Monday 23 June 2014

नेति-धौति

छ: कर्मो को शरीर-शोधन के लिए नामांकित किया गया है। धौति, वस्ति, नेति, नौलि, त्राटक् और कपालभाति।
1. धौति – धौति तीन प्रकार की होति है – वारिधौति, ब्रह्मदातौन और वासधौति।
 
 
वारि-धौति अर्थात् कॄञ्जर कर्म –
खालि पेट लवण-मिश्रित गुनगुना पानी पीकर छाती हिलाकर वमन की तरह निकाल दिया जाता है। इसको गजकरणी भी कहते है, क्योंकि जैसे हाथी सूंड से जल खींचकर फेंकता है उसी प्रकार इसमे जल पीकर निकाला जाता है। आरम्भ मे पानी का निकालना कठिन होता है। तालु से ऊपर छोटी जिह्वा को सीधे हाथ की दो अंगुलियों से दबाने से पानी निकलने लगता है।

 
 
ब्रह्मदातौन –
सुत की बनी हुई बारीक रस्सी के टुकड़े को अथवा रबर की ट्यूब को लवण ‍मिश्रित गुनगुने पानी को खाली पेट पीने के पश्चासत् बिना दांत लगाये गले से दूध के घूंट के सदृश निगला जाता है, फिर छाती हिलाकर उसको निकाल सारे पानी को वमन के सदृश निकाल दिया जाता है।

 
 
वास-धौति (वस्त्र-धौति) –
धौति लगभग चार अंगुल चौड़ी, लगभग पंद्रह हाथ लंबी, बारीक मलमल जैसे कपडे की होति है। खाली पेट पानी अथवा आरम्भ मे दूध मे भीगी हुई धौति के एक सिरे को अंगुली से हलक मे ले जाकर बिना दांत लगाये शनै:-शनै: दूध के घूंट के सदृश निगला जाता है। आरम्भ मे निगलना कठिन होता है और उल्टी अती है, इसलिए उक घूंट गुनगुने पानी के साथ निगली जाती है। प्रथम दिन एक साथ नहीं निगली जा सकती है। शनै:-शनै: अभ्यास बढाया जाता है। सब धौति निगलने के पश्चांत् कुछ अंश मुंह के बाहर रखना पडता है। इसके बाद नौली को चालन करके धौति तथा सब पिये हुए पानी को अमन के सदृश निकाल दिया जाता है। इन क्रियाओं से कफ और पित्त रोग दूर होकर शरीर शुद्ध और हलका हो जाता है, और मन सुगमता से एकाग्र होने लगता है। घेरण्ड-संतिता मे धौतिकर्म के चार निम्न भेद बतलाये है – (क) अन्तधौति (ख) दन्त-धौति (ग) हृद्धौति (घ) मूलशोधन

 
 
(क) अन्तधौति –
इसके भी चार भेद बतलाये है –

वातसार
वारिंसार
वह्निसार
बहिष्कृत
वातासर अन्तधौति –
मुख को कोए ‍की चोंच के समान करके अर्थात् दोनों ‍होठों ‍को सिकोडकर धीरे-धीरे वायु का पान करें। यहां तक कि पेट मे वायु पूर्णतया भर जाये फिर वायु को पेट के अंदर चारों ओर संचलित करके धीरे-धीरे नासिकापुट के द्वारा निकाल दे। इसे काकी-मुद्रा और काक-प्राणायाम भी कहते है।
फल – ह्रदय, पेट और कण्ठ की व्याधियों का दूर होना, शरीर का शुद्ध और निर्मल होना, क्षुधा की वृद्धि, मन्दाग्नि का नाश, फेंफड़ों का विकास कण्ठ मे सुरीलापन होना। वीर्य के लिए भी लाभदायक बताया गया है।
वारिंसार अन्तधौति –
इसमे मुख द्वारा धीरे-धीरे जल पी कर कण्ठ तक भर लिया जाता है। फिर उदर मे चारों ओर संचलित करके गुदामार्ग द्वारा बाहर निकाल दिया जाता है।
फल - देह का ‍निर्मल होना, कोष्ठबद्धता, तथा पेट के आमादि सब रोगों का दूर होना, शरीर का युद्ध होकर कांतिमान होना बतलाया गया है।

इस क्रिया को शंख-प्रक्षालन भी कहते है। क्योंकि शंख के चक्राकारमार्ग मे पानी डालने से घूमता हुआ जल जिस प्रकार बाहर आ जाता है उसी प्रकार से मुख से जल पीने पर कुछ समय पश्चा त् मल को साथ लेकर अंतडियों को शुद्ध करता हुआ गुदा द्वार से बाहर आ जाता है।
बह्निसार अन्तधौति –
नाभि की गांठ को मेरूपृष्ठ में सौ बार लगायें, अर्थात् उदर को इस प्रकार बार-बार फुलावें-सिकोड़े कि नाभि ग्रन्थि पीठ मे लग जाया करे। इससे उदर के समस्त रोग नष्ट होते ‍है और जठराग्नि प्रदीप्त होती है।
बहिष्कृत अन्तधौति –
कौए की चोंच के सदृश मुख बनाकर इतनी मात्रा मे वायु का पान करे कि पेट भर जाय, फिर उस वायु ‍को डेढ़ घंटे तक (अथवा यथाशक्ति) पेट मे धारण किये रहे। तत्पश्चा त् गुदामार्ग द्वारा बाहर निकाल देना बतलाया गया है। जब तक आधे पहर तक वायु को रोकने का अभ्यास न ‍हो जाये, तब तक इस क्रिया को करने का यत्न न करें, अन्यथा वायु के कुपित होने का भय है।
फल – इससे सब ना‍डियां शुद्ध होति है। जैसी यह क्रिया कठिन है वैसे ही इसका लाभ अकथ्य तथा अगम्य बतलाया गया है।

