्प्रदाय का असितत्व कम से कम 326 र्इसा पूर्व से है। इस आधार पर योगी गोरक्षनाथ का समय र्इसा से कम से कम पांच सौ वर्ष पूर्व का होना चाहिये। इस कल्पना की पुषिट इस तथ्य से भी होती है कि, योगी भतर्ृहरि इतिहास प्रसिद्ध सम्राट विक्रमादित्य का बड़ा भार्इ था। यह वही विक्रमादित्य है जिसके नाम से विक्रम संवत प्रारम्भ हुआ और यह विक्रम संवत आज भारतीय कालगणना का प्रमुख मानक है। भारतीय विद्वानों मेंं डा. रांगेय राघव ने अपनी पुस्तक गुरु गोरक्षनाथ और उनका युग मेंं गोरक्षनाथ का समय आठवीं शताबिद का प्रारंभ माना है तो डा. श्यामसुन्दर दास ने भाषा के आधार पर गोरक्षनाथ का समय जगदगुरु शंकराचार्य के अद्वैतवाद के 150 वर्ष बाद का बताया है किन्तु उन्हींं के षिष्य सनन्दन ने षंकर दिगिवजय नामक पुस्तक मेंं मत्स्येन्æनाथ के परकाया प्रवेष विधा का उल्लेख करते हुए गोरक्षनाथ का समय शंकराचार्य से पूर्व का होना बताया है। नाथ सम्प्रदाय मेंं पूरण भगत नाम से प्रसिद्ध सिद्ध चौरंगीनाथ के आषीर्वाद से राजा शालिवाहन (सलवान) की छोटी रानी लूणा को पुत्र की प्रापित हुयी थी, जो राजा रसालू के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस राजा रसालू का काल सातवीं शताबिद का अन्त व आठवीं शताबिद का प्रारंभ माना जाता है, इस आधार पर गोरक्षनाथ का काल सातवीं शताबिद सिद्ध होता है। डा. बड़थ्वाल ने गोरक्षनाथ का समय विक्रम संवत 1050 के आस पास मानते हुए उन्हें शंकराचार्य से पूर्व गुप्तवंष के राजाओं से जोड़ा है। मत्स्येन्द्रनाथ से उनके गुरु-षिष्य संबन्ध के आधार पर विद्वान उन्हें नौवीं शताबिद का होना बताते हैं। कबीर1, दादूदयाल2 और नानक से उनका संवाद उन्हें तेरहवीं चौदहवीं शताबिद मेंं होना सि़द्ध करता है तो दिगम्बर जैन सन्त बनारसीदास से शास्त्रार्थ सत्रहवीं शताबिद मेंं भी उनकी उपसिथति बताता है।
र्इस्वी शताबिदयों के इस काल खण्ड मेंं किसी मानव देहधारी के इतने लम्बे जीवन का असितत्व निष्चय ही अविष्वसनीय और असंभव है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी इस प्रसंग मेंं मनोवैज्ञानिक तर्क प्रस्तुत करते हुए इनकी व्याख्या इस प्रकार करते हैंंं, कि परवर्ती सन्तों ने ध्यान बल से पूर्ववर्ती सन्त (योगी गोरक्षनाथ) के उपदिष्ट मार्ग से अपने अनुभवों की तुलना की होगी। वे अपने मत के समर्थन मेंं तर्क देते हुए कहते हैंं कि कबीर के साथ तो मुहम्मद साहब की बातचीत का ब्यौरा भी उपलब्ध है तो क्या इस से यह अनुमान किया जा सकता है कि, कबीरदास और मुहम्मद साहब समकालीन थे? इस प्रकार महायोगी गोरक्षनाथ के काल निर्णय को लेकर भी समस्त विद्वान असमंजस की सिथति मेंं हैं और यह कह पाने मेंं नितान्त असमर्थ हैं कि, वास्तव मेंं वे काल के किस खण्ड से संबंधित हैं?
निष्चय ही ऊपरोä विद्वानों ने अपने मत के समर्थन मेंं सषä तर्क प्रस्तुत किये हैं और उनके शोध मेंं त्रुटि की कोर्इ कल्पना भी नहींं की जा सकती। दर्षन और दार्षनिक इतिहास मेंं रुचि रखने वालों के लियेे इन विद्वानों की रचनाएं आने वाली पीढियों के लियेे सर्वकालिक प्रकाष स्तम्भ सिद्ध होंगी साथ ही नाथ सम्प्रदाय विषय को इतने क्रमबद्ध रूप मेंं लिपिबद्ध करने से नाथपंथ के अनुयायी सदा सदा के लियेे इनके ऋणी हो गये हैंंंं। किन्तु खेद की सीमा तक आष्चर्य है कि, इन विद्वानों की दृषिट पौराणिक तथ्यों पर क्यों नहींं गयी?
यह सुस्थापित तथ्य है कि, रामायण के एक महत्त्वपूर्ण चरित्र विष्णु के अंषावतार परषुराम महायोगी गोरक्षनाथ के षिष्य थे। इस महान चरित्र के साथ हनुमान की उपसिथ्ति महाभारत काल तक इस महाकाव्य मेंं वर्णित है। इसी भांति रामायण महाकाव्य के रचयिता महर्षि वाल्मीकि से लेकर उनकी षिष्य परम्परा मेंं महाभारत के रचयिता महर्षि वेदव्यास तक चार पीढि़याें क्रमष: महर्षि पराषर और महर्षि शä कि ही अन्तर है। पौराणिक काल गणना के अनुसार त्रेता युग की अवधि बारह लाख वर्ष और द्वापर युग की अवधि आठ लाख वर्ष बतायी गयी है। यह भी सुस्थापित तथ्य है कि, भगवान श्रीराम और श्रीÑष्ण के अवतार क्रमष: त्रेता और द्वापर युगों के उत्तराद्र्ध मेंं हुए हैं। वास्तविक काल गणना को छोड़़ भी दें तो भी दोनों अवतारों के मध्य आठ लाख (कêर हिन्दू मतावलमिबयों के अनुसार नौ लाख) वषोर्ं का अन्तर है। तो क्या इन आठ-नौ लाख वषोर्ं के मध्य महर्षि वाल्मीकि से लेकर महर्षि वेदव्यास तक केवल चार ही पीढि़यां थीं? यदि महाकाव्यों के उä महान चरित्रों की इतनी लम्बी आयु हो सकती है तो योगी गोरक्षनाथ की दीर्घायु का अनुमान युäयिुä मान लेने मेंं कोर्इ संषय करना उचित प्रतीत नहींं होता।
फिर एक दृषिट नाथ सम्प्रदाय के सुविख्यात बारह पंथों के प्रवर्तकों पर डालें तो प्रकट होता है कि, इस सम्प्रदाय के सत्यनाथीपंथ, कपिलानीपंथ, रामपंथ, ध्वजपंथ, नाटेष्वरीपंथ, गंगानाथीपंथ और धर्मनाथीपंथ क्रमष: बह्राा, कपिल मुनि, भगवान श्रीराम (अथवा परषुराम- कौन जानता है?), हनुमान, लक्ष्मण, तथा महाभारत के महा नायक भीष्म व युधिषिठर द्वारा प्रवर्तित किये गये हैंंं। यहां यह विचारणीय है कि, उä नामित महान चरित्र क्या गोरक्षनाथ के षिष्य अथवा उनके समकालीन थे? निष्चय ही यह एक कठिन प्रष्न है। क्योंकि तथ्य यह भी है कि, गोरक्षनाथ से पूर्व भी नाथ सम्प्रदाय मेंं षिव द्वारा प्रवर्तित बारह (कतिपय विद्वानों के अनुसार अट्टारह) पंथ थे और गोरक्षनाथ अथवा उनके षिष्यों द्वारा बारह पंथ और प्रवर्तित किये गये। इस प्रकार इस सम्प्रदाय मेंं कुल चौबीस (अथवा तीस) पंथ थे। अनुश्रुति है कि, षिव और गोरक्षनाथ द्वारा प्रवर्तित इन पंथों मेंं झगड़े बहुत बढ़ गये। तब गोरक्षनाथ ने अपने और षिव के छ:-छ: पंथों को लेकर बारह पंथों की पुनस्र्थापना की। उड़ीसा के विद्वानों की तो मान्यता है कि, नाथ-सम्प्रदाय के प्रभाव के कारण ही पुरी के पुरुषोत्तम का नाम जगन्नाथ पड़ा। यह भी कहा जाता है कि, गोरक्षनाथ ने ही पुरी के बड़ा अखाड़ा मठ की स्थापना की थी और वे जब वहां सिंहनाद (वस्तुत: यह लगभग डेढ़ से दो इंच लम्बी हरिण के सींग, चन्दन अथवा किसी पवित्र लकड़ी की खोखला व बेलनाकार ‘सींगी नामक वाधयन्त्र होता है जिसे योगी लोग अपनी जनेऊ मेंं पहनते हैं। सन्ध्योपासना के पष्चात योगी लोग इसे फूंक कर बजाते हैं। अत: यह शब्द सिंहनाद नहींं होकर सींगीनाद है) करते थे तो समुæ बावन हाथ पीछे हट जाया करता था और जगन्नाथजी का आसन हिलने लगता था। परिणामस्वरूप योगी गोरक्षनाथ को मनिदर के सिंहद्वार की दक्षिण दिषा मेंं स्थान दिया गया। नाथ सम्प्रदाय के सत्यनाथी पंथ की प्रधान गíी पुरी मेंं है और उड़ीसा के सोलह महन्तोंमठों मेंं भुवनेष्वर का कपाली मठ काफी महत्त्वपूर्ण है। इस मठ के पूर्वी द्वार के दक्षिण मेंं स्थापित एक षिलालेख के द्वारा यह बात सिद्ध हो चुकी है कि, उड़ीसा के राजा कपिलेन्æ का राज्याभिषेक इसी मठ मेंं 26 जून 1435 को हुआ था।
प्रष्न यह है कि, इनमेंं से कौन गोरक्षनाथ से संबद्ध अथवा समकालीन है?
