'योग’ शब्द ‘युज समाधौ’ धातु से बनता है। इसका अर्थ है समाधि।
योग क्या है ?
आदिनाथ सदाशिव गोरक्षनाथयोगा अंगों का अभ्यास करते हुए चित्तवृत्ति-निरोधपूर्वक असम्प्रज्ञात समाधि भूमिका में पहुंचकर अपने चैतन्य-स्वरूप या ब्रह्मस्वरूप में स्थित हो जाना ही योग है।
अनेको व्यक्ति ध्यान करने और समाधि लगाने की चेष्टा करते है, परंतु उन्हे सफलता नही मिलती। इसका कारण यह है कि समाधि की सिद्धि के लिए यम-नियमों के पालन की विशेष आवश्यकता है। यम-नियमों के पालन किये बिना ध्यान और समाधि सिद्ध होना अत्यन्त कठिन है। झूठ, कपट, चोरी, व्याभिचार आदि दुराचार की वृत्तियों के नष्ट हुए बिना चित्त का एकाग्र होना कठिन है और चित्त एकाग्र हुए बिना ध्यान और समाधि नही हो सकते। यों तो समाधि की इच्छावाले पुरूषों को योग के आठों ही अंङगों का साधन करना चाहिये, किन्तु यम और नियमों का पालन तो अवश्यमेव करना चाहिये।
जैसे नींव के बिना मकान नही ठहर सकता, ऐसे ही यम-नियमों के पालन किए बिना ध्यान और समाधि सिद्ध होना असम्भव सा है। यम-नियमों में भी जो पुरूष यमों का पालन न करके केवल नियमों का पालन करना चाहता है, उससे नियमों का पालन भी अच्छी प्रकार नही हो सकता।
बुहद्धि।मान् पूरूष नित्य-निरन्तर यमों का पालन करता हुआ ही नियमों का पालन करे, केवल नियमों का नही। जो यमों का पालन न करके, केवल नियमों का करता है। वह साधन पथ से गिर जाता है। इनके पालन से चोरी, जारी, झूठ, कपट, आदि दूराचारों का और काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि दुर्गुणों का नाश होकर, अन्त:करण की पवित्रता होती है और उसमें उत्तम गुणों का समावेश होकर इष्टदेवता के दर्शन एवं आत्मा का साक्षात्कार भी जो साधक चाहता है वही हो सकता है। परंतु यम-नियमों के पालन किये बिना ध्यान और समाधि की बात तो दूर रही अच्छी प्रकार से प्राणायाम होना भी कठिन है।
ध्यान और समाधि की इच्छा करने वाले साधकों को दोषों का नाश करने के लिए प्रथम यम-नियमों कर पालन करके ही योग के अन्य अंङ्गों का अनुष्ठान करना चाहिये। जो पुरूष योग के आठों अंङ्गों का अच्छी प्रकार से साधन कर लेता है, उसका अन्त:करण पवित्र होने पर ज्ञान की अपार दीप्ति हो जाती है। जिससे उसको इच्छानुसार सिद्धियां प्राप्त हो सकती है और सिद्धियां न चाहने वाला पुरूष तो क्लेश और कर्मों से छूटकर आत्मसाक्षात्कार प्राप्त कर सकता है।
योग के अंङ्ग
योग के आठ अंङ्ग है - यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि
यम
नियम
आसन
प्राणायाम
प्रत्याहार
धारणा
ध्यान
समाधि
१ – यम
‘अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह – इन पांचों का नाम यम है।‘
किसी भूत-प्राणी को या अपने को भी मन, वाणी, शरीर द्वारा कभी किसी प्रकार, किञ्चन्मात्र भी कष्ट न पहुंचाने का नाम अहिंसा है।
अन्त:करण और इन्द्रियों द्वारा जैसा निश्चहय किया हो, हित की भावना से, कपटरहित प्रिय शब्दों में वैसा का वैसा ही प्रकट करने का नाम सत्य है।
मन, वाणी, शरीर द्वारा किसी प्रकार के भी किसी के भी स्वत्व (हक) को न चुराना, न लेना और न छीनना अस्तेय है।