 
 
(ख) दन्त-धौति –
यह भी चार प्रकार ‍की होती है –
दन्तमूल
जिह्वामूल
कर्णरन्ध्र
कपालरन्ध्र
दन्तमूल धौति –
खैर का रस सूखी मिट्टी अथवा अन्य किसी ओषधि-विशेष से दांतों की जड़ों को अच्छी प्रकार साफ करें।
जिह्वामूल-धौति –
तर्जनी, मध्यमा और अनामिका अंगुलियों को गलें के भीतर डालकर जीभ को जड़ तक बार-बार घिसे। इस प्रकार ‍धीरे-धीरे कफ के दोष को बाहर निकाल दें।
कर्णरन्ध्र-धौति –
तर्जनी और अनामिका अंगुलियों के योग से दोनो कानो के छिद्रों को साफ करें, इससे एक प्रकार का नाद प्रकट होना बतलाया गया है।
कपालरन्ध्र-धौति –
निद्रा से उठने पर, भोजन के अन्त में और सूर्य के अस्त होने पर सिर के गढ़े को दाहिने हाथ के अंगूठे द्वारा प्रतिदिन जल से साफ करें। इससे नाडियां स्वच्छ हो जाति है और दृष्टि दिव्य होती है।

 
 
(ग) हृद्धौति –
इसके तीन भेद है –

दण्ड-धौति
वमन-धौति
वास-धौति
दण्ड-धौति –
केलेंडर के दण्ड, हल्दी के दण्ड, चिकने बेंत के दण्ड अथवा वट वृक्ष की जटा-डाढि को धीरे-धीरे ह्रदयस्थल में प्रविष्ट कर दें, फिर ह्रदय के चारों ओर घुमाकर युक्ति पूर्वक बारि निकाल दे। इससे पित्त, कफ, अकुलाहट आदि विकारी मल बाहर निकल जातें हैं और ह्रदय के सारे रोग नष्ट हो जाते है। इसको भोजन के पूर्व करना चाहिये।
वमन-धौति –
भोन करने के पश्चारत् कण्ठ तक पानी पी कर भर लें और थोडी देर तक उपर की ओर लेकर उस पानी को मुख द्वारा बाहर निकाल दें। पानी कण्ठ के अंदर न जाने पावें। इससे कफ-दोष और पित्त-दोष दूर होते है।
वास-धौति (वस्त्र-धौति) –
लबभब छ: अंगुल चौडा और लगभग अठारहा हाथ का बारीक वस्त्र किंचित् उष्ण (गर्म) जल से भिगोकर गुरू के बताये हुए क्रम से पहिले दिन एक हाथ, दूसरे दिन दो ‍हाथ, तीसरे दिन तीन हाथ अथवा इससे न्यूनाधिक युक्ति पूर्वक अंदर ले जाय, फिर धीरे-धीरे ही बाहर निकाल दे। इसको भोजन के पहिले करना चाहिये। इससे गुल्म, ज्वर, पील्हा, कुष्ठ एवं कफ-पित्त आदि अन्य विकार नष्ट होते है।

 
 
(घ) मूलशोधन (गणेश-क्रिया) –
कच्ची मूली की जड़ से अथवा तर्जनी अंगुली से यन्त्रपूर्वक सावधानी से बार-बार जल द्वारा गुदामार्ग को साफ करें। इसके पश्चा त् घृत या मक्खन उस स्थान पर लगाना अधिक लाभदायक है। इससे उदर रोग का काठिन्य दूर ‍होता है। आजनित एवं अजीर्णजनित रोग उत्पन्न नही होते और शरीर की पुष्टि और कान्ति की वृद्धि होती है। यह जठराग्नि को प्रदीप्त करती है। इससे सब प्रकार के अर्श-रोग तथा वीर्यदोष भी दूर होते है।

 
 
2. वस्ति –
वस्ति मूलाधार के समीप है। इसके साफ करने के कर्म को वस्ति कर्म कहते है। एक चिकनी नली ‍को गुदा में ले जाकर नौलि-कर्म की सहायता से गुदामार्ग द्वारा वस्ति मे जल चढाया और निकाला जाता है। साधारण तया इस क्रिया का कठिन है। उसके स्थान पर एनिमा से काम लिया जा सकता है। इससे आंतों का मल जल के साथ मिकर पतला हो जाता है और शीघ्रतापूर्वक बाहर निकल जाता है।

 



 
॥ आदेश आदेश ॥

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