इतिहास इस संबद्ध मेंं मौन है और विद्वानों की लेखनी इस ओर दृषिटपात नहींं कर पायी। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी और पष्चातय विद्वान डब्ल्यू. जे. बि्रग्स ने उä 12 पंथों की विस्तृत, तर्कयुä, सारपूर्ण और सर्वोपरि बहुत ही महत्त्वपूर्ण विवेचना की है। जिन बिन्दुओं पर वे चर्चा कर चुके हैं उन्हें उद्धृत करना हमारा उíेष्य नहींं है, तथापि कुछ अनछुए प्रसंगों को हमने ‘नाथ सम्प्रदाय के बारह पंथ शीर्षक के अन्तर्गत उजागर करने का प्रयास किया है। प्रस्तुत शीर्षक के अन्तर्गत प्रसंगवष उल्लेख करते हैंंं कि आचार्यजी ने अपनी मूल्यवान पुस्तक नाथ सम्प्रदाय मेंं कपिलमुनि (कपिलानीपंथ), लक्ष्मण (नाटेष्वरीपंथ), धर्मनाथ (युधिषिठर) तथा गंगानाथ (भीष्म पितामह) को गोरक्षनाथ के षिष्य होना बताया है। लक्ष्मण, हनुमान और सीता गोरक्षनाथ के षिष्य थे इसकी पुषिट ओडि़या साहित्य से होती है। तदनुसार वनवास समापित के पष्चात जब श्रीराम अयोध्या लौटते हैं तो उनकी गोरक्षनाथ से भेंट होती है। उनके षिष्यत्व मेंं आने के विषय मेंं होने वाले वार्तालाप के समय श्रीराम को पता लगता है कि, भरत, लक्ष्मण, हनुमान और सीता पहले ही उनके षिष्य बन चुके हैं और उनके द्वारा दी गयी योग की षिक्षा के बल पर ही उन्होेंने असाध्य कायोर्ं को करने की योग्यता प्राप्त कर श्रीराम कार्य को कर सकने मेंं सफल हुए हैंं। तब श्री राम भी उनके षिष्य बनते हैं।
‘गोरक्षनाथ रहस्य नामक पुस्तक में एक अन्य कथा अनुसार रावण वध के पश्चात अयोध्या लौटकर अपना राजकार्य व्यवसिथत करने के बाद अपनी तीनों माताओं सहित अपने गुरू वशिष्ठजी के पास जाकर ब्राह्राण हत्या के दोष से मुक्त होने का उपाय पूछते हैं। पुस्तक में उलिलखित श्रीराम व गुरू वशिष्ठजी के मध्य हुए साहितियक संवाद का सार यह है कि, गुरू वशिष्ठ श्रीराम को योगी गोरक्षनाथजी से योग की दीक्षा लेने का उपाय बताते हैं। गुरू वशिष्ठजी के बताये अनुसार सीता, राम, लक्ष्मण, हनुमान और राम-रावण युद्ध के सहभागी योगी गोरक्षनाथजी के पास जाते हैं जो उस समय पंचाल (वर्तमान पंजाब) के पशिचमोत्तर कोण में जेहलम नामक स्थान में जेहलम नदी के निकट सिथत पर्वत पर (वर्तमान में यह पाकिस्तान में जिला झेलम में है) पर तपस्यारत्त थे। श्रीराम द्वारा प्रार्थना किये जाने पर योगी गोरक्षनाथ द्वारा श्रीराम, लक्ष्मण तथा हनुमान का विधिवत कर्णच्छेद किया जाकर योगमार्ग में दीक्षित किया जाता है। तीनों का पÍनाम (नाथ सम्प्रदाय में दीक्षित होने वाले शिष्यों को गुरू द्वारा दिया जाने वाला नाम) क्रमश: श्रीराम का अचलनाथ (रामनाथ), शेषनाग का अवतार होने के कारण श्रीलक्ष्मण का नागनाथ (लक्ष्मणनाथ) तथा श्री हनुमान का बंकनाथ नाम रखा गया। श्री अचलनाथ (श्रीराम) द्वारा पात पर भोजन करने और अंजुलि से पानी पीने के कारण पतंजलि नाम पडा और इनके नाम से पातंजल योग प्रसिद्ध हुआ। श्री नागनाथ (श्रीलक्ष्मण) को टिल्ले की गदी पर आसीन किया। श्रीलक्ष्मण की दो शाखाएं चलीं। इनमें से टिल्ले पर रहने वाले नाटेश्वरी और अन्य स्थानों पर मठ स्थापित करने वाले दरियानाथी कहलाये। श्री बंकनाथ (श्रीहनुमान) द्वारा चलाया गया पंथ ध्वजनाथी कहलाया। सीता का कर्णच्छेद संस्कार नहीं किया गया, केवल आशीर्वाद और ध्यानयोग की दीक्षा दी गयी।
गर्ग संहिता में गर्ग ऋषि व भगवान श्रीकृष्ण के मध्य संवाद में श्रीकृष्ण द्वारा-
गोरक्षनाथ: को देव: को मन्त्रस्तस्य पूजने।
सेव्यते केन विधिना, तत्सर्वं ब्रूहि मे मुने।।
पूछने पर गर्ग ऋषि द्वारा-
श्रृणु कथा: सर्वा, गोरक्षस्य विधिक्रिया।
गोरक्षं च âदि ध्यात्वा, योगीन्द्रोसेविता नर:।।
विना गोरक्ष मन्त्रेण, योगसिद्धिर्न जायते।
गोरक्षस्य प्रसादेन, सर्वसिद्धिर्न संशय:।।
कहकर श्रीकृष्ण की जिज्ञासा को शान्त किये जाने का वृत्तान्त है। इसी भांति कल्पद्रुम तंत्र में भगवान श्रीकृष्ण व योगी गोरक्षनाथ के मध्य द्वारिका संवादषास्त्रार्थ पश्चात श्रीकृष्ण द्वारा रुकिमणी सहित योगेश्वर गोरक्षनाथ की वन्दना, श्रीÑष्ण और रुकिमणी के विवाह मेंं पुरोहित का कार्य योगी गोरक्षनाथ द्वारा करवाया जाना तथा और युद्ध जीतने के पष्चात राजसूय यज्ञ में आमनित्रत करने के लियेे युधिषिठर द्वारा भीम को योगी गोरक्षनाथ के पास भेजना भी उस काल मेंं उनकी उपसिथति को सिद्ध करता है। (उत्तर प्रदेष के गोरखपुर जिले में प्रसिद्ध गोरक्षनाथ मनिदर में एक भीमकाय पदचिà के बारे में कहा जाता है कि, राजसूय यज्ञ में गोरक्षनाथ को आमनित्रत करने के लिये जब भीम वहां पहुंचे तो गोरक्षनाथ समाधि में लीन थे। भीम द्वारा बहुत समय तक एक ही स्थान पर प्रतीक्षा करने के कारण पृथ्वी उस स्थान पर दब गयी जो चिरकाल से आज भी यथारूप है।)
महाकाव्य काल से र्इसा पूर्व के प्राचीन इतिहास मेंं विक्रमादित्य के बड़े भार्इ भतर्ृहरी और मध्यकाल की विष्व प्रसिद्ध प्रेम कहानी लैला-मजनूं के नायक मजनूं का गोरक्षनाथ से मिलना और जोगी (योगी) बन जाना, नेपाल के पृथ्वीनारायण शाह को अक्षुण्ण और निष्कण्टक राज्य के वरदान के साथ 10वीं पीढ़ी के पष्चात परिवार के नाष का अभिषाप, मेवाड़़ के संस्थापक बप्पा रावल को योगी गोरक्षनाथ द्वारा तलवार देकर विजयी होने का आषीर्वाद देना, गोरक्षनाथ के समकालीन योगी जलन्धरनाथ (ज्वालेन्द्रनाथ? कौन जाने) के षिष्य गोगाजी पीर आदि कितनी ही कहानियां विभिन्न कालखण्डों मेंं उनकी उपसिथति को सिद्ध करती है, जो उनके कालजयी होने के तथ्य को बल प्रदान करती है।
यधपि गर्गसंहिता, नारदपुराण, स्कन्दपुराण भी गोरक्षनाथ के संबन्ध मेंं भिन्न-भिन्न धारणाऐं देते हैं। हमारा प्रयास केवल कुछ अनछुए तथ्यों के प्रकाष मेंं विषय का पुनरीक्षण करना है। प्रसंगवष हम यहां सर्वप्रथम योगी गोरक्षनाथ की उत्पत्ति के संबन्ध मेंं प्रचलित कथाओंं को सार रूप मेंं प्रस्तुत करेंगे इतना अवष्य है कि, इन कथाओंं को कालक्रम के अनुरूप क्रमबद्ध करना पुन: एक जटिल कार्य है अत: क्रम की औपचारिकता का पालन नहींं करने का हमेंं खेद है।
1. क्योंकि गोरक्षनाथ को षिवगोरक्ष नाम से मंत्र स्तुति की जाती है अत: सर्व प्रथम गर्ग संहिता मेंं आये आख्यान उद्धृत करना विषय के प्रति एक उत्तरदायित्व है। गर्गसंहिता के अनुसार देवताओं ने महादेव षिवषंकर से प्रष्न किया कि को•सौ गोरक्षनाथो•सित? किम मन्त्रस्तस्य पूजने अर्थात हे महेष्वर! गोरक्षनाथ कौन है और उनकी पूजा के लियेे क्या मंत्र है? तो भगवान षिव ने कहा अहमेवासिम गोरक्षो मदरूपं तन्निबोधत,। योगमार्ग प्रचाराय मया रूपमिदं धृतम। अर्थात मैं ही गोरक्षनाथ हूं, मेरा ही रूप गोरक्षनाथ को जानो, लोककल्याणकारी योग मार्ग का प्रचार करने के लियेे मैंंने ही गोरक्षनाथ का अवतार लिया है।
वैषाखी-षिव-पूर्णिमा-तिथिवरेवारे षिवम³गले।
लोकानुग्रह-विग्रह: षिवगुरुर्गोरक्षनाथो•भवत।।
2. स्वयं गोरक्षनाथ भी महार्थमंजरी के स्वोपज्ञ भाष्य मेंं कहते हैं ”गोरक्षोलोकधिया देषिकदृष्टया महेष्वरानन्द:। उन्मीलयामि परिमलमन्तग्रहिनं महार्थमंजर्याम।। अर्थात ‘गो की रक्षा करने से लोग मुझे गोरक्षनाथ कहते हैंं, किन्तु गुरुदेव मत्स्येन्æनाथ की दिव्य दृषिट से महेष्वर षिव का अवतार होने के कारण मेरा अन्वर्थ नाम महेष्वरानन्द नाथ है। उल्लेखनीय है कि, षिवस्वरूप और आनन्दमय होने से सिद्ध पुरुषों के नाम के अन्त मेंं आनन्द लगता है और ब्रह्रास्वरूप होने के कारण नाथ पद लगता है। षिव के एक सौ आठ अवतारों मेंं सबसे प्रमुख होने के कारण गोरक्षनाथ को षिवगोरक्ष नामक महामंत्र के रूप मेंं जप किया जाता है।
3. स्कन्दपुराण के ब्रह्राा संवाद खण्ड मेंं भी गोरक्षनाथ अवतार की कथा प्रसंग इस प्रकार है कि, किसी ब्राह्राण के यहां गण्डान्त नक्षत्र मेंं उत्पन्न होने से अषुभ और अनिष्टकारी जानकर उसने अपने पुत्र को समुद्र मेंं फेंक दिया। वहां एक मछली उस बच्चे को निगल गयी किन्तु र्इष्वरीय चमत्कार द्वारा वह बच्चा वहां भी जीवित रहा।
