बस्ती न सुन्यं सुन्यं न बस्ती अगम अगोचर ऐसा। गगन सिषर मंहि बालक बोलै ताका नांव धरहुगे कैसा॥१॥ हसिबा षेलिवा रहिबा रंग। कांम क्रोध न करिबा संग। हसिबा षेलिबा गाइबा गीत। दिढ़ करि राषि आपनं चीत।७। हसिबा षेलिवा धरिबा ध्यान। अहनिसि कथिबा ब्रह्म गियांन। हसै षेलै न करै मन भंग। ते निहचल सदा नाथ के संग।८। घन जोवन की करै न आस चित्त न राखै कांमनि पास। नादबिंद जाकै घटि जरै ताकी सेवा पारबती करै।१९। बालै जोबनि जे नर जती काल दुकालां ते नर सती । फुरतैं भोजन अलप अहारी नाथ कहै सो काया हमारी।२०। पंथ बिन चलिबा अगनि बिन जलिबा अनिल तृषा जहटिया। ससंबेद श्रीगोरख कहिया बूझिल्यौ पंडित पढ़िया।२२। गगन मँडल में ऊंधाकूबा तहां अंमृत का बासा। सगुरा होइ सु भरि-भरि पीवै निगुरा जाइ पियासा॥२३॥ मरौ वे जोगी मरौ मरण है मीठा। तिस मरणीं मरौ जिस मरणीं गोरष मरि दीठा॥२६॥ हबकि न बोलिबा ठबकि न चालिबा धीरैं धारिबा पावं। गरब न करिबा सहजैं रहिबा भणत गोरष रावं॥२७॥ थोड़ा बोलै थोड़ षाइ तिस घटि पवनां रहै समाइ। गगन मंडल से अनहद बाजै प्यंड पड़ै तो सतगुर लाजै॥३२॥ देव कला ते संजम रहिबा भूत कला अहारं। मन पवना लै उनमनि धरिबां ते जोगी तत सारं॥३४॥ अति अहार यंद्री बल करै नासै ग्यांन मैथुन चित धरै। व्यापै न्यंद्रा झंपै काल ताके हिरदै सदा जंजाल॥३६॥ घटि घटि गोरख बाही क्यारी। जो निपजै सो होई हमारी। घटि घटि गोरष कहै कहांणीं। काचै भांडै रहे न पांणी॥३७॥ घटि घटि गोरष फिरै निरुता। को घट जागे को घट सूता। घटि घटि गोरष घटि घटि मींन। आपा परचै गुर मुषि चींन्ह॥३८॥ मन मैं रहिणा भेद न कहिणां बोलिबा अंमृत बाणीं। आगिला अगनी होइबा अवधू तौ आपण होइबा पांणीं॥६३॥ गोरष कहै सुणहुरे अवधू जग मैं ऐसैं रहणां। आंषैं देषिबा कांनैं सुणिबा मुष थैं कछू न कहणां॥७२॥ अहार न्यंद्रा बैरी काल कैसे कर रखिबा गुरूका भंदार। अहारतोड़ो निंद्रा मोड़ौ सिव सकती लै करि जोड़ौ॥८४॥ जोगी सो जे मन जोगवै बिलाइत राज भोगवै। कनक कांमनी त्यागें दोइ सो जोगेस्वर निरभै होइ॥१०२॥ कहणि सुहेली रहणि दुहेली कहणि रहणि बिन थोथी। पढ्या गुंण्या सूबा बिलाइ षाया पंडित के हाथि रह गई पोथी॥११९॥ कहणि सुहेली रहणि दुहेली बिन षांया गुड़ मींठा। खाइ हींग कपूर बषांणै गोरष कहै सब झूठा॥१२०॥ भरि भरि षाइ ढरि ढरि जाइ। जोग नहीं पूता बड़ी बलाइ। संजम होइ बाइ संग्रहौ। इस बिधि अकल षुरिस कौ गहौ॥१४५॥ षांये भी मरिये अणषांये भी मरिये। गोरष कहैं पूता संजमि ही तरिये। मघि निरंतर कीजै बास। निहचल मनुवा थिर होई सांस॥१४६॥ पवन हीं जोग पवन हीं भोग। पवन हीं हरै छतीसौ रोग। या पवन कोई जांणै भेव। सो आपै करता आपैं देव॥१४७॥ ब्यंद ही जोग ब्यंद ही भोग। ब्यंद हीं हरै चौसठि रोग। या बिंद का कोई जांणै भेव। सो आपै करता आपैं देव॥१४८॥ साच का सबद सोना का रेख। निगुरां कौंचाणक सगुरा कौं उपदेस। गुर क मुंड्या गुंन मैं रहै। निगुरा भ्रमै औगुण गहै॥१४९॥ गुरु की बाचा षोजैं नाहीं अहंकारी अहंकार करै। षोजी जीवैं षोजि गुरू कौं अहंकारीं का प्यंड परै॥१५१॥ स्वामी काची वाई काचा जिंद। काची काया काचा बिंद। क्यूं करि पाकै क्यूं करि सीझै। काची अगनी नीर न षीजै॥१५६॥ तौ देबी पाकी बाई पाका जिंद। पाकी काया पाका बिंद। ब्रह्म अगनि अषंडित बलै। पाका अगनी नीर परजलै॥१५७॥ ऊरम धूरम ज्वाला जोति। सुरजि कला न छीपै छोति। कंचन कवल किरणि परसाइ। जल मल दुरगंध सर्ब सुषाइ॥१६९॥ रूसता रूठ गोला-रोगी। भोला भछिक भूषा भोगी। गोरष कहै सरबटा जोगी। यतनां मैं नहीं निपजै जोगी॥२१४॥ जिभ्या इन्द्री एकैं नाल। जो राषै सो बंचै काल। पंडित ग्यांनी न करसि गरब। जिभ्या जीती जिन जीत्या सरब॥२१९॥ जोगी सो जो राषैं जोग। जिभ्या यंद्री न करै भोग। अंजन छोड़ि निरंजन रहै। ताकू गोरष जोगी कहै॥२३०॥ सुंनि ज माई सुंनि ज बाप। सुंनि निरंजन आपै आप। सुंनि कै परचै भया सथीर। निहचल जोगी गहर गंभीर॥२३१॥ पढ़ि पढ़ि पढ़ि केता मुवा कथिकथिकथि कहा कीन्ह। बढ़ि बढ़ि बढ़ि बहु धट गया पारब्रह्म नहीं चीन्ह॥ २४८॥ सबद हमारा खरतर खाण्डा रहणि हमारी साची । लेखै लिखी न कागद माडी सो पत्री हम बाची॥ शब्दि॥ २६४॥ कथणी कथै सों सिष बोलिये वेद पढ़ै सो नाती। रहणी रहै सो गुरू हमारा हम रहता का साथी॥२७०॥ दरसण माई दरसण बाप। दरसण माहीं आपै आप। या दरसण का कोई जाणै भेव। सो आपै करता आपै देव॥२७२॥
No comments:
Post a Comment