मन, इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने वाले काम विकार के सर्वथा अभाव का नाम ब्रह्मचर्य है।
शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध आदि किसी भी भोग सामग्री का संग्रह न करना अपरिग्रह है।
इन पांचों यमों का सब जाति, सब देश, और सब काल मे पालन होने से एवं किसी भी निमित्त से इनके विपरीत हिंसादि दोषों के न घटने से इनकी संज्ञा ‘महाव्रत’ या ‘सार्वभौम’ हो जाती है।
किसी देश अथवा काल में, किसी जीव के साथ, किसी भी निमित्त से, हिंसा, असत्य, चोरी, व्याभिचार आदि का आचरण न करना तथा परिग्रह आदि न रखना ‘सार्वभौम महाव्रत’ है।
२ - नियम
‘पवित्रता, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वसर-प्राणिधान – ये पांच नियम है।‘
पवित्रता दो प्रकार की होती है – (१) बाहरी और (२) भीतरी। जल-मिट्टी से शरीर की, स्वार्थ त्याग से व्यवहार और आचरण की तथा न्यायोपार्जित द्रवय से प्राप्त सात्त्विक पदार्थों के पवित्रतापूर्वक सेवन से आहार की, यह बाहरी पवित्रता है। अहंता, ममता, राग-द्वेश, ईर्ष्या, भय और काम-क्रोधादि भीतरी दुर्गुणों के त्याग से भीतरी पवित्रता होती है।
सुख-दु:ख, लाभ-हानि, यश-अपयश, सिद्धि-असिद्धि, अनुकूलता-प्रतिकूलता आदि के प्राप्त होने पर सदा-सर्वदा संतुष्ट – प्रसन्नचित्तरहने का नाम संतोष है।
मन और इन्द्रियों के संयमरूप धर्म-पालन करने के लिए कष्ट सहने का और तितिक्षा एवं व्रतादि का नाम तप है।
कल्याण प्रद शास्त्रों का अध्ययन और इष्ट देव के नाम का जप तथा स्तोत्रादि पठन-पाठन एवं गुणानुवाद करने का नाम स्वाध्याय है।
ईश्वार की भक्ति अर्थात् मन-वाणी और शरीर द्वारा ईश्व र के लिए, ईश्वअर के अनुकूल ही चेष्टा करने का नाम ईश्वरर-प्रणिधान है।
३ - आसन
‘सुखपूर्वक स्थिरता से बहुत काल तक बैठने का नाम आसन है।‘
आसन अनेको प्रकार के होते है। अनमे से आत्मसंयम चाहने वाले पुरूष के लिए सिद्धासन, पद्मासन, और स्वास्तिकासन – ये तीन उपयोगी माने गये है। इनमे से कोई सा भी आसन हो, परंतु मेरूदण्ड, मस्तक और ग्रीवा को सीधा अवश्ये रखना चाहिये और दृष्टि नासिकाग्र पर अथवा भृकुटी में रखनी चाहिये। आलस्य न सतावे तो आंखे मुंद कर भी बैठ सकते है। जिस आसन से जो पुरूष सुखपूर्वक दीर्घकाल तक बैठ सके, वही उसके लिए उत्तम आसन है।
शरीर की स्वाभाविक चेष्टा के शिथिल करने पर अर्थात् इनसे उपराम होने पर अथवा अनन्त परमात्मा में मन के तन्मय होने पर आसन की सिद्धि होती है। कम से कम एक पहर यानी तीन घंटे तक एक आसन से सुखपूर्वक स्थिर और अचल भाव से बैठने को आसनासिद्धि कहते है।
४ - प्राणायाम
आसन सिद्ध हो जाने पर श्वास और प्रश्वास की गति के अवरोध हो जाने का नाम प्राणायाम है। बाहरी वायु का भीतर प्रवेश करना श्वास है और भीतर की वायु का बाहर निकलना प्रश्वास है, इन दोनो के रूकने का नाम प्रणायाम है।
देश काल और संख्या (मात्रा) के सम्बन्ध से बाह्य, आभ्यन्तर, और स्तम्भवृत्ति वाले – ये तीनो प्राणायाम दीर्घ और सूक्ष्म होते है।