उधर एक बार माता पार्वती ने भगवान शंकर के गले मेंं नरकपालों की माला का रहस्य पूछा तो भगवान शंकर ने कहा कि वे नरकपाल सती पार्वती के पूर्वजन्मों के हैं। इस पर उन्होंने अपने बार बार मरने और भगवान षिव के अमरत्व का कारण पूछा तो सदाषिव उन्हें डोंगी पर बैठकर समुæ के मध्य एकान्त मेंं ले गये और अमर कथा (आत्मा की अनष्वरता का ज्ञान अर्थात योग विधा) बताने लगे। कथा सुनते-सुनते सती पार्वती योगनिद्रा मेंं लीन हो गयीं और डोंगी के नीचे मछली के पेट मेंं छिपा हुआ बालक हुंकारे देता रहा। नींंद खुलने पर सती पार्वती ने षिव से कहा कि नींद आ जाने के कारण वह सम्पूर्ण कथा नहींं सुन सकी। इस पर षिव ने तीन ताली बजाकर ब्रह्रााण्ड को जीवरहित किया, किन्तु अमरकथा सुन लेने के कारण वह मत्स्य बालक जीवित रहा। चोरी से योगविधा का ज्ञान प्राप्त करने के कारण षिव ने क्रुद्ध होकर उसे शाप दिया कि एक समय वह इस ज्ञान को भूल जायेगा।
कथा के दूसरे भाग मेंं षिव के शाप से त्रस्त मत्स्येन्द्र यहां वहां घूमते हुए योगाभ्यास व शैव मत का प्रचार करते रहे और कुछ समय बाद षिव की कृपा प्राप्त करने के लियेे षिव आराधना करने लगे। उनके द्वारा की गयी घोर तपस्या के परिणामस्वरूप षिव उनके समक्ष प्रकट हुए और वरदान मांगने के लियेे कहा। इस पर मत्स्येन्द्र ने उनसे उनका ही स्वरूप (अर्थात षिव का योगी वेष), जगत के कल्याण के लियेे योग विधा का विस्तार और तत्त्वज्ञान की विस्मृति के शाप से मुकित का वरदान मांग लिया। इस घटनाक्रम के पष्चात षिव द्वारा मत्स्येन्द्र को अपना योगी वेष, योग विधा का विस्तार करने का आदेष और स्वयं उनके षिष्य रूप मेंं मत्स्येन्द्रनाथ का उद्धार करने का वचन दिया जाना इस अमरकथा के प्रसंग में गोरक्षनाथ अवतार की दूसरी कड़ी है।
अगले घटनाक्रम मेंं पुत्राकांक्षी एक ब्राह्राण स्त्री ने योगी से पुत्र प्राप्त करने के लियेे वरदान मांगा। इस पर योगी मत्स्येन्द्रनाथ ने उसे अपनी झोली मेंं से विभूति देकर यह वचन लिया कि बारह वर्ष पष्चात वह अपने पुत्र को उनके षिष्यत्व मेंं दे देगी। राख से पुत्र कैसे उत्पन्न होगा यह सन्देह करके उसने विभूति गोबर मेंं फेंक दी। बारह वर्ष के पष्चात मत्स्येन्द्रनाथ पुन: आते हैं और उस स्त्री से अपने पुत्र को उनके षिष्यत्व मेंं देने के वचन की याद दिलाते हैं। स्त्री द्वारा राख को गोबर के स्थान पर फेंक देने की बात कहने पर योगी मत्स्येन्द्रनाथ उस स्थान पर जाकर गोरक्ष नाम से आवाज लगाते है तो एक बारह वर्ष का बालक आदेष-आदेष कहता हुआ प्रकट होता है। यही गोरक्षनाथ का प्राकटय होता है, जो बाद मेंं मत्स्येन्द्रनाथ को कदली देष के स्त्री राज्य के चंगुल से निकाल कर पुन: योगमार्ग मेंं लाते है।
4. स्कन्दपुराण के ही केदारखण्ड के 42वें अध्याय मेंं भगवान षिव, जगदमिबका माता पार्वती के पूछने पर गोरक्षनाथ के स्थान को इंगित करते हैंंं।
तस्माद दक्षिणतो देवि गोरक्षाश्रमरक्षक:।
यत्र सिद्धो महायोगी गोरक्षो वसते•निषम।।1।।
तलिल³गन्तु प्रवक्ष्यामि श्रृणु पुण्यतमं स्थानम,
महातप्तजलं तत्र वर्तते सर्वदेव हि।।2।।
तत्र सिथतस्सप्तरात्र जपन वेै षिवमुत्तमम,
सिद्धो भवति देवेषि! यथा गोरक्ष उत्तम:।।3।।
अर्थात उससे दक्षिण की ओर अत्यन्त रमणीय एवं पवित्र गोरक्ष आश्रम है। जहां पर सिद्धाधिराज गोरक्षनाथ निवास करते हैंंं। उस महापीठ का चिहन बताता हूं- यह अत्यन्त पुण्यतम स्थान है जहां सदा अत्यन्त उष्ण जल विधमान है। जो पुरुष सात रात षिव का जप करता हुआ वहां निवास करता है वह साक्षात गोरक्षनाथ जैसा हो जाता है।
5. स्कन्दपुराण के केदार खण्ड मेंं ही अध्याय 45 तथा 46 मेंं लिखा है कि,
नित्यनाथादय: सिद्धा अत्रैव तपतत्परा:।
सिद्धिम्प्राप्ता: पुरा देवि मादृषास्ते न संषय:।।1।।
न तस्य भयलेषो•सित तिष्ठतस्त्र पीठके,
शीघ्रं वै लभते सिद्धिं यथा गोरक्षकादय:।।2।।
अर्थात पहले नित्यनाथ (मत्स्येन्द्रनाथ) तथा गोरक्षनाथ साधकों को वांछित फल देने मेंं समर्थ हुए सब मेरे जैसे बने तथा जप परायण इस पीठ पर रहने वाला पुरुष भी पूर्ण सिद्धियों को प्राप्त कर सकता है इसमेंं सन्देह नहींं है।
6. पुन: स्कन्दपुराण के केदार खण्ड के अध्याय 74 मेंं नवनाथों मेंं योगी गोरक्षनाथ का उल्लेख इस प्रकार मिलता है।
नव नाथा:समाख्यातास्तत्र श्री आदिनाथक:।
अनादिनाथ: कूर्माख्यो भवनाथस्तथैव च।।
सत्यसन्तोषनाथौ तु मत्स्येन्द्रो गोपीनाथक:।
गोरक्षो नव नाथास्ते नादब्रहमरता: सदा।।
7. स्कन्दपुराण के ही हिमत्वखण्ड मेंं योगी गोरक्षनाथ की तपस्थली मृगस्थली नेपाल महात्म्य मेंं गोरक्षनाथ को सिद्धियों का दाता कहा गया है। प्रासंगिक श्लोक 52 से 59 को यथारूप यहां प्रस्तुत किया जा रहा है तथा उनका संक्षिप्त भावार्थ इस प्रकार है कि, जो सिद्धाचल मृगस्थली मेंं तीन रात्रि निवासरत रहकर योगी गोरक्षनाथ का स्मरण करता है वह स्वयं सिद्धयोगी गोरक्षनाथ के प्रसाद से Ñतार्थ होकर सदा के लियेे संसार मेंं आदर्ष बन जाता है। भगवान पषुपतिनाथ की इस परम पवित्र विहार स्थली मेंं कार्तिक मास की Ñष्ण चतुर्दषी मेंं जो पुरुष परिक्रमा करता है, वह एक एक पद पर निष्पाप होता हुआ स्वर्णिम पुण्य को प्राप्त करता है। श्लोक इस प्रकार है:-
ब्रहमद्वीपे महातीर्थे स्नात्वा दीपोप्रदीयते।
कार्तिकस्य चतुर्दष्यां शुक्लायां वा विषेषत:।।52।।
गोरक्षनाथो योगीन्द्रो योगेनात्र समाश्रित:।
मत्स्येन्द्रेण समं नित्यं चौर³ग्याधैष्च योगिभि:।।53।।
तेषां योगष्च संसिद्धस्तत्र मृगस्थले द्विज।
पषुपते प्रसादेन योग: प्रापुरथार्हणम।।54।।
नानासिद्धगणैर्नित्यमत्रागत्य सुभकितत:।
प्रारब्धस्तैर्महायोगो गोरक्षस्य प्रसादत:।।55।।
कार्तिकस्य चतुर्दष्यां Ñष्णायां दृष्यते बुध:।
सिद्धाश्रमें पादुकास्य निष्पापास्ते न संषय:।।56।।
त्रिरात्रंवसते तत्र तं गोरक्षं स्मरन धिया।
योगीष्वरो भवेदाषु सिद्धदेहो भवेत्सदा।।57।।
अत एव गरिष्ठं च हयेततक्षेत्रविरूपदृक।
सिद्धानामारमं शाष्वत पषुपतेर्विहारकम।।58।।
मृगस्थलीगिरिं भ्राम्य व्रीहिन विक्षेपयेत्Ñतम।
सुवर्णरतिकातुल्यं ब्रीहिमेकं च युकितमत।।59।।
8. स्कन्दपुराण के एक अन्य स्थान पर उलिलखित है कि,
गोरक्षनाथस्य तप: प्रभावादाÑष्टचेता: किल चक्रवर्ती।
सहस्रबाहुर्वसुधाधिपोडयं जगाम गोरक्षगुरुं शरण्यम।।
योगस्य जिज्ञास्यतमं विदित्वा मार्गं महेषस्य गुरो: सकाषात।
जग्राह सोमान्वयचक्रवर्ती गोरक्षनाथस्य बभूव षिष्य।।
अर्थात सम्पूर्ण पृथ्वी के चक्रवर्ती चन्द्रवंषी सम्राट सहस्रबाहू भगवान गोरक्षनाथ के तप से आÑष्ट होकर उनके पास गये और जिज्ञासा से अभिप्रेरित होकर उनके षिष्य बनकर आदिनाथ परम्परा से चले आ रहे योगमार्ग को ग्रहण किया।
किंवदंती है कि, सहस्त्रबाहू रोजाना अपनी एक भुजा काटकर भगवान षिव को अर्पित किया करते थे और योग से प्राप्त अजेय शकित से उनकी कटी हुयी भुजा पुन: अपने स्थान पर जुड जाया करती थी। कहीं-कहीं यह भी पढ़ने को मिलता है कि, सहस्त्रबाहू अपनी सौ भुजाओं से जब वाध यन्त्र बजाया करता तो उस संगीत पर प्रसन्न होकर महादेव षिवषंकर नृत्य किया करते थे। प्रासंगिक नहीं होने से सहस्त्रबाहू की तपस्या के सन्दर्भ में हमने कोर्इ अधिक पड़ताल करने का उधम नहीं किया। किन्तु जयपुर से 45 किलोमीटर दूर प्रसिद्ध तीर्थ सामोद क्षेत्र मालेष्वर में तीन ओर से आच्छादित पहाडियों की तलहटी में मालेष्वर महादेव मनिदर की विषेषता यह है कि, इस मनिदर में स्थापित षिवलिंग सूर्य के दक्षिणायण के समय यह षिवलिंग दक्षिण की ओर तथा उत्तरायण काल में उत्तर की ओर झुकाव लेता रहता है।श्इस षिवलिंग के गर्भगृह के ठीक सामने अपने सौ हाथों से वाधयन्त्र बजा रहे सहस्त्रबाहू की प्रतिमा है। सहस्त्रबाहू की वाधयन्त्र बजाती हूुर्इ प्रतिमा और षिवलिंग का उत्तर-दक्षिण में झूमना इस कथा की वास्तविकता को बल देता प्रतीत होता है। यहां प्रष्न यह नहींं है कि, सत्य क्या है? किन्तु योग षकित या र्इष्वरीय वरदान से शरीर के अंगों के इस प्रकार जुड़ने की अनेक कथाएं पुराणों मेंं हैं। रक्तासुर, बीजासुर, जरासंध और रावण इसके सुविदित उदाहरण हैं।
