Monday 23 June 2014

नाथ इतिहास

बारह पंथों के नाम
(सिद्धमार्ग व नाथ सम्प्रदाय) के प्रारम्भक आदिनाथ सदाशिव गोरक्षनाथ हैं।बारह पंथ भी नाथ सम्प्रदाय सम्बन्धित होने से शिव गोरक्षनाथ ही इनके मूल आचार्य हैं लेकिन फिर भी जब जब जो पंथ जिस समय जिस सिद्ध योगी द्वारा अधिक प्रतिष्ठित एंव प्रभावित हुआ उसके प्रभाव के सम्बन्ध से भी कुत्रचित् उसकी प्रासि‍‍द्धि के नाम से भी वह पंथ बोला जाता है।


 
१. आई पंथ २. सत्यनाथी पंथ ३. रामनाथी
४. नटेश्व्री ५. धर्मनाथी ६. वैराग्यपंथी
७. कपलानी ८. पागल (पालक) पंथी ९. गंगनाथी
१०. मनोनाथी ११. रावल (रावण) पंथी १२. ध्वज पंथी

 
यथा-वैराग्य, पागल, मनोनाथी का सम्बन्ध शिव गोरक्ष मत्स्येन्द्रनाथादि से है व उनके उत्तरवर्ती उनके शिष्य प्रशिष्यों सनक सनन्दन सनतकुमारादिकों से उत्तोत्तर उनकी प्रणाली से सम्बन्धित प्रसिेद्ध सिद्ध जब कोई हुआ है तो उसके नाम से ही उसका पंथ बोला जाने लगा। उसको ही उस शाखा का प्रारम्भक साधारण व्यवहार में व साधारण जन समुदाय में समझा व बोला जाने लगा। इस आशय से ही पूर्व वैराग्य, पागल, मनोनाथी आदि पन्थों के प्रवर्तक क्रमश: विचारनाथ, चौरंगीनाथ श्रृंग्डे.रिपानाथों को कहा गया है। क्योंकि द्वादश पन्थ तो उनसे पूर्व भी विद्यमान थे। उस समय की इनकी प्रसि‍‍द्धि को लेकर इनकों उनके प्रवर्तक कहा गया जिस समय मे ये हुए। बारह पंथों मे से इनके आचार्य और सिद्धों का आशय यह प्रतीत होता है कि द्वादश राशि गर्भ में समस्त संसार है और इस द्वादशराश्यात्मक संसार सागर से पार होने के लिये ही ये द्वादश पन्थ (मार्ग) इस सम्प्रदायिक आचार्यों ने निर्धा‍रित कियें है अथवा द्वादशमासिक वर्षात्मक काल सिमाओं के पार के (परमेश्वयर तत्व के) दर्शाने वाले द्वादश पंथ-मार्ग हैं अथवा द्वादश प्रचण्डमार्तण्डात्मक मूल ज्योर्तिमय सच्चिदानन्द स्वरूप परम सदाशिव हैं उसकी प्राप्ति के ये द्वादश पंथ हैं एवं द्वादश ज्योतिर्लिंग संख्या से सम्बन्ध होने से भी द्वादश पंथ (पथ) संख्या को मंगलवार सूचक कह सकते है। रूपान्तर से-नाथ सम्प्रदाय कल्पवृक्ष रूप मूल है, आदिनाथ श्री गोरक्ष उसके अमृतमय फल है उनके भोक्ता सिद्धयोग तहासिद्धयोगी है।


   
 
बारह पंथों का सार्थक्य—


 
१. सत्यनाथ पंथ
यह ब्रह्माण्ड जनक हैं। अत: उसकी सादर उपासना आवश्यहक है एवं उसका द्योतक सत्यनाथ पंथ भी भवितव्य है स्वयं पर कृपा के लिये।

   
 
२. आई पंथ
यह नाम उस सर्वाध्यक्ष परमेश्वुर की शक्ति का है जो सब वस्तु पदार्थों को अदृश्य् हुई सुनियमन कर रही है जिस बिना कोई भी कुछ करने को समर्थ नही है। यथा-
शक्तिरस्त्त्यैश्वकरी काचित्सर्ववस्तुनियामिका।
आनन्दमयमारम्य गुढा सर्वेषु वस्तुषु।।