भीतर के श्वास को बाहर निकाल कर बाहर ही रोक रखना ‘बाह्यकुम्भक’ कहलाता है। इसकी विधि यह है कि आठ प्रणव (ॐ) से रेचक करके, सोलह से बाह्य कुम्भक करना और फिर चार से पूरक करना – इस पफकार से रेचक-पूरक के सहित बाहर कुम्भक करने का नाम बाह्यवृत्ति-प्राणायाम है।
बाहर के श्वास को भीतर खींचकर भीतर रोकने को ‘आभ्यन्तर कुम्भक कहते है। इसकी विधि यह है कि चार प्रणव से पूरक करके सोलह से आभ्यान्तर कुम्भक करें, फिर आठ से रेचक करे। इस प्रकार पूरक-रेचक के सहित भीतर कुम्भक करने का नाम आभ्यन्तरवृत्ति-प्रणायाम है।
बाहर या भीतर जहां कहीं भी सुखपूर्वक प्रणों के रोकन का नाम स्तम्भवृत्ति-प्रणायाम है। अथवा चार प्रणव से पूरका करके आठ से रेचक करे, इस प्रकार पूरक-रेचक करते-करते सुखपूर्वक़ जहां कहीं प्रणों को रोकने का नाम स्तम्भवृत्ति-प्रणायाम है।
५ – प्रत्याहार और उसका फल
अपने-अपने विषयों के संग से रहित होने पर, इन्द्रियों का चित्त के-से रूप मे अवस्थित हो जाना ‘प्रत्याहार’ है।
प्रत्याहार के सिद्ध होने पर प्रत्याहार के समय साधक को बाह्यज्ञान नही रहता। व्यवहार के समय बाह्यज्ञान होता है। क्योंकि व्यवहार के समय साधक शरीर यात्रा के हेतु से प्रत्याहार को काम में नही लाता।
प्रत्याहार से इन्द्रियां अत्यन्त वश मे हो जाती है, अर्थात् इन्द्रियों पर पूर्ण अधिकार प्राप्त हो जाता है।
६ – धारणा
अधारणा से ध्यान और समाधि होती है। यह योग का छठा अंग है।
चित्त को किसी एक देश विशेष में स्थिर करने का नाम धारणा है। अर्थात् स्थूल-सूक्ष्म या बाह्य-आभ्यन्तर, किसी एक ध्येय को स्थान मे चित्त को बांध देना, स्थिर कर देना अर्थात् लगा देना ‘धारणा’ कहलाता है।
७ – ध्यान
उस पूर्वोत्त्क ध्येय वस्तु में चित्तवृत्ति की एकतानता का नाम ध्यान है।
अर्थात् चित्तवृत्ति का गंगा के प्रवाह की भांति या तैलधारावत् अविच्छिन्न रूप से निरन्तर ध्येय वस्तु मे ही अनवरत लगा रहना
‘ध्यान’ कहलाता है।
८ – समाधि
वह ध्यान ही ‘समाधि’ हो जाता है, जिस समय केवल ध्येय रूप का (ही) भान होता है और अपने स्वरूप के भान का अभाव-सा रहता है। ध्यान करते-करते जब योगी का चित्त ध्येयाकार को प्राप्त हो जाता है और वह स्वयं भी ध्येय में तन्मय सा बन जाता है, ध्येय से भिन्न अपने आप का ज्ञान उसे नही सा रह जाता है, उस स्थिति का नाम समाधि है। ध्यान मे ध्याता, ध्यान, ध्येय या त्रिपुटी रहती है। समाधि मे केवल अर्थमात्र वस्तु यानी ध्येय वस्तु ही रहती है, अर्थात् ध्याता, ध्यान, ध्येय – इन तीनों की एकता सी हो जाती है।
ऐसी समाधि जब स्थूल पदार्थ मे हाती है, तब उसे ‘निर्वितर्क’ कहते है और सूक्ष्म पदार्थ मे होती है तब उसे निर्विचार कहते है।
योग के आठ अंङ्ग है - यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि
इन आठों अंङ्गों की दो भूमिकाएं है – (१) बहिरंग (२) अंतरंग
(१) बहिरंग ऊपर बतलाये हुए आठ अंगों मे से पहले पांच को बहिरंग कहते है, क्योंकि उनका विशेषतया बाहर की क्रियाओं से ही सम्बन्ध है।
(२) अंतरंग ऊपर बतलाये हुए आठ अंगों मे से धारण, ध्यान और समाधि अंतरंग है। इनका सम्बन्ध केवल अन्त:करण से होने के कारण इनको अंतरंग कहते है।
॥ आदेश आदेश ॥