9. षिवपुराण के सातवें खण्ड के अध्याय प्रथम मेंं ब्रहमाजी ने षिव के अवतारों का वर्णन करते हुए गोरक्षनाथ को षिव का अवतार बताया है।
षिवो गोरक्षरूपेण योगषास्त्रं जुगोप ह।
यमाध³गैर्यथास्थाने स्थापिता योगिनो•पि च।।1।।
अर्थात भगवान षिव ने गोरक्ष रूप मेंं आकर योग और योगियों की रक्षा की तथा योगषास्त्र की सत्यता को यम-नियम आदि अंगों द्वारा प्रमाणित किया। जैसा कि इसी अध्याय मेंं हमने पूर्व मेंं चर्चा की है कि, गर्गसंहिता के अनुसार देवताओं द्वारा महादेव षिवषंकर से प्रष्न करने पर उनके द्वारा कहा गया कि
अहमेवासिम गोरक्षो मदरूपं तनिनबोधत।
योगमार्ग प्रचाराय मया रूपमिदं धृतम।।
अर्थात मैं ही गोरक्षनाथ हूं, मेरा ही रूप गोरक्षनाथ को जानो, लोककल्याणकारी योग मार्ग का प्रचार करने के लियेे मैंने ही गोरक्षनाथ का अवतार लिया है। और जिस दिन षिव का गोरक्षनाथ रूप मेंं प्राकटय हुआ उसको योगी प्रवर नरहरिनाथ ने अपनी अमूल्य Ñति योग षिखरणी यात्रा मेंं इस प्रकार इंगित किया है।
वैषाखी-षिव-पूर्णिमा-तिथिवरे वारे षिवे म³गले।
लोकानुग्रह-विग्रह: षिवगुरुर्गोरक्षनाथो•भवत।।
10. स्कन्दपुराण के अध्याय 51 मेंं वर्णित ब्रहमा और देवर्षि नारद के मध्य गोरक्षनाथ अवतार कथा नाथयोगियों मेंं इस प्रकार प्रचलित है कि, मत्स्येन्द्रनाथ को शाप मुकित के लियेे दिये हुए वरदान को चरितार्थ करने के विचार से करुणामय अमिताभ भगवान आषुतोष ने माता पार्वती के अन्त:करण को प्रेरित किया और पार्वती ने भगवान षिव से अभिमान पूर्वक कहा कि:- हे महादेव, जहां-जहां आप है वहां-वहां मैं आपसे पृथक नहींं हूं। मेरे बिना आपकी कोर्इ पृथक सत्ता नहींं है। आप विष्णु हैं तो मैं लक्ष्मी हूं, आप महेष्वर हैं तो मैं महेष्वरी हूं, आप षिव हैं तो मैं शकित हूं, आप इन्द्र हैं तो मैं इन्द्राणी, आप वरुण हैं तो मैं वारुणी, आप पुरुष हैं तो मैं प्रकृति और आप ब्रहम हैं तो मैं माया। अर्थात, आपका असितत्त्व कहीं भी मुझसे पृथक नहींं है।
इस पर भगवान षिव कहते हैंं कि:- हे पार्वती, जहां जहां तुम हो वहां वहां मैं हूं यह कथन सत्य है किन्तु यह कथन सत्य नहींं है कि, जहां जहां मैं हूं वहां वहां तुम मेरे साथ हो। जिस प्रकार जहां जहां घट है वहां मृत्तिका अवष्य है किन्तु जहां जहां मृत्तिका है, उन समस्त स्थानों पर घट नहींं है। जिस प्रकार आकाष सभी पदाथोर्ं मेंं व्यापक है किन्तु सभी पदार्थ आकाष मेंं व्यापक नहींं है। इसी प्रकार मैं तो तुम्हारे असितत्त्व मेंं एकात्म हूं किन्तु मेरा एक रूप ऐसा भी है जहां तुम मेरी अद्र्धांगिनी के रूप मेंं मेरे साथ नहींं हो। मेरे उस स्वरूप मेंं मैंं केवल स्व मेंं सिथत हूं। यह कह कर भगवान षिव ने स्व तत्त्व को दो भागों मेंं विभाजित कर दिया। उनका एक रूप कैलाष पर्वत पर यथावत रहा जबकी दूसरा रूप गोरक्षनाथ के रूप मेंं अन्यत्र एकान्त मेंं तपलीन हो गया।
तदनन्तर एक दिन षिव व पार्वती भ्रमण करते हुए एक ऐसे स्थान पर पहुंचते हैं जहां चारों ओर अनोखा वातावरण है। पार्वती के पूछने पर षिव किसी योगी द्वारा उस स्थान पर तपस्यारत होना बताते हैं। पार्वती उस योगी की परीक्षा लेने की आज्ञा लेती है और अपनी माया से नाना प्रकार से उस योगी को लुभाने का प्रयास करती हैं, किन्तु वह योगी उन्हें केवल मां का संबोधन देता है। पार्वती उस योगी को आषीर्वाद देकर पुन: षिव के पास लौटती है और षिव से उस योगी के बारे मेंं पूछती है कि, तपलीन वह कौन हैं जो उनकी माया शकित के प्रभाव से भी परे है। तब षिव उन्हें बताते हैं कि, वह गोरक्षनाथ है, जो उनका ही दूसरा रूप है और इस रूप मेंं पार्वती उनके साथ नहींं हैं। जिस प्रकार प्रकाष और प्रकाषक को अलग नहींं किया जा सकता उसी प्रकार षिव और गोरक्ष मेंं भेद नहींं किया जा सकता। उनका यह रूप समस्त देवताओं और मनुष्यों का इष्ट है, जो माया से परे, काल का भी काल और समयापेक्षित अनेक रूपों से प्रकृति चक्र का संचालक है। संसार के कल्याण तथा वेद, गौ व पृथ्वी की रक्षा के लियेे ही उन्होंने गोरक्ष रूप धारण किया है। इस रूप मेंं पार्वती सर्वथा उनके साथ नहींं है।
11. गोरक्ष विजय नामक पुस्तक मेंं यही कथा एक अन्य रूप मेंं इस प्रकार है कि, आदिनाथ भगवान षिवषंकर के पष्चात चार सिद्ध क्रमष: मीननाथ, गोरक्षनाथ, हाडिपा तथा कान्हुपा उत्पन्न हुए। पार्वती द्वारा षिव से इन चारों सिद्धों की परीक्षा लेने की अनुमति मांगी गयी और आज्ञा मिलने पर भुवनमोहिनी रूप धारण करके चारों सिद्धों को उनके द्वारा अन्न परोसा गया। उस अवसर पर चारों सिद्धों के मन मेंं अलग-अलग विचार आये। मीननाथ ने सोचा कि ऐसी नारी का संग प्राप्त हो तो मैं आनन्द से समय व्यतीत करूं। इस पर माता पार्वती ने शाप दिया कि तुम ज्ञान को भूलकर कदली देष मेंं सुन्दरियों के साथ विहार करोगे। हाडिपा ने एसी सुन्दरी के घर झाडू लगाने को भी श्रेयष्कर समझा। इस पर उसे शाप मिला कि वह रानी रूपमती के घर झाडूदार बने। कान्हुपा ने ऐसी सुन्दरी के लियेे प्राण देकर भी अपने को Ñतार्थ माना। इस पर उसे शाप मिला कि वह तुरमान देष मेंं हाडूका बनेगा। किन्तु गोरक्षनाथ ने सोचा कि ऐसी सुन्दरी मेरी मां होनी चाहिये। इस पर सती पार्वती ने अन्य कर्इ प्रकार से उनकी परीक्षा ली पर वह सभी मेंं खरे उतरे। इस पर पार्वती उन्हें कालजयी होने का आषीर्वाद देती है।
12. ब्रहमाण्डपुराण के ललितापुर वर्णन मेंं हयग्रीव संवाद मेंं गोरक्षनाथ को योगियों मेंं प्रमुख बताते हुए उनकी उपसिथति सदैव वायुमण्डल में बतायी गयी है।
तस्य चोत्तरकोणे तु वायुलोको महाधुति:।
तत्र वायुषरीराष्च सदानन्दमहोदया।।1।।
सिद्धा दिव्यर्षयष्चैव, पवनाभ्यासिनो•परे।
गोरक्षप्रमुखाष्चान्ये, योगिनो योगतत्परा:।।2।।
अर्थात उसके उत्तर कोण मेंं महाधुति नामक वायुलोक है जिसमें पवन अभ्यासी और योगियों के प्रमुख गोरक्षनाथ अन्य दिव्य ऋषियों के साथ सदा आनन्द मेंं मग्न रहते हैं। इससे प्रकट होता है कि, वायुलोक मेंं गोरक्षनाथ अब भी विधमान है।
13. मार्कण्डेयपुराण मेंं योगी गोरक्षनाथ के बारे मेंं कहा गया है कि,
द्विधा हठ: स्यादेकस्तु गोरक्षादिसुयोगिभि:,
अन्यो मृकण्डुपुत्राधै: साधितो हठसंज्ञक:।।
अर्थात, हठयोग दो भागों मेंं विभक्त है। एक विभाग की केन्द्र शकित महायोगी गोरक्षनाथ है तथा दूसरे की केन्द्र शकित चिरायु मार्कण्डेय आदिपद से सिद्ध बुद्धनाथ हैं।
महायोगी गोरक्षनाथ के प्राकटय के संबंध में इतनी कथाओं में से किसी एक पर बुद्धि को सिथर कर पाना बहुत दुविधापूर्ण और विवाद का विषय होगा किन्तु, महायोगी गोरक्षनाथ के गोबर से प्रकट होने की कथा निसन्देह उनकी गरिमा व प्रतिष्ठा को क्षति पहुंचाने के उददेष्य से प्रचारित की गयी प्रतीत होती है। सर्वोपरि तथ्य यह है कि रसायनों आधारित उर्वरकों विहीन और र्इंधन के मुख्य स्त्रोत स्वरूप प्रयोग किये जाने वाले तत्कालीन कृषि प्रधान भारत भूमि में निरन्तर बारह वर्ष तक गोबर एकत्रित करना किसी भी दृषिटकोण से स्वीकार नहीं है। द्वितीयत: नाथयोगियों के नाम उनकी किसी न किसी विषेषता से संबद्ध होते हैं उदाहरणार्थ कैलाष का स्वामी होने से कैलाषनाथ, अमरत्व प्राप्त होने के कारण अमरनाथ, जगत का स्वामी होने से जगन्नाथ, द्वारिका का स्वामी होने से द्वारिकानाथ अंगविहीन होने के कारण चहुरंगीनाथ (चौरंगीनाथ) आदि। इसी प्रकार महायोगी गोरक्षनाथ का गोबर से प्रकट होने पर गोबरनाथ संज्ञा से परिचय होना चाहिये था। गोरक्ष और गोबर में संज्ञा, पर्याय, व्याकरणीय त्रुटि, विकृत, अपभ्रंष, मुख सुविधा, स्थानीय उच्चारण अथवा किसी भी प्रकार कोर्इ संबंध स्थापित नहीं होता। स्पष्ट है कि कानों में कुण्डल धारण करने वालों को दर्षनी साधू के स्थान पर कनफटा कहकर उपहास करने की मानसिकता वाले समूह द्वारा ही गोरक्ष को गोबर से प्रकट होने की कथा रची गयी जिससे कि समयान्तर में इस विषेषण के आधार पर इस नाम को विकृत किया जा सके हालांकि वे गोरक्षनाथ को गोबरनाथ के रूप में स्थापित नहीं कर सके। कुल मिला कर कमल, कुमुदिनी और जलकुम्भी में भेद दृषिट रखने वाले पणिड़त को यदि चार चाण्डाल मिल कर उसके कान्धे पे रखी हुर्इ दान की बछिया को कोर्इ शूद्र पशु बता कर ठग लें तो उसमें दोष उन चाण्ड़ालों की कुटिलता का नहीं वरन उस पणिड़त के पाणिड़त्य की अपूर्णता का है। नाथयोगियों की गरिमा को लजिजत करने और उनकी प्रतिष्ठा को क्षति पहुंचाने के इस प्रकार के और भी कुतिसत प्रयास हुए हैं जो यथा स्थान उल्लेख किये गये हैं।