जिसके बिना कोई भी क्रिया सम्भव नही हो सकती, वही ‘आई’ शक्ति परमेश्व र शक्ति की बोधिका है जो सदाशिव से अभिन्न है चन्द्रचन्द्रिकयोरेव एवं उसकी उपासना हृदयोत्कट भावना से होना आवश्यिक है उसकी दत्तशक्ति से सब साध्य सिद्ध हाते है।

   
 
३. धर्मनाथ पंथ
यह सूचित करता है कि आखिर धर्म की ही जय होगी, यथा धर्मराज धर्म का पालन करता हुआ धर्म की रक्षा करता है वैसे ही सबका न्याय का आवरण करते हुए धर्म की रक्षा पालन करना आवश्यरक है। धर्मावरण से ही शिवयोग सिद्ध होता है। अत: इसकी याद के लिये धर्मपंथ आवश्यक है।

   
 
४. कपिल पंथ
कपिल सांख्य के प्रकृति विकृतियों के ज्ञान से पिण्ड ब्रह्मामण्डका ज्ञान सहज ‍होता है प्रकृति पुरूष के पार्थक्य का पुरूष बद्ध-अबद्ध का ज्ञान होकर शिवयोग मे सुकरता सुलभता अरती है अत: यह भी आवश्यकक है।

   
 
५. पावक (पाव) पंथ
यह प्रकाशित करता है कि पावक (अग्नि) वत् शक्ति प्राप्त कर देदीप्यमान हो त्रिविध पावनता से पूर्ण गुरू की आज्ञा में ‍हो कर उक्त योगानल शक्ति को उपलब्ध करे जिससे समस्त पापताप दग्ध होकर पावन होवे। अत: पावक पंथ भी आवश्यशक है।

   
 
६. मनोनाथी पंथ
यह प्रकाश करता है कि जिस किसी प्रकार से मन का शमन करने से एवं सत्त्व बुद्धि का मन पर स्वामित्व होने पर मनोविजयी को सर्वजयोपलब्ध होती है और उस शिवयोब से ही परमशिवत्व की प्राप्ति होती है अत: मनोनाथी पंथ (पथ) आवश्यशक भवितव्य है। उक्त पावक मन दोनों शाखा एक शाखा है अत: दोनो की संख्या में ५-५ का एक ही अंक है।

   
 
७. वैराग्य पंथ
यहृ सूचित करता है कि ‍बिना वैराग्य के ज्ञानाभाव होने से स्वात्मोपलब्धि सम्भव नहीं अत: वैराग्य पंथ जो वैराग्य होना परम आवश्यगक कल्याणार्थ समझाता है वह वैराग्य क्या है? वह है इस मृत्यु लोक के समस्त भोंगों से लेकर ब्रह्मलोक पर्यन्त अर्थात् ब्रह्मलोक के अशेष भोगों मे भी मनोवृत्ति का सघृणा सर्वदा निर्मूलन ही वैराग्य है। अत: वैराग्य का सूचक जो वैराग्य पंथ वह नितान्त सार्थक है।

   
 
८. पागल पंथ
यह सिखाता है ‍कि समस्त संसारियों से तथा सांसारिक विषय वासनाओं मे अनासक्त मनोभावो का होना व माया मोहान्धकार भंवर मे पडे सांसारिक पागलों का बोद्धा उद्धारक होने से पुण्यात्मक पंथ आवश्यवक है।

   
 
९. गंगानाथ पंथ
यह बोधित करता है कि भगीरथ वत् अनन्त तपोयोग से एवं अथकश्रम से लक्ष्य की प्राप्ति होती है अर्थात परम पावन लक्ष्य सिद्ध होता है।

   
 