प्रसंंगवष यहां गोरक्ष पद पर विचार किया जाना समीचीन होगा। विचार के लियेे व्याकरण, उपमान, कोष, आप्तवचन तथा व्यवहार को दृषिटगत रखना होगा।
वेदज्ञ पूज्य श्रीअनिरूद्धाचार्य वेंकटाचार्यजी महाराज ने गो पद के निर्वचन, व्युत्पत्ति और अनेक अथोर्ं का रहस्ययुक्त प्रतिपादन वेद की कठ, मैत्रायणी शाखाओं और वेद की ताण्डय, जैमिनीय, शतपथ आदि ब्राह्राण ग्रन्थों की श्रुतियों के सन्दर्भ से किया है। सामवेद के ताण्डय ब्राह्राण में गो शब्द का निर्वचन गोवय तिरोभावे धातु से इस श्रुति में निम्नानुसार है
गवा वै देवा असुरान एभ्यो लोकेभ्यो•नुदन्त।
यद्वै तददेवा असुरान एभ्यो लोकेभ्यो गोवयन तदगोर्गोत्वम।
अर्थात देवों ने गवा – गो-प्रण एवं गो-प्राणी इन दोनों से किंवा तीनो लोकों से असुरों को भगा दिया। अर्थात असुरों का विनाश गो का गोत्व है। गो शब्द के इस निर्वचन के रहस्य का आंकलन श्रुति में निर्दिष्ट देव, असुर और गो के स्वरूप के वास्तविक ज्ञान के बिना कठिन है। अत: इन तीनों के स्वरूप का संक्षिप्त निरूपण प्रस्तुत है।
वेद में प्राणा वाव देवता: श्रुति के आधार से ऋषि, पितर, देव, असुर, गन्धर्व, मनुष्य और पशु भेद से सात प्रकार के प्राणों को देवता कहा गया है। इनके पीत, शुक्ल एवं कृष्ण आदि भिन्न-भिन्न रंग हैं। इनमें शुक्ल प्राण देव एवं कृष्ण प्राण असुर हैं। देवों का आवास सूर्यमण्डल है। असुरों का आवास पृथ्वी-मण्डल है। देवों की संख्या तैंतीस और असुरों की संख्या निन्यानवे है। सूर्य की एक-एक शुक्ल रशिम में सभी देव और पृथ्वी की छाया की प्रत्येक कृष्ण रशिम में असुर निवास करते हैं।
इन उभय देव एवंं असुरों से विश्व के सभी उच्चावच पदाथोर्ं का निर्माण होता है। निर्माण के समय स्व-स्व जागरण एवं परस्वाप के लिये देवासुर युद्ध होता है। जिस पदार्थ में देवों की विजय अर्थात जागरण और असुरों की पराजय अर्थात स्वाप होता है वह पदार्थ देवमय होता है। जिस पदार्थ में असुरों की विजय अर्थात जागृति और देवों की पराजय अर्थात स्वाप होता है वह पदार्थ असुरमय हो जाता है। निष्कर्ष यह कि विश्व के सकल पदाथोर्ं में देवता देव भाव का और असुर असुरभावों का संचार करते हैं।
देव तथा असुर के स्वरूप के संक्षिप्त निरूपण अनुसार सत्यं श्रीज्र्योतिरमृतं सुरा: अर्थात सत्य, श्री, ज्योति, और अमृत देव तथा असत्यं पाप्मा तमो मृत्युरसुरा: अर्थात असत्य, पाप्मा, तम और मृत्यु असुर भाव हैं। देवमय पदाथोर्ं के उपयोग से हमारे अध्यात्म, शरीर, मन, बुद्धि, प्राण एवं आत्मा में देव भावों का और असुरमय पदाथोर्ं के उपयोग से असुर भावों का संचार होगा। इसीलिये शास्त्रों में खाध-अखाध, पेय-अपेय और गम्य-अगम्य आदि व्यवस्थाएं दी गयी हैं।
देव व असुर के स्वरूप के संक्षिप्त निरूपण के पश्चात गो पद के निरूपण करते हैं। ऐतरेय ब्राह्राण की श्रुति आदित्या वा गाव: यह प्रमाणित करती है कि, तम नामक असुर भाव की विनाशिनी शकित जो सूर्य में है वह गो है। शतपथ ब्राह्राण में गम्लृ गतौ धातु से गो का निरूपण इस प्रकार किया गया है- इमे वै लोका गौ:! यद्धि किंचन गच्छति इमांल्लोकान गच्छति। इस आधार पर गच्छति इति गौ:, गम्यते इति गौ: तथा अथर्ववेद की पिप्पलाद शाखा के अनुसार अथ गोवर्ै सार्पराज्ञी अर्थात गो का अर्थ गतिमान अथवा गतिशील होना है। विस्तृत अर्थ में देखें तो ब्रह्रााण्ड सहित समस्त गतिशील पदाथोर्ं की संज्ञा गो है। इस अर्थ में अथ इयं पृथिवी वै सार्पराज्ञी अर्थात यह पृथ्वी भी गतीशील पदाथोर्ं की रानी है। पृथ्वी की गतिशीलता का वर्णन प्रख्यात खगोलविद विद्वान श्री आर्यभÍ ने आर्यभÍी ग्रंथ में इस प्रकार किया है-
अनुलोमगतिनर्ौस्थ: पश्यत्यचलं विलोमगं यद्वत।
अचलानि भानि तद्वत समपशिचमगानि लंकायाम।।
अर्थात गतिशील नौका में बैठा हुआ और सीधा जाता हुआ व्यकित तटस्थ अचल सिथर वृक्ष आदि वस्तुओं को पीछे जाता हुआ देखता है, वैसे ही गतिशील पृथ्वी पर बैठा हुआ व्यकित तारामण्डल को पशिचम में जाता हुआ देखता है। पृथ्वी गतिशील है अत: गो पदवाची है। न्यायदर्शन में तरंग-वीचि-न्याय से वाक की गतिशीलता का वर्णन किया गया है, अथ वाग्वै सार्पराज्ञी अर्थात वाक भी गतिशीलों में रानी है।
गच्छति इति गौ: इस निर्वचन से गो शब्द के अनेक अर्थ तिलक आदि कोश में दिये गये हैं, वे सभी अर्थ गतिशील होने से गो कहलाते हैें। इस प्रकार शब्दकोष के सन्दर्भ मेंं वज्र, जल, बैल, गाय, दिशा, सुख, स्पर्श, सत्य, चन्द्र, स्वर्ग, बाण, पषु, वाणी, नेत्र, किरण, पृथ्वी, जल, सूर्य, यज्ञ, सुरभि आदि गो पद के वाच्य हैं।
गो पद के निरूपण के पश्चात गोरक्ष पद की विवेचना करेें तो व्याकरण के दृषिटकोण से योगी प्रवर नेपाल राजगुरू श्री नरहरिनाथ के अनुसार गां रक्षतीति गोरक्ष:, रक्षतीति रक्ष:, गवां रक्ष गोरक्ष:, यावद- अर्थात गो पदवाच्य की जो रक्षा करता हो उसे गोरक्ष कहते हैंं। इस प्रकार गो पद के जितने भी अर्थ हैं उन अथोर्ं की रक्षा करने वाले का नाम गोरक्ष है। उपयर्ुक्त संज्ञा वाले संज्ञियों के रक्षाकर्ता का नाम गोरक्ष है। उपमिति के करण को उपमान कहते हैंं। उपमान उपमिति का असाधारण कारण है जिसका भावार्थ संज्ञा संबन्धी ज्ञान है। यथार्थ और सत्यवक्ता का नाम आप्तवचन है। इहलौकिक और पारलौकिक भेद से आप्तवचन दो प्रकार के प्रसिद्ध हैं। दर्षन, पुराण, इतिहास आदि इहलौकिक आप्तवचन के उदाहरण हैं, जबकि वेद का मन्त्र भाग, ब्राह्राण आदि पारलौकिक आप्तवचन हैें।
इस प्रकार अनेक विद्वदजनों ने गोरक्ष पद के अर्थ की मीमांसा की है। उन सभी पर गहन दृषिट डाली जावे तो वे अनेक स्थानों पर एक दूसरे से सहमत होते हुए गोरक्षनाथ के मौन इतिहास की गवेषणा करते हुए प्रतीत होते हैं। इस अर्थ और दृषिटकोण से गोरक्ष की संज्ञा किसी देहधारी मानव के लिये असत्य प्रतीत होती है। सत्य क्या है? यह कह पाना आज भी संभव नहींं हैं, किन्तु यह ध्रुव सत्य है कि, इतिहास जिस विषय मेंं मौन हो उसका उत्तर जनश्रुतियों, किंवदनितयों और दन्तकथाओं रूपी अलिखित साहित्य से ही संभव है। यदि यह माना जावे कि लिखित इतिहास केवल प्रत्यक्ष मेंं घटित घटनाओं का ही संकलन है तो इतिहास की आधुनिक विधा मेंं गोरक्षनाथ का कोर्इ उल्लेख नहींं होना उनके जन्म और काल को प्रत्यक्ष रूप मेंं घटित नहींं होना सिद्ध करता है।
फिर गोरक्षनाथ की वास्तविकता क्या है? क्या गोरक्षनाथ केवल एक विचार है? क्या गोरक्षनाथ शरीर और मनोविज्ञान की एक परम्परा है? क्या गोरक्षनाथ और मत्स्येन्द्रनाथ की कदली के स्त्री राज्य से विजय की कथा का मनुष्य के शारीरिक रचना और आध्यातिमकता से कोर्इ संबन्ध है? नाथपंथ मेंं जिस प्रकार गूढ़ अथोर्ं वाली सांकेतिक पदावलियों का प्रयोग किया जाता है- उसी प्रकार क्या गोरक्षनाथ और नाथपंथ के अन्य सिद्ध आदि केवल एक विचार और आध्यातिमक संकेत हैं?
मूल कथा अनुसार योगी मत्स्येन्द्र नाथ कामरूप देष के कामाख्या प्रदेष मेंं महारानी मैनाकिनी (मंगला) और सौलह सौ अन्य रानियों के साथ योग साधना मेंं तानित्रक कौलाचार प्रयोग कर रहे थे। (याद रहै कि, चोरी से योग विधा को प्राप्त करने के कारण मत्स्येन्द्रनाथ को षिव द्वारा एक समय योग विधा भूल कर पथभ्रष्ट होने और लंका विजय के लियेे समुद्र पर सेतु बनाते समय रानी मैनाकिनी को बारह वर्ष तक योगी मत्स्येन्द्रनाथ का सानिनध्य प्राप्त करने का वरदान दिया गया था)। इस स्त्री राज्य मेंं किसी पुरूष विषेषत: योगी संन्यासी का प्रवेष निषिद्ध था। अपने दिये हुए वरदान की रक्षा के लियेे स्वयं हनुमान इस नगर की रक्षा कर रहे थे। उधर अपने गुरू को इस स्त्री राज्य से मुक्त कराने के लियेे गोरक्षनाथ के अग्रसर होने के दो कारण थे। प्रथमत: वे योग साधना मेंं कौलाचार की वामपंथी विÑति को दूर कर अपने गुरू को योग के मूल पंथ मेंं वापस लाना चाहते थे और द्वितीयत: जालन्धरनाथजी के षिष्य कानिहपा के साथ हुए एक छोटे से वाद-विवाद के कारण गोरक्षनाथ के लियेे यह आवष्यक हो गया था कि वे मत्स्येन्द्रनाथ को उस स्त्री राज्य से मुक्त करावें। उल्लेखनीय है कि, मत्स्येन्द्रनाथ का स्त्री राज्य मेंं कौलाचार साधना और जालन्धरनाथ का गौड बंगाल मेंं मैनावती के पुत्र गोपीचन्द्र को बारह वर्ष पष्चात नाथ सम्प्रदाय मेंं दीक्षित कराने का वचन एक ही समय की घटनाएं हैं। गोपीचन्द्र को नाथ सम्प्रदाय मेंं दीक्षित करने से रोकने के लियेे सभासदों और रानियों के कहने पर साधनारत जालन्धरनाथ को गोपीचन्द्र ने एक कुएं मेंं फिकवा कर ऊपर से मिटटी व घोड़े की लीद आदि डलवा दी थी। वाद-विवाद मेंं गोरक्षनाथ ने कानिहपा को उनके गुरू (जालन्धरनाथ) के अपमान का उलाहना दिया तो कानिहपा ने भी मत्स्येन्द्रनाथ के पथभ्रष्ट होने और नाथ सम्प्रदाय की बदनामी का उलाहना दिया था।
विचारणीय प्रष्न यह भी है कि, गोरक्षनाथ जैसे महामानव और महाचरित्र के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ पर स्त्री मोह के इतने अधिक प्रभाव की किंवदंती के पीछे क्या कोर्इ अन्य संकेत भी छिपा हुआ है?
नाथ सम्प्रदाय का आधार पुरुष मत्स्येन्द्रनाथ स्वयं की इतनी उच्च अवस्था को त्यागकर स्त्री मोह में इतना अधिक रत हो जाये, यह आसानी से स्वीकार्य नहींं हो सकता। नवनाथ भकितसागर, नाथलीलामृत और सिद्ध चरित्र नामक कतिपय नाथ ग्रन्थों मेंं इस घटना का उदात्तीकरण करने का प्रयास दिखार्इ देता है। जो ऐसा प्रतीत होता है कि, नाथपंथ के कुछ विद्वानों द्वारा अपने सम्प्रदाय के आदिपुरुष का दोष छिपाने का प्रयास किया गया हो।
बहरहाल, इन सभी और ऐसे अनेक प्रष्नों का उत्तर तो समुद्र मंथन की भांति एक महान शोध के पष्चात भी कदाचित संभव न हो सके किन्तु गोरक्षनाथ द्वारा अपने गुरुदेव मत्स्येन्द्रनाथ को कदली देष के स्त्री राज्य से मुक्त कराने की प्रमुख आख्यायिका पर महाराष्ट्र की केतकी महेष मोडक ने गोरक्षनाथ मनिदर गोरक्षपुर से वर्ष 1998 मेंं प्रकाषित योगवाणी के अंक चार मेंं योगात्मक रूप से बहुत ही तार्किक प्रकाष डाला है। यधपि उनके द्वारा प्रस्तुत रूपक किसी किसी स्थान पर पदों के प्रतीकात्मक रूप, विषय से सामंजस्य नहींं बैठा पाते तथापि उनकी प्रस्तुति निष्चय ही इस विषय पर वैज्ञानिक दृषिटकोण से विचार करने पर विवष करती है।
इससे पूर्व वर्ष 1992 मेंं नेपाल राजगुरु योगी प्रवर नरहरिनाथजी महाराज द्वारा जयपुर के झालाणा ग्राम में वर्तमान थाना मालवीया नगर व केलगिरी आर्इ हास्पीटल के मध्य सिथत प्राचीन षिवमनिदर मेंं कोटि होम यज्ञ सम्पन्न करवाते समय रात्रि मेंं उनकी चरण सेवा के प्रसाद स्वरूप दिये जाने वाले प्रवचनों मेंं एक दिन इसी प्रकार के वचनामृत का रसपान करने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ। किन्तु उस समय मेरे अन्तर्मन पर उनकी सुविधा, सेवासुश्रूषा और कोटिहोम यज्ञ का निर्विघ्न पूर्ण होने का विचार अधिक हावी होने से उनके द्वारा कहे हुए वृत्तान्त को अपने स्मृति पटल पर नहींं रख सका। किन्तु वर्ष 1994 मेंं अपने विभागीय कार्य से अपने साथी कर्मचारी उपनिरीक्षक भंवर सिंह गौड़ के साथ उदयपुर प्रवास के दौरान ऐसा ही आख्यान उदयपुर के आयस योगी प्रवर मगन मोहननाथजी महाराज ने मेरे द्वारा योगी प्रवर नरहरिनाथजी महाराज के वचनामृत के सन्दर्भ मेंं जिज्ञासा करने पर बताया था। वस्तुत: तब से ही मेरे मन मेंं इस कथा मेंं आये पदों का कोर्इ अन्य अर्थ होने की धारणा घर कर गयी थी।
जैसा कि गोरक्ष पद पर विचार करते समय हमने पाया कि गोरक्ष पद मेंं गो के अनेक अथोर्ं मेंं इनिद्रय भी एक है और रक्ष से रक्षा करने वाला अभिहित है। इस आधार पर मानव शरीर मेंं इनिद्रयों की रक्षा करने वाला अन्तर्मन गोरक्ष पद का अर्थ हो सकता है- इस विचार के प्रकाष मेंं अन्य बातों पर विचार किया जावे तो मत्स्येन्द्रनाथ संबन्धी इस आख्यायिका मेंं एक महान आध्यातिमक सत्य का प्रस्फुटन होता प्रतीत होता है।
मानव देह रूपी देष मेंं दक्षिण अर्थात नीचे की ओर जो मुलाधार चक्र नामक स्त्री राज्य है जिसकी रानी पदमिनी (मूलाधार सिथत अधोमुखी अष्टदलीय कमल) नामक सदवासना है। वहां और उसके आस-पास के क्षेत्र मेंं नित्य निरन्तर वासनाओं रूपी सित्रयों का कोहराम मचा रहता है। इस स्त्री राज्य में मारुती के वुभूकार से ही अपत्य की प्रापित होती है और पुरुष संतति वहां जीवित नहींं रहती। इसका अर्थ है कि, मारुती (हनुमान, जिन्हें नाथ सम्प्रदाय के ध्वज पंथ का प्रवर्तक माना जाता है- का एक नाम जो आत्मतत्त्व का वाचक है और वासनाओं से निर्लिप्त व निसंग है) अर्थात श्वास-नि:ष्वास से उत्पन्न होने वाले विचार, कल्पना तथा वासना आदि मेंं से अपने समानधर्मी कामनाओं को इस क्षेत्र मेंं स्थान प्राप्त हो जाता है। जबकि वासनाओं के अतिरिक्त आत्मविषयक उच्च विचारों का वहां प्रवेष नहींं होता। उल्लेखनीय है कि, यहां कामना और वासना स्त्री और आत्म विषयक उच्च विचार पुरुष का प्रतिनिधित्व करते हैंंं। मूल आख्यायिका अनुसार रानी पदमिनी को एक दिन ऊपर आकष से गमन करता हुआ मारुती दिखार्इ देता है ओर उसके मन मेंं मारुती के प्रति काम भावना जागृत होती है।
योग ग्रन्थों के अध्ययन से पता चलता है कि, जब सदवासना ऊध्र्वमुखी हो जाती है तब क्षणमात्र के लियेे ही सही किन्तु उसे आत्मा के सामथ्र्यषाली रूप का दर्षन हो जाता है और यह निष्चय ही इतना आकर्षक होता है कि, किसी भी अच्छी चीज के दिखने पर खुद के लियेे उसकी मांग करने वाली प्रÑति से विवष वासना उसे प्राप्त करने के लियेे उत्कणिठत हो जाती हैं, किन्तु आत्मतत्त्व निष्चल और निर्लेप होने के कारण वासना का उददेष्य पूरा नहींं करता, किन्तु आत्मा का पुत्र जीव चंचल इनिद्रयों वाला होने के कारण वासनाओं से संबंधित हो जाता है। यह जीव ही मत्स्य के समान चंचल इनिद्रयों वाला अर्थात मत्स्येन्द्रनाथ है। वासनाओं से संबंधित हो जाने पर मत्स्येन्द्र नामक जीव की शनै: शनै: अपने मूल आत्मस्वरूप से विस्मृति होती रहती है। इस मत्स्येन्द्र नामक जीव को कभी कभी इनिद्रयों की रक्षा (गो:- इन्द्रीय, रक्ष:- रक्षक अर्थात गोरक्ष) की याद आती है, तो तत्क्षण के लियेे वह उसी प्रकार चौंक उठता है जैसे सुख उपभोग की गहरी नींद से कोर्इ क्षणमात्र के लियेे कोर्इ चेतावनी सुनकर जाग पडे, किन्तु आंख खुलने पर स्वयं को सुरक्षित पाकर पुन: निद्रालीन हो जावे। आनन्दभोग मेंं मस्त हुआ मत्स्येन्द्र इसी प्रकार संयम को अस्वीकार करने लगता है और वासनाओें के जाल मेंं उलझा रहता है।
प्रष्न यह है कि, वासना आसक्त हुए मत्स्येन्द्र नामक जीव को मायाजाल रूपी इस स्त्री राज्य से मुकित कौन दिलवायेगा?