१०. नटेश्वोरी पंथ
यह शिक्षण करता है कि यति और सत्य मे पूर्ण प्रयत्नवान होने से नटेश्वकर वत् हो जाता है अर्थात् शिव समान हो जाता है। यथा-बालकनाथ=लक्ष्मण ने गुरू कृपा से यत सत मे पूर्ण हो नटेश्वथर (नटराज शिव) का सिंहासन प्राप्त किया वैसे ही अन्य योगियों को यति और सत्य में सम्यक प्रतिष्ठित हो कर स्वलक्ष्य शिव को प्राप्त करना आवश्यकक है। नटेश्वयर शिव है उससे सम्बन्धित टिल्ला स्थान स्वरूप मट नटेश्वषरी (शिव की गद्दी=सिंहासन) का नाम है। यह सिंहासन सर्वप्रथम आदिनाथ शिव का तथा तद्रूप गोरक्षनाथ का है। आदिनाथोत्तर मत्स्येन्द्रादि महासिद्धेश्व‍रों का तथैव श्री गोरक्षनाथ दत्त बालकनाथ (लक्ष्मण) का है अतएव नटेश्वारी पंथ के उत्तर मे आचार्य बालकनाथ है। यहाँ से अनेको राजा-महाराजा महायोगेश्वणर गुरू गोरक्षनाथ जी से महाज्ञान योगरूपोपदेशामृत ग्रहण कर अजरामर काया सम्पन्न हुए ईश ब्रह्माण्ड में भ्रमण करते हुए सर्वोत्तमानन्द को प्राप्त हुए। यह नटेश्व री पंथ आदिनाथ से सम्बद्ध है बाद में लक्ष्मणनाथ के नाम से भी बोला जाने लगा। नटेश्वोर शिव का नाम होने में प्रमाण-
नृत्तावसाने नटराजराजो, ननाद ढक्कां नवपञ्चवारम्।
उद्धर्त्तुकाम: सनकादिसिद्धान्नैतद्विमर्शे शिवसूत्रजालम्।।

इसमे जो नटराज शिव को कहा है नटराज और नटेश्वणर समानार्थक है। इसमें ‘विमर्शे’ यह छान्दस प्रयोग है जिसका अर्थ ‘विचार कर स्फुटकर्ता हूँ’ है एवं यह नटेश्व’र पंथ भी आवश्यगक है।

   
 
११. सन्तोषनाथ तदुत्तर रामनाथी पन्थ
यह पंथ सन्तोषनाथ-विष्णु की तरह परम बलिष्ट सौम्य सौन्दर्य सम्पन्न शान्तदान्त स्वभाव वाला होना शिक्षित करता है और एकात्मभावुक होना करता है तथा राम की तरह सत्यप्रतिज्ञ वाला होने से अखिल असाध्य कार्यों को भी करने की शक्ति सम्पन्न ‍हो जाता है। ऐसा होने से उपदेष्टा होने के नाते यह पन्थ भी आवश्ययक है।

   
 
१२. रावण या रावल पन्थ
कहता है कि शिवकृपा और शिव योगसिद्ध होने से रावण वत्, अतुल्य तपयोग सिद्ध श्रद्धा विश्वा स से योगी पराक्रम युक्त ‍हो जाता है अत: बलार्थ यह पन्थ भी आवश्यतक है।

   
 
१३. ध्वज पन्थ
यह कहता है कि सर्वोपरि ध्वज की तरह लहराने के लिये हनुमान ही तरह यत सत्य (जत-सत) युक्त तथा भक्ति-श्रद्धा सम्पन्न होने पर योगी, वीर बंकनाथवत् बलिष्ट होता है। यह पन्थ सर्वप्रथम शंकर आदिनाथ की ध्वजा के नाम से तटुत्तर हनुमान (वीर बंकनाथ) नाम से प्रसिद्ध है। सर्वोपरि सूचक होने से यह भी पन्थ आवश्यनक है। इस प्रकार ये द्वादश पन्थ सार्थक है साधक अपनी अपनी सुगमता को देखता हुआ कोई एक पन्थ की काई दो पन्थ की, कोई तीन पन्थ की, कोई कितने पन्थों की साधना को साधता हुआ योगी स्वात्मात्मक स्वसंवेद्य लक्ष्य मे विलय हो जाता है इति संक्षेप।

   
 
॥ आदेश आदेश ॥

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