विकल्परहित उत्तर है इनिद्रयनिग्रही विचार अर्थात गोरक्षनाथ। इसीलियेे वासना आसक्त जीव (मत्स्येन्द्र) को इनिद्रयनिग्रही विचार (गोरक्ष) बारम्बार सजग करने का प्रयास करता है। पुन:, चूंकि इनिद्रय संयम का यह विचार आत्मतत्त्व रूपी पुरुष संतति का प्रतिनिधि है जिसका प्रवेष वासना क्षेत्र मेंं निषिद्ध है, अत: यह सूचना प्रकट रूप से नहींं दी जाकर अप्रत्यक्ष रूप से दी जाती है। संकट, व्यवधान, दु:ख, कठिनार्इ और यदा-कदा पुन: प्राप्त होने वाली स्मृति के समय जीव यह सूचना प्राप्त कर लेता है। गोरक्षनाथ स्वयं अपने रूप मेंं मत्स्येन्द्रनाथ के समक्ष उपसिथत नहींं होते। वासना को उत्प्रेरित और पूर्ति मेंं सहायक वातावरण रूपी स्त्री वेष ही गोरक्षनाथ का वह अप्रत्यक्ष रूप है।
अन्त मेंं गोरक्षनाथ द्वारा मृदंग के माध्यम से मत्स्येन्द्रनाथ को जाग मच्छन्दर गोरख आया का अनुभव करवाना इस आख्यायिका का सबसे महत्त्वपूर्ण अंष है। तत्त्ववेत्ताओं मेंं यह निर्विवाद रूप से स्वीकार्य है कि, देहरूपी मृदंग मेंं ‘सो•हं का अनहद नाद नित्य और अनवरत रूप से ध्वनित होता रहता है। वासना मेंं आसक्त रहने से जीव उसे क्षीण ध्वनि से सुनता रहता है किन्तु यही ध्वनि जब इनिद्रय निग्रह के माध्यम से सुनी जाती है तब इसका भान तीव्रता से होता है। इस अनहद नाद को सुनकर जीव अपने आत्मस्वरूप का अनुभव कर जब वासनाओं के जाल से स्वयं को मुक्त करने का प्रयास करता है तब ही गोरक्ष विजय होती है।
महायोगी गोरक्षनाथ के इस आध्यातिमक रूप की विलक्षण व्याख्या की भांति ही एक ऐतिहासिक गवेषणा भी पुन: एक और विलक्षण तथ्य की बहुत स्पष्ट आकृति प्रस्तुत करती है। हालांकि अगि्रम पंकितयां बहुत विवादास्पद होकर स्वयं लेखक को भी अनेक कारणों से स्वीकार नहीं हैं किन्तु तर्क की कसौटी मान्यताओं के आधार को हिलाती है और एक नयी दिषा देती है और इसी कारण अग्रांकित विचारों को इस ग्रंथ में स्थान दिया गया है। प्रष्न यह नहीं है कि हम इससे सहमत होते हैं या नहीं? उददेष्य महायोगी गोरक्षनाथ के संबंध में इस धरा पर बिखरे हुए कथानकों को एकत्र कर उन्हेेंं ऐसे लोगों के समक्ष प्रस्तुत करना है जो अनुयायी अथवा आलोचक के रूप में उनके बारे में जानना चाहते हैं। अगि्रम पंकितयां वस्तुत: एन्साइक्लोपीडिया में उपलब्ध सामग्री का सरल, सुगम व बोधगम्य अनुवाद आधारित तथ्यों की क्रमबद्ध प्रस्तुती का प्रयास मात्र है जिसमें महान ऐतिहासिक मंगोल नायक चंगेज खान को अपने पश्चातवर्ती जीवन में गोरक्षनाथ होना बताया है। तदनुसार…….
महाभारत के महानायकों में कर्ण एक प्रमुख नाम है। इस महानायक ने अपने मित्र दुर्योधन के लिये उत्तर व उत्तर पषिचमी मध्य ऐषिया और मध्य भारत सहित दक्षिण पूर्वी भारत के अनेक भू-भागों पर विजय प्राप्त कर अपने राज्य में मिलाया था उन राज्यों में कर्ण का नाम हमेषा के लिये अंकित हो गया था। शब्दों की पर्यायता, स्थानीय उच्चारण और मुख सुविधा के कारण कर्ण को कान कहा जाना और कालान्तर में कान का खान के रूप में स्थापित हो जाना बहुत अधिक विवाद का विषय नहीं है। महाभारत में विजय के बाद अजर्ुन ने भी मध्य ऐषिया के अनेक स्थानों को अपने राज्य में मिलाया था किन्तु कर्ण के प्रथम विजेता होने, उसके युद्ध कौषल की लोकप्रियता और उन क्षेत्रों में बहुत समय तक एक शासक अथवा दुर्योधन के राजदूत के रूप में उसकी व्यकितष: उपसिथति और वीरता व दान की युतियुक्त यषगान ने उसकी कीर्ती को जो स्थायित्व दिया वैसा प्रभाव अजर्ुन के संबंध में अंकित नहीं हो सका। इस तथ्य की पुषिट युद्ध के मध्य अजर्ुन का प्रतिद्वन्दी होने पर भी श्रीकृष्ण द्वारा कर्ण के युद्ध कौषल की प्रषंषा किये जाने से भी होती है। श्रीकृष्ण द्वारा कर्ण के युद्ध कौषल की प्रषंषा करने पर अजर्ुन के पूछने पर श्रीकृष्ण कहते हैं कि अजर्ुन, मै इस सृषिट का संचालक होकर इस युद्ध में स्वंय तुम्हारे लिये सारथी कर्म कर रहा हूं और तुम्हारा रथ महाबली हनुमान द्वारा रक्षित है। इतना होने पर भी कर्ण के तीरों से न केवल तुम विचलित हो गये हो वरन तुम्हारे रथ को भूमि पर गिरने से बचाने के लिये मुझे माया का प्रयोग करना पडा इसलिये, कर्ण का युद्ध कौषल प्रषंषनीय है। इसे और गहनता से देखा जावे तो कर्ण के युद्धकौषल को मध्य ऐषिया के लोगों ने अपना आदर्ष बना लिया अपने समूह का नाम कान (खान) रख लिया। कर्ण द्वारा विजित अन्य भू-भागों के सन्दर्भ में यही सिथति हूण और मंगोलों के संबंध में पर्याप्त प्रकाष डालती है और यह कहने का युकितयुक्त आधार है कि हूणों के माध्यम से मंगोल भी प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से कर्ण के वंषज होने की संभावना अति प्रबल है।
कर्ण का मंगोल जाति से संबद्ध होने की इस संक्षिप्त चर्चा के बाद कुछ विलक्षण संयोग विचारकों के समक्ष हठात उपसिथत होते हैं जो आंकलन और गवेषणा के लिये निम्नानुसार बिन्दूवार प्रस्तुत है।
1. उत्तर ऐषिया एवं मध्य ऐषिया में ग का उच्चारण च किया जाता है उदाहरणार्थ गंगा को तिब्बती व चीनी भाषा में चंगा लिखा व बोला जाता है।
2. खान कर्ण का अपभ्रंष है जो कान का पर्यायवाची शब्द होकर स्थानीय उच्चारण एवं मुख सुविधा के सिद्धान्त अनुसार विकसित और किसी महानायक को अपना आदर्ष बनाने की परंपरा के कारण असितत्व में आना अति संभव है।
3. चंगेज खान को गंगेज खान भी कहा जाता है जो गंगा की पावनता और कर्ण के महानायकत्व से प्रेरित होकर एक संयुक्त उपाधी के रूप में धारण की गयी प्रतीत होती है। अंग्रेजी भाषा में गंगा को गंगेज और चंगेज (Changis) को Ghenghis लिखा जाता है। उच्चारण में Ganges और Ghengis की ध्वनी समान ही है।
4. महानायक कर्ण के कानों में जन्म के समय वे दिव्य कुण्डल थे जो नाथयोगियों का विषेष पहचान का चिन्ह है।
5. चंगेज खान ना तो मुसिलम था ना र्इसार्इ वरन महाभारत के नागवंषी समाज की तरह उत्तर-पूर्वी और दक्षिणी भारत की तानित्रक संस्कृति एनिमिज्मक्षमानिज्म का उपासक था जो बौद्ध और जैन संप्रदाय की श्रमण विचारधारा के समान थी।
6. उसने भारत के किसी भू-भाग पर आक्रमण नहीं किया बलिक अफगानिस्तान से शाह व मुसिलमों को भगाने के लिये आक्रमण किये।
7. यहां तक कि चंगेज खान के प्रपौत्र खूबीलार्इ खान, जो बौद्ध धर्म का अनुयायी हो गया था, ने भी भारत पर कभी आक्रमण नहीं किये। यह समझा जाता है कि चंगेज खान के 4-5 पीढियों तक किसी ने भारत पर आक्रमण नहीं किया किन्तु इसके बाद की पीढी जिसने इस्लाम स्वीकार कर लिया था, ने भारत पर आक्रमण किये।
8. गोरक्षनाथ के समय के बारे में कुच्छ विद्वानों का 8-9वीं और अन्य के अनुसार 11-12वीं शताब्दी है और यही समय चंगेज खान बताया जाता है।
9. नेपाल के गोरखा अपने नाम का उदभव हिन्दू योद्धा सन्त गोरक्षनाथ से होना बताते हैं जो अन्यथा भी सिद्ध है।
10. शब्दों के बनने बिगडने की अपभ्रंष प्रकि्रया और उच्चारण में मुख सुविधा के सिद्धान्त अनुसार गोर खान ही गोरखा और गोर्खा हो गया।
11. तथ्य यह भी है कि 8वीं से 12वीं शताब्दी के मध्यकालीन समय में चंगेज खान जैसे नायक की किसी समाधी का नहीं होना आष्चर्यजनक है जबकि महाराष्ट्र में गणेषपुरी के पास वज्रेष्वरी मनिदर में सिथत समाधी को महायोगी गोरक्षनाथ की समाधी होना बताया जाता है
12. महायोगी गोरक्षनाथ द्वारा मध्य ऐषिया के अफगानिस्तान, बलुचिस्तान, उज्बेकिस्तान, कजाकिस्तान, तजाकिस्तान, मक्का-मदीना सहित उन स्थानों की यात्रा करना बताया जाता है जहां चंगेज खान द्वारा आक्रमण किये गये।
13. महायोगी गोरक्षनाथ कनफटा नाथयोगियों के पंथ प्रवर्तक थे और बहुत संभव है कि ये कानफटा योगी हिन्दुओं का खान साम्राज्य रहा हो क्योंकि कान और खान की ध्वनी में अन्तर इतना क्षीण है कि विषेष प्रयास से ही अनुभव में आता है।
14. महायोगी गोरक्षनाथ के ग्रंथ सिद्ध सिद्धान्त पद्धति की ही भांति मंगोल नायक चंगेज खान ने यष नामक आचार संहिता लिखी।
उपरोक्त तथ्यों की बहुत अधिक मीमांसा नहीं करते हुए सीधे निष्कर्ष की बात करें तो बहुत संभव है कि मंगोल का महानायक चंगेज खान ही नेपाल में प्रकट होने वाला योगी गोरखनाथ था।
जो भी हो, एक अन्तहीन विषय पर चर्चा अथवा वाद-विवाद भी किसी निष्कर्ष को प्रकट नहींं कर सकता। गोरक्षनाथ केवल एक विचार है अथवा देहधारी मानव?, वर्तमान का सत्य यह है कि, महायोगी गोरक्षनाथ की जयंती मनाने के लियेे उत्कणिठत राजस्थान सहित सम्पूर्ण भारत के नाथयोगी काफी अर्से से उनके प्रादुर्भाव की तिथि जानने के लियेे प्रयासरत थे। हिंगुवा मठ के महन्त योगी प्रवर श्री हजारीनाथजी महाराज (वर्ष 2006 में षिवलीन) की प्रेरणा से योगी मानसिंह तंवर (11 मर्इ 2008 को षिवलीन) ने अपने सहयोगियों सहित सभी संभव प्रयास किये और अन्तत: नेपाल राजगुरू योगी प्रवर श्री नरहरिनाथजी महाराज की Ñपा और सहयोग से नेपाल दरबार लायब्रेरी के एक ग्रन्थ मेंं निम्नांकित पंकितयां मिली।
वैषाखी-षिव-पूर्णिमा-तिथिवरे वारे षिवे म³गले।
लोकानुग्रह-विग्रह: षिवगुरुर्गोरक्षनाथो•भवत।।
ऊपरोक्त पंकितयों से यह सिद्ध होता है कि, महायोगी गोरक्षनाथ का प्रकटीकरण वैषाख मास की पूर्णिमा को हुआ था। यह प्रकटीकरण भूमण्डल और काल के किस खण्ड मेंं हुआ था? इस सम्बन्ध मेंं कोर्इ स्पष्ट व सटीक जानकारी उपलब्ध नहींं हो सकी। यधपि यह विष्वास किया जाता है कि, योगी मत्स्येन्द्रनाथ के नेपाल में अवलोकितेष्वर रूप में अवतरित होने से बारह वर्ष पूर्व गोरक्षनाथ का प्राकटय हुआ था। अब योेगी मत्स्येन्द्रनाथ का समय निर्धारित करें तो नेपाल के एक षिलालेख के अनुसार अवलोकितेष्वर के अवतार का अनुमान कलियुग के बीत चुके समय में से 3600 घटाने पर जितना षेष बचता है वह समय अवलोकितेष्वर के अवतार (अथवा नेपाल आगमन) का है।
नेपाल धरा का षिलालेख
अतीत कलि वर्षेषु, षून्य द्वन्द्व रसागिनषु।
नेपाले जयति श्रीमानार्यावलोकितेष्वर:।।
इस आधार पर गणना करें तो पौराणिक भारतीय काल गणना आंकडों के ऐसे अन्तरिक्ष में ले जाती है, जो वैज्ञानिक व सटीक होते हुए भी अपनी विलक्षण सूक्ष्मता और विषालता के कारण कपोल कलिपत और अविष्वसनीय लगती है।
हम मानवों की विवषता ही है कि, हमने किसी भी विषय की बहुत सूक्ष्म और उसकी विषाल र्इकार्इ का षैक्षणिक ज्ञान तो प्राप्त कर लिया और उसकी कल्पना भी कर ली, किन्तु उसे पूरी तरह जानने और मापने का यन्त्र अब तक तो विकसित नहीं कर सके। हमारे अब तक के विकसित यन्त्र और हमारी इनिद्रयों की षकित केवल इनके मध्य को ही देख व समझ सकती है। फिर भी भारतीय पौराणिक व आध्यातिमक ग्रन्थ काल मापने की इन र्इकार्इयों का जो अनुमान देते हैं, उसके अनुसार बढ़ते क्रम से हम मनुष्यो के समय की सबसे सूक्ष्म र्इकार्इ:-
1. परमाणु,
2. दो परमाणुओं का एक अणु,
3. तीन अणुओं का एक त्रसरेणु,
4. तीन त्रसरेणुओं की एक त्रुटि,
5. सौ त्रुटियों का एक वेध,
6. तीन वेधों का एक लव,
7. तीन लवों का एक निमेष,
8. तीन निमेष का एक क्षण,
9. पांच क्षणों की एक काष्ठा,
10. पन्द्रह काष्ठाओं का एक लघु,
11. पन्द्रह लघुओं की एक नाडि़का (),
12. छ: नाडि़काओं का एक प्रहर (लगभग 3 घण्टे),
13. आठ प्रहर का एक अहोरात्र (लगभग 24 घण्टे) ,
14. पन्द्रह अहोरात्र का एक पक्ष (पखवाडा) ,
15. दो पक्षों का एक मास,
16. छ: मास का एक अयन,
17. दो अयनों का एक वर्ष और इस प्रकार दषाब्द, षताब्दी, सहस्त्राब्द व युग है।
देवताओं के समय का परिमाण मनुष्यों के समय से तीन सौ साठ गुणा अधिक है। इस प्रकार मनुष्यों का एक वर्ष देवताओं का एक अहोरात्र, मनुष्यों के तीस वर्ष देवताओं का एक महीना, मनुष्यों के तीन सौ साठ वर्ष देवताओं का एक दिव्य वर्ष और मनुष्यों के चारों युग (अर्थात सतयुग के सत्रह लाख अटठार्इस हजार, त्रेता के बारह लाख छियानवे हजार, द्वापर के आठ लाख चौसठ हजार और कलियुग के चार लाख बत्तीस हजार इस प्रकार कुल तैतालीस लाख बीस हजार वर्ष) बीतने पर देवताओं का एक दिव्य युग व्यतीत होता है। इसी प्रकार ब्रह्राा के समय का परिमाण देवताओं के समय से तीन सौ साठ गुणा अधिक है। साधारण षब्दों में कहें तो ब्रह्राा के एक दिन में चारों युग एक-एकश्हजार बार व्यतीत हो जाते हैं। इसी एक दिन में 14 मनु व 14 इन्द्र बदल जाते हैं और हम मानवों के चार अरब बत्तीस करोड़ वर्ष समाप्त हो जाते हैं। ब्रह्राा के इस दिन को कल्प या सर्ग कहा जाता है और इतने ही समय की रात होती है जिसे प्रलय कहते है। इतने बड़े दिन रात वाले सौ वर्ष धारण करके ब्रह्राा का निधन हो जाता है। गणना में त्रुटि नहीं हुर्इ हो तो ब्रह्राा के ये सौ वर्ष पृथ्वी के 31,10,00,04,00,00,000 वषोर्ं के बराबर होते हैं। षास्त्रज्ञों की मानें तो ब्रह्राा के सौ वषोर्ं अर्थात 31,10,00,04,00,00,00,000 वषोर्ं के बराबर विष्णु का एक दिन होता है और ब्रह्राा की 72 बार मृत्यु हो जाने के पष्चात विष्णु का निधन हो जाता है। इसी प्रकार विष्णु के सौ वर्ष पूर्ण होने पर षिव का एक दिन और विष्णु की 72 बार मृत्यु हो जाने पर षिव का भी निधन हो जाता है।
स्पष्ट है कि, विष्णु के एक दिन को लिखने के लिये हमें 17 अंको की आवष्यकता हुयी है तो मानवों के चतुयर्ुगों और देवताओं के दिव्ययुगों की भांति ब्रह्रायुगों, विष्णुयुुगों और षिवयुगों की फलित संख्या जानने के लिये गणितज्ञों का आश्रय लेना होगा। काल गणना के इस भंवर में उल्लेखनीय तथ्य यह है कि, समय व्यतीत होने के दृषिटकोण से देवताओं के लिये तो अभी सतयुग ही चल रहा है, और ब्रह्राा की आयु केवल आधी व्यतीत हुर्इ है। सम्भवत: ब्रह्राा के लिये सतयुग अभी षैषव अवस्था में, विष्णु के लिये भ्रूण अवस्था में और षिव के लिये तो सतयुग अभी जन्म की प्रकि्रया में ही है।
उपरोक्त विवेचन में हमने देखा कि समय की सूक्ष्मतम र्इकार्इ परमाणू को मापने में हम अब तक सक्षम नहीं हो सके हैं और इसकी विषालता के सन्दर्भ में हम मानवों का ज्ञान तो बीस से पच्चीस षताबिद तक ही सीमित है और उसमें भी अनेक विसंगतियां है। संवत्सर, युग, मन्वन्तर कल्प, महाकल्प और दिव्ययुग पदों वाले कालखण्डों में से हम साधारण मनुष्यों को केवल संवत्सर व षताबिदयों की घटनाओं का ही ज्ञान है।
आलोचना और अविष्वास की दृषिट से देखें तो कह सकते हैं कि, नाथपंथ के किसी अनुयायी ने काल्पनिक आधार पर इस श्लोक की रचना कर दी होगी। कुछ भी हो जब तक कोर्इ अन्य प्रमाण नहींं मिल जाता वैषाख पूर्णिमा गोरक्षनाथ जयंती के रूप मेंं स्वीकार करनी ही